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हिंदुत्व नहीं, बल्कि नए दृष्टिकोण वाला सामाजिक विज्ञान ही दिमाग को उपनिवेश से मुक्त कर सकता है

समाज विज्ञान, बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि तीसरी दुनिया की समस्याएं, सबसे बढक़र सामाजिक समस्याएं हैं। और तीसरी दुनिया के दिमागों के उपनिवेशीकरण का नतीजा यह होता है कि औपनिवेशिक दौर के साम्राज्यवाद का जो भी असर था वह सकारात्मक ही था। 
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साम्राज्यवादी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक होता है, तीसरी दुनिया के दिमागों का उपनिवेशीकरण, जो उसे कायम रखने में मदद करता है। यह उपनिवेशीकरण वैसे तो सर्वव्यापी है। फिर भी यहां हम अकादमिक उपनिवेशीकरण की ही बात करेेंगे और वह भी समाज विज्ञानों के सिलसिले में।

समाज विज्ञान, बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण होता है क्योंकि तीसरी दुनिया की समस्याएं, सबसे बढक़र सामाजिक समस्याएं हैं। और तीसरी दुनिया के दिमागों के उपनिवेशीकरण का नतीजा यह होता है कि उनके बीच यह विश्वास बैठ जाता है कि औपनिवेशिक दौर के साम्राज्यवाद का, उनकी इन समस्याओं से कुछ लेना-देना ही नहीं है, उल्टे उसका अगर कोई प्रभाव पड़ा भी था तो, सकारात्मक प्रभाव ही पड़ा था। और वर्तमान युग में तो साम्राज्यवाद का कोई अस्तित्व तक नहीं है। यह तीसरी दुनिया में सोच को, इस पर विचार करने में ही असमर्थ बना देता है कि इन सामाजिक समस्याओं को कैसे हल किया जाए यानी जो स्थिति मौजूद है, उसे लांघकर आगे कैसे जाएं।

तीसरी दुनिया के दिमागों के इस उपनिवेशीकरण में शुरूआती कदम होता है, उपनिवेशीकृत देशों में तथा अनिवार्य रूप से मैट्रोपोलिस में भी, सामाजिक विकास के संबंध में एक ऐसा आख्यान गढऩा, जो इस घटनाविकास में उपनिवेशवाद या साम्राज्यवाद की रत्तीभर भूमिका नहीं देखता है। अर्थव्यवस्था से संंबंधित एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। मुख्यधारा के अर्थशास्त्र में, पूंजीवाद के अंतर्गत विकास का सबसे प्रभावशाली सिद्घांत, एमआइटी के रॉबर्ट सोलो द्वारा विकसित सिद्घांत है, जिसमें आर्थिक वृद्घि को, घरेलू श्रम शक्ति की एक स्वतंत्र रूप से प्रदत्त दर से नियंत्रित तथा इसलिए, दीर्घावधि में उसके बराबर माना जाता है। आर्थिक वृद्घि के संबंध में नयी दृष्टियां आने के बावजूद (जो नयी होने के बावजूद साम्राज्यवाद के किसी भी हवाले से दूर ही रहती हैं), उक्त सिद्घांत ही प्रभुत्वशाली बना हुआ है। इसका सबूत है, थॉमस पिकेटटी की अपनी हाल की बहु-प्रशंसित पुस्तक, ‘केपीटल इन द ट्वेंटी-फस्र्ट सेंचुरी’ में भी, इस सिद्घांत को स्वीकार कर के चलना।

