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लड़कियां मां या सास की ग़ुलाम नहीं, केरल हाई कोर्ट की इस टिप्पणी के मायने क्या हैं?

फैमिली कोर्ट ने अपने आदेश में पत्नी को इस मुद्दे पर उसकी मां और सास की बात सुनने के लिए कहा था। इस पर जस्टिस रामचंद्रन ने आपत्ति जताते हुए कहा कि महिला के पास अपना दिमाग है।
kerala high court

तलाक के एक मामले को लेकर केरल हाई कोर्ट की एक अहम टिप्पणी सामने आई है जो पितृसत्ता की कड़ी आलोचना करती है। इस मामले में उच्च न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के आदेशों की मौखिक आलोचना करते हुए कहा कि किसी महिला के फैसले को उसकी मां या उसकी सास के फैसले से कमतर नहीं माना जा सकता। अदालत ने ये भी स्पष्ट किया कि महिला के पास अपना खुद का दिमाग है।

बता दें कि ये पूरा मामला एक दंपति के तलाक से जुड़ा हुआ है। जिसकी सुनवाई कोट्टाराकारा के फैमली कोर्ट में जारी थी। लेकिन महिला को अपने बच्चे के साथ रोजगार के लिए माहे जाना पड़ा। और अब क्योंकि महिला के लिए तलाक की कार्यवाही में भाग लेने के लिए कोट्टाराकारा की यात्रा मुश्किल हो गई। इसलिए उसने हाईकोर्ट से तलाक की कार्यवाही को थालास्सेरी की एक फैमिली कोर्ट में ट्रांसफर करने का आग्रह किया जो माहे के करीब है।

'महिला के पास अपना खुद का दिमाग है'

महिला के पति ने इस ट्रांसफर याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि उनकी मां मामले के लिए थालास्सेरी की यात्रा नहीं कर सकतीं क्योंकि वो 65 वर्ष की हैं। इसके अलावा पति के वकील का कहना था कि फैमिली कोर्ट ने अपने आदेश में पत्नी को इस मुद्दे पर उसकी मां और सास की बात सुनने के लिए कहा था। इस पर जस्टिस रामचंद्रन ने एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि

महिलाएं अपनी मां या सास की गुलाम नहीं हैं।

अदालत ने कहा, “महिला के पास अपना खुद का दिमाग है। क्या आप उसे बांधेंगे और मध्यस्थता के लिए दबाव डालेंगे? यही कारण है कि वो आपको छोड़ने के लिए मजबूर हुई। अच्छा व्यवहार करो, एक इंसान बनो।”

इसके बाद पति के वकील ने कहा कि मौजूदा विवाद आसानी से हल किए जा सकते हैं और इन्हें अदालत के बाहर भी सुलझाया जा सकता है। इस दलील पर जज ने आपत्ति जताते हुए कहा कि अदालत बाहर समझौते का निर्देश केवल तभी दे सकती है जब महिला भी ऐसा करने को तैयार हो। इसके साथ ही हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आ देश को मौखिक रूप से समस्याग्रस्त और पितृसत्तात्मक बताया।

'फैमिली कोर्ट का आदेश समस्याग्रस्त और पितृसत्तात्मक'

दरअसल त्रिशूर अदालत द्वारा महिला की पहली तलाक की याचिका खारिज हो गई थी और अब कोट्टाराकारा में दूसरी तलाक की याचिका लंबित है। महिला की पहली तलाक की याचिका खारिज करते हुए अदालत ने कहा था कि उसकी शिकायतें सामान्य मतभेद का हिस्सा हैं। फैमिली कोर्ट ने पति-पत्नी को सलाह दी थी कि वे अपने मतभेदों को भुलाकर विवाहित जीवन की पवित्रता का बरकरार रखें। उच्च न्यायालय ने इसी को लेकर सख्त टिप्पणियां की।

गौरतलब है कि पितृसत्तात्मक समाज में एक महिला को तमाम तरह के बंधनों में बांध कर अपनी इच्छा के विरुद्ध रहने और जीने के लिए मजबूर किया जाता है। इसमें बहुत हद तक एक मां और सास की सीधी भूमिका होती है। मां जहां बचपन से बेटी को सहने का पाठ पढ़ाती है। वहीं सास उसे कंट्रोल में रखने के लिए हर प्रयास करती नज़र आती है। पितृसत्ता का पालन-पोषण ही महिला के जरिए उन्हें उनके खिलाफ ही खड़ा करने के लिए होता है।

परवरिश और संस्कारों का असर

हमें शुरू से ऐसी परवरिश दी जाती है जिसमें लड़कियों को बचपन से ही पढ़ने-लिखने या नौकरी करने की बजाय घर संभालने के काम सिखाने पर ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है। उसे अपनी इच्छाओं को मार कर परिवार के लिए जीने और त्याग करने के संस्कार दिए जाते हैं। इसी का परिणाम है कि जब विवाहित कामकाजी महिला पर परिवार नौकरी छोड़ने के लिए दबाव बनाता है तो महिला परिवार और नौकरी के सामने अपने परिवार को चुनना पसंद करती है। जिसे गर्व के तौर पर अधिकतर महिलाएं प्रदर्शित कर कहती हैं कि नौकरी के चलते कोई अपने परिवार की बलि थोड़े देगा। क्योंकि परिवार ही तो असली धन है उसी के साथ तो पूरी ज़िंदगी गुज़ारनी है।

इसमें कोई दो राह नहीं कि महिलाएं कई संघर्षों के बाद जैसे-तैसे पढ़-लिखकर नौकरी तक तो पहुंच पाती है लेकिन परिवार और नौकरी को साथ लेकर चलने में कई बार वो इतनी कमजोर पड़ने लगती है कि उन्हें अपनी नौकरी छोड़नी पड़ जाती है। ये अक्सर देखा जाता है कि नौकरीपेशा महिलाओं के ऊपर काम के साथ-साथ अपने परिवार और बच्चों का भार भी बना रहता है।

परिवार द्वारा महिलाओं पर हर वक्त अच्छी औरत, अच्छी पत्नी और अच्छी मां बनने का दबाव बनाया जाता है। परिवार उनसे लगातार रसोई से लेकर कमाई तक बेहतर करने की उम्मीद करता है जिस कशमकश में महिलाएं अक्सर हार जाती हैँ। घर पर महिलाओं को पूरा सहयोग नहीं मिल पाता जिसके चलते वो दफ्तर के काम पर भी पूरा फोकस नहीं कर पातीं। अंत में थक कर नौकरी या परिवार किसी एक को छोड़ने के लिए मजबूर हो जाती हैं। और उनके इस फैसले को भी समाज के कई तरीकों से जज किया जाता है। उन्हें अच्छी और बुरी औरत का टैग मिल जाता है। ऐसे में केरल हाई कोर्ट की टिप्पणियां निश्चित ही समाज को आईना दिखाने वाली हैं।

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