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नई शिक्षा नीति ‘वर्ण व्यवस्था की बहाली सुनिश्चित करती है' 

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रदर्शनकारी शिक्षकों ने कहा कि गरीब छात्र कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट पास करने के लिए कोचिंग का खर्च नहीं उठा पाएंगे। 
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दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के शिक्षकों ने राष्ट्रीय राजधानी भर में फैले विभिन्न कॉलेजों के 4,000 से अधिक तदर्थ शिक्षकों को नियमित किए जाने की मांग को लेकर मंगलवार को कुलपति कार्यालय के सामने विरोध प्रदर्शन किया। इन शिक्षकों ने आरोप लगाया कि उनकी नौकरी सुरक्षित नहीं है और उन्हें गिने-चुने मेडिकल लीव के बीच अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ रहा है। 

विडम्बना है कि दिल्ली विवि के ये तदर्थ शिक्षक उस समय प्रदर्शन कर रहे थे, जब पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान अपने राज्य में समूह सी और डी के 35,000 कर्मचारियों को नियमित करने की घोषणा कर रहे थे।  

ये कॉलेज शिक्षक चार वर्षीय स्नातक कार्यक्रम (एफवाईयूपी) की घोषणा किए जाने और सामान्य प्रवेश परीक्षा के आधार पर स्नातक पाठ्यक्रमों में घोषणा को लेकर भी चिंतित हैं। स्नातक कार्यक्रम के दौरान, एक छात्र को विभिन्न विषयों में क्रेडिट प्रदान किया जाता है, जिससे के वह आगे की किसी पसंदीदा विषय में पढ़ाई कर सके। 

प्रदर्शनकारी तदर्थ शिक्षकों ने न्यूजक्लिक को बताया कि तीन साल के स्नातक पाठ्यक्रमों में छात्रों ने अधिक क्रेडिट अर्जित किए हैं। श्यामलाल कॉलेज में इतिहास के एक सहायक प्रोफेसर जितेंद्र मीणा ने कहा कि "विश्वविद्यालय ने पिछले दशक में कई बदलाव किए हैं" मसलन, वार्षिक परीक्षाओं से सेमेस्टर-आधारित परीक्षाओं, और एफवाईयूपी और इसके रोलबैक से च्वाइस-आधारित क्रेडिट सिस्टम तक, और अंत में एक लचर पाठ्यक्रम के साथ एफवाईयूपी की अपने नए अवतार में वापसी तक। 

मीणा ने प्रदर्शनस्थल पर कहा कि, “अचानक परिवर्तन और नौकरी की बढ़ती अनिश्चितता से नाराज, डीयू शिक्षकों ने 5 दिसंबर, 2019 को वीसी के कार्यालय का घेराव किया था और मानव संसाधन विकास मंत्रालय को यह वादा करने के लिए मजबूर किया था कि सभी पदों को भरने तक कोई अस्थायी शिक्षक नहीं रखा जाएगा, लेकिन कुछ शिक्षकों को बाहर जाने के लिए कह दिया गया है क्योंकि कॉलेजों पर काम का बोझ बहुत अधिक नहीं रहता। यह विरोध प्रदर्शन विश्वविद्यालय को उस वादे की याद दिलाना है।”

मीणा के अनुसार (देश-समाज में) हाशिए पर रहने वाले समुदाय डीयू की नई प्रणाली के मुख्य शिकार होंगे। “यूजीसी के नए हुक्मनामे ने केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए 12वीं कक्षा के अंक को अप्रासंगिक बना दिया है। लिहाजा, अब छात्रों को प्रवेश परीक्षा पास करने के लिए कोचिंग संस्थानों पर अधिक खर्च करना होगा और स्नातक स्तर की पढ़ाई पूरी करने के लिए एक अतिरिक्त वर्ष खर्च करना होगा, सो अलग। इन वर्षों में, विश्वविद्यालयों ने कमजोर और हाशिए पर रहने वाले छात्रों को उनके मौजूदा सामाजिक पदानुक्रम से एक पायदान ऊपर की ओर बढ़ने में मदद की थी। अब यह नई व्यवस्था उनके संवैधानिक अधिकारों से छल करती है।”

शिक्षकों ने यह भी आरोप लगाया कि नई शिक्षा नीति (एनईपी) वर्ण व्यवस्था की “बहाली” है, जिसने हिंदू समाज को चार वर्गों में विभाजित किया हुआ है। डीयू की अकादमिक परिषद के पूर्व सदस्य रुद्राशीष चक्रवर्ती ने कहा कि इस नीति ने “वर्ण व्यवस्था को बहाल किया है, जिसके तहत समाज का एक वर्ग सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से दूसरे पर हावी रहता है”। 

इसके अलावा, चक्रवर्ती कहते हैं, “एनईपी के तहत शिक्षकों की छंटनी का खतरा भी मंडरा रहा है। किसी भी सुधार का तर्क अपनी ताकत को बढ़ाने का और प्रणालीगत कमजोरी को दूर करना होना चाहिए। हालांकि, एनईपी छात्रों से ताकत को भुला देने और सामान्यताओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कह रही है। अंतर-अनुशासन के विषयों के नाम पर, छात्रों को कचरा नहीं परोसा जा सकता। इससे पहले, हमने 148 क्रेडिट की पेशकश की थी, जिसमें से 108 क्रेडिट कोर विषयों के लिए निर्धारित थे। नई पाठ्यक्रम संरचना में 176 क्रेडिट में से मुख्य विषयों के लिए 80 क्रेडिट ही रखे गए हैं। छात्रों को एक ही पाठ्यक्रम के लिए एक तिहाई अतिरिक्त धन और समय का भुगतान करना होगा।”

