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बर्बाद हो रहे भारतीय राज काज के लिए नई शिक्षा नीति सुंदर शब्दों के अलावा और कुछ नहीं

नई शिक्षा नीति को देखने का सबसे प्रभावी नज़रिया यही हो सकता है कि यह देखा जाए की नई शिक्षा नीति, मौजूदा समय में शिक्षा के क्षेत्र में मौजूद सबसे अहम कमियों को पूरा करने के लिए किस तरह की योजना प्रस्तावित कर रही है।
नई शिक्षा नीति

नीति न नियम होती है, न कानून होता है। बल्कि एक तरह की सुचिंतित  योजना होती है। जो जाहिर करती है कि खामियों को किस तरह की प्लानिंग या योजना बनाकर दूर किया जा सकता है। इसलिए सरकार द्वारा जारी की गई नई शिक्षा नीति को देखने का सबसे प्रभावी नजरिया यही हो सकता है कि यह देखा जाए की नई शिक्षा नीति, मौजूदा समय में शिक्षा के क्षेत्र में मौजूद सबसे अहम कमियों को पूरा करने के लिए किस तरह की योजना प्रस्तावित कर रही है।

अगर भारत की पूरी जनता से पूछा जाए कि उनके लिहाज से शिक्षा क्षेत्र की सबसे बड़ी कमी क्या है? तो भयंकर गरीबी में लिपटा हुआ भारतीय समाज यही कहेगा कि शिक्षा बहुत अधिक महंगी है। हम गरीब लोग अपने बच्चों को इंजीनियर डॉक्टर बनाने की सोच भी नहीं सकते हैं। अगर बच्चे अधिक हैं तो उसे ठीक ठाक स्कूल में भेजकर पढ़ने का खर्चा भी नहीं उठा सकते हैं।  यानी शिक्षा क्षेत्र की सबसे बड़ी और गहरी खामी यह है कि शिक्षा बहुत अधिक महंगी है।  

यह महंगी शिक्षा और भी महंगी होती जा रही है। कॉलेज, यूनिवर्सिटी, टेक्निकल एजुकेशन सब महंगे होते जा रहे हैं। इसे ही कमर्शियलाइजेशन ऑफ एजुकेशन यानी शिक्षा का धंधा कहा जाता है। यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन के पूर्व सदस्य और शिक्षा के क्षेत्र में ठीक-ठाक पकड़ रखने वाले प्रोफेसर योगेंद्र यादव ने नई शिक्षा नीति के कई बिंदुओं को सराहा है। लेकिन महंगी होती शिक्षा के संदर्भ में प्रोफेसर योगेंद्र यादव का कहना है कि ''नई शिक्षा नीति में कमर्शियलाइजेशन ऑफ़ एजुकेशन के बारे में 4,5 पैराग्राफ लिखे तो गए हैं। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं दिखता जिससे यह कहा जाए कि कमर्शियलाइजेशन ऑफ एजुकेशन को खत्म करने के बारे में सरकार सुचिंतित तौर से सोच रही है।'' इसके उलट फॉरेन यूनिवर्सिटी खोलने का प्रस्ताव रखा गया है. शिक्षा के क्षेत्र में दिखावटी मानक बनेंगे। इन मानकों के हिसाब से ही भारतीय उच्च शिक्षा की हैसियत तय की जाएगी। इसका मतलब है की उच्च शिक्षा जमीनी यथार्थ से कटी हुई होगी और  शिक्षा सस्ती होने की बजाय और अधिक महंगी ही होगी। जिनकी पहुंच उच्च शिक्षा तक नहीं हो पाती है, वे इससे दूर ही जाएंगे।

