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बजट के नाम पर पेश किए गए सरकारी भंवर जाल में किसानों और बेरोज़गारों के लिए कुछ भी नहीं!

बजट हिसाब किताब का मामला होता है। लेकिन भाजपा के काल में यह भंवर जाल बन गया है। बजट भाषण में सब कुछ होता है केवल बजट नहीं होता।
budget

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि हमारा देश कर्तव्यों से भागता है। 70 साल से केवल अधिकारों की लड़ाई लड़ने की वजह से देश कमजोर हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात पकड़ कर कहा जाए तो बात यह है कि साल 2022-23 का भाषण ऐसा है  जैसे वह चिल्ला चिल्ला कर बताना चाहता हो कि सरकार अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती। हर संभव कोशिश करती है कि वह कैसे अपने कर्तव्यों से भाग जाए लेकिन लोगों को पता ना चले।

किसी भी बजट भाषण में यह बात होनी चाहिए कि सुनने वाले को यह पता चले कि सरकार की योजनाओं पर कितना पैसा आवंटित किया जा रहा है? पिछले कई सालों से चली आ रही योजनाओं का हाल क्या है? योजनाएं पूरी हुई या अधर में लटकी है?अगर पूरी हुई तो कितना पैसा खर्च हुआ और अगर अधर में लटकी है तो कितना पैसा खर्च हुआ? सरकार के वादों का क्या हुआ? क्या किसानों की आय दोगुनी हुई? क्या 2022 तक 10 करोड़ रोजगार मिले? क्या हर साल दो करोड़ रोजगार पैदा हो पा रहे हैं? सरकार की कमाई कहां से होगी और सरकार खर्च कहां पर करेगी?

बजट भाषण में जब यह सब होता है तब बजट भाषण से देश के सभी नागरिक खुद को जोड़ पाते हैं। कोई आम इंसान यह अंदाजा लगा पाता है कि उसके जीवन में बजट से क्या बदलाव होगा? कोई विश्लेषक ढंग से विश्लेषण कर पाता है कि सरकार की मंशा क्या है? लेकिन बजट से ऐसा कुछ भी नहीं पता चलता है? कई सारे आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि मोदी सरकार के दौर में बजट स्पीच बजट से ज्यादा सरकार के कामकाज के हाल को छुपाने के लिए पेश की जाती है। बजट में सरकार यह नहीं बताती कि उसके द्वारा किए जा रहे कामकाज का हाल क्या है? अगले साल वह क्या करने वाली है? बल्कि जटिल सरकारी भाषा का इस्तेमाल करके सरकार लोगों की समझ से भागती है। एक साल के बजाय कई सालों का वादा करती है।

नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में पेश किए गए तकरीबन सभी बजट भाषणों का लक्षण यही है कि वह बजट भाषण नहीं होते हैं। बजट भाषण के नाम पर किए गए कोरम पूर्ति होते हैं ताकि लोगों को लगे कि बजट पेश किया गया है। उन बजट भाषणों में कुछ भी नहीं होता है। जो बातें इस साल की गई है वह बातें अगले साल भुला दी जाती हैं। उनका कोई ब्योरा नहीं दिया जाता है।

विनिवेश पर बड़ी-बड़ी बातें जिस साल की जाती हैं तो उसके अगले साल भुला दी जाती हैं। 100 स्मार्ट सिटी के प्रवचन अचानक गायब हो जाते हैं, उसकी जगह अर्बन प्लानिंग कमिटी ले लेती है।  इससे पता  चलता कि आखिरकार सरकार की बजट को लेकर के सोच क्या है? पिछले 8 साल में अर्थव्यवस्था का कबाड़ा निकल गया है। जो काल अर्थव्यवस्था के लिए विष काल की तरह है। उसका हाल-चाल ढंग से बताने की बजाय अगले 25 साल के अमृत काल के बारे में बात की जा रही है।

बजट के लेख में यह सारी बातें नहीं लिखी जानी चाहिए। लेकिन हकीकत से कोई कैसे मुंह मोड़ सकता है। इसलिए पाठक होने के नाते यह बातें जानना भी जरूरी है। बजट से जुड़ी काम की बात बजट भाषण के बजाय वित्त मंत्रालय की वेबसाइट पर पेश किए गए प्रपत्र से मिलती हैं। जहां तक आम पाठकों और दर्शकों की पहुंच नहीं हो पाती।