लेकिन, आर्थिक वृद्घि का यह सिद्घांत एक ही झटके में इसे समझ से परे बना देता है कि उन्नीसवीं सदी के पूर्वाद्र्घ में अफ्रीका से ‘‘न्यू वल्र्ड’’ में गुलामों का बहुत भारी, कम से कम 2 करोड़ की संख्या में, तबादला हुआ था। इससे यह समझ से परे हो जाता है कि ‘‘लान्ग नाइंटीन्थ सैंचुरी’’ के उत्तराद्घ्र्र में (1850 से 1914 के बीच) चीन और भारत से, क्रमश: कुलियों तथा गिरमिटया मजदूरों की विशाल संख्या का, जिसकी गिनती कुल 5 करोड़ के करीब बैठेगी, तबादला हुआ था। यह इसे समझ से परे बना देता है कि दूसरे विश्व युद्घ के बाद के दौर में भारत, पाकिस्तान तथा वैस्ट इंडीज से, ब्रिटेन में; अल्जीरिया तथा अन्य पूर्व- फ्रांसीसी उपनिवेशों से फ्रांस में; तुर्की से जर्मनी में; आदि, आदि, मजदूरों का बड़े पैमाने पर तबादला हुआ था। संक्षेप में यह कि ऐतिहासिक रूप से पूंजी ने, श्रम शक्ति की अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए, दुनिया भर में करोड़ों लोगों को उठाकर, यहां से वहां पहुंचाया है। पूंजी, अपने देश की सीमाओं में श्रम शक्ति की कमी पड़ने की सूरत में, कोई हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठी रही है और इस कमी के हिसाब से, अपने संचय का समायोजन नहीं करती रही है। इसके बावजूद, मुख्यधारा का आर्थिक वृद्घि का सिद्घांत, ठीक यही समझ प्रस्तुत करता है।

अगर हम श्रम की सुरक्षित सेना की बात को अलग भी छोड़ दें--यह सुरक्षित सेना पूंजीवाद में हमेशा रहती ही है-- तब भी पंूजीवाद को जब भी जरूर पड़ती है, उसके लिए दुनिया भर की श्रम आपूर्ति उपलब्ध रही है। घरेलू श्रम शक्ति के पर्याप्त तेजी से न बढऩे के चलते, पूंजी के श्रम की तंगी से नियंत्रित होने का विचार ही पूरी तरह से हास्यास्पद है। इसके बावजूद, मुख्यधारा का अर्थशास्त्र हमें ठीक यही बताता है।

इस तरह अर्थशास्त्र में वृद्घि का मुख्यधारा का सबसे प्रभावशाली सिद्घांत स्पष्ट रूप से, नंगे तरीके से और मुंहजोरी से तथ्यों से, पूंजीवादी उत्पादन पद्घति के वास्तविक इतिहास से, बेमेल बना रहा है। लेकिन, यह हो कैसे सकता है? जाहिर है कि इसलिए कि यह सिद्घांत ही ‘स्वीकार्य’ है, क्योंकि यह पूंजीवाद की एक रंगी-चुनी हुई तस्वीर पेश करता है। यह ऐसी तस्वीर है जिसमें साम्राज्यवाद, उसके दूसरे देशों को जीतने, उन पर काबिज होने या हिंसा के लिए, कोई गुंजाइश ही नहीं है। और यह बात पूंजीवाद के अमल के संबंध में ऐसे सभी सद्घांतों पर लागू होती है, जो अर्थशास्त्र की मुख्यधारा बनाते हैं। ये सिद्घांत अपनी ‘स्वीकार्यता’ की वजह से ही चलन में हैं, न कि पूंजीवाद की परिघटना की व्याख्या करने की अपनी सामथ्र्य की वजह से।

बेशक, इस सबसे हम इसकी ओर से आंखें नहीं मूंद सकते हैं कि इन सिद्घांतों के पीछे असाधारण चतुराई है, उनके पीछे जबर्दस्त प्रतिभा रही है। लेकिन, इस तमाम कुशाग्रता, इस चमक-दमक भरी तकनीकी कुशलता के पीछे, व्याख्या की सामथ्र्य की जगह पूरी तरह से खाली है।

फिर भी, इस तरह के सिद्घांत प्रचलित कैसे हो जाते हैं? बेशक, कोई जरूरी नहीं है कि इन सिद्घांतों को प्रस्तुत करने वाले कोई सोचे-समझे तरीके से इस तरह के सिद्घांत पेश कर रहे हों या उन्हें इसका एहसास भी हो कि वे जो आख्यान गढ़ रहे हैं, वे साम्राज्यवाद का बचाव करने की कैसी भूमिका अदा करते हैं। औपनिवेशीकृत दिमागों की जिस संज्ञा का हमने सहारा लिया है, वह सिर्फ तीसरी दुनिया के दिमागों पर ही लागू नहीं होती है। यह संज्ञा उपनिवेशक, मैट्रोपोलिस पर भी लागू होती है। मैट्रोपोलिस के अकादमिकों के सिर पर जब इसकी तलवार लटका दी जाती है कि अगर वे सत्य की तलाश करते हैं, अगर वे जो ‘स्वीकार्य’ है उसकी सीमाओं को लांघते हैं, तो उन्हें अकादमिक नियुक्तियों, पदोन्नतियों, प्रकाशनों, पुरस्कारों व प्रसिद्घि के मौकों से वंचित कर दिया जाएगा, तो वे बस पटरी पर आ जाते हैं। और जल्द ही ये नौसिखिए, जिन्हें लाइन का अतिक्रमण करने के परिणामों का डर दिखाकर आतंकित कर दिया जाता है, खुद ही इस लाइन की वकालत करने और दूसरों को इस लाइन का अतिक्रमण करने से रोकने की आदत डाल लेते हैं। जाहिर है कि इसके पीछे कोई बदनीयती हो यह जरूरी नहीं है। यह तो बस ‘करणीय’ हो जाता है।