रुद्राशीष चक्रवर्ती ने आरोप लगाया कि सरकार मैकाले प्रणाली से छुटकारा पाने के नाम पर अमेरिका के विफल मॉडल की नकल कर रही है, जहां हार्वर्ड और प्रिंसटन जैसे निजी विश्वविद्यालय निजी बंदोबस्त पर चलते हैं। जाहिर है कि ऐसा करके सरकार शिक्षा प्रणाली को कमजोर कर रही है। चक्रवर्ती के अनुसार, नई प्रणाली “शिक्षा प्रणाली में से उन घटकों को हटाती है जो छात्रों को कौशल, रोजगार और अनुसंधान के लिए प्रशिक्षित करते हैं।”

चक्रवर्ती ने आगे आरोप लगाया, “एनईपी कई विसंगतियों के साथ अनिवार्य रूप से कोई अच्छी तरह से सोची-समझी गई नीति नहीं है।” अगर सरकार पश्चिम से शिक्षा प्रणाली अपनाने के लिए इतनी उत्सुक है, तो वह जर्मन, फ्रेंच या स्कैंडिनेवियाई देशों की प्रणाली का अनुसरण क्यों नहीं करती है,जिनके संविधान में कहा गया है कि राज्य ही शिक्षा का उत्तरदायित्व का वहन करेंगे?”

चक्रवर्ती ने कहा कि नई संरचना ने “शिक्षकों को चिंतित” कर दिया है क्योंकि इसने पाठ्यक्रम को मुख्य (कोर) और ऐच्छिक में विभाजित कर दिया है। "मुख्य विषयों के लिए 50 फीसद क्रेडिट की वकालत करने का मतलब है कि केवल आधे संकाय स्थायी रहेंगे जबकि शेष लोगों के बने रहने का फैसला काम के दबाव के आधार किया जाएगा। यानी वे नौकरियों से बाहर हो सकते हैं।" 

नई प्रणाली का सबसे खराब हिस्सा यह है कि इसने एम.ए. और एम.फिल. जैसे मध्यवर्ती पाठ्यक्रमों को खत्म कर दिया है। अंडरग्रेजुएट पाठ्यक्रमों में कई विषयों में दाखिला लिया जाता है, जबकि पोस्टग्रेजुएशन में छात्र किसी एक विषय में मास्टर्स करता है। कार्य-भार क्रेडिट के आधार पर नहीं बल्कि छात्र-शिक्षक अनुपात और विभाग के समग्र कार्य-भार के आधार पर निर्धारित किया जाता है।  चक्रवर्ती कहते हैं, "इस तरह के लचर पाठ्यक्रमों की पेशकश करने का मतलब है कि खराब शिक्षित छात्रों की फौज बनाए रखना जो आगे बेरोजगार रहेंगे। अनिवार्य रूप से, यह वर्ण व्यवस्था की ओर लौटना है, जहां प्रतिगामी बल यह सुनिश्चित करने के लिए एक साथ आते हैं कि समाज का बौद्धिक विकास न हो।”

उपराष्ट्रपति लॉज के अंदर अकादमिक परिषद की बैठक में शिक्षकों के सरोकारों का प्रतिनिधित्व करने वाले मिथुराज धुसिया ने एक असहमति नोट प्रस्तुत किया: "सीयूईटी [कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट] के माध्यम से प्रवेश इस क्षेत्र को और अधिक असमान बना देगा। इस तरह के एक फिल्टर के परिणामस्वरूप माता-पिता और छात्रों के लिए कोचिंग के लिए अतिरिक्त खर्च करना होगा और इसलिए, वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों को हाशिए पर डाल दिया जाएगा। हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने एनईईटी पर एक मामले में निष्कर्ष निकाला कि प्रवेश परीक्षा से केवल उन छात्रों को लाभ हुआ है जो कोचिंग कक्षाओं पर लाखों रुपये खर्च करते हैं और ऐसा न कर सकने में असमर्थ ग्रामीण छात्रों को नुकसान पहुंचाया है। मद्रास उच्च न्यायालय ने केंद्र को इस पर ध्यान देने की सलाह दी।”

अपने असहमति-नोट में, धुसैया ने कहा: “नई प्रणाली जमीनी वास्तविकताओं का हल करने में संस्थानों की स्वायत्तता पर अंकुश लगा देगी। विज्ञान पाठ्यक्रम में कभी-कभी एक वर्ष के भीतर 30 फीसदी ड्रॉपआउट होता है क्योंकि छात्र या तकनीकी पाठ्यक्रमों में शिफ्ट हो जाते हैं या इसके लिए फिर से तैयारी करने का निर्णय लेते हैं। कट ऑफ इसलिए तय की जाती है ताकि प्रवेश बंद होने के कुछ महीनों के भीतर सीट किसी भी कीमत पर खाली न हो। यह संस्थानों दो तरह से मदद करता हैः पहला, उन छात्रों को अवसर प्रदान करने में मदद करता है, जो प्रवेश से चूक जाते हैं, भले ही दाखिला प्रक्रिया पूरी होने के कुछ दिनों तक सीटें खाली रह जाती हैं। और दूसरे, शिक्षकों को स्वीकृत संख्या या वास्तविक दोनों में से जो कम हो, उन पदों पर शिक्षक के रूप में बकरार रहने देता है। यह चर्चा महत्त्वपूर्ण है कि क्या नई प्रणाली संस्थानों को इस तरह की लचीलापन प्रदान करेगी।”

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें

New Education Policy ‘Ensures Restoration of Varna System’

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