कृषि कानूनों का एक साल, कैसे शुरू हुआ किसान आंदोलन
17 सितंबर को नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा संसद में पारित किए विवादास्पद तीन कृषि क़ानूनों को एक साल हो गया है। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद 10 दिनों के भीतर ये विधेयक कानून बन गए थे।
ये तीन कानून - किसान उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020, किसान (अधिकारिता और संरक्षण) मूल्य आश्वासन समझौता और कृषि सेवा अधिनियम, 2020 तथा आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 थे .
तीनों कानून कुल मिलाकर उत्पादन, विपणन, भंडारण और यहां तक कि कृषि उपज के मूल्य निर्धारण में कॉर्पोरेट जगत के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त करते हैं और किसानों को डर है कि शक्तिशाली कॉर्पोरेट संस्थाएं उनकी भूमि पर भी नियंत्रण हासिल कर सकती हैं। यह भी आशंका है कि इन कानूनों के लागू होने के बाद समर्थन मूल्य की मौजूदा व्यवस्था कमजोर और अर्थहीन हो जाएगी।
5 जून, 2020 को अध्यादेश के माध्यम से तीन विधेयकों को लागू किया गया था बाद में इन्हे 14 सितंबर को संसद में पेश किया गया था। 17 सितंबर को लोकसभा ने दो विधेयकों को पारित किया था।
जबकि पंजाब के किसानों ने जून में ही इन अध्यादेशों के खिलाफ विरोध करना शुरू कर दिया था, इन विधेयकों के कानून बनने के बाद ही अन्य राज्यों के किसान सड़कों पर उतरे और दिल्ली की तीन सीमाओं - सिंघू, टिकरी और गाजीपुर पर डेरा डाल कर बैठ गए थे।
संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले 40 से अधिक किसान यूनियनों ने एक संयुक्त मोर्चा बनाया, जो तभी से इन तीन कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहा है, उनका कहना है कि ये कानून न केवल उन्हें राज्य सरकार द्वारा तय की जाने वाली उचित एमएसपी से वंचित करते हैं बल्कि निजी खिलाड़ियों को उनकी जमीन लेने की भी इजाजत देते हैं।
किसानों का विरोध और सरकार से बातचीत
17 सितंबर: लोकसभा ने किसान उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020, किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अधिनियम, 2020 को पारित किया तथा आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020 को लोकसभा में 14 सितंबर को पारित किया था।
20 सितंबर: राज्यसभा ने कृषि विधेयकों को ध्वनिमत से पारित किया।
24 सितंबर: पंजाब के किसानों ने कानून के विरोध में तीन दिवसीय रेल रोको आंदोलन शुरू किया।
27 सितंबर: राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने राजपत्र अधिसूचना के माध्यम से तीन विधेयकों को कानून बनाकर मंजूरी दी।
1 अक्टूबर: 31 किसान यूनियनों ने अनिश्चितकालीन रेल रोको आंदोलन शुरू किया, जिससे पूरे पंजाब में माल और यात्री ट्रेनों को अवरुद्ध कर दिया गया।
22 अक्टूबर: किसानों ने मालगाड़ी रेल से नाकेबंदी हटाई, और रेलवे पटरियों से होते हुए स्टेशनों तक विरोध प्रदर्शन किए।
24 अक्टूबर: नरेंद्र मोदी सरकार ने नाकाबंदी का हवाला देते हुए पंजाब जाने वाली सभी मालगाड़ियों को निलंबित कर दिया।
25 अक्टूबर: संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के तहत किसान यूनियनों ने दिल्ली चलो का आह्वान किया, कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर राजधानी तक मार्च करने की योजना बनाई।
