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बहस: नुक्कड़ नाटक और उनका एनजीओ करण

शासकवर्गीय संस्कृति की यह एक ऐतिहासिक रणनीति रही है कि वो अपने ख़िलाफ़ आने वाली हर विधा को अपने में समाहित कर लेना चाहती है। नुक्कड़ नाटक के साथ भी ऐसी ही कोशिश  की जा रही है। राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस -12 अप्रैल- के अवसर पर विशेष
नुक्कड़ नाटक।
नुक्कड़ नाटक। तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए।

12 अप्रैल, नुक्कड़ नाटक करते हुए शहीद हुए रंगकर्मी सफ़दर हाशमी का जन्म दिवस है। उनकी हत्या के बाद से उनके जन्मदिवस को 'राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक दिवस' के रूप में मनाया जाता रहा है। बिहार की राजधानी पटना की हृदयस्थली, गांधी मैदान, के उत्तरी-पूर्वी कोने को 'सफ़दर हाशमी रंगभूमि' के नाम से जाना जाता है। हर वर्ष 12 अप्रैल को पटना की विभिन्न रंग संस्थाओं द्वारा नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन किए जाते रहे हैं।

नुक्कड़ नाटक का मतलब लोगों के दु:ख-दर्द को अभिव्यक्त करना

वैसे तो बिहार मे नुक्कड़ नाटक आंदोलन की शुरुआत हुए साढ़े चार दशक से ऊपर बीत चुके हैं इस दौरान नुक्कड नाटक की पहचान  संघर्षशील , लोकतांत्रिक व कुछ-कुछ क्रांतिकारी  विधा के रूप में रही है।

काफी कम समय में नुक्कड़ नाटक करने वाले समूहों व रंगकर्मियों ने जनवादी संगठनों एवं आम लोगों के बीच अपनी खास इमेज बना ली थी। जहां कहीं भी नुक्कड़ नाटक हो रहा होता लोग कहते कि लोगों के दु:ख तकलीफ से जुड़े मुद्दों व समस्याओं पर नाटक हो रहा है। महॅंगाई, बेरोजगारी, फिरकापरस्ती व पूंजीवादी शोषण जैसे मुद्दों के इर्द-गिर्द नाटक होते। 

अमूमन नुक्कड़ नाटक करने वाले लोगों का मुख्य  उद्देश्य  लोगों को रोजमर्रा के मुद्दों के माध्यम से राजनीतिकरण करते हुए क्रांतिकारी संगठनो के पीछे  लामबंद करना रहा है। नुक्कड़ नाट्यकर्मी अपनी यह छवि वर्षों की कड़ी मेहनत के पश्चात बनाने में कामयाब हो पाए थे।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से धीरे-धीरे नुक्कड़  नाटक की एक विधा के रूप में पहचान में परिवर्तन आ रहा है। अब लोगों के जेहन मे नुक्कड़ नाटक का मतलब लोगों के लिए प्रतिबद्ध कलाकारों द्वारा  किया जाने वाला नाटक ही नहीं बल्कि किसी एनजीओ या कंपनी द्वारा किया जाने वाला प्रचारात्मक नाटक भी हो सकता है। एक विधा के रूप में नुक्कड़ नाटक का एनजीओ  करण,  बड़े पैमाने पर,  हो रहा है। बिहार ही नहीं बल्कि, पूरे देश विशेषकर उत्तर भारत में,  नुक्कड़ नाटकों के एनजीओ करण ने एक परिघटना का रूप ले लिया है। लोगों के जीवन से जुडे बुनियादी मसलों के बजाय ‘एडस‘, ‘पोलियो‘ से लेकर ‘बैंक में खाता कैसे खोलें?'   नुक्कड़ नाटकों के विषय बनते जा रहे हैं।

नुक्कड़ नाटकों का महत्व जनता से जुडे संगठनों के साथ-साथ शासक वर्ग भी खूब समझता रहा है। नुक्कड़ नाटक करने के दौरान सफ़दर हाशमी की हत्या इसका सबसे बड़ा सबूत है। 1 जनवरी 1989 को मारे गए सफ़दर हाशमी ने अपने नाटक ‘हल्ला बोल‘ से मजदूरों के  संघर्षों में ऐसा राजनैतिक आवेग पैदा कर दिया था कि मिल मालिकों व पूंजीपतियों को उनकी हत्या करनी पड़ी, एक दशक पूर्व , रिलीज हुई राजकुमार संतोषी  की फिल्म ‘हल्लाबोल’ में  भी नुक्कड़ नाटक की यही जनपक्षीय छवि उजागर की गयी है।