बजट पर प्रपत्रों के मुताबिक साल 2022 - 23 का बजट का आकार 39.45 लाख करोड़ का है। जो पिछले साल से 4.5% बढ़ा हुआ है। मतलब सरकार अपने बजट के माध्यम से यह कह रही है कि तकरीबन 140 करोड़ वाले भारत की आबादी में वह वित्त वर्ष में तकरीबन 39.45 लाख करोड़ रुपए करेगी। यह खर्चा पिछले साल से 4.5% अधिक है।

इस आंकड़े पर कॉरपोरेट मीडिया की कठपुतली बना कोई विश्लेषक कह सकता है कि बजट के आकार में पिछले साल के मुकाबले बढ़ोतरी हुई है। खर्चा बढ़ेगा तो रोजगार पैदा होगा। अपनी बात को मजबूती से पेश करने के लिए बजट में मौजूद कुछ आंकड़े को बतलाएगा। वह कहेगा कि राज्यों को एक लाख करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता देने की बात की गई है, पूंजीगत निवेश में पिछले साल के मुकाबले इजाफा करने की बात की जा रही है, इंफ्रास्ट्रक्चर में बढ़ोतरी के लिए प्रधानमंत्री गति शक्ति योजना की बात की गई है, नेशनल हाईवे नेटवर्क में विस्तार करने की बात की गई है, 400 नए वंदे मातरम ट्रेन चलाने की बात की गई है, जल जीवन मिशन के आवंटन को 20% बढ़ाकर के साथ हजार करोड़ रुपए किया गया है - इन सारे सरकारी खर्चों से रोजगार पैदा होगा। रोजगार की परेशानी कम होगी।

लेकिन सबसे जरूरी बात वह नहीं बताएगा। सबसे जरूरी बात यह है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल अर्थव्यवस्था के आकार में महज 4.5 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। उस अर्थव्यवस्था के आकार में जहां मांग की घनघोर कमी है। जहां केवल 38% आबादी किसी ना किसी तरह का रोजगार कर रही है। ढेर सारी आबादी रोजगार से बाहर है। बेरोजगारी हर महीने पिछले महीने के मुकाबले ज्यादा बड़ा मुंह खोल करके खड़ा हो जाती है। वैसी अर्थव्यवस्था में महज 4.5 फ़ीसदी यानी पौने दो लाख करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की देने से क्या रोजगार दर 38% से बढ़कर के वैश्विक औसत स्तर 57% तक पहुंच जाएगा? क्या भारत में काम करने लायक आबादी में 60 से 70% लोगों को काम मिल पाएगा?

अगर आप इस तरह बजट पढ़ेंगे तो बेरोजगारी दूर करने को लेकर के की गई सारी बातें झूठी दिखेंगी। तकरीबन 140 करोड़ जनसंख्या वाले भारत में पिछले साल के मुकाबले पौने दो लाख करोड़ रुपए का इजाफा करके बेरोजगारी का हल नहीं किया जा सकता। इससे ज्यादा बजट का पैसा तो देश भर में रिटायर्ड हो चुके सरकारी पेंशन धारी उठा लेते हैं। तो इतने कम इजाफे से किसी भी तरह के बेरोजगारी का हल हो पाना एक तरह का ख्याली पुलाव ही होगा।

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि "मेक इन इंडिया के तहत 60 लाख नौकरियां आएंगी" इस पर युवा हल्ला बोल का कहना है कि वित्त मंत्री पहले यह बताइए कि 2014 से अबतक मेक इन इंडिया से कितनी नौकरियां सृजन हुई? 2014 में लॉन्च हुए इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य 2022 तक 10 करोड़ नौकरियां सृजन करना था। कहां पर कितनी नौकरियां मिली इसका कोई आंकड़ा नहीं है? चूंकि मीडिया में रोजगार पर बात नहीं होती। लोग भूल जाते हैं। इसलिए वित्त मंत्री ने लक्ष्य छोटा करके 60 लाख कर दिया है।