13 नवंबर: एसकेएम और केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बीच सात घंटे की आधिकारिक वार्ता विफल रही। किसान यूनियनों ने दिल्ली चलो योजना के साथ आगे बढ़ने का फैसला किया।
25 नवंबर: जब हरियाणा पुलिस और केंद्रीय पुलिस बल ने पंजाब के किसानों को दिल्ली की ओर बढ़ने से रोकने की कोशिश की थी तो पंजाब-हरियाणा सीमा पर झड़प हुई।
26 नवंबर: पंजाब और हरियाणा के हजारों किसान जो ट्रैक्टर-ट्रॉलियों में सवार होकर दिल्ली की ओर मार्च कर रहे थे, उन्हें राजधानी में प्रवेश करने से रोक दिया गया। किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर आंसू गैस के गोलों, पानी की बौछारों और लाठीचार्ज का सामना करना पड़ा। इसके बाद किसानों ने सिंघू बॉर्डर पर ही डेरा डाल लिया।
1 दिसंबर: किसान यूनियनों और मोदी सरकार के बीच चार घंटे तक चली बैठक बेनतीजा रही. किसानों की चिंताओं पर ध्यान देने के लिए पांच सदस्यीय समिति बनाने के तोमर के प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया, लेकिन अगले दौर की बातचीत के लिए सहमत हो गए।
3 दिसंबर: किसानों ने कृषि मंत्री के साथ बातचीत में 10-पृष्ठ का एक दस्तावेज प्रस्तुत किया, जिसमें कानूनों पर अपनी आपत्तियों को सूचीबद्ध किया और क़ानूनों को पूरी तरह से वापसी की मांग की गई। सात घंटे से अधिक समय के बाद भी वार्ता बेनतीजा रही, किसान यूनियनों ने तीन कानूनों में संशोधन के सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
5 दिसंबर: किसान यूनियनों के सख्त रुख की वजह से वार्ता अनिर्णायक रहती है, तीन कानूनों को पूरी तरह से निरस्त करने की मांग दोहराई गई जबकि सरकार केवल संशोधनों पर टिकी रही।
8 दिसंबर: एसकेएम के आह्वान पर, किसानों की कृषि कानूनों को खत्म करने की मांग के समर्थन में देश के बड़े हिस्से में भारत बंद किया गया।
9 दिसंबर: किसान यूनियनों ने तीन कानूनों में संशोधन के लिए बने सरकार के मसौदे को ख़ारिज़ कर दिया.
16 दिसंबर: किसान यूनियनों ने केंद्र को लिखित जवाब भेजा, मसौदा प्रस्ताव को ख़ारिज़ करते हुए कहा कि इसमें कुछ भी नया नहीं है और कानूनों को निरस्त करने की फिर से मांग की।
25 दिसंबर: पीएम मोदी ने एक सार्वजनिक संबोधन में सीधे किसानों से अपील की, जिसके बाद किसानों के साथ ऑनलाइन बातचीत हुई। प्रधानमंत्री ने किसानों से वार्ता के लिए वापस लौटने और तथ्यों पर बहस करने के लिए कहा।
26 दिसंबर: किसान यूनियनें फिर से चार शर्तों पर बातचीत शुरू करने पर सहमत हो गई, जिसमें तीन कानूनों को निरस्त करने के तौर-तरीकों को तय करना, न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण (एमएसपी) पर सुनिश्चित कानून बनाना, पराली जलाने के लिए कोई जुर्माना नहीं लगाना और किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए बिजली विधेयक 2020 में संशोधन को वापस लेने की बात कही गई थी।
30 दिसंबर: मोदी सरकार ने छठे दौर की वार्ता में चार में से दो मांगों को स्वीकार किया। सरकार किसानों को वायु गुणवत्ता प्रबंधन अध्यादेश के दंड प्रावधानों से बाहर करने और बिजली विधेयक 2020 के मसौदे को आगे नहीं बढ़ाने पर सहमत हुई, लेकिन सरकार ने कानूनों को निरस्त करने से इनकार कर दिया।
8 जनवरी: मोदी सरकार ने सातवें दौर की वार्ता में तीन कानूनों को निरस्त नहीं करने पर कड़ा रुख अपनाया, किसानों से कहा कि अगर वे चाहें तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकते हैं।
12 जनवरी: सुप्रीम कोर्ट ने तीन कृषि कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगा दी, किसानों की चिंताओं पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए एक समिति भी बनाई। हालांकि, किसान यूनियनों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी से मिलने से इनकार कर दिया।
20 जनवरी: किसान यूनियनों के साथ बातचीत में सरकार थोड़ा झुकी, और विवाद सुलझने तक डेढ़ साल के लिए कृषि कानूनों को निलंबित करने का प्रस्ताव रखा।
22 जनवरी: वार्ता विफल रही क्योंकि किसान यूनियनों ने सरकार के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। दोनों पक्षों ने अगले दौर की वार्ता के लिए कोई तारीख तय नहीं की।
26 जनवरी: गणतंत्र दिवस ट्रैक्टर रैली के दिन एसकेएम के तय मार्ग से भटक रहे कुछ किसानों के कारण लाल किले और दिल्ली के कुछ हिस्सों में हिंसा हुई।
3 फरवरी: किसान यूनियनों ने विरोध के प्रति अपना समर्थन बढ़ाने के लिए महापंचायतें शुरू की।
26 मई: दिल्ली की सीमाओं पर छह महीने के विरोध प्रदर्शन को चिह्नित करने के लिए किसानों ने काला दिवस मनाया।
22 जुलाई: संसद का मानसून सत्र शुरू होते ही दिल्ली के जंतर मंतर पर किसान संसद शुरू की गई। किसान संसद में किसानों ने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने पर चर्चा की।
28 अगस्त: हरियाणा के करनाल में किसानों के विरोध प्रदर्शन पर लाठीचार्ज किया गया।
5 सितंबर: यूपी के मुजफ्फरनगर में महापंचायत हुई जिसमें पूरे उत्तर भारत से लाखों किसान शामिल हुए। किसानों ने तीन कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध जारी रखने का संकल्प लिया, आगामी राज्य चुनावों में भाजपा के खिलाफ अभियान चलाने का भी निर्णय लिया गया।
10 सितंबर: सरकार द्वारा लाठीचार्ज का आदेश देने वाले अधिकारी के खिलाफ जांच का आश्वासन दिए जाने के बाद ही किसानों ने करनाल धरना वापस लिया।
27 सितंबर: किसान यूनियनों ने कानून पारित होने के एक साल के विरोध को चिन्हित करते हुए भारत बंद का ऐलान किया है।
भारत बंद से पहले किसान यूनियन के नेताओं ने कहा कि 17 सितंबर किसानों के लिए 'काला दिन' है। “हम एक काला दिन मना रहे हैं। एक साल बीत चुका है और केंद्र सरकार इतनी निरंकुश और फासीवादी है कि उसने गतिरोध को हल करने के लिए कोई पहल नहीं की है।
उन्होंने कहा, "पिछले साल हमने दूसरे राज्यों के लोगों को भी आंदोलन में जुटाया है और यूपी और राजस्थान में महापंचायत सफलतापूर्वक आयोजित की गई हैं।"
किसान नेताओं ने कहा कि वे एक साल बीत जाने के बावजूद लंबे आंदोलन के लिए तैयार हैं। “हमारा विरोध चल रहा है इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि एक साल बीत गया। अगर दो साल भी बीत जाएं तो भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि हमारा संघर्ष जारी रहेगा और जब तक कानून निरस्त नहीं हो जाते, हम पीछे नहीं हटेंगे। एसकेएम के एक वरिष्ठ नेता जगजीत सिंह डालेवाल ने कहा कि, 17 सितंबर वह काला दिन कहलाएगा जब हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों ने किसान विरोधी कानूनों को पारित करके हमें धोखा दिया था।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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