शासक वर्ग नुक्कड़ नाटकों का खूब इस्तेमाल कर रहा है

शासकवर्गीय संस्कृति की यह एक ऐतिहासिक रणनीति रही है कि वो अपने खिलाफ आने वाली हर विधा को अपने में समाहित कर लेना चाहती है। नुक्कड़ नाटक के साथ भी ऐसी ही कोशिश  की जा रही है। नुक्कड़ नाटक को जनसंघर्ष  के हथियार के बजाए शासकवर्गीय दृष्टिकोण को लोगों तक पहुंचाने वाले माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने का जोर शोर से प्रयास  हो रहा है। कई लोग बड़े भोलेपन से यह सवाल करते हैं कि शासकवर्ग के पास अपने विचारों व दृष्टिकोण को फैलाने के माध्यमों की क्या कमी है? टेलीविजन, फिल्म, अखबार, जैसे ताकतवर माध्यमों को छोड़ वह नुक्कड नुक्कड़ नाटक की तरफ भला क्यों मुड़ेगी?

सस्ता व ज़्यादा प्रभावी माध्यम है नुक्कड़ नाटक

दूसरे तमाम माध्यम भले ही वो कितनी ही व्यापक पहुंच वाले तथा शक्तिशाली क्यों न हों, यांत्रिक माध्यम हैं। जबकि नुक्कड़ नाटक एक जीवंत माध्यम है। लोगों से सीधे व सहज रूप से जुड़ने की इसकी क्षमता इसे खास बना देती है। प्रभाव पैदा करने के लिहाज से कोई भी यांत्रिक माध्यम किसी भी जीवंत माध्यम का मुकाबला नहीं कर सकता। विशेषकर समाज के तलछट पर रहने वाले बेहद गरीब व अनपढ़ समुदाय के समक्ष बाकी यांत्रिक माध्यमो की तुलना में नुक्कड़ नाटक को संभव बनाने में किसी तामझाम की जरूरत नहीं होती। यह सस्ता एवं प्रभावी होता है। संभवतः इन्हीं वजहों से नुक्कड नाटक को एनजीओ की भाषा में low cost media strategy  माना जाता है।

नुक्कड़ नाटक के एनजीओ करण ने सबसे प्रतिबद्ध माने जाने वाले संगठनों मे भी भ्रम पैदा कर दिया है। जब भी ऐसे पुराने समर्पित रंगकर्मियों को ये याद दिलाया जाता है कि ‘‘ये तो एनजीओ का नाटक है”, वे सहसा कह उठते हैं ‘‘तो क्या हुआ इस नाटक में भी तो लोगों से जुड़ी समस्याओं को उठाया गया है?  क्या एडस् से लोग नहीं मरते? पोलियो से बचने के लिए जरूरी सावधानियों के बारे में सचेत करना हमारा काम नहीं होना चाहिए?”,  इन भ्रमों की वजह से पुराने समय के वामपंथी रूझानों वाले सांस्कृतिक संगठन भी अब एनजीओ  के लिए नुक्कड़ नाटक किए जाने वाले संगठन में तब्दील हो गए हैं।

एनजीओ के नाटक 'ब्यूरोक्रटिक एप्रोच’ से किए जाते हैं

जबकि दानों किस्म के नुक्कड नाटकों में बड़ा फर्क है। वामपंथी दृष्टिकोण वाले प्रतिबद्ध संगठनों की खास विशेषता रही है कि यह प्रतिरोध की ताकतों को ग्रासरूट के स्तर पर संगठित करने की प्रक्रिया में सहायता पहुंचाते हैं। ऐसा वह द्वन्द्वात्मक ढंग से करता है, जनता से सीखते हुए उससे प्राप्त समझ को वैज्ञानिक रूप से समुन्नत करते हुए, उसे वापस लौटाता है। जबकि एनजीओ द्वारा किए जाने वाले नाटक ‘ब्यूरोक्रटिक एप्रोच’ से किए जाते हैं यानी, हम नाटक करने वाले,   कुछ ऐसा जानते हैं जो हमें जनता को बताना है, समझाना है यह एक तरह से एकांगी प्रक्रिया है। एक है बताने वाला, दूसरा है सुनने वाला, समझने वाला। इसमें यह अंर्तनिहित समझदारी रहती है कि बताने वाला ज्यादा जानता है, जिसे बताया जाता है उसकी बनिस्पत। जबकि द्वन्द्वात्मक पद्धति में जनता व कलाकार दोनों एक दूसरे से सीखते हैं।