सबसे अजीब धोखेबाजी के बारे में डॉक्टर आभा देव न्यूज़क्लिक से बात करते हुए बताती हैं कि नई शिक्षा नीति के तौर पर सामने आए सबसे पहले दस्तावेज में शिक्षा के अधिकार कानून  के तहत 3 साल से लेकर 18 साल तक के बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा का उल्लेख किया गया था। यह एक महत्वपूर्ण बिंदु था लेकिन एक दिन बाद जब दस्तावेज देखा गया तो यह मिला कि शिक्षा के अधिकार कानून के तहत किये उल्लेख को पूरी तरह से हटा दिया गया है।  जरा सोचिये कि यह सरकार कैसे काम करती है?'' अगर यह है कि शिक्षा के अधिकार कानून को हटा दिया गया है तो यह कैसे कहा जा सकता है कि सरकार का यह रुख होगा महँगी शिक्षा की परेशानी से निजात दिलवाकर सस्ती शिक्षा मुहैया करवाई जाए।

National education policy पर बोलते हुए नई शिक्षा नीति को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरहाते हुए कहा कि यह राजनीतिक इच्छा शक्ति से संभव हो पाया है। प्रधानमंत्री मोदी से सवाल बनता है अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति ही है तो नई शिक्षा नीति सस्ती शिक्षा के बारे में क्यों नहीं कोई ठोस बात करती है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि सरकार में महंगे कॉलेजों के मालिक भी शामिल है। और इनकी मौजूदगी शिक्षा को सस्ती शिक्षा में नहीं बदलने देती। अगर ऐसा है तो इसे राजनीतिक इच्छा शक्ति का प्रतिफल क्यों कहा जाना चाहिए? 

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भारत में सामाजिक आर्थिक हैसियत शिक्षा की तक पहुंच तय करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैं। जैसे कि एससी, एसटी, ओबीसी वर्ग से आने वाले विद्यार्थियों की उच्च शिक्षा में भागीदारी बहुत कम है।  साल 2017-18  के एनएसओ के आंकड़ों के मुताबिक एससी, एसटी, ओबीसी के विद्यार्थियों की ज्यादा भागीदारी है मानविकी के विषयों में है। इनकी भागीदारी प्रोफेशनल कोर्स में बहुत कम है। इंडियन एक्सप्रेस में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की प्रोफेसर और शिक्षाविद कुमकुम रॉय का लेख छपा है।

कुमकुम रॉय लिखती हैं कि इस डॉक्यूमेंट में कहीं भी आरक्षण यानी रिजर्वेशन शब्द का जिक्र नहीं है। अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग जैसे संबोधन का बहुत कम उल्लेख है। social economic deprived group का एक सेक्शन में बनाया गया है। पिछड़े वर्ग से जुड़े हुए तमाम विद्यार्थी, शिक्षक, कर्मचारी  के साथ सामाजिक न्याय करने के लिए एफर्मेटिव एक्शन की जरूरत होती है। एफर्मेटिव एक्शन के बारे में सोशल इकनोमिक डिप्राइव्ड ग्रुप के अंदर कुछ भी नहीं कहा गया है। यह एक चिंता का विषय है। जब सरकार को मालूम है कि भारत का बहुत बड़ा हिस्सा बिना सोशल जस्टिस से जुड़े तरीकों को अपनाएं हुए आगे नहीं बढ़ सकता है, तब इन तरीकों का नई शिक्षा नीति में उल्लेख नहीं करना बहुत गंभीर मसला है। सोशल इकोनोमिक डिप्रैवेड ग्रुप के अन्तर्गत अगर उच्च शिक्षण संस्थान में पिछड़े लोगों की भागीदारी बढ़ानी की बात कही भी गई है तो इसका कोई टाइम फ्रेम नहीं तय किया गया है कि कितने समय के अंदर पिछड़े वर्ग की उच्च शिक्षण संस्थानों की भागीदारी के अंतर को कितना कम किया जाएगा।

