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‘जटिलताओं’ के बगैर ‘सामान्य हालात’ संभव नहीं: बंगाल की हिल पॉलिटिक्स और एक स्थायी राजनीतिक समाधान 

जहाँ तमाम पार्टियाँ जमीन के पट्टे, रोजगार सृजन और दार्जिलिंग के खोये हुए गौरव को बहाल करने की बात कर रही हैं, वहीं एक अनुभवी राजनीतिज्ञ का कहना है कि ‘हम लोग इस बीच एक लंबे अंतराल के बाद लोकतंत्र में साँस ले रहे हैं।’
‘जटिलताओं’ के बगैर ‘सामान्य हालात’ संभव नहीं: बंगाल की हिल पॉलिटिक्स और एक स्थायी राजनीतिक समाधान 
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

कोलकाता : दिग्गज राजनीतिज्ञ हरका बहादुर छेत्री के शब्दों में पश्चिम बंगाल में हिल्स पॉलिटिक्स, जिसमें दार्जिलिंग इसकी धुरी में है, को “सामान्य” नहीं कहा जा सकता क्योंकि कहीं न कहीं जटिलताएं भी साथ-साथ काम कर रही होती हैं। असल में देखें तो जब जटिलताएं कई गुना बढ़ जाती हैं तो यह सामान्य हालात के लक्षण को “प्रकट” करती हैं। छेत्री ने यह बात न्यूज़क्लिक को कलिम्पोंग के अपने बेस से बताई जब उनसे मौजूदा स्थिति का आकलन करने और हाल की घटनाओं के विकासक्रम के आलोक में वे चीजों को कैसा आकार लेते हुए देखते हैं, को लेकर सवाल किया गया था। बिमल गुरुंग के नेतृत्व वाले गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के हरका बहादुर बेहद लोकप्रिय प्रवक्ता रहे हैं, जिन्होंने जीजेएम प्रमुख से अपना नाता तोड़ लिया था, और कुछ अंतराल के बाद 27 जनवरी 2016 को जन आंदोलन पार्टी (जेएपी) का गठन किया था जिसका मुख्यालय कलिम्पोंग में है।

छेत्री के मुताबिक, 1986 से 2007 के बीच हिल्स की राजनीति पर कहीं न कहीं एक ही व्यक्ति का बोलबाला रहा था, जिसमें 1986 से गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के नेता स्वर्गीय सुभाष घीसिंग इसके दो दशकों तक ‘सर्वोच्च नेता’ थे, और उसके बाद जीजेएम के गुरुंग धूमकेतु की तरह यहाँ की राजनीति में उभरे और 2017 तक वे इसके निर्विवाद नेता बने रहे। उन्होंने बताया कि किसी प्रभुत्वशाली राजनीतिज्ञ की अनुपस्थिति के चलते स्थिति में धीरे-धीरे बदलाव आया है और छोटे-बड़े तकरीबन सभी दल बिना किसी खतरे और विरोध के “लोकतांत्रिक माहौल” में कामकाज कर रहे हैं। उनके उनुसार “हम एक लंबे अंतराल के बाद लोकतंत्र में सांस ले रहे हैं।” इस स्वागत योग्य बदलाव के पीछे की एक दूसरी वजह उनके हिसाब से यह है कि लोग इस बारे में पूरी तरह से निश्चित नहीं हैं कि वास्तव में किस पार्टी के पास बहुसंख्यक लोगों का समर्थन हासिल है भले ही यह बेहद अल्प ‘बहुमत’ ही क्यों न हो।  

राज्य में 2021 के विधानसभा चुनावों से पहले राजनीतिक बदलावों के एक नए चरण की अंतर्निहित जटिलताओं के साथ शुरुआत हुई थी, जब राजनीतिक रूप से कमजोर गुरुंग ने भारतीय जनता पार्टी के साथ अपना नाता तोड़ लिया और ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के प्रति जीजेएम के समर्थन की घोषणा कर दी। इसके बाद उन्होंने अपने रुख में बदलाव को यह कहते हुए न्यायोचित ठहराया कि भाजपा ने अपने वादे को पूरा नहीं किया, जबकि “ममता ने अपने वचन को पूरा किया।” इस कदम के साथ ही, ममता के पास जीजेएम के दोनों धड़ों का समर्थन प्राप्त हो गया- दूसरे धड़े का नेतृत्व बिनय तमांग के हाथों में है, जिसमें अनित थापा दूसरे सहायक कमांडर हैं।