रोजगार के सवाल के बाद अब किसानों की बात कर लेते हैं। जय किसान आंदोलन के सदस्य योगेंद्र यादव का कहना है कि किसान आंदोलन से हारी हुई सरकार इतनी अधिक तिलमिलाई हुई है कि अब किसानों से बदला लेने पर उतारू हो चली है। पिछले साल के बजट में भले किसानों के आवंटन में कुछ नहीं होता था लेकिन कम से कम बजट भाषण में सुंदर  बातें की जाती थी। डायलॉगबाजी की जाती थी। काम की बातें तो पहले भी नहीं थी अब सुंदर-सुंदर बातें भी खत्म कर दी गई है। पिछले 5 साल से वित्त मंत्री किसानों की आय की दोगुना करने की डमरु बजा रही थी। लेकिन 2022 में जब वादे का परिणाम रखना था। यह बताना था कि किसानों की आय में कितनी बढ़ोतरी हुई तो वित्त मंत्री ने कुछ भी नहीं कहा। चुप्पी साध ली। किसानों की आय दोगुनी का हाल कुछ इस तरह से हैं। किसानों की आय ₹ ₹8 हजार प्रति महीने से बढ़कर के महंगाई दर को जोड़ने पर ₹21 हजार प्रति महीने हो जानी चाहिए थी। लेकिन अब भी किसानों की आय ₹10 हजार प्रति महीने के आस-पास लटकी हुई है। पिछले 2 सालों से एग्रीकल्चर इन्वेस्टमेंट फंड के तौर पर एक लाख करोड रुपए खर्च करने की बात कह रही थी। लेकिन खर्च हुआ है सिर्फ ढाई हजार करोड रुपए। 

किसान सम्मान निधि के तौर पर किसानों को साल भर में 3 किस्तों में  ₹6 हजार दिया जाता है। समय और महंगाई बढ़ने के साथ ही इस राशि में बढ़ोतरी ना हो तो इसका मतलब है कि सरकार अपने ही वादे के खिलाफ जा रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनामी का विश्लेषण बताता है कि जिस हिसाब से महंगाई दर बढ़ी है उस हिसाब से साल 2018- 19 में लागू हुए ₹6 हजार रुपए सालाना की वास्तविक कीमत घटकर के दिसंबर 2021 में ₹3593 के बराबर हो गई है। यानी जो सामान और सेवाएं दो साल पहले ₹3593 में मिल जाती थी उसके लिए ₹₹6000 खर्च करना पड़ता है। ऐसे में किसान सम्मान निधि के अंतर्गत आवंटन बढ़ाना चाहिए था। आवंटन इतना करना चाहिए था कि महंगाई का असर कम हो पाए। लेकिन सरकार ने महज 500 करोड रुपए की राशि बढ़ाई है।

बजट के प्रपत्रों को पढ़ने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य का हाल देखिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत होने वाली सरकारी खरीद कम हुई है। मतलब पहले के मुकाबले कम किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिला है। और न्यूनतम समर्थन मूल्य के तौर पर सरकार ने पहले की अपेक्षा कम खर्च किया है। साल 2020-21 में सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के तौर पर 1286 लाख टन धान और गेहूं की खरीद की। यह आंकड़ा कम हो करके साल 2021-22 में 1208 लाख टन पर पहुंच गया है।  साल 2020 21 में 2.48 लाख करोड रुपए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार ने खर्च किए। साल 2021-22 का आंकड़ा बता रहा है कि यह  पैसा कम हो करके 2.37 लाख करोड रुपए हो गया। यही हाल न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलने वाले किसानों की संख्या का भी है। साल 2020 -  21 में  1 एक करोड़ 97 लाख  किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिला। साल 2021- 22 में  यह कम हो करके 1 करोड़ 37 लाख पर पहुंच गया है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के तौर पर उतना पैसा नहीं मिलता है जितना कि किसान संगठन मांग कर रहे हैं। उस फार्मूला पर पैसा नहीं मिलता है जिस फार्मूले पर न्यूनतम समर्थन मूल्य किसान संगठनों द्वारा मांगा जाता है।