लेकिन, तीसरी दुनिया के अकादमिकों के भी उसी ‘‘लाइन’’ का अनुकरण करने को हम कैसे समझ सकते हैं? आखिरकार, उपनिवेशविरोधी संघर्ष के दौरान दिमाग के इस उपनिवेशीकरण को, आधे मन से ही सही, हिचकिचाहटों के साथ ही सही, एक हद तक झटक कर दूर तो किया गया था। इसके बिना तो कोई उपनिवेशवादविरोधी आंदोलन हो ही नहीं सकता था। तब हम तीसरी दुनिया में दिमागों के इस पुनरुपनिवेशीकरण को कैसे समझ सकते हैं?

इसका एक महत्वपूर्ण कारण है, विकसित दुनिया के विश्वविद्यालयों की फैकल्टियों में तीसरी दुनिया के अकादमिकों का बड़े पैमाने पर भर्ती किया जाना, जो दूसरे विश्व युद्घ से पहले के जमाने में बहुत ही दुर्लभ हुआ करता था। विकसित दुनिया की फैकल्टियों में इस तरह भर्ती होने या भर्ती होने की संभावना मात्र से, तीसरी दुनिया के अनेक अकादमिक उक्त साम्राज्यवादी लाइन का अनुमोदन करने लग जाते हैं। और यह इस तथ्य के ऊपर से है कि निरुपनिवेशीकरण के बाद, पूर्व-उपनिवेशों में बड़ी संख्या में अकादमिकों के सामने आने के साथ, उनके बीच इसकी स्वाभाविक आकांक्षा होती है कि अपने पेशे में उन्हें कुछ मान्यता हासिल हो। लेकिन, चूंकि पेशेवर मान्यता की इस दुनिया में विकसित दुनिया के अकादमिकों का ही बोलबाला है, इसमें मान्यता की तलाश उन्हें स्वाभाविक रूप से, विकसित दुनिया में स्वीकार्य सिद्घांतों के प्रभाव क्षेत्र में ले जाती है।

दूसरी तरह से कहें तो, राजनीतिक निरुपनिवेशीकरण के बाद भी, इन पेशों के अंदर के सत्ता संतुलन में बदलाव नहीं आया है और इसमें विकसित दुनिया के अकादमिकों का ही बोलबाला बना रहा है। ऐसे में, इस सत्ता संतुलन के दायरे में कैरियर में आगे बढ़ने की कोशिश का मतलब होता है, चाहे-अनचाहे विकसित दुनिया में चलन में बने हुए सिद्घांतों को स्वीकार करना। इसका नतीजा यह हुआ है कि उपनिवेशविरोधी संघर्ष के दौरान दिमाग का जो आधा-अधूरा निरुपनिवेशीकरण हुआ भी था, उसे भी पलट दिया गया है।

