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‘ईश्वर के नाम पर’ शपथ संविधान की भावना के विरुद्ध

संविधान कहता है कि राज्य को विचार और कर्म में धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए और यही बात राजनीतिक पार्टियों के लिए भी लागू होती है।
‘ईश्वर के नाम पर’ शपथ संविधान की भावना के विरुद्ध

कर्नाटक में हालिया गठित नये मंत्रिमंडल में शामिल हुए भारतीय जनता पार्टी के कुछ सदस्यों ने देवता एवं देवियों-गोमाता, सेवा लाल, विजयनगर विरुपाक्ष एवं भुवनेश्वरी एवं अन्यान्य के नाम पर अपने पद एवं गोपनीयता की शपथ ली थी। उनका यह शपथ ग्रहण असंवैधानिक था। इसलिए कि यह संविधान में अंतर्निहित धर्मनिरपेक्षता के मूलतत्व के सर्वथा विपरीत था। संवैधानिक मूल्यों के इस तरह हो रहे क्षरण को देखते हुए संविधान में संशोधन करने का तकाजा है।

ईश्वर बिना प्रस्तावना

अक्टूबर 1949 में संविधान सभा में जोरदार बहस के आखिरी मुद्दों में से कोई विषय था, तो वह संविधान की प्रस्तावना का निर्माण था। बीआर आम्बेडकर ने प्रस्तावना की प्रारंभिक पंक्तियों के रूप में “हम भारत के लोग...” का प्रस्ताव रखा था।

इसके विपरीत, संविधान सभा के कुछ अन्य सदस्यों, जिनमें एचवी कामथ भी शामिल थे, उनका विचार था कि प्रस्तावना के शुरुआती वक्तव्य “हम भारत के लोग...” को बदल दिया जाए। इसकी जगह उन्होंने “ईश्वर के नाम पर, हम भारत के लोग…” का संशोधन सुझाव रखा था। कामथ के इस प्रस्ताव का कई अन्य सदस्यों ने इस आधार पर विरोध किया कि ईश्वर के नाम की प्रस्तावना करने से लोगों के लिए आस्था जताने की बाध्यता हो जाएगी और यह उनके धार्मिक विश्वासों या आस्था की उनकी स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा।

इस लिहाजन, कामथ के संशोधन प्रस्ताव को निरस्त करने की मांग करती हुई महिला सदस्या रोहिणी कुमार चौधरी ने कहा कि अगर ईश्वर के नाम पर शपथ को वैध ठहराया गया तो फिर उसमें देवियों के नाम पर संशोधन की गुंजाइश बनी रहेगी। “हम, शाक्त संप्रदाय से आते हैं और हम शक्ति की पूरी तरह अवहेलना कर अकेले देवता के नाम पर ही शपथ लिए जाने का विरोध करते हैं। उन्होंने कहा कि यदि हम ‘देवता के नाम पर…’ शपथ लेते हैं तो इसमें ‘देवियों के नाम’ को भी शामिल करना होगा।

आखिरकार संविधान सभा ने कामथ के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया। इसके लिए कहा गया कि किसी व्यक्ति-विशेष पर सामूहिक विचार नहीं थोपा जाना चाहिए। प्रस्तावना देश के प्रत्येक नागरिक के विचार, उसकी अभिव्यक्ति, उसके विश्वास एवं उसकी आस्था की आजादी का आश्वासन देता है। उसकी इसी विशेषता ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के एक अनीश्वरवादी संविधान को जन्म दिया है।

धर्म एवं गणतंत्र

धर्मनिरपेक्ष प्रस्तावना होने के बावजूद, संविधान की तीसरी अनुसूची एक विकल्प देता है कि या तो आप “ईश्वर के नाम पर” शपथ लें या “सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान” के आधार पर। यह शपथ लेने वाले व्यक्ति के विश्वासों पर निर्भर करता है।

शपथ में ईश्वर या उनके प्रतिनिधियों के नाम का उपयोग करने के बारे में अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उमेश चाल्लियिल (2012) के मामले में स्पष्ट किया था कि शपथ या तो ईश्वर के नाम पर या सत्यनिष्ठा के प्रतिज्ञान पर ली जानी चाहिए। अलबत्ता, शपथ की भाषा संविधान के शब्दों के सर्वथा अनुरूप होना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि ‘ईश्वर’ शब्द का गलत मायने नहीं निकाला जा सकता और न ही उसे किसी देवता के नाम पर प्रतिस्थापित ही किया जा सकता है।

केरल के कोडुनगल्लूर विधानसभा क्षेत्र के विधायक चाल्लियिल ने श्री गुरुनारायण गुरु के नाम पर अपने पद एवं गोपनीयता की शपथ ली थी। केरल हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर उनकी शपथ को चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने उनकी शपथ को संवैधानिकता का उल्लंघन करार देते हुए कहा कि ऐसा करते हुए वे संविधान के मूलभूत शब्दों से भटक गए थे और “श्री नारायण गुरु के नाम पर” शपथ ली। चाल्लियिल ने हाई कोर्ट के इस ऑर्डर को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए अपनी ली गई शपथ को इस आधार पर वैध करार देने की अपील की क्योंकि उनका विश्वास है कि नारायण गुरु उनके ईश्वर हैं।