एक मुद्दे का दूसरे मुद्दे से संबन्ध तोड़ देता है एनजीओ का नाटक

दूसरा सबसे बडा फर्क एनजीओ  द्वारा किए जाने नाटकों का रहा है हर मुददे् का compartmentalisation या departmentalization करना। यानी हर मुददे् को अलग-अलग ढंग से देखना उत्तरआधुनिक शब्दावली में जिसे हर मुददे् को ‘माइक्रोडिसकोर्स’ में बदल डालना कहते हैं। एनजीओ का नुक्कड़ नाटक दरअसल यही करता है उदाहरण के तौर पर पर्यावरण के मसले पर किए जाने वाले एनजीओ के नुक्कड़ नाटक लोगों को ये बताते हैं कि ‘‘पेड़ लगाएं जाए तभी पर्यावरण बच पाएगा”। ये नाटक पेड़ लगाने व बचाने की बात तो करते हैं पर इस तथ्य की ओर इशारा भी नहीं करते कि पेड़ लगाने से ज्यादा जरूरी है पेड़ काट कौन रहा है? विकास का कैसा मॉडल अपनाते जा रहे है हम? जिसमें लगातार बडे पैमाने पर जीवनरक्षक पेड़ों को काटा जा रहा है। मुनाफा पर आधारित वो कौन सी व्यवस्था है कि पेड़ों को नष्ट करती जा रही है?

एनजीओ द्वारा किए जाने वाले नाटक इन असहज प्रश्नों से कोई मतलब नहीं रखना चाहते हैं यानी हर मुददे् का दूसरे मुददे् से जो लिंकेज है उसे खत्म कर डालते हैं। एक मसले का दूसरे मसले से जो जुड़ाव है उसे तोड़कर उसे अलग-अलग करके देखने की दृष्टि पर जोर डालते हैं।

‘मेगा डिस्कोर्स’ के बदले ‘माइक्रो डिस्कोर्स' की बात करता है एनजीओ का नाटक

यह दरअसल उत्तर आधुनिक विश्वदृष्टि का विस्तार है जो ‘मेगा डिस्कोर्स’ के बदले ‘माइक्रो डिस्कोर्स’ को तरजीह देते हैं। जबकि वामपंथी संगठनों द्वारा किए जाने वाले नुक्कड़ नाटक हर मसले को एक दूसरे मसले से जोडकर देखने पर जोर देते हुए उसके पीछे छुपे ढांचागत व व्यवस्थागत स्वरूप को सामने लाने की कोशिश रहते हैं यानी हर छोटे डिस्कोर्स को बड़े डिस्कोर्स के एक्सटेंशन के रूप में। नुक्कड़ नाटक एक मायने में दो अलग-अलग दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करते हैं दोनो दो विपरीत समूहों व वर्गों की नुमाइंदगी करते प्रतीत होते हैं।

अतिक्रांतिकारी धारा ने नुक्कड़ नाटक को नारेबाज़ी में तब्दील किया

नुक्कड़ नाटक को लेकर अधिकांतः लोगों में ये समझदारी रहती है कि यह एक ही किस्म से होने वाला नाटक है यानी यह होमोजेनियस रहता है। नुक्कड़ नाटक के आलोचक अमूमन ये कहते पाए जाते हैं ‘‘ वही भ्रष्टाचार, पुलिस, नेता जैसे पात्र बार-बार आते हैं और अंत में संघर्ष व क्रांति की बातें रहती हैं”।

दरअसल नुक्कड़ नाटक कभी भी एक तरह का नाटक नहीं रहा है। इसमें भी कई प्रवृत्तियां व धाराएं रही हैं। मुख्यतः नुक्कड़ नाटक में तीन तरह की धारांए रही है जिसे यदि हम राजनैतिक शब्दावली में कहें तो सुधारवादी धारा, अतिक्रांतिकारी व अराजकतावादी धारा एवं मुद्दों का गहरा वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करने वाली धारा।