और अब, नवउदारीकरण के अंतर्गत तो दिमाग के उपनिवेशीकरण की समस्या मात्र को पूरी तरह से आंखों से ओझल कर दिया गया है। इसके विपरीत, वास्तव में अकादमिक कार्य को एक पूरी तरह से एकरूप गतिविधि की तरह देखा जाता है। खुद तीसरी दुनिया के शैक्षणिक प्रतिष्ठान को यह बात ही अहमकाना लगती है कि तीसरी दुनिया के किसी देश की, मिसाल के तौर पर अर्थशास्त्र की समझदारी, विकसित दुनिया में जिस तरह की समझदारी का चलन है, उससे भिन्न हो सकती है। मिसाल के तौर पर दादाभाई नौरोजी या रमेशचंद्र दत्त को, जिन्होंने बड़ी मेहनत से औपनिवेशिक शोषण के तंत्र की पड़ताल की थी, जैसाकि आसानी समझा जा सकता है, विकसित दुनिया के विश्वविद्यालयों में गंभीरता से नहीं लिया जाता है और उनके बारे में वहां लोगों ने सुना भी नहीं होगा। और अगर हम संबंधित विषय की कल्पना एक पूरी तरह से एकरूप इकाई के रूप में करते हैं, तो इसका मतलब यही होगा कि तीसरी दुनिया के हम लोगों को भी, उन्हें गंभीरता से नहीं लेना चाहिए और इस तरह मस्तिष्क के पूरी तरह से उपनिवेशीकरण की अवस्था में खिसक जाना चाहिए। और अब, राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के पाठ्यक्रमों तथा पाठ्यचर्या के भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों के बीच पूरी तरह से संगति में लाए जाने के तकाजे के साथ, दिमागों का यह उपनिवेशीकरण, पूरी तरह से संस्थागत रूप में कायम होने जा रहा है।

इसका अर्थ यह है कि दिमाग के निरुपनिवेशीकरण का अर्थ, एक उन्मत्त हिंदुत्ववादी रुख अपनाना नहीं है और दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। उल्टे हिंदुत्ववादी रुख तो, दिमाग के उपनिवेशीकरण को ही और पुख्ता करता है। उसे सत्य पर पर्दा डाले जाने की परवाह नहीं है, जबकि ऐसी पर्दापोशी ही विकसित दुनिया के समाज विज्ञानों की पहचान बनी रही है। उन्हें तो बस इसी की चिंता है कि किसी तरह से इसका सार्टिफिकेट हासिल कर लिया जाए और बेहतर होगा कि खुद विकसित दुनिया से ही इसका सार्टिफिकेट हासिल कर लिया जाए कि इस प्रकार के समाज विज्ञानों का जन्म प्राचीन भारत में हुआ था! वास्तव में, हिंदुत्ववादी रुख का खोखलापन इसमें अभिव्यक्त होता है कि वह तो जान-बूझकर, इस देश में पिछली सरकारों के राज में उच्च शिक्षा की जो भी सार्थक संस्थाएं निर्मित की गयी हैं, उन्हें ही नष्ट करने में लगा हुआ है। इस तरह, हिंदुत्व के पांव न पड़ने वाली तमाम रचनात्मकता का गला घोंटने के साथ, वह वास्तव में बिना किसी तरह की आलोचना के, विकसित दुनिया के विचारों के आयात को और इसलिए उनके वर्चस्व को, बढ़ावा ही देता है।

इस तरह, दिमाग का निरुपनिवेशीकरण, एक अनुशासन के रूप में समाज विज्ञानों के खारिज किए जाने का तकाजा नहीं करता है। उल्टे वह तो एक अनुशासन के रूप में समाज विज्ञानों के अविचल रूप से बढ़ाए जाने की ही मांग करता है। यह विकसित दुनिया में ‘‘समाज विज्ञानों’’ के नाम पर जिसे चलाया जा रहा है, जिस पर कि साम्राज्यवाद की पर्दापोशी के दाग हैं, उससे बहुत भिन्न है। कार्ल माक्र्स यह मानते थे कि एक शुरूआती दौर के बाद, पूंजीपति वर्ग को आर्थिक विज्ञान की जरूरत नहीं रह जाती है बल्कि उसे आर्थिक विज्ञान के  स्तर पर, सिर्फ विचारधारा की ही जरूरत रह जाती है। और यहां से आगे वैज्ञानिक गतिविधि को, सर्वहारा के वर्गीय दृष्टिकोण से ही आगे बढ़ाया जा सकता है। यही बात समाज विज्ञानों के प्रति विकसित दुनिया के रुख के बारे में कही जा सकती है। उपनिवेशितों के नजरिए से ही ऐसे सच्चे समाज विज्ञानों को आगे विकसित किया जा सकता है, जो सिर्फ वर्तमान की सफाई देने का ही काम नहीं करेंगे। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Not Hindutva, but Reinvented Social Sciences can Decolonise the Mind

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