शायद, सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता के अपरिहार्य सिद्धांतों की पुनः पुष्टि की थी। उस आदेश की रोशनी में, कर्नाटक के नए मंत्रियों की शपथ को अमान्य घोषित कर देना चाहिए। इसके अलावा, लोक सेवक होने तथा पूरे भारत की आबादी का प्रतिनिधि होने के कारण, एक संघीय सरकार का मंत्री किसी देवी-देवता विशेष के नाम पर अपने पद की शपथ नहीं ले सकता।

राज्य एवं धर्म का अलगाव

हालांकि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द 1976 में 42 वें संशोधन के जरिए संविधान में शामिल किया गया है। सर्वोच्च न्यायलय ने एस.आर. बोम्मई बनाम भारतीय संघ मामले (1994) में यह तथ्य स्थापित किया था कि भारत अपने जन्मकाल से ही एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र था।

सर्वोच्च न्यायालय का मानना था, “ राज्य के लिए सभी बराबर हैं एवं सभी अपने प्रति एक समान व्यवहार पाने के हकादार हैं। यह राज्य का मामला है, इसमें धर्म की कोई जगह ही नहीं है। ”संविधान राज्य को बाध्य करता है कि वह विचार एवं कर्मों से धर्मनिरपेक्ष रहे और यही बात देश के राजनीतिक दलों पर लागू होती है।

न्यायालय ने कहा कि “राजनीति और धर्म का घालमेल नहीं किया जा सकता। अगर कोई राज्य सरकार संविधान की अपरिहार्यताओं के विपरीत जा कर गैर-धर्मनिरपेक्ष नीतियों को आगे बढ़ाती है अथवा गैर-धर्मनिरपेक्ष काम करती है तो वह संविधान के अनुच्छेद 356 (राष्ट्रपति शासन) के अंतर्गत कार्रवाई के लिए स्वयं उत्तरदायी होती है।”

ब्रिटेन एवं अमेरिका का तुलनात्मक विश्लेषण

अलिखित होने के कारण धर्म के बारे में ब्रिटेन के संविधान का विश्लेषण करना जटिल काम है। वहां धर्मनिरपेक्षता को एक संवैधानिकता प्रदान करने वाली कोई विशेष संहिता, विधान या कोई परम्परा नहीं है। हालांकि, मानवाधिकार अधिनियम, 1998, जिसमें मानवाधिकारों के यूरोपीय सम्मेलन में उल्लिखित अधिकांश अधिकारों को शामिल किया गया है, व्यक्ति के अंतःकरण और धर्म की स्वतंत्रता की रक्षा करता है।

ब्रिटेन में अन्य धर्मो की तुलना में चर्च ऑफ इंग्लैंड को कुछ संवैधानिक विशेषाधिकार दिए गए हैं। इसीलिए, ब्रिटेन को राज्य से संदर्भित मामलों में ‘धर्मनिरपेक्ष’ कहने की बजाए ‘धर्मनिरपेक्षतावादी’ कहा जा सकता है।.

अमेरिकी संविधान का पहला संशोधन कहता है कि “कांग्रेस धर्म की स्थापना का सम्मान करने या उसके निर्बाध लोक व्यवहार पर रोक लगाने के लिए कोई कानून नहीं बनाएगी…।” अमेरिकी संविधान ‘ईश्वर’ का उल्लेख नहीं करता, इसके बावजूद वहां पदभार ग्रहण करने वाले राष्ट्रपति के अपनी शपथ के अंत  में “इसलिए, ईश्वर मेरी मदद करें” कहने की एक रवायत-सी चली आ रही है। हालांकि ‘ईश्वर’ का नाम लेने की कोई बाध्यता नहीं है।

भारत, हाल के दिनों में, नागरिकता संशोधन अधिनियम के जरिए भारत के धर्मनिरपेक्ष बहुलवाद को परिभाषित करने वाले सर्वोत्कृष्ट संवैधानिक ताने-बाने को उधेड़े जाने के प्रयास का गवाह बना है। इसने एक बहुसंख्यवादी समुदाय, बहुसंख्यकबाद के थोपे जाने तथा ईश्वर के नाम पर लिचिंग को संकेतित किया है।

किसी भी व्यक्ति के खुद के धार्मिक विश्वास होने या अविश्वासी होने के बावजूद, संवैधानिक पद धारण करने वाले ऐसे व्यक्ति की निष्ठा केवल संविधान के प्रति होनी चाहिए। भारतीय गणतंत्र इस राष्ट्र के बहु-धर्मी बहुल नागरिकता से ताल्लुक रखता है और एक व्यक्ति जो संवैधानिक स्थिति या पद धारण करता है तो उसे हमारे संविधान में सन्निहित आदर्शों के संरक्षण के लिए “ईश्वर के नाम” की बजाए “सत्यनिष्ठा के प्रतिज्ञान” की शपथ लेनी चाहिए। इसलिए, भारत के धार्मिक ताने-बाने को बनाए रखने के लिए इस आशय का एक संशोधन लाजिमी हो जाता है।

(वसंत आदित्य जे, कृतम लॉ एसोसिएट्स के संस्थापक हैं और कर्नाटक उच्च न्यायालय में अधिवक्ता हैं। वे ‘कंस्पेचुअल फॉउंडेशन ऑफ कंपीटिशन लॉ इन इंडिया’ किताब के लेखक भी हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)

सौजन्य: दि लीफ्लेट

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Oath ‘in the name of god’ is against the spirit of Constitution

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