खुद बिहार में भी ये तीनों धाराएं मौजूद रहीं हैं। आज नुक्कड़ नाटक का जो एनजीओ करण बडे पैमाने पर दिख रहा है वह दरअसल पहली धारा, सुधारवादी, के एनजीओ में पतन का परिणाम है।  यह धारा एक जमाने मे काफी प्रमुख व ताकतवर रही है इस कारण ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे नुक्कड़ नाटक का ही पूरी तरह एनजीओ करण हो चुका है। अराजकतावादी धारा की सबसे बडी मुश्किल ये थी कि इसने हर समस्या, हर मुददे को नारे मे तब्दील कर दिया। गहन पड़ताल करते हुए सामाजिक अंतर्विरोधों को सामने लाने की बजाय उसे सरलीकृतढंग से प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति इस धारा में रही है। नुक्कड़ नाटक के विराधियों ने इसी धारा के बहाने पूरे नुक्कड़ नाटक पर नारेबाजी का आरोप मढ़ दिया। कालक्रम में यह धारा स्वतः धीरे-धीरे खत्म होती चली गयी। नयी आ रही जटिल दुनिया एवं बदलते सत्ता व समाज के समीकरणों का वस्तुपरक मूल्यांकन कर उसे रचनात्मक स्वरूप में ढालने की समझ इस धारा के पास न थी। पुराने सूत्रीकरणें व नारों से अब काम चलने वाला न था।

बहरहाल नुक्कड़ नाटक को एनजीओ में बदलने के विरुद्ध सबसे मजबूत चुनौती नुक्कड़ नाटक करने वालों बीच से ही आ रही है। खुद पटना शहर की कई प्रमुख नाट्य संस्थाओं-खासकर ‘प्रेरणा’- के भीतर लंबी बहसें हुई हैं। इन संस्थाओं में टूट की बड़ी वजह एनजीओ बने हैं पर अभी भी विशेषकर पटना के नुक्कड़ नाटक आंदोलन में एनजीओ विरोधी प्रगतिशील, लोकतांत्रिक धारा कायम रही है। उत्तर भारत के दूसरे प्रमुख शहरों के मुकाबले पटना को यह विशिष्ट स्थिति हासिल है। वैसे तो पटना मे लगभग हर नाट्य संस्था नुक्कड़ नाटक करती है पर इसमें विशेष  रूप से वामपंथी नाट्य संगठनों के एनजीओ करण के खिलाफ चलाए गए लंबे अभियानों का ही परिणाम है कि अब तक पटना में नुक्कड़ के एनजीओ करण के विरूद्ध प्रगतिशील लोकतांत्रिक व वामपंथी धारा की अभी भी ताकतवर मौजूदगी है।

इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। पटना पुस्तक मेले में होने वाले नुक्कड़ नाटक। पिछले दो दशकों से ‘पटना पुस्तक मेले’ में होने वाले नुक्कड़ नाटकों में आज तक एनजीओ को प्रवेश नहीं मिल पाया है। एनजीओ द्वारा काफी कोशिश की जाती है कि ‘पटना पुस्तक मेला’ में किसी तरह वे अपनी जगह बना ले।

प्रचारात्मक नाटक ज़िंदगी से जुड़े मनोरंजक नाटकों की बराबरी नहीं कर सकते

नुक्कड़ नाटक के एनजीओ करण के खिलाफ लड़ने का सबसे कारगर तरीका यही है कि नुक्कड़ नाटक के बीच मौजूद इस धारा को मजबूत बनाना। समकालीन मुद्दों का गंभीरता से विश्लेषण कर उसे रचनात्मक दौलत में रूपांतरित करने की हमारी क्षमता जितनी ज्यादा बढ़ेगी हम एनजीओ को उतना ही ज्यादा दूर धकेलने में कामयाब हो पाएंगे। नुक्कड़ नाटक का एनजीओ करण शासकवर्गीय संस्कृति के नए दौर में सामाजिक-राजनीतिक हमले का ही परिणाम नहीं है बल्कि एक बड़ी सृजनात्मक चुनौती भी है। नुक्कड़ नाटक के पुराने, जड़ ठहरे हुए स्वरूप से बाहर निकाल कर नए बदलते दौर में उसे पुनर्परिभाषित एवं विकसित करते हुए ही यह काम किया जा सकता है। एनजीओ द्वारा किये जाने वाले प्रचारात्मक ढंग के एकरस, उबाउ, एवं बोरिंग नाटक कभी भी लोगों की जिंदगी से बावस्ता एवं उसके अंतर्विरोधों को मनोरंजक ढंग से उजागर करने वाले नाटकों की बराबरी नहीं कर सकते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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