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अब चाहिए सरकार आपके द्वार : इंद्रजीत सिंह

“फ़ासला बनाए रखने के नियम का यह मतलब कतई नहीं होता कि प्रशासन और सरकार जनता से ही पहले से भी ज़्यादा दूर चले जाएं।” पढ़िए किसान नेता इंद्रजीत सिंह का विशेष आलेख
किसान

यह एक जाना माना तथ्य है कि कोविड या ऐसी किसी भी अप्रत्याशित त्रासदी से कोई भी शासन सक्रिय जन-हिस्सेदारी के बगैर सफलता से नहीं निपट सकता। अतीत में ऐसी सभी तरह की विपदाओं में जनसाधारण ने मानव हित में जो सराहनीय भूमिकाएं अदा की हैं, वे इतिहास में दर्ज हैं। हालांकि इससे भी बुनियादी तथ्य यह भी है कि ऐसी विपदा से निपटने में शासन अथवा राज्य का जो वैधानिक दायित्व बनता है उसका भी विकल्प और कुछ नहीं हो सकता।

बाढ़, सूखा, भूकंप, महामारी, प्राकृतिक आपदा अथवा नसली व सांप्रदायिक नरसंहार जैसी विपत्तियों के प्रकोप से मानव व अन्य प्राणियों को पीड़ा से बचाव व उनके निवारण की जिम्मेवारी शासन की ही होती है और वह इस उत्तरदायित्व से मुकर नहीं सकता। कोरोना संक्रमण से सफलता पूर्वक निपटने में लॉकडाउन के दौरान शासन व प्रशासन को आम जनता के संवेदनशील सेवक के रूप में पेश आना चाहिए था। इसके लिए कारगर व परस्पर संवाद की जरूरत थी। बहुत अफसोस व चिंता का विषय है कि इसके विपरीत वह जनता से और ज़्यादा दूरी बनाने की मुद्रा में जा रहा है। 'फ़ासला बनाए रखने' के नियम का यह  मतलब कतई नहीं होता कि प्रशासन और सरकार जनता से ही पहले से भी ज़्यादा दूर चले जाएं। ऐसी महामारी से सफलतापूर्वक लड़ने के लिए यह एक आवश्यक शर्त है कि  न्यूनतम बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए शासन-प्रशासन के पूरे ढांचे को जनता अपने दरवाजे पर खड़ा पाए। यह अपेक्षा जरूर की जाती है कि  हर स्तर पर सरकारी प्रशासन अपनी समूची कार्यप्रणाली में समय की संज़ीदगी के अनुरूप बदलाव लाए।

ये बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि सरकारों के अधीन जो भी आर्थिक व मानव संसाधन आते हैं वह बुनियादी तौर पर जनता की ही मिलकियत होते हैं। कल्याणकारी राज्य के तहत इनके संरक्षण, संवर्धन और न्यायपूर्ण व पारदर्शी उपयोग, पुनर्वितरण और आवंटन किए जाने का दायित्व जनता ने नीचे से लेकर सर्वोच्च स्तर तक अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों की मार्फत सरकारों को सौंप रखा है। तमाम तरह की खामियों और वर्गीय पूर्वाग्रहों के बावजूद संवैधानिक जनतंत्र के तहत पंचायतों, पालिकाओं व विधायिकाओं में व्यक्तिगत सार्वजनिक महत्व के सवालों पर सत्ता का ध्यान खींचते हुए उसकी जवाबदेही सुनिश्चित करवाने की व्यवस्था इसी संगति में संविधान में आयद है। जब शासन इस उत्तरदायित्व का न्यायपूर्ण निर्वाह करने से दूर हटकर निरंकुशता की ओर चलने लगे तो लोगों के पास धरने, प्रदर्शन, सत्याग्रह, भूख हड़ताल आदि की रोष कार्रवाइयों के माध्यम से आंदोलन करने का भी एक सशक्त माध्यम रहता है। प्रतिरोध की कार्रवाइयों के द्वारा जनता के भिन्न-भिन्न तबकों को अपने अधिकारों और जायज मांगों को उठाने का संविधानिक हक उनके पास है। हाल में लॉकडाउन के चलते उपरोक्त दोनों ही प्रक्रियाएं एक तरह से अवरुद्ध स्थिति में हैं। न ही तो विधायिकाओं का कामकाज चल रहा और न ही लॉकडाउन में लोग अभी सड़कों पर आकर लड़ने की स्थिति में हैं। उनकी इस मजबूरी को अनुकूल स्थिति के तौर पर न देखा जाए।