जुलाई के मध्य के बाद से हिल्स की राजनीति में और भी मोड़ देखने को मिल रहा हैं। तमांग वर्तमान में गोरखा प्रादेशिक प्रशासन (जीटीए) की भी कमान संभाल रहे हैं। ये जीजेएम धड़े का नेतृत्त्व पिछले चार वर्षों से संभाल रहे थे। इसे छोड़ दिया है। अब थापा की बारी थी, जिन्होंने जीटीए के मुखिया के तौर पर तमांग का स्थान ग्रहण किया है। इन्होने नए चौंकाने वाले और शायद जटिलताओं को बढ़ाने का काम किया है। थापा ने घोषणा की है कि वे सितंबर के पहले हफ्ते में एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं, क्योंकि पहाड़ में रह रहे लोगों को वास्तविक एवं यथार्थपरक राजनीति में भागीदारी करने का मौका मिलना चाहिए। द हिन्दू की एक रिपोर्ट में उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया गया है: “गोरखालैंड का भावनात्मक मुद्दा आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है लेकिन हमारे युवाओं के लिए नौकरियां, दार्जीलिंग में जल संकट और दार्जिलिंग के गौरव को इसके पर्यटन गंतव्य की संभावनाओं के दोहन के जरिये एक बार फिर से बरकरार रखने जैसे मुद्दे अभी भी अनुत्तरित हैं।” इसे देखते हुए यह सुझाव देना काफी हद तक सही होगा कि वे एक स्वतंत्र मार्ग तैयार करने और अपनी सौदेबाजी की ताकत को हासिल करने की फिराक में लगे हुए हैं।

तमांग ने अभी तक अपनी योजना का खुलासा नहीं किया है, लेकिन उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि वे “अपनी राजनीतिक यात्रा के एक नए चरण की शुरुआत करने जा रहे हैं और एक नए मंच को तैयार करेंगे, जहाँ से मैं चाय बागान के श्रमिकों, सिनकोना वृक्षारोपण श्रमिक, वनवासियों, मौसमी कारीगरों और अन्य योग्य वर्गों के लिए भूमि के पट्टे की मांगों को मुखर स्वर दूंगा, क्योंकि दार्जिलिंग और कालिम्पोंग में इनमें से 87.2% लोगों को भूमि के पट्टों से वंचित रखा गया है।” 

उन्होंने एक और मुद्दे को उठाने का प्रस्ताव रखा है, जिसे वे “तकनीकी” मुद्दा बताते हैं। वह है, पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय (डीओएनईआर) के तहत उत्तर पूर्वी परिषद (एनईसी) के दायरे में सिक्किम और सात-बहनों वाले राज्यों के बीच 605 वर्ग किमी के एक खंड को लाना। सेवन सिस्टर्स स्टेट्स -- असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल, मिज़ोरम और नागालैंड के अलावा एनईसी के दायरे में हिमालयी राज्य सिक्किम भी शामिल है, जिसे काफी अंतराल के बाद इसमें जोड़ा गया था। इसे एक “तकनीकी मुद्दा” बताने से स्पष्ट होता है कि वे इस मामले पर कूटनीतिक हैं; क्योंकि जिन क्षेत्रों का उन्होंने उल्लेख किया है उनमें हिल्स, तराई और डूआर्स शामिल हैं। उन्होंने इसे व्याख्यित करने के लिए भौगौलिक स्थिति और कुल कितना क्षेत्रफल है के आधार को चुना।

पिछले छह हफ़्तों में जो अंतिम घटनाक्रम देखने में आया है उसमें ऐसी संभावना दिखती है कि केंद्र द्वारा पहाड़ी राज्यों में “स्थायी राजनीतिक समाधान” के लिए सितंबर की शुरुआत में एक त्रिपक्षीय बैठक बुलाये जाने की संभावना है। भाजपा के दार्जिलिंग लोकसभा सांसद राजू बिस्टा की केंद्रीय गृह मंत्री से 6 अगस्त को हुई मुलाक़ात और नई दिल्ली के इरादों की भनक देने के बाद से यह एक चर्चा का विषय बना हुआ है। 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा के घोषणापत्र में पीपीएस का संक्षिप्त सन्दर्भ दिया गया था और 11 पहाड़ी समुदायों को आदिवासी दर्जा दिए जाने का वादा किया गया था।

