लॉकडाउन : अब तक क़रीब 12 करोड़ नौकरियां हुईं ख़त्म
सभी भारतीय जानते हैं कि प्रधानमंत्री द्वारा 24 मार्च को लगाए गए लॉकडाउन से सभी तरह की आर्थिक गतिविधियां रुक गई हैं। लेकिन रोज़गार पर लॉकडाउन के शुरुआती प्रभाव ही भयावह कहानी बयां कर रहे हैं।
लॉकडाउन के दो दिन पहले, मतलब 22 मार्च से 5 अप्रैल के बीच क़रीब 11.76 करोड़ लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो चुके हैं। यह आंकड़े ''सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकनॉमी (CMIE)'' ने अपने ''पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे'' के हवाले से जारी किए हैं। लॉकडाउन के चलते वे केवल 10,000 परिवारों को ही शामिल कर पाए। उनसे भी फ़ोन पर बातचीत हुई। इस छोटे सैंपल के बावजूद, नौकरियां ख़त्म होने की संख्या काफ़ी ज़्यादा है।
बल्कि ऐसा भी हो सकता है कि इस सर्वे में रोज़गार में लगे लोगों और बेरोज़गार लोगों की संख्या को कम करके आंका गया हो। क्योंकि लॉकडाउन के प्रभाव का फैलाव किसी भी सर्वे के सैंपल में समझ आने से काफ़ी ज़्यादा हुआ है। साथ ही ग़रीब वर्ग के लोगों पर नौकरी-पेशा लोगों की अपेक्षा ज़्यादा गंभीर और भयावह असर हुआ है।
CMIE के सर्वे में पता चला है कि भारतीय श्रमशक्ति की भागीदारी दर में तीखी गिरावट आई है और यह महज़ 36.1 फ़ीसदी पर आ गई है। इसका मतलब है कि श्रमशक्ति का इतना हिस्सा ही काम पर लगा हुआ है या फिर काम करने के लिए तैयार है, लेकिन रोज़गार नहीं है।
दूसरे शब्दों में कहें तो देश की एक बड़ी आबादी ने ख़ुद को घरों में क़ैद कर लिया है, उनके पास किसी तरह का काम नहीं है। यही लॉकडाउन का प्राकृतिक परिणाम है, जिसके चलते लाखों मज़दूर अपने काम करने वाली जगहों से घरों की और लौटे, क्योंकि उनकी सेवाओं की अब जरूरत नहीं है।
आदर्श तौर पर वह लोग जिनका रोज़गार लॉकडाउन के चलते ख़त्म हो गया है, उन्हें उनकी पूरी मज़दूरी दी जानी चाहिए थी। सरकार ने नियोक्ताओं से यही अपील तो की थी। लेकिन साफ़ है कि इसका कोई असर नहीं पड़ा। आख़िर कौन सा नियोक्ता इन अपीलों पर ध्यान देने वाला है, जबतक इनके साथ उल्लंघन पर कुछ कड़े प्रावधान न हों। अगर इन मज़दूरों को मज़दूरी मिल रही होती, तो वे खुद को रोज़गार में संलग्न बताते। इसलिए बेरोज़गारी के बढ़े हुए आंकड़े सरकारी नीतियों की असफलता भी बताते हैं।
बेरोज़गारी अपने चरम पर
श्रमशक्ति की भागीदारी दर में एकदम से आई गिरावट दो चीज़ों से मिलकर बनी है। यह दो चीज़ें हैं- फ़िलहाल जिनके पास रोज़गार है और वे जो बेरोज़गार हैं, लेकिन काम करने के लिए तैयार हैं। अगर आप दूसरे वर्ग की ओर देखें, तो आपको इनके जिंदा रहने की कोशिशों से लॉकडाउन से पैदा हुई चिंताएं और तकलीफें देखने को मिल जाएंगी।
जैसा नीचे चार्ट में दिखाया गया है, बेरोज़गारी दर 22 मार्च को अपने 8.4 फ़ीसदी के आंकड़े से 29 मार्च को 23.8 फ़ीसदी पहुंच गई। पांच अप्रैल को यहा आंकड़ा 23.4 फ़ीसदी था। इसका मतलब यह हुआ कि श्रमशक्ति का एक चौथाई हिस्सा फिलहाल खाली बैठा है और काम की तलाश में है। वह काम चाहते हैं, क्योंकि उसके बिना उनके परिवारों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी।
कई ट्रेड यूनियन और कल्याण संगठन राहत सामग्री, जैसे- चावल, दाल, नमक और तेल का वितरण कर रही हैं, ताकि इन निराश्रित भूखे परिवारों के सदस्य भूख से न मर जाएं। केरल और कुछ दूसरे राज्यों में ही राज्य सरकारें भूखे कामग़ारों के लिए लगातार मदद और सामग्री उपलब्ध करवा रही हैं।
क्या इसे ऐसा होना चाहिए था?
देश में कई लोगों के मन में यह सवाल है कि क्या ऐसा होना चाहिए था? क्या कोरोना महामारी के खिलाफ़ जंग में कामगार वर्ग को इस तरीक़े से ज़बरदस्ती त्याग करने पर मजबूर किया जाना चाहिए था? जब पीएम ने लोगों से संयम और दृढ़ता के साथ महामारी से लड़ने के लिए कहा, तो क्या उनका मतलब ऐसी ही स्थितियों से था?
इसका जवाब बहुत सीधा सा है। नहीं, आर्थिक तनाव और परेशानी को 24 मार्च के दो महीने पहले से ही बेहतर योजना बनाकर टाला जा सकता था। लोगों को बताया जा सकता था कि एक लॉकडाउन की जरूरत पड़ सकती है। प्रबंधन करने के लिए एक तारीख़ निश्चित कर दी जाती। मज़दूरी चुकाए जाने के लिए एक व्यवस्थित ढांचा बनाया जा सकता था। पैसे और जरूरी चीजों का हस्तांतरण किया जा सकता था। तब पूरा देश इस महामारी से लड़ने के लिए एक हो जाता। लेकिन कुछ नहीं किया गया। केवल लोगों से ताली बजाने, शंख फूंकने और दिया जलाने की अपील की गई।
यह निश्चित तौर पर मौजूदा सरकार की एक बड़ी असफलता साबित होगी। यह याद रहेगा कि इस सरकार ने सबसे भयावह मानवीय संकट में लोगों को अकेला छोड़ दिया था।
अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं
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