1 करोड़ 37 लाख की संख्या कुल किसानों की महज 10% है। मतलब केवल 10% किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कीमत मिल पाई है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का हाल सरकारी कागजों में इतना कमजोर होने के बावजूद भी सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कम पैसा दे रही है। यह सब तब हो रहा है जब किसान संगठन न्यूनतम समर्थन मूल्य की लीगल गारंटी के लिए सालभर लड़ाई लड़ चुके हैं। और सरकार यह एलान करते जा रही है कि उसके कार्यकाल में किसानों के साथ कोई नाइंसाफी नहीं होगी।

कृषि क्षेत्र से जुड़े बजट के कुछ और आंकड़ों को देख लेते हैं। विमर्श साल 2021-22 का रिवाइज्ड ऐस्टीमेट बताता है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में 15989 करोड रुपए खर्च हुए। यह आवंटन घटा दिया गया है सरकार ने प्रस्तावित किया है कि वह वित्त वर्ष 2022 - 23 में इस योजना पर 15500 करोड रुपए खर्च करने का कोटा तय कर रही है। मार्केट इंटरवेंशन स्कीम एंड प्राइस सपोर्ट स्कीम के तहत वित्त वर्ष साल 2021 22 में रिवाइज्ड ऐस्टीमेट के मुताबिक सरकार ने तकरीबन 3595 करोड रुपए खर्च किए। यानी वैसी जगहों पर जहां पर सरकार को लगा कि किसानों को अपनी उपज का वाजिब कीमत नहीं मिल रहा है तो कोई ना कोई तरीका करके किसानों उपज का वाजिब कीमत देने तक ले जाया जाए वहां पर 3595 करोड रुपए खर्च हुए। यह राशि घटा करके इस वित्त वर्ष के लिए 1500 करोड़ पेपर कर दी गई है। उर्वरक पर दी जाने वाली सब्सिडी भी घटा दी गई है।

पिछले वित्तवर्ष सब्सिडी के तौर पर 1 लाख 40 हज़ार करोड रुपए आवंटित किए गए थे इस वित्त वर्ष के लिए केवल 1 लाख 5 हजार करोड रुपए का आवंटन किया गया है। इसी तरह से कृषि क्षेत्र से जुड़ी तमाम योजनाओं की आवंटित राशि को कम किया गया है। केवल किसान सम्मान निधि के तहत 500 करोड रुपए का इजाफा किया गया है। जिसे अगर महंगाई दर के हिसाब से देखा जाए तो कुछ भी नहीं है।

इन सबका असर यह हुआ है कि कृषि और संबंधित क्षेत्र में साल 2021-22 कि कुल बजट की 4.26% की राशि आवंटित की गई थी। यह घटकर के 3.84 प्रतिशत हो गई है। कुल मिला जुला कर बात यह कि जिस क्षेत्र से भारत की तकरीबन 50% आबादी का पेट भरता है उस चित्र पर कुल बजट का महज 3.84% खर्च करने का प्रस्ताव दिया गया है।

चलते-चलते मनरेगा की बात भी कर लेते हैं। मनरेगा की बात करना इसलिए जरूरी है कि इकोनोमिक सर्वे का आंकड़ा कहता है कि मनरेगा में तकरीबन 11 करोड काम करने वाले लोगों को पिछले साल काम मिला। तकरीबन 15 हजार करोड रुपए बकाया है। कोरोना की वजह से लोग भाग कर गांव देहात में आए तो मनरेगा उनका सहारा बना। मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी से भी कम कीमत पर मजदूरी मिलती है। 2021-22 का रिवाइज्ड ऐस्टीमेट कहता है कि उस विषय पर 98000 करोड रुपए खर्च किए गए थे। उसे घटा दिया गया है। इसके लिए 72 हजार करोड़ रुपए का प्रस्ताव रखा गया है। 

यह उस देश का बजट है जहां पर कोरोना की वजह से 84% लोगों की आय घट गई है। जहां पर तकरीबन 39 फ़ीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। जहां पर तकरीबन 80% काम करने वाले लोगों की महीने की आमदनी ₹10 हजार के आसपास है। इसके आगे आप खुद ही सोच कर देखिए कि बजट में आम लोग बेरोजगारी का हल और किसान कहां पर हैं?

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