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नॉर्थ ईस्ट : विकास की होड़ में लगातार बन रहे विशाल बांध, हाशिए पर खड़े समुदाय और जैव विविधता के लिए हैं बड़ा ख़तरा

इटालीन परियोजना को लेकर सात संरक्षण कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति को भेजे एक पत्र में लिखा है कि इस परियोजना से पारिस्थितिकी और पर्यावरण संबंधी ख़तरे तो हैं ही, इसके अनुमोदन की प्रक्रिया में भी पारदर्शिता की कमी है।
hydropower projects
Image courtesy : Hindustan Times

पूर्वोत्तर में पनबिजली परियोजनाओं के लिए प्रस्तावित बांधों का काफी विरोध होता रहा है। इसी क्रम में अब पर्यावरण और संरक्षण कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से अरुणाचल की इटालीन परियोजना को दी गई मंजूरी खत्म करने की अपील की है। खबरों के मुताबिक दिबांग नदी पर प्रस्तावित 3,097 मेगावाट क्षमता वाली इस परियोजना के लिए इलाके में लगभग तीन लाख पेड़ों को काटा जाना है।

बता दें कि दिबांग घाटी में इस परियोजना के अलावा दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना पहले से ही प्रस्तावित हैं। इनके निर्माण के बाद विस्तृत इलाके के पानी में डूब जाने की आशंका है। इस क्षेत्र में पक्षियों की करीब सात सौ प्रजातियां पाई जाती हैं, जो पूरे देश में पाई जाने वाली पक्षियों की कुल प्रजातियों का लगभग आधा है। ऐसे में अगर पेड़ों की कटाई होती है तो उसका सीधा असर इन पक्षियों पर पड़ेगा, जिसे लेकर पर्यावरणविद् लंबे समय से आगाह करते रहे हैं।

क्या है पूरा मामला?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक ये पनबिजली परियोजना अपने प्रस्तावित साल 2008 से ही विवादों में है। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस परियोजना का शिलान्यास किया था। लेकिन इदु मिश्मी प्रजाति के लोगों के भारी विरोध के कारण नेशनल हाइड्रो पावर कारपोरेशन (एनएचपीसी) इसके निर्माण को आगे नहीं बढ़ा सका। भारी विरोध के कारण अगले पांच साल यानी वर्ष 2013 तक परियोजना का काम ठप रहा। लेकिन साल 2015 में आंदोलनकारियों को बल प्रयोग के जरिए दबा दिया गया और केंद्रीय वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इसे हरी झंडी दिखा दी। इसके बाद 2018 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) ने भी इस परियोजना को मंजूरी दे दी।

इसके बाद साल 2019 के विधानसभा चुनाव से पहले अरुणाचल प्रदेश सरकार ने उक्त परियोजना से प्रभावित होने वाले परिवारों के लिए एक पुनर्वास पैकेज का एलान किया था। लेकिन चुनाव के बाद एनएचपीसी ने इस फैसले को अदालत में चुनौती दे दी, जिसके बाद इस मामले पर अब तक कुछ खास हो नहीं सका है। अब एक बार फिर इस मुद्दे के गरमाने के आसार हैं। सात संरक्षण कार्यकर्ताओं ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति को हाल में भेजे एक पत्र में लिखा है कि इस परियोजना से पारिस्थितिकी और पर्यावरण संबंधी खतरे तो हैं ही, इसके अनुमोदन की प्रक्रिया में भी पारदर्शिता की कमी है।

डॉयचे वेले की खबर के मुताबिक समिति ने बीती 11 मई को अपनी बैठक में उक्त परियोजना को मंजूरी दी थी। बैठक में कहा गया था कि इटालीन परियोजना के खिलाफ उठाए गए तमाम मुद्दों को सुलझा लिया गया है। लेकिन पर्यावरण कार्यकर्ताओं की दलील है कि इस बयान के समर्थन में कोई दस्तावेजी सबूत नहीं दिए गए हैं। समिति ने कुछ तबकों की ओर से वन्यजीव और इलाके में वनस्पतियों की प्रजातियों के बारे में उठाई गई शंकाओं के समग्र समाधान के लिए एक चार-सदस्यीय समिति भी बनाई थी। जिसकी रिपोर्ट के आधार पर इस परियोजना को तमाम तरह की मंजूरी मिली है।

हालांकि समिति की बैठक के बाद गुवाहाटी स्थित गैर-सरकारी संगठन आरण्यक के फिरोज अहमद समेत कई पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने इस जैविक विविधता आकलन रिपोर्ट समेत कई मुद्दों पर चिंता जताई थी, जिसका कोई समाधान सामने नहीं आया है। अब सात संरक्षण कार्यकर्ताओं जिसमें नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ के कई पूर्व सदस्यों के अलावा वन्यजीव संरक्षण कार्यकर्ता भी शामिल हैं ने अपने पत्र में कहा है कि वन सलाहकार समिति को जैविक विविधता से भरपूर इस इलाके में पनबिजली परियोजना के लिए जंगल की जमीन के इस्तेमाल से बचना चाहिए।

पनबिजली परियोजनाएं और आंदोलन

मालूम हो कि बांधों के खिलाफ आंदोलन का पूर्वोत्तर भारत में एक लंबा इतिहास रहा है। यहां साल 1950 में भयावह भूकंप से असम की तबाही और ब्रह्मपुत्र के रास्ता बदलने के बाद इलाके में पहली बार बांधों की जरूरत महसूस की गई थी। इनका दूसरा मकसद सूखे के सीजन में सिंचाई के लिए पानी की सप्लाई और इलाके में बिजली की कमी को दूर करना था। इनमें दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना और लोअर सुबनसिरी मेगा बांध परियोजना शामिल थी।

हालांकि ये परियोजनाएं जल्द ही इलाके के लोगों के गले की फांस बन गईं। अरुणाचल और असम के सीमावर्ती इलाकों में इन दोनों का बड़े पैमाने पर विरोध शुरू हो गया। दशकों बाद अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने 1985 में पहली बार संगठित रूप से अरुणाचल में प्रस्तावित बांधों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन शुरू किया। यह जल्दी ही बड़े स्तर पर आम लोगों के आंदोलन में बदल गया।

इस आंदोलन की असली चिंगारी साल 2008 में भड़की थी, जब जून के महीने में अरुणाचल के लोअर सुबनसिरी जिले में रंगानदी पर बने बांध से अतिरिक्त पानी छोड़ दिया गया, जिसके चलते में असम में भारी तबाही देखने को मिली। इस पानी को छोड़ने से पहले कोई चेतावनी भी जारी नहीं की गई थी। नतीजतन गर्मी के सीजन में आई भयावह बाढ़ से कम से कम दस लोगों की मौत हो गई और तीन लाख विस्थापित हो गए थे।

गौरतलब है कि दिबांग बहुउद्देशीय परियोजना के लिए भी लाखों पेड़ों को काटा जाना है और घाटी के कम से कम 39 गांवों को हटा कर दूसरी जगह बसाया जाना है। इसके लिए 1,165 हेक्टेयर जंगल साफ किए जाएंगे। यह इलाका इदु मिश्मी प्रजाति का घर और जैविक विविधता से भरपूर है। लंबे समय से स्थानीय लोगों के साथ ही तमाम संगठन इसका विरोध करते रहे हैं। पर्यावरणविदों को डर है कि कहीं आर्थिक विकास की आंधी में ताबड़तोड़ बनाए जा रहे विशाल बांध हाशिए पर आ गए समुदाय और जैव विविधता दोनों को ही ना उड़ा ना ले जाएं।

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