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पूछता है युवा- कहां गई हमारी नौकरी?

अगर काम चाहने वाले शख़्स को काम नहीं मिल रहा है तो सरकार होने या सरकार में रहने का कोई अर्थ नहीं बनता।
पूछता है युवा- कहां गई हमारी नौकरी?

केवल पैसे और पूंजी की नजर से देश को समझने वाले लोग अक्सर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि बिजनेस करना सरकार का काम नहीं है। इन लोगों की कठपुतली बनकर चलने वाली सरकारें भी यही नीति बनाकर चलने लगती हैं कि बिजनेस करना सरकार का काम नहीं है। इसका सबसे बड़ा असर तो यह हुआ है कि भारत में बेरोजगारी की अंधेरी गली में भारत की बहुत बड़ी आबादी तबाह हो रही है।

जिस देश की नौजवानी काम करने की बजाय बेकार रहे, वह प्रधानमंत्री के जन्मदिन का हिस्सा बने तब यह शर्मिंदगी की बात होती लेकिन अपने जीवन के साथ हो रहे इस नाइंसाफी के खिलाफ भारत के बेरोजगारों ने प्रधानमंत्री के जन्मदिन के अवसर को बेरोजगारी दिवस के तौर पर बदल दिया है।

सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए ये लोग सरकार से पूछ रहे हैं कि हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का वादा कहां गया? नौकरी देने की बजाय पिछले 7 सालों में सरकार ने नौकरियों के तकरीबन 15 करोड़ अवसर खत्म कर दिए। ऐसी सरकारी नीतियों का क्या फायदा?

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों के मुताबिक पढ़ लिखकर जिन्होंने ग्रेजुएट की डिग्री हासिल कर ली है, जिनकी उम्र 20 से 24 साल की है, वहां भारत में बेरोजगारी दर सबसे अधिक है। साल 2017 में इस कैटेगरी में तकरीबन 42 फ़ीसदी बेरोजगार थे। साल 2018 में यह आंकड़ा बढ़कर तकरीबन 55 फ़ीसदी हो गया। साल 2019 में तो इसमें और अधिक इजाफा हुआ है तकरीबन 63 फ़ीसदी बेरोजगार हैं।

अगर बेरोजगारी दर के हिसाब से देखें तो भी सबसे अधिक बेरोजगारी दर ग्रेजुएट डिग्री हासिल कर लिए लोगों के बीच है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के जून 2019 से लेकर जून 2020 तक के बीच में कराए गए पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे के मुताबिक भारत में ग्रेजुएट डिग्री हासिल करने के बाद वाले लोगों के बीच 17.2 फ़ीसदी की दर से सबसे अधिक बेरोजगारी दर है।

यानी अगर ठीक-ठाक नौकरी पाने की शर्त पढ़ना लिखना है तो पढ़ लिख कर भी सरकारी नीतियों की वजह से नौजवानों की बहुत बड़ी आबादी सड़कों पर भटक रही है। इन्हें नौकरी नहीं मिल रही।

ऐसी बातें सुनने पर आप में से बहुत लोग कहते हैं कि यह लोग काबिल नहीं होते हैं। परीक्षा नहीं पास कर पाते होंगे। इसलिए इन्हें नौकरी नहीं मिलती होगी। लेकिन उनकी समझ गलत है। ऐसा कहते हुए वे गलत जगह उंगली उठा रहे होते हैं। दरअसल हुआ यह है कि सरकार ने नौकरियों का दरवाजा ही बंद कर दिया है। भारत में केंद्र और राज्यों दोनों से मिलने वाली सरकारी नौकरियों को मिला दिया जाए तो कुल नौकरियों में इनकी हिस्सेदारी मुश्किल से 3% को भी पार नहीं करती है। अगर इनके सबके साथ उन प्राइवेट क्षेत्रों को जोड़ दिया जाए जहां पर महीने में सैलरी मिलती है तो कुल नौकरियों में इन सब की हिस्सेदारी महज 6 फ़ीसदी बैठती है। जुलाई में डीए बढ़ने के वक्त बताया गया था कि 40 लाख पदों की तुलना में केंद्रीय कर्मचारियों की तादाद 31.42 लाख है। 2016 के के सरकारी आंकड़े के अनुसार, केवल 11.30 लाख लोग केंद्रीय सरकारी कंपनियों में हैं।

नौकरी लेने के नाम पर इतना छोटा दरवाजा होने के चलते कोचिंग सेंटरों की बाढ़ आई है। बच्चे पैसा फूंकते है। लेकिन हाथ में कुछ भी नहीं आता है। सरकार चुनाव के नाम पर नौकरियों का जुमला फेंकती है लेकिन नौकरी के नाम पर देती कुछ भी नहीं है। साल 2019 के चुनाव के ठीक पहले रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड ने ग्रुप डी के पदों के लिए तकरीबन एक लाख से अधिक नौकरियों की भर्ती निकाली। तकरीबन ढाई करोड़ आवेदन रजिस्टर्ड हुए। लेकिन ढाई साल बीत जाने के बाद भी अब तक इस पद के लिए परीक्षा नहीं लिया गया है।

