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दलितों का अपमान उनकी मौत पर भी जाकर ख़त्म नहीं होता !

अपने ही देशवासियों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव अभी तक भारत के लोगों में विकसित नहीं हो सका है।
Humiliation of Dalits
चित्र मात्र प्रतिनिधित्व हेतु।

क्या किसी को आज भी राजस्थान में जयपुर से तकरीबन 50 किमी के दायरे में स्थित चकवारा गाँव के दलितों की याद है, जिन्होंने अपने गाँव में तालाब तक अपनी पहुँच बनाने के लिए संघर्ष की शुरुआत की थी? इस बात को 18 साल से अधिक का वक्त बीत चुका है, जब मानवाधिकार संगठनों के सहयोग से इन दलितों ने उस पानी की लड़ाई में जीत दर्ज की थी।

उनकी इस मुहिम में उस ऐतिहासिक संघर्षों की प्रतिध्वनि गूँज रही थी जिसे मार्च 1927 में डॉ. बीआर अम्बेडकर ने महाड के चवदर तालाब में पानी को लेकर समान अधिकारों के लिए प्रेरित किया था। उस दौर में राज्य के अधिकतर लोग इस बात से भलीभांति बाखबर थे कि आज के रायगड जिले में जानवरों को तो तालाब से पानी पीने की छूट हासिल थी, लेकिन दलितों को इसका हक़ नहीं था। आनंद तेलतुम्बडे ने 2016 में नवायना द्वारा प्रकाशित अपनी पुस्तक महाड: द मेकिंग ऑफ़ द फर्स्ट दलित रिवोल्ट में सत्याग्रह की इन तमाम घटनाओं का सिलसिलेवार वर्णन किया है।

दलितों द्वारा गाँव के तालाब का उपयोग आरंभ करने के बाद चकवारा में जो हुआ, उसके बारे में शायद ही किसी को मालूमात हो: एक बार दलितों द्वारा इस तालाब का इस्तेमाल शुरू किये जाने के बाद से ऊँची जातियों के लोगों द्वारा धीरे-धीरे इस तालाब के पानी का इस्तेमाल यह कहते हुए बंद कर दिया गया था कि अब यह “अपवित्र” हो चुका है। अपने हकों के लिए दलितों का इस प्रकार से उठ खड़ा होने से बुरी तरह आहत और प्रतिउत्तर में उन्हें अपमानित करने की आग में व्यग्र, उन्होंने गाँव के सीवर को ही खोद डाला था। इसके साथ ही गाँव के अपशिष्ट जल का रुख इस तालाब की ओर मोड़ डाला था। वहाँ की स्थिति आज भी जस की तस बनी हुई है।
 
यहाँ से करीब 700 किमी दूर गुजरात में अहमदाबाद के पास विरमगाम में दलितों द्वारा इस्तेमाल में लाई जाने वाली एक श्मशान भूमि में सीवर का पानी हाल ही में लबालब भर गया था, जो इस बात की याद दिलाने के लिए काफी है कि देश में दो दशकों के अंतराल के बावजूद जातीय परिदृश्य में कोई बदलाव नहीं आया है। विरमगाम में इस घृणित योजना को सफलतापूर्वक अंजाम देने के पीछे दो हाउसिंग सोसाइटी में रहने वाले लोगों का हाथ था, जिसमें इस इलाके का साधन-संपन्न और पढ़ा-लिखा मध्य वर्ग निवास करता है।

पिछले छह महीनों से अधिक का समय बीत चुका है लेकिन सामाजिक तौर पर वंचित वणकर, चमार, रोहित, दनगसिया, शेतवा एवं अन्य समुदायों की कब्रें गंदे पानी से चारों तरफ घिरी हुई हैं। दलितों की ओर से इस बाबत जिला प्रशासन के समक्ष अनेकों बार शिकायत किये जाने के बावजूद कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया है। हकीकत तो यह है कि मौत के बाद ही सही इन हाशिये पर रह रहे समुदायों को गरिमा से वंचित किया जा रहा है। लेकिन ऐसा जान पड़ता है कि इस तथ्य ने भी प्रशासन को कर्तव्य निर्वहन के प्रति प्रेरित नहीं कर सका है।

दलित अधिकार मंच के संयोजक किरीट राठोड़ ने इस महीने के आरंभ में एक समाचार पत्र से अपनी बात में कहा था, “जब वे जिन्दा थे तब उन्हें अपमानित किया जाता रहा। और आज उनके मरने के बाद भी ऊँची जातियों के लोग जानबूझकर अपने घरों से निकलने वाले ठोस और तरल कचरे को हमारे अंतिम पड़ाव को उस गंदगी से भरकर अपमानित करने से बाज नहीं आ रहे हैं।” यह मुद्दा अब सुर्ख़ियों में आ चुका है। लेकिन अभी भी देखना है कि इस सम्बंध में गुजरात की विजय रुपानी सरकार की ओर से उन तत्वों के खिलाफ क्या कार्यवाही की जाती है, जिन्होंने सोची-समझी साजिश के तहत बाकायदा एक चैनल बनाकर अपशिष्ट को दलितों की जमीनों की ओर उसका रुख मोड़ने के काम को अंजाम दिया है।

विरमगाम में जो कुछ चल रहा है वह अपनेआप में कोई अनोखी घटना नहीं है, बल्कि चारों ओर घटित होने वाली परिघटना का एक और उदाहरण भर है। हालाँकि कई लोगों को ऐसा लग सकता है कि दलितों को उनकी मौत के बाद भी सम्मान के साथ मरने के हक को नकारने वाली घटना भारत में इक्का-दुक्का ही देखने को मिल सकती है, हालाँकि यह सच नहीं है। देश भर में ऐसे उदारहण भरे पड़े हैं जिसमें दलितों को सम्मान के साथ दफनाये जाने से वंचित रखा जाता है। सन 2001 की बात है।

गुजरात के ही बनासकांठा जिले के पालनपुर ब्लाक के हूडा गाँव में एक दलित परिवार ने अपने ढाई साल के मृत बच्चे को सामुदायिक कब्रगाह में दफनाया था। इसके तुरंत बाद ही गाँव के पटेल जाति के निवासी ने ट्रेक्टर चलाकर बच्चे के शव को बाहर निकाल दिया था। बात यह थी कि शक्तिसंपन्न पटेलों ने कब्रिस्तान के बगल की कुछ जमीन पर अतिक्रमण कर रखा था और इस दफनाये जाने की प्रक्रिया ने उन्हें “क्रुद्ध” कर दिया था।

इस घटना को गुजरे पंद्रह साल बीत चुके हैं लेकिन जिला कलेक्टर और ग्राम पंचायत आज भी इस कब्रिस्तान की जमीन पर हूडा के दलितों को उनका हक़ नहीं दिला सके हैं। गाँव के शमशान घाटों में ऊँची जाति के दबंगों द्वारा दलितों को कोई स्थान नहीं दिए जाने की यह घटना बेहद आम है। अक्सर दलितों को अपने समुदाय के सदस्यों के अंतिम संस्कार के लिए किसी अन्य दोयम भूमि पर इसकी व्यवस्था करने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

2009 में गुजरात राज्य ग्रामपंचायत सामाजिक न्याय समिति मंच की ओर से किये गए एक सर्वेक्षण में देखने को मिला है कि 657 गाँवों में से 397 गाँवों में दलितों के लिए दफनाने के लिए जमीनें आवंटित नहीं की गई थीं। जिन 260 गाँवों में जमीनें आवण्टित भी की गई थीं, उनमें से 94 में प्रभुत्वशाली जातियों ने अपना अवैध कब्जा जमा लिया था और 26 गावों में ये जमीनें निचले इलाकों में थीं, जहाँ जलभराव की समस्या हमेशा बनी रहती है।

मुस्लिमों को भी कुछ इसी तरह की मुसीबतों से दो चार होना पड़ता है। उनके कब्रिस्तानों पर भी प्रभुत्वशाली वर्गों का अवैध कब्जा बना हुआ है। कुछ वर्ष पूर्व गुजरात उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को पाटन में मुस्लिमों के कब्रिस्तानों में पुलिस बल की नियुक्ति के निर्देश तक दिए थे, क्योंकि उन जमीनों पर अवैध कब्जे की कोशिशें चल रही थीं।

अगस्त 2019 में तमिलनाडु के वेल्लोर जिले के वनियमबाड़ी तालुका में एक मृत व्यक्ति के शव का वीडियो वायरल हुआ था, क्योंकि उसके मृत देह को उसके परिजनों द्वारा उसके दाह-संस्कार हेतु पुल से नीचे डाला जा रहा था। 46 वर्षीय एन कुप्पम के अंतिम संस्कार के लिए निकाले जा रहे शवयात्रा को प्रभुत्वशाली जातियों के सदस्यों द्वारा अवरुद्ध कर दिया गया था, जिसके चलते उन्हें पुल का सहारा लेने को मजबूर होना पड़ा था।

इसके तीन माह पश्चात तमिलनाडु के ही कोयम्बटूर जिले के वीधी गाँव का एक और वीडियो काफी वायरल हुआ था, जिसमें वहाँ के निवासियों को एक सीवर और कचरे के ढेर को पार कर श्मशान स्थल तक पहुँचने के लिए बाध्य होना पड़ा था। क्योंकि श्मशान स्थल तक पहुँचने के लिए उन गलियों से निकलने की अनुमति ऊँची जाति के समुदायों द्वारा नहीं दी जा रही थी, जहाँ वे निवास करते थे। तकरीबन 1,500 दलित परिवारों ने इस बारे में जिला प्रशासन से कई बार याचिका दर्ज की है कि श्मशान घाट तक ले जाने के लिए प्रशासन उन्हें निष्कंटक मार्ग मुहैय्या कराये, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई है।

अभी कुछ माह पहले ही सबरंग इंडिया ने इस परिघटना के अखिल भारतीय स्तर को देखते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें कहा गया है कि “आधी से ज्यादा निचली जातियों की आबादी के भूमिहीन होने के चलते दलित और अन्य पिछड़े वर्गों के लोगों को सभ्य जीवन जीने और आजीविका कमाने के लिए दीर्घकालीन संघर्ष के बीच से गुजरना पड़ता है। एक तो उनके नाम कोई जमीनें आवण्टित नहीं की गई हैं, और यदि आवण्टित कर भी दी गई हैं तो वे जमीनें हड़प ली गई हैं। ऐसे में जातीय भेदभाव के साथ-साथ इन उत्पीडित पिछड़े वर्गों को अपने सम्मान की रक्षा के लिए दोतरफा स्तर पर लड़ाई जारी रखने को मजबूर होना पड़ता है।"

इसी रिपोर्ट में दो अलग-अलग राज्यों के उदाहरणों का जिक्र किया गया है जिसमें दर्शाया गया है कि किस प्रकार से जातीय उत्पीड़न की घटनाएं वहां पर जारी हैं। इसमें समाज कल्याण मंत्रालय महाराष्ट्र के आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया गया है कि किस प्रकार से ऊँची जातियों ने दलितों के लिए निर्धारित की गई 72.13% श्मशान की जमीनों को 43,722 गांवों में हड़प लिया है। इसी प्रकार से इसमें पंजाब के उदाहरण का भी हवाला दिया गया है। जहाँ वैसे तो आबादी के लिहाज से दलित 30% तक हैं, लेकिन वे पश्चिम की ओर मुहँ करते मकानों में रहने के लिए मजबूर हैं, ताकि गैर-दलितों के घरों में “वही हवा” उड़कर न गुजरे। दलितों को अपने शवों को न सिर्फ अलग श्मशान घाट पर ले जाना पडता है बल्कि वे अलग गुरुद्वारों में प्रार्थना करने के लिए भी मजबूर हैं।

महाराष्ट्र की तरह ही जहाँ सामाजिक सुधार के आंदोलनों का सिलसिला 19वीं सदी के मध्य से ही शुरू हो चुका था, केरल भी नारायण गुरु, अय्यनकाली एवं अन्य सुधारक शामिल हैं, अनेकों सामाजिक सुधार के आंदोलनों और संघर्षों के बीच से गुजरा है। लेकिन विडंबना यह है कि चीजें वहां भी गुणात्मक तौर पर भिन्न नहीं हैं। पत्रकार सानु कुम्मिल ने अपनी डाक्यूमेंट्री “सिक्स फीट अंडर” में इस बात को जोरदार तरीके से दिखाने का प्रयास किया है कि किस प्रकार से सार्वजनिक कब्रिस्तानों में जगह की कमी ने लोगों को मजबूर कर दिया है कि वे अपने प्रियजनों को निजी भूमि में दफनाना शुरू कर चुके हैं। कुछ तो ऐसे उदाहरण भी देखने को मिले हैं जिसमें लोगों ने अपने प्रियजनों को दफनाने के लिए अपने घरों को ही ध्वस्त करना शुरू कर दिया है।

असंख्य तरीकों से एक समाज, जिसकी आंतरिक गति “पवित्रता” और “अपवित्रता” के मानदंडों से निर्धारित होती हो, वह उन लोगों को अपमानित करने का काम करती है, जिन्हें यह “अन्य” मानकर चलता है, ऐसों की अंतरात्मा को झकझोरने का काम करना चाहिए। सत्तर सालों से एक गणतंत्र के तौर पर स्थापित होने के बाद भी जमीनी स्तर पर जाति, लिंग, नस्ल एवं अन्य भेदभाव पर आधारित व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आया है।

जब भारत के लोगों के नाम पर संविधान को लिखा जा रहा था तो शायद आंबेडकर को इस बात का आभास था कि भविष्य में क्या होने वाला है। उन्होंने सदन के पटल पर इस बात की घोषणा की थी कि एक व्यक्ति, एक वोट के आधार पर भारत ने राजनीतिक लोकतंत्र का दर्जा तो हासिल कर लिया है, लेकिन एक व्यक्ति-एक मूल्य के सामाजिक लोकतंत्र का लक्ष्य अभी भी कोसों दूर है। आंबेडकर ने लोकतंत्र की कल्पना मात्र सरकार के तौर पर नहीं की थी बल्कि मुख्यतया इसका खाका सहयोगत्मक जीवन के तौर खींचा था। उनकी परिकल्पना में एक दिन “अपने देशवासियों के प्रति सम्मान और श्रद्धा का दृष्टिकोण” होना तय था, लेकिन इस अंतराल को भरने में भारत अभी काफी पीछे चल रहा है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

No End to Humiliation of Dalits Even After Death

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