अगर कुमकुम रॉय की बात के साथ यह जोड़कर भी देखा जाए कि आने वाले दिनों में कमर्शिलाइजेशन ऑफ एजुकेशन और अधिक होगा तो स्थिति कुछ और खतरनाक दिखती है। धंधा करने वाले शिक्षण संस्थान सामाजिक न्याय की पॉलिसी अपनाएंगे ऐसा तो सोचना भी नामुमकिन लगता है। इस तरह से शिक्षा के बारे में जो एक प्रचलित कहावत है कि शिक्षा अगर समाज में असमानता कम करने का काम करती है तो चुपचाप तरीके से असमानता को जन्म भी देती रहती है। और शिक्षा द्वारा पैदा हो रही असमानता खत्म होते दिखे या कम हो जाए, ऐसा इस नई शिक्षा नीति से नहीं दिखता।

अगर शिक्षा क्षेत्र की पहली खामी महंगी शिक्षा है तो दूसरी खामी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कमी है। कई लोग अपनी जवानी में यह अफसोस जताते हुए मिल जाएंगे कि काश उन्हें पढ़ने का ठीक ठाक माहौल मिला रहता! क्या यह कमी 10 +2 प्रणाली की जगह नई शिक्षा नीति द्वारा प्रस्तावित की गई 3+5+3+4 प्रणाली से ठीक हो जाएगी? प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि इसकी वजह से स्टूडेंट ग्लोबल सिटीजन में तब्दील होंगे। गुणवत्ता बढ़ेगी। लेकिन असल जवाब है कि इसके बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। हाल फिलहाल यह नए सिस्टम की योजना के आलावा और कुछ नहीं है। जब यह सिस्टम लागू होगा तब इसका मूल्यांकन होगा कि यह कि कैसा है

जिस तरह की राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि में हम रह रहे हैं उस तरह की पृष्ठभूमि में कोई सिस्टम मुकम्मल तौर पर काम कर पाए ऐसी संभावना नहीं के बराबर लगती है। फिर भी अगर नई शिक्षा नीति में लिखें कुछ ढांचों के बारे में बात की जाए तो बहुत सारे जानकारों ने इसे सराहा है। लेकिन सबका यह भी सवाल कि इस शिक्षा नीति में लिखी सारी बातें इस पर निर्भर करती है कि इसे लागू कैसे किया जा रहा है?

शुरुआती दौर में सीधे पहली कक्षा में प्रवेश देने की बजाय अर्ली चाइल्ड डेवलपमेंट जैसे मेथड को अपनाना भी उचित प्रस्ताव है। सभी को अंको  और पढ़ने लिखने का आधारभूत ज्ञान हो। यह इस नीति की सबसे मजबूत खासियत है। प्रथम जैसे नन गवर्नमेंटल ऑर्गेनाइजेशन ने कई बार सर्वे करके यह बताया है पांचवी क्लास के बच्चे को दूसरी क्लास की किताब पढ़ने और लिखने में दिक्कत आती है। साधारण सा जोड़-घटाव का सवाल हल करना नहीं आता है। इसका मतलब है कि बिना बेसिक के आगे की सारी पढ़ाई बेकार है। इसलिए 'यूनिवर्सल बेसिक न्यूमैरेसी एंड लिटरेसी' जैसी अवधारणा को नई शिक्षा नीति में प्रस्तावित करना एक अच्छी पहल है।

साल में केवल एक परीक्षा के आधार पर किसी विद्यार्थी का समग्र मूल्यांकन करना पूरी तरह से अनुचित प्रक्रिया थी। इसकी जगह इस नीति में दिया गया सुझाव  साल भर में कई पड़ाव पर परीक्षा लेकर किसी विद्यार्थी का मूल्यांकन करना थोड़ी बेहतर प्रक्रिया है। यह नीति परीक्षा की बजाय सीखने पर ज्यादा फोकस करने की बात करती है। यह बात ठीक है। लेकिन तभी जब शिक्षा तक सबकी पहुंच हो। अवसरों की उपलब्धता सब के पास हो। ऐसा न हो कि जिसके अधिक नंबर होंगे, उसका ही दिल्ली यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में एडमिशन मिलेगा। अगर अवसर कम हैं तो केवल प्रधानमंत्री के कह देने भर से कह देने भर से या लिख देने भर से परीक्षा का बोझ किसी विद्यार्थी के दिमाग से नहीं उतरने वाला। यह हमेशा बोझ ही रहेगा।  शिक्षा सीखने-सीखाने की बजाए केवल अंको की मार और परीक्षा का हथियार बनकर रह जायेगी।  

ग्रेजुएशन का समय 3 साल से बढ़ाकर 4 साल कर दिया गया है। छूट दी गई है कि किसी स्टेज पर अगर कोई विद्यार्थी अपनी पढ़ाई छोड़कर दूसरी पढ़ाई करना चाहता है या कुछ दूसरा काम करना चाहता है तो उसके द्वारा बिताए गए समय को यूनिवर्सिटी और कॉलेज मान्यता देंगे। ऐसा नहीं होगा कि 4 साल की पढ़ाई को 2 साल पढ़ने के बाद छोड़ देने पर हाथ में कोई मान्यता ही न आए। पहले साल पर सर्टिफिकेट, दूसरे साल भर डिप्लोमा, तीसरे साल पर डिग्री और चौथे साल पर रिसर्च की मान्यता देने की नीति बनाई गई है।

जानकारों का कहना है कि यह नीति ठीक है। कई विद्यार्थियों को ग्रेजुएशन में एडमिशन मिल जाने पर यह समझ में आता है कि वह जो पढ़ाई कर रहे हैं उनकी उस विषय में रुचि नहीं है। या वह कुछ दूसरा करना चाहते हैं। लेकिन 3 साल की बाध्यता की वजह से वह अपनी पढ़ाई छोड़ नहीं पाते। उसी में फंसे रहते हैं। अगर ऐसा होगा तो अच्छी बात है। बीकॉम कर रहे किसी विद्यार्थी को साल भर बाद लगे कि उसे बीकॉम की बजाए आर्ट्स पढ़ना चाहिए तो आसानी से ट्रांसफर हो जाए तो अच्छी बात है। और उसके हाथ में शैक्षणिक मान्यता भी होगी। लेकिन असल बात है कि इसे लागू कैसे किया जाएगा।

इसका करिकुलम कैसे बनेगा? कैसे 4 साल के कोर्स को एक 1 साल के आधार पर बनाया जाएगा ? अगर कोई 1 साल या 2 साल बाद छोड़ेगा तो क्या वह किसी दूसरे कोर्स में शुरू से शुरुआत करेगा या बीच से शुरुआत करेगा? ऐसे तमाम सवाल हैं जिनका जवाब तभी मिलेगा जब इसे लागू किया जाएगा।

उच्च शिक्षा से संबंधित मल्टीडिसीप्लिनरी जैसी अवधारणा का भी इस नीति से बहुत जोर-शोर से प्रचारित किया जा रहा है। मल्टीडिसीप्लिनरी यानी एक से अधिक विषयों की पढ़ाई की संभावना। अभी तक यह होते आ रहा है कि कोई इंजीनियरिंग पढ़ता है तो 4 साल केवल इंजीनियरिंग ही पढ़ता है। कोई मेडिकल पढ़ता है केवल मेडिकल ही पढ़ता है। केवल एक ही क्षेत्र से जुड़े हुए कई सारे कॉलेज, टेक्निकल संस्थान खुले हुए हैं। यहां दूसरे विषयों की पढ़ाई नहीं होती है। लेकिन नई शिक्षा नीति से इस कमी को दूर करने की बात की गई है। यानी इंजीनियरिंग का विद्यार्थी टेक्निकल विषयों के साथ सोशियोलॉजी, इकोनॉमिक्स जैसे विषय भी पढ़ें, ऐसे संस्थान बनाने का प्रस्ताव किया गया है।

जानकारों का कहना है कि यह एक बढ़िया प्रस्ताव है। कोई विद्यार्थी केवल इंजीनियरिंग ही पढ़े लेकिन उसे समाज का नॉलेज न हो तो ऐसे ही लोग पढ़-लिखे होने के बावजूद भी कट्टरपंथी रवैया अपनाकर जीते हैं। टेक्निकल सब्जेक्ट के साथ अगर ह्यूमैनिटीज के सब्जेक्ट को पढ़ने का अवसर मिल रहा है तो यह एक अच्छी बात है। लेकिन फिर से वही सवाल है कि से लागू कैसे किया जाएगा?

भाषा के सवाल पर इस नीति ने बेहतरीन चालाकी का उदाहरण प्रस्तुत किया है। सालों से शिक्षाविद यह कहते आ रहे हैं कि प्राइमरी स्कूलमें मातृ भाषा में पढ़ाई लिखाई होनी चाहिए। इस नीति में इस सलाह को अपना तो लिया गया है। लेकिन चालाकी भी की गई है। चालाकी यह कि "जहां कहीं भी संभव हो" वहां पांचवी तक की पढ़ाई का माध्यम मातृ भाषा या स्थानीय भाषा होगी। प्रधानमंत्री मोदी भी अपने भाषण में यही दोहराते हैं कि जहां तक संभव हो पांचवी तक बच्चों को उनकी मातृभाषा में ही पढ़ाने पर सहमति दी गई है। 

अगर चलताऊ शब्दों में कहें तो इसका साफ मतलब है कि अगर मन करें तो मातृ भाषा में पढ़ाइए और अगर न मन करें तो अंग्रजी में ही पढ़ाते रहिए। यानी सरकार सरकारी सलाह को पूरा करने के लिए सरकारी स्कूलों में तो मातृ भाषा में पढ़ाई जारी रखेगी लेकिन प्राइवेट स्कूलों पर लगाम नहीं लगाएगी। कई जानकार तो यह कहते हैं कि प्राइवेट स्कूलों की लॉबी इतनी मजबूत है कि कोई भी सरकार हो इस सलाह को अपना नहीं सकती हैं। इसका साफ मतलब है की हिंदी अंग्रेजी की खाई कम होने की बजाय और अधिक बढ़ेगी। टेक्निकल विषयों में प्राइवेट स्कूल के विद्यार्थियों का दबदबा होगा। मौलिक प्रतिभाएँ भाषा के अवरोध की वजह से दबी की दबी रह जाएगी। और अगर प्रधानमंत्री के ही शब्दों में कहा जाए तो यह की अगर घर की बोली में स्कूल की पढ़ाई नहीं होगी तो सीखने की गति बेहतर नहीं होगी। बच्चों की नींव मजबूत नहीं होगी आगे के लिए देश मजबूत नहीं होगा और वे अपनी जड़ों से कटते भी चले जाएंगे।

इस एक मामले में यह शिक्षा नीति क्रांतिकारी साबित हो सकती है, अगर वह 'जहां कहीं भी संभव हो' जैसा उपबंध हटा दे। और अगर नहीं हटाती है तो नीति होने के साथ यह भेदभाव को बढ़ावा देने वाली दस्तावेज भी बन सकती है।

योगेंद्र यादव कहते हैं कि आमतौर पर शिक्षा नीति बहुत सुंदर बातें कहती है लेकिन व्यवहार में जो अपनाया जाता है, वह इसके बिल्कुल उलट होता है। मुझे लगता है कि जिन बदलाव में अड़चन यानी बाधा का सामना नहीं करना होगा वे  सारे बदलाव तो यह सरकार आसानी से कर देगी लेकिन जहां कहीं भी हल्की फुल्की भी अड़चन होगी उसका सामना यह सरकार नहीं करेगी। शिक्षा नीति के सुंदर शब्द केवल सुंदर ही बनकर रह जाएंगे। जैसे कि शिक्षा नीति में मल्टीडिसीप्लिनरी हायर एजुकेशन की बात की गई है लेकिन अगर हम देखें तो कई सारे डेंटल टेक्निकल engineering के एकल संस्थान प्राइवेट लोगों ने खोल रखे हैं। और यह सारे प्राइवेट लोग सांसद और विधायक बनकर सरकार में भी मौजूद हैं। क्या इनका धंधा बंद किया जाएगा? मुझे तो नहीं लगता कि यह सरकार ऐसा कर पाएगी।

प्रताप भानु मेहता इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि भारत की राजनीति ने कभी भी क्वालिटी एजुकेशन को सबसे बड़ी प्राथमिकता के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया है। पिछले कुछ दशकों में जो बदला है, वह यह है कि लोगों के एस्पिरेशन यानी चाहतों में भयंकर बढ़ोतरी हुई है, इसलिए शिक्षा की मांग बढ़ी है। लेकिन यह मांग अभी तक संस्थाओं में तब्दील नहीं हुई है। इसके लिए राजनीति के साथ वह शिक्षाविद भी दोषी हैं जो राजनीति के आश्रय पर काम करते हैं। इसलिए एक अच्छी शिक्षा नीति होने के बावजूद यह कई तरह के संदेहों से भरी हुई है। इस दस्तावेज में क्रिटिकल थिंकिंग और आजाद ख्याली पर जोर दिया गया है। लेकिन हालिया माहौल को संदर्भ में रखकर इन शब्दों को पढ़ने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कैसे विश्वविद्यालयों को डरा धमका कर कोई क्रिटिकल थिंकिंग की बात कर सकता है? एक आजाद एजुकेशन सिस्टम एक आजाद समाज के बिना नहीं बन सकता है।

पहचान की राजनीति के दौर में तार्किकता की संप्रभुता नहीं बन सकती है। इस दस्तावेज ने केवल नजरिया बताने का काम किया है।  अभी वह स्ट्रेटजी नहीं आई है, जिसके जरिये इसे लागू किया जाएगा। फिर से एक स्वतंत्र रेगुलेटर द्वारा उच्च शिक्षा को रेगुलेट करने की बात की गई है। लेकिन सब कुछ तो इस बात पर निर्भर करता है की मौजूदा सरकार किस तरह की संस्थाएं बना रही है और संस्थाओं की प्रथाएं क्या है? अगर यहां से देखा जाए तो स्वतंत्रता के नाम पर किसी भी संस्था को स्वतंत्रता नहीं मिली है। सब पर राजनीतिक आकाओं का नियंत्रण है। इसलिए असल सवाल यह नहीं है कि इस दस्तावेज से सहमत हुआ जाए या नहीं बल्कि असल सवाल यह है कि वह कौन सी शर्ते होंगी और वह कौन सा तरीका होगा जिससे इस दस्तावेज में लिखी हुई बातें सही तरीके से लागू हो पाएंगी।

और इसका उत्तर अगर आज के माहौल में खोजा जाए तो जवाब यह होगा कि प्रधानमंत्री के भाषण तो लाजवाब होते हैं लेकिन जो असलियत में होता है वह प्रधानमंत्री के भाषण से बिल्कुल उल्टा होता है। जैसे प्रधानमंत्री ने नेशनल एजुकेशन पॉलिसी पर बोलते हुए कहा कि इस पॉलिसी के जरिए व्हाट यू थिंक पर नहीं बल्कि हाउ टू थिंक पर जोर दिया जा रहा है। इंक्वायरी डिस्कवरी डिस्कशन और एनालिसिस पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि मोदी जी के शिक्षा मंत्री/मानव संसाधन मंत्री यह कहते हैं कि भारत का ज्योतिष विज्ञान आधुनिक विज्ञान से कहीं अधिक उन्नत है। खुद प्रधानमंत्री अनेक मौकों पर पौराणिक कथाओं और गल्प को विज्ञान की तरह स्थापित करते नज़र आते हैं।

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