बहुमत जनता अचानक बिना किसी पूर्व तैयारी के घोषित किए गए लॉकडाउन से ऐसी विपदा में घिर गई है जिसकी उसने कभी कल्पना तक नहीं की थी। यह भी कड़वा सत्य है कि आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से जो तबका जितना कमज़ोर है उस तबके को उतनी ही ज़्यादा तकलीफ़ झेलनी पड़ रही है। सामाजिक संस्थाओं, स्वयंसेवी संगठनों, ट्रेड यूनियनों, जनसंगठनों एवं प्रतिबद्ध व्यक्तियों ने इस कठिन घड़ी में अपनी अपनी क्षमतानुसार ज़रूरतमंद लोगों के लिए आर्थिक व श्रमदान देने का सराहनीय काम किया है। जिन कर्मचारियों व अन्य वेतन भोगी लोगों ने स्वेच्छा से सहायता जुटाई उन्हीं पर और अधिक आर्थिक बोझ डाले जा रहे हैं।  महंगाई भत्ते पर  रोक लग गई है और एलटीसी सुविधा रोक दी गई है। हरियाणा सरकार ने तो एक साल के लिए भर्तियों पर भी रोक लगा दी है। हालांकि नौकरियों की भर्तियां तो पहले भी नगण्य ही थी परन्तु आर्थिक स्थिति का कोई भी ब्यौरा दिये बगैर ऐसे नीतिगत फैसलों से ये प्रभाव देने की कुचेष्टा है जैसे यह सब सरकार को मजबूरीवश ही करना पड़ रहा हो ।

बहरहाल जनता की भरपूर सामाजिक एकजुटता के बावजूद भारी संख्या में अनेकों लोग स्वास्थ सेवाएं और अन्य सुविधाएं तो दूर मात्र भोजन तक के मोहताज हैं तो निश्चित तौर पर शासन-प्रशासन के स्तर पर प्रबंधन व राहत पहुंचाने के काम में यह बड़ी विफलता है। लगभग हर शहर में पीड़ित लोग दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं पर कोई यह बताने वाला नहीं है कि जाएं तो जाएं कहां। भोजन तक के लिए बाहर कदम रखते हैं तो पुलिस द्वारा पीटे जाने और अपमानित किए जाने का डर सिर पर मंडराता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि ये वही वंचित तबके हैं जिन्हें दशकों से भेदभाव व उत्पीड़न का शिकार बनाते हुए इस स्थिति में ला छोड़ा है। उनके मन में अब यह सवाल आना लाजमी है कि सबका साथ मांगते हुए जो सबका विकास और सबका विश्वास की जो बात कही गई थी वो केवल थोथी जुमलेबाजी ही थी।

समय रहते प्रबंध करने की विफलता का नज़ारा हर क्षेत्र में देखा जा सकता है

अनाज मंडियों में जो बदहाली है उसकी तो तस्वीरें भी नहीं देखी जाती। फ़सलों की ख़रीद के मामले में जो अफरा-तफरी सामने आई उसे लेकर सरकार और उसका प्रशासन इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। अनाज खरीद का विषय कोरोना से जूझने में खाद्य सुरक्षा के लिए जो अहमियत रखता है उसे नहीं समझा जा रहा। ख़रीद प्रबंधन की कोताही और प्रणाली में किये गए एकतरफा बदलावों का परिणाम यह है कि किसान और उसकी फ़सल दोनों ही दुर्गति के शिकार हुए हैं। खुले आकाश के नीचे लाख़ों क्विंटल अनाज बरसात में भीग कर बर्बाद हो गया। तुलने के बावजूद ये नुकसान किसान के ही खाते में है।

किसी को नहीं पता कि आढ़तियों की हड़ताल का असली मुद्दा क्या है। सरकार ने खरीद प्रणाली को लेकर किसान संगठनों से परामर्श करना जरूरी नहीं समझा। एक तरफ तो कहा गया कि आढ़ती इस मौके पर किसान से अपने बकाये की वसूली करना चाहता है इसलिए वह सरकार द्वारा किसान के खातों में सीधी पेमेंट का विरोध कर रहा है। जबकि किसान को यह डर भी है कि सरकार के बैंक भी किसान से इसी मौके पर कर्जे की वसूली करने की ताक में बैठे हैं। इस सन्दर्भ में यह कहावत कि चाकू चाहे खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर आखिर कटना तो खरबूजे को ही है, यहां चरितार्थ हो रही है। कहीं न कहीं यह सवाल भी है कि बिचौलिए के खात्मे की आड़ में सरकारी ख़रीद प्रणाली से ही सरकार पल्ला झाड़ने की ओर बढ रही है।

अनाज मंडी का प्रकरण यहां मात्र एक उदाहरण के रूप में लिया गया है।

इस विकट स्थिति में हरियाणा के मुख्यमंत्री की अपील कि नेता लोग अनाज मंडियों में न जाएं और गृह मंत्री द्वारा ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की सार्वजनिक धमकी केवल मात्र एक संयोग नहीं है। दरअसल यह लॉकडाउन की आड़ में शासन की विफलताएं छिपाने और जवाबदेही से बचने का ऐसा रुझान है जिसके स्पष्ट संकेत प्रशासन भी ले रहा है। अफसरशाही द्वारा मनमानी करने की अपनी एक चिरपरिचित तासीर है। ऊपर से राजनीतिक आकाओं की ओर से ऐसे निरंकुश संदेश मिलने के बाद अधिकतर अफसर जनता से कैसे पेश आते हैं यह समझना मुश्किल नहीं।