इस जानकारी के बाद कोई चौंक कर यह पूछ सकता है कि जब महीने में सैलरी पाने वाली नौकरियां केवल 6 फ़ीसदी हैं तो बाकी नौकरियां कहां पर मिलती है? बाकी सारी नौकरियां असंगठित क्षेत्र की हैं। जहां का सबसे बड़ा हिस्सा कृषि और कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में काम करता है।

मसलन, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के चीफ एग्जीक्यूटिव ऑफिसर महेश व्यास रोजगार के मुद्दे पर कई अखबारों और मीडिया में लिखते बोलते रहते है। उनका कहना है कि भारत की कुल आबादी में हाल फिलहाल 40 करोड़ आबादी काम कर रही है। इसी 40 करोड़ आबादी की कमाई पर भारत की शेष आबादी का जीवन टिका हुआ है। इसमें से तकरीबन 15 करोड़ आबादी कृषि क्षेत्र में काम करती हैं। कृषि क्षेत्र में काम करने वाली आबादी ऐसी नहीं है कि सबके पास खेत हो। सभी खेत के मालिक हों। सभी किसान हों। इनमें से कुछ ही लोगों के पास खेत है। बाकी सब खेतिहर मजदूर हैं। जो दूसरे की जमीन पर काम करते हैं। जिन्हें हर रोज काम नहीं मिलता है। तभी काम मिलता है, जब खेत को मजदूरों की जरूरत होती है। कृषि क्षेत्र में कमाई की कहानी यह है कि साल 2019 में  प्रति व्यक्ति प्रतिदिन जी तोड़ मेहनत करने के बाद महज 27 रुपये कमाया। (NSSO के आंकड़े)

समय के साथ रोजगार की संख्या में बढ़ोतरी होनी चाहिए थी। लेकिन आंकड़े कहते हैं कि इसका उलटा हुआ है। आरबीआई की रिपोर्ट बताती है कि साल 1980 से लेकर 1990 तक सालाना रोजगार की वृद्धि दर 2% रही। साल 1990 से लेकर साल 2000 तक सलाना रोजगार की वृद्धि दर घटकर 1.7 फ़ीसदी रही। साल 2000 से लेकर साल 2010 तक रोजगार की वृद्धि दर घटकर 1.3 फ़ीसदी हो गई। साल 2010 से लेकर साल 2020 तक रोजगार की वृद्धि दर में और अधिक कमी आई और यह घटकर 0.2 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है। आजादी के बाद समय के साथ रोजगार की संख्या में बढ़ोतरी होनी चाहिए थी। लेकिन पिछले 40 साल का इतिहास बताता है कि रोजगार बढ़ने की दर बहुत अधिक कम हुई है।

अभी हाल फिलहाल की स्थिति देखें तो सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी के आंकड़ों के मुताबिक जून 2021 में बेरोजगारी दर 9.7 फ़ीसदी थी। जुलाई में इसमें थोड़ा सा सुधार हुआ और यह 6.96 फीसदी पर पहुंच गई। लेकिन फिर से इसमें गिरावट आई। अब अगस्त की बेरोजगारी दर 8.32 फ़ीसदी है। केवल जुलाई से अगस्त महीने के दौरान केवल 1 महीने में तकरीबन 15 लाख से अधिक लोगों ने अपनी नौकरियां गंवा दी है।

इस तरह से देखा जाए तो सरकारी नौकरियों का दरवाजा बंद कर दिया गया है। सरकारी नौकरियों से अलग प्राइवेट क्षेत्र में नौकरी कराने के नाम पर शोषण किया जाता है। कृषि और कंस्ट्रक्शन जैसे क्षेत्र में मजदूरी करके काम करने वाले लोगों की जिंदगी नरक से भी बदतर है। ऐसे में अगर देश के नौजवान मिलकर प्रधानमंत्री के जन्मदिन को बेरोजगार दिवस में बदल दे रहे हैं तो कुछ गलत नहीं कर रहे। सरकार चाहे पूंजीवादी हो या समाजवादी। सरकारी कंपनियां रखकर देश चलाएं या सरकारी कंपनियां बेचकर। सरकार होने के नाते उसकी हर जिम्मेदारी बनती है कि उसके देश में रहने वाला हर एक नागरिक एक अच्छी जिंदगी की चाहत में अगर काम की तलाश करें तो उसे काम मिले। अगर उसे काम नहीं मिल रहा है तो सरकार होने या सरकार में रहने का कोई अर्थ नहीं बनता।

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