इन सभी घटनाक्रमों पर विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं, लेकिन वे आमतौर पर जैसा कि उम्मीद की जा रही थी उसी तर्ज पर हैं। भाजपा के दार्जिलिंग जिलाध्यक्ष कल्याण दीवान ने न्यूज़क्लिक को बताया कि गुरुंग और तमांग बिना किसी जनाधार वाले राजनेता रह गए हैं और टीएमसी के पास इस क्षेत्र में ताकत न होने के चलते, भाजपा पहाड़ के लोगों के आर्थिक विकास और कल्याण के लिए खुद को सबसे बेहतर स्थिति में पा रही है। पार्टी ने तीन पहाड़ी विधानसभा सीटों में से दो पर जीत हासिल की थी। कलिम्पोंग में हार की वजह “संसाधन के अभाव” के चलते हुई थी। त्रिपक्षीय बैठक की पहल एक नेक इरादे के साथ की जा रही है, और राज्य सरकार को इसमें हिस्सा लेना चाहिए।

दीवान ने आगे कहा कि पहाड़ी, तराई और डूअर्स के लिए अलग-अलग प्रशासनिक ईकाई होना बेहद आवश्यक है क्योंकि इनकी सांस्कृतिक एवं रीति-रिवाजों और यहाँ तक कि बोलियों में भी काफी समानताएं हैं। इसकी व्यवहार्यता के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने विरोधस्वरुप कहा : “क्यों नहीं? यह गोवा, नागालैंड और सिक्किम से भी बड़ा होगा।” उन्हें नहीं लगता कि थापा की पार्टी इसमें कोई फर्क ला सकती है। दीवान के आकलन में “आप बिल्डरों और ठेकेदारों की मदद से और यहाँ तक कि राज्य के संरक्षण सी भी पार्टी को नहीं चला सकते हैं।”

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए जीएनएलएफ के प्रवक्ता महेंद्र छेत्री का कहना था कि त्रिपक्षीय बैठक में “मुद्दों को स्पष्ट करना चाहिए, न कि जटिलताओं को और जोड़ना चाहिए। मुद्दा राजनीतिक है, केंद्र को अजेंडा निर्धारित करना होगा और स्पष्ट करना होगा कि पीपीएस से उसका आशय क्या है।” जीएनएलएफ भाजपा की गठबंधन सहयोगी है और इसके एक उम्मीदवार, नीरज ज़िम्बा ने दार्जीलिंग विधानसभा सीट भाजपा के टिकट पर जीती है।

यह पूछे जाने पर कि क्या राज्य सरकार इस प्रस्तावित त्रिपक्षीय बैठक में हिस्सा ले सकती है, जीएनएलएफ प्रवक्ता का कहना था कि इसके असहयोग करने से नई दिल्ली और भाजपा के इस तर्क को मजबूती मिलेगी कि ममता लंबे समय से लंबित भावनात्मक मुद्दों को हल करने को लेकर जरा भी गंभीर नहीं हैं।

हिल्स के लिए टीएमसी के प्रवक्ता, नर बहादुर खवाश ने न्यूज़क्लिक को बताया: “लोकसभा में अपने पूर्ण बहुमत के बल पर भाजपा के नेतृत्त्व वाली केंद्र सरकार को सीधे पीपीएस के अपने संस्करण वाले विधेयक को पेश करना चाहिए था। त्रिपक्षीय बैठक की क्या जरूरत थी? क्या अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से पहले नई दिल्ली ने त्रिपक्षीय बैठक का कोई आह्वान दिया था? 2009 से दार्जिलिंग से भाजपा के पास लोकसभा सांसद सदस्य है, और चुनाव अभियान के दौरान इसके नेता मतदाताओं से उन्हें इस सीट पर जिताने के लिए वोट देने और लंबित राजनीतिक मुद्दों को हल करने के साथ-साथ 11 पर्वतीय समुदायों को आदिवासी का दर्जा दिए जाने का वादा करते हैं। लेकिन कुछ नहीं हुआ है।”

उनका कहना था “हम व्यवहारिक राजनीति में विश्वास करते हैं, जिसमें नौकरियों के अवसरों को उत्पन्न करना, जमीन का पट्टा देना, चाय बागान के श्रमिकों के लिए उचित मजदूरी को सुनिश्चित करना इत्यादि शामिल है। हम लोगों की भावनाओं के साथ राजनीति करने और अशांति की स्थिति को उत्पन्न करने पर विश्वास नहीं रखते हैं।”

गुरुंग के नेतृत्व वाले जीजेएम के महासचिव रोशन गिरी ने केंद्र की त्रिपक्षीय वार्ता की पहल को एक “आँख में धूल झोंकने” वाली पहल करार दिया है, और उन्हें नहीं लगता कि थापा की पार्टी पहाड़ की राजनीति को प्रभावित कर सकती है। तमांग की पहाड़ी, तराई और डूअर्स क्षेत्रों को एनईसी के दायरे में लाने की मांग पर गिरी का कहना था कि अतीत में उनकी ओर से भी ऐसी ही मांग रखी गई थी। “किंतु, हम इसमें सफल नहीं हो सके क्योंकि एनईसी के प्रावधान, इसमें राज्य के हिस्से को शामिल कर लेने की इजाजत नहीं देते हैं। केवल समूचा राज्य ही इसके कार्यक्षेत्र में हो सकता है।”

खुद को जीजेएम धड़े की जिम्मेदारियों से मुक्त करने के बाद, जिसका कि वे नेतृत्व कर रहे थे, तमांग ने 11 अगस्त को गुरुंग से मुलाक़ात की, जिसको लेकर इस बात के कयास लगाये जाने लगे कि क्या तमांग बाद वाले के गुट में शामिल हो सकते हैं। इसको व्याख्यायित करने के लिए पूछे जाने पर, गिरी का कहना था कि तमांग ने गुरुंग से शिष्टाचार मुलाकात की थी और फिलहाल इसमें इससे अधिक कुछ भी नहीं देखा जाना चाहिए।

यह पूछे जाने पर कि उनकी पार्टी के ममता के साथ नए समीकरणों को देखते हुए और टीएमसी के गठबंधन सहयोगी के रूप में उनके दल की ओर से किस प्रकार की राजनीतिक पहल की उम्मीद की जा सकती है, पर गिरी ने न्यूज़क्लिक को बताया “हम इस पर काम कर रहे हैं। इसे पक्का करने में कुछ वक्त और लगेगा।”

हरका बहादुर, थापा की पार्टी पर टिप्पणी करने को लेकर अनमयस्क थे क्योंकि उनके विचार में “कयास लगाने वाली टिप्पणियाँ” उचित नहीं हैं। वरिष्ठ राजनीतिज्ञ के विचार में “लेकिन मेरे लिए एक चीज स्पष्ट है- कि गठबंधन की राजनीति हिल्स के लिए अनुत्पादक है।”

पहाड़ी इलाकों में कई सालों से पंचायत चुनाव आयोजित नहीं किये गए हैं। जीटीए चुनाव जो 2017 में होने थे, उस वर्ष गुरुंग के 105 दिनों के हिंसक आंदोलन और राज्य सरकार द्वारा उनके खिलाफ कई मामले दर्ज कर दिए जाने के कारण उपजी परिस्थिति की वजह से नहीं किये जा सके थे। इसके बाद से ही वे फरार चल रहे थे। 

यह बात तो स्पष्ट है कि ममता को एक मुश्किल रास्ते को अख्तियार करना होगा और लगातार जटिलताओं को सुलझाने और भाजपा से मिलने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए अपनी राजनीतिक एवं प्रशासनिक दक्षता को साबित करना होगा। इस बीच हिल्स में कुछ पुनर्संयोजन एवं नए गठबंधन भी देखने को मिल सकते हैं।

लेखक कोलकाता स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त किये गये विचार निजी हैं।

यह लेख मूल रूप से अंग्रेजी में है। जिसे इस लिंक के जरिए पढ़ा जा सकता है:

'Normalcy' Not Without 'Complications': Bengal's Hill Politics and a Permanent Political Solution

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