लोकतांत्रिक परंपराओं और पारदर्शी शासन प्रणाली को सरेआम धता बताते हुए लोगों के अधिकारों को बाईपास करने की ऐसी परिपाटी लॉकडाउन जैसी असामान्य परिस्थितियों में पड़ जाने की संभावनाएं ज़्यादा रहती हैं। 1975 की इमरजेंसी का दौर इसका प्रमाण है।

यह लोकतंत्र के लिए तो घातक है ही साथ में जिस कोरोना से निपटने के नाम पर यह सब चल रहा है वह वास्तव में बीमारी विरोधी लड़ाई को भी कमजोर ही कर रहा है। ऐसी मनमानीपूर्ण कार्यप्रणाली भ्रष्टाचार के फलने फूलने के लिए भी अनुकूल वातावरण पैदा करती है।

उल्लेखनीय है कि लॉकडाउन की अनुपालना अपने आप में कोई कानून व्यवस्था का मसला नहीं है। इसमें लोगों की सक्रिय हिस्सेदारी जरूरी है। जीवंत संवाद के बिना जन-हिस्सेदारी संभव नहीं होती। सूचना तंत्र अपने आप में एक ऐसा कारक है जिसकी मजबूती के बिना इतना अहम अभियान चल नहीं सकता। हम देख रहे हैं कि सूचना तंत्र दयनीय दशा में है। दो-चार किल़ो राशन के लिए एक व्यक्ति को बैंकों, खाद्य आपूर्ति दफ़्तर, नगर पार्षद आदि के चक्कर काटने को बाध्य किया जा रहा है। उसे यह नहीं पता कि उसे कहां जाना चाहिए। इस प्रकार चक्कर कटवाने के लिए बाध्य करना क्या लॉकडाउन को कमजोर करना नहीं है ? यदि आम आदमी लॉकडाउन तोड़ते पाया जाए तो उसे दंडित किया जाता है। तो ज़रूरतमंद व्यक्तियों को चक्कर कटवाने को बाध्य करने वाले अधिकारी और उनके आका क्या जवाबदेह नहीं हैं?

जनता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए और उन्हें अभियान में सक्रिय रूप से शामिल किए बिना सूचना तंत्र और राहत कार्यों को भी कारगर नहीं बनाया जा सकता। धरातल पर स्थिति यह है कि हेल्पलाइनों के फोन कोई उठाता नहीं है। विपक्षी ‌ दलों के प्रतिनिधियों से ज़िले के उच्चाधिकारी मिलना नहीं चाहते। यदि वे प्रशासन तक लोगों की दिक्कतें पहुंचाना चाहते हैं तो इसे फालतू का सिरदर्द समझा जा रहा है।

जनतंत्र को विस्तार देने के लिए जन के तत्व को बढ़ाया जाना जरूरी है न कि तंत्र के शिकंजे को और कस दिया जाए। इस संदर्भ में कोरोना को नियंत्रित करने में केरल को एक मॉडल की तरह से दुनिया भर में सराहा गया है। पिछले सप्ताह इंग्लैंड के प्रतिष्ठित अखबार 'द गार्जियन' ने अपने प्रथम पृष्ठ पर केरल सरकार और मुख्यमंत्री पिनराई विजयन की खुलकर तारीफ़ की है। वहां जन हिस्सेदारी अपने आप में एक निर्णायक व अनुकरणीय कारक रहा है।

देश में अभी कोरोना से मुक्ति मिलने के स्पष्ट संकेत नहीं हैं। बाद में लंबे समय तक इसके चौतरफा प्रभावों से रूबरू होना पड़ेगा। नव उदारीकरण की दिवालिया नीतियों की जगह जनपक्षीय और समतामूलक नीतियों को लाए बिना पहले से ही बढ़ी बेरोज़गारी और भी विकराल रूप लेगी, यह तय है। ग़रीबी की दर तथा आर्थिक विषमता की खाई और ज़्यादा बढ़ेगी। इसलिए बदहाली की शिकार बहुमत जनता को अभी से दृढ़ निश्चय के साथ शासन-प्रशासन की निरंकुशता पर लगाम लगाने और उसे जनतांत्रिक तरीके से पेश आने के लिए बाध्य करने की कार्यनीति अपनानी होगी।

(लेखक अखिल भारतीय किसान सभा के नेता हैं। आप मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) केंद्रीय समिति के पूर्व सदस्य भी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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