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पड़ताल : तीन-तलाक़ क़ानून के एक साल बाद...

इतनी बहसों के बावजूद, क़ानून आ जाने के बाद भी गुज़रे एक