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निर्भया कांड के नौ साल : कितनी बदली देश में महिला सुरक्षा की तस्वीर?

हर 18 मिनट में बलात्कार का एक मामला, निर्भया कांड के न्यायिक नतीजे से आने वाले व्यापक सामाजिक बदलावों की उम्मीद पर कई सवाल खड़े करता है।
Nirbhaya
फाइल फोटो।

16 दिसंबर 2012, ये वो तारीख है, जब देश की राजधानी दिल्ली में निर्भया चलती बस में गैंगरेप का शिकार हुई थी। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। दिल्ली समेत तामाम दूसरे राज्यों में लोग सड़कों पर उतर आए थे। और जगह-जगह मोमबत्तियाँ और प्लेकार्ड पकड़े हुए लोग 'निर्भया को इंसाफ दो’, 'लड़की के कपड़े नहीं, अपनी सोच बदलिए' और 'बेटियों के लिए चाहिए सुरक्षा' जैसे नारे लगा रहे थे।

इस मामले के बाद महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण को लेकर बड़े-बड़े वादे हुए, क़ानून में संशोधन हुए, महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए 2013 में जस्टिस वर्मा कमेटी गठित की गई। सरकारें बदली लेकिन आज नौ साल बाद भी महिला सुरक्षा की तस्वीर नहीं बदली।

आज भी देश के जाने-माने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में लड़कियों को अपनी सुरक्षा के लिए आंदोलन करना पड़ता है। प्रशासन से यौन हिंसा के खिलाफ कार्रवाही के लिए सड़कों पर उतरना पड़ता है। ये हाल सिर्फ बीएचयू का नहीं है, जेएनयू, जामिया समेत देश के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों का है। हाथरस, बिजनौर, मुंबई, हैदराबाद, गुजरात सहित लगभग सभी राज्यों का भी है। अब आप समझ सकते हैं कि देश में कानून सख्त होने के बाद महिलाएं कितनी सशक्त हुई हैं और अपराधी कितने बेखौफ।

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निर्भया कांड महिला सुरक्षा को कितना आगे ले गया?

ऐसे में सवाल उठता है कि जनाक्रोश को सड़कों पर लाने वाला यह मामला, आख़िर देश में महिला सुरक्षा के विमर्श को कितना आगे ले गया? जस्टिस वर्मा कमेटी की सिफ़ारिशें कितनी कारगर रहीं? और आख़िर में सवाल ये भी कि निर्भया कांड के दोषियों को फांसी देने के बाद देश में महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अपराधों में कितनी कमी आने की उम्मीद है?

सबसे पहले बात करते हैं, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आंकड़ों की। एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक साल पूरे देश में 2020 में बलात्कार के हर दिन औसतन करीब 77 मामले दर्ज किए गए और कुल संख्या 28 हजार 46 रही। इनमें से 295 मामलों में पीड़िताओं की उम्र 18 साल से कम थी। यानी हर 18 मिनट में एक लड़की यौन हिंसा और बलात्कार का शिकार होती है। जानकारों और खुद महिला आयोग के अनुसार ये संख्या असल मामलों से कहीं दूर है क्योंकि कोरोना और लॉकडाउन के चलते पुलिस और सहायता दोनों महिओं से दूर हो गईं थी।

वहीं साल 2019 की बात करें तो प्रतिदिन बलात्कार के औसतन 87 मामले दर्ज हुए और साल भर के दौरान महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल 4,05,861 मामले दर्ज हुए जो 2018 की तुलना में सात प्रतिशत अधिक थे।

सामाजिक दबाव और पारिवारिक प्रतिष्ठा के कारण शिकायत तक दर्ज नहीं होती!

हालांकि महिलाओं से जुड़े अपराधों के ख़िलाफ़ मुहिम चलाने वालों का कहना है कि रेप और यौन हिंसा के हज़ारों मामले पुलिस के पास तक पहुंचते ही नहीं हैं। असल में इसके वास्तविक आंकड़ें कहीं ज्यादा हैं।

निर्भया कांड के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाली महिला अधिकार कार्यकर्ता रंजना कुमारी का मानना था कि ज्यादातर महिलाएं शर्मिंदी या सामाजिक लांछन के डर से इस तरह के मामलों को रिपोर्ट नहीं करती तो वहीं कुछ महिलाओं को लगता है कि उनकी बातों पर कोई भरोसा नहीं करेगा इसलिए वे चुप हो जाती हैं।

रंजना कुमारी ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा था, “निर्भया की यादें हमारे मानस पटल पर आने वाले कई सालों तक ज़िंदा रहेगी। इसे एक ऐतिहासिक आंदोलन के रूप में हमेशा याद रखा जाएगा लेकिन अगर हम इस पर बात करें कि इसके बाद क्या बदला तो मैं कहुंगी की सिर्फ कागज़ों पर कानून बदले हैं, इसके अलावा ज़मीन पर कुछ नहीं बदला।”

दुष्कर्म के कुल मामलों में सिर्फ़ 27 फीसदी को सज़ा

बलात्कार मामलों में अगर सज़ा के दर की बात करें, तो एनसीआरबी रिपोर्ट 2018 के मुताबिक दुष्कर्म के दोषियों को सजा देने की दर देश में मात्र 27.2% है। 2017 में दोषियों को सजा देने की दर कुछ ज्यादा 32.2 फीसदी थी। हालांकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार बीते 17 सालों की तुलना में बलात्कार के मामले दोगुने हो गए हैं। 2001‐2017 के बीच पूरे देश में कुल 4,15786 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए हैं। इस लिहाज से देखें तो इन मामलों में सज़ा दर बेहद कम है।

सामाजिक कार्यकर्ता और वुमन प्रोटेक्शन राइट्स संस्था से जुड़े अमित सचदेवा बताते हैं कि आज भी देश में यौन हिंसा का शिकार हो रही हज़ारों महिलाएँ न्याय की लंबी और दुरूह लड़ाइयों से जूझ रही हैं। एसे में लोगों का विश्वास न्याय व्यवस्था में तभी बढ़ेगा, जब तय समय में सही न्याय मिल पाए।

अमित के कहते हैं, “हमारा सिस्टम पीड़िता को बार-बार उस ट्रॉमा की ओर धकेलता है जिससे वो पहले ही टूट चुकी होती है। निर्भया मामले में भी न्याय की लड़ाई 8 साल लंबी चली। इस दौरान कई बार उसके मां-बाप सार्वजनिक तौर पर इंसाफ की गुहार लगाते दिखाई दिए। इस मामले में को फिर भी बहुत दबाव था, सरकारी हस्तक्षेप था। लेकिन आज भी ऐसे अनेक मामले हैं जो सालों-साल अदालती चक्कर कांटते रह जाते हैं और मामला निपटने तक कई बार वे खुद निपट जाते हैं।”

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पितृसत्तात्मक सोच को ख़त्म करना ज़रूरी

हालांकि कई जानकारों का मानना है कि इस तरह के मामलों में कानून की सख्ती के साथ समाजिक ताने-बाने को भी बदलना जरूरी है। इस समस्या का स्थायी इलाज उस पितृसत्तात्मक सोच को खत्म करना है जिसमें महिलाओं को पुरुष की संपत्ति माना जाता है।

जानी-मानी नारीवादी कमला भसीन जो अब इस दुनिया में नहीं रहीं उन्होंने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा था, “जब तक समाज की सोच नहीं बदलेगी, तब तक महिलाओं को वास्तव में बराबरी का दर्जा नहीं मिलेगा, सुरक्षा नहीं मिलेगी। परिवार से लेकर सरकार तक सबको समाज के स्तर पर मिलकर आधी आबादी के लिए सुरक्षित जगह बनाने के लिए अपनी भूमिका को समझना होगा।”

कमला के अनुसार, “सिस्टम को जेंडर के मुद्दों पर ज़्यादा संवेदनशील किया जाना चाहिए साथ ही स्कूलों में जेंडर सेंसिटाइजेशन प्रोग्राम शुरू किये जाने चाहिए। जिससे बच्चों के अंदर मानसिकता बदलने का काम हो, ताकि भविष्य में ऐसे अपराध हों ही नहीं।”

सरकार की प्राथमिकता से गायब महिला सुरक्षा!

गौरतलब है कि विपक्ष में रहते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी कई चुनावी रैलियों में दिल्ली को 'रेप कैपिटल' कहा था। 2014 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने अपने पहले स्वतंत्रता दिवस के भाषण में बढ़ते बलात्कारों पर बात भी की थी लेकिन उसके बाद से दिल्ली सहित देशभर में यौन हिंसा के केस बढ़ते रहे जिनमें कई प्रभावशाली लोग भी शामिल थे। लेकिन नरेंद्र मोदी ने सिर्फ़ एक बार 2018 में ट्वीट किया कि भारत की बेटियों को इंसाफ़ मिलेगा। तब उनकी पार्टी के कुछ सदस्यों पर बलात्कार के आरोप सुर्खियों में थे।

पत्रकार ऋचा सिंह कहना है कि पीएम मोदी के सत्ता संभालने के बाद महिला अपराधों से जुड़े कई जघन्य मामले देश के सामने आए। कठुआ में नाबालिग बच्ची से बलात्कार का मामला हो या हैदराबाद वैटनरी डॉक्टर की रेप के बाद हत्या। उन्नाव का कुलदीप सिंह सेंगर मामला हो या हाथरस। ये सभी मामले कई दिनों तक सुर्खियों में रहे। इन्हें लेकर जन आंदोलन भी हुए। लेकिन तब महिला सुरक्षा को प्राथमिकता बताने वाले पीएम और उनके मंत्री अब मौन साधे हुए हैं।

हाल ही में पीएम मोदी की महत्वकांक्षी योजना बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के गंभीरता की भी पोल देश के सामने खुल गई। एक रिपोर्ट के मुताबिक बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का लगभग 80 फीसदी फंड सरकार ने इसके प्रचार-प्रसार पर खर्च किए हैं। यानी बेटियों के शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के पैसे प्रचार और विज्ञापनों में बहा दिए गए।

महिला सशक्तिकरण के वादे और इरादे

वैसे महिलाओं की सुरक्षा के बड़े-बड़े वादे और दावे करनी वाली सरकारें वास्तव में महिलाओं के लिए कुछ खास नहीं करती नज़र नहीं आती। 2012 के दिल्ली बस गैंगरेप की घटना के बाद कानून तो सख्त हो गए लेकिन आए दिन महिलाओं के साथ हो रही हिंसा की क्रूर घटनाओं को कम नहीं कर पाए। यौन हिंसा की पीड़ित महिलाओं को समाज में अब भी भेदभाव और लांछन का सामना करना पड़ता है।

ह्यूमन राइट्स वाच की रिपोर्ट के मुताबिक लड़कियों और महिलाओं को अब भी पुलिस स्टेशन और अस्पतालों में अपमान सहना पड़ता है। इसके अलावा उन्हें न तो अच्छी मेडिकल सुविधा मिलती है और न ही उम्दा कानूनी सहायता।

2018 में प्रकाशित एक शोध पत्र के मुताबिक ऐसे मामलों में सजा की दर बेहद कम है। इस रिसर्च पेपर में कहा गया है कि भारत में बीते एक दशक में बलात्कार के जितने भी मामले दर्ज हुए हैं उनमें केवल 12 से 20 फ़ीसदी मामलों में सुनवाई पूरी हो पायी। इस दर में मौजूदा बीजेपी नेतृत्व वाली सरकार और पूर्ववर्ती यूपीए सरकार में कोई ख़ास अंतर नहीं दिखा है। जाहिर है महिला सशक्तिकरण पर लंबे-चौड़े भाषण पढ़ने वाले नेता वाकई आधी आबादी की सुरक्षा की कोई खास परवाह नहीं करते, करते है को सिर्फ उनके वोटों की परवाह, इसलिए ठीक चुनावों से पहले कोई घरेलू स्कीम का लॉली-पॉप पकड़ा दिया जाता है, जो महिलाओं को आकर्षित कर वोट केंद्र तक पहुंचा दे। लेकिन इससे बदलता कुछ नहीं है, न समाज और न नेताओं की महिला विरोधी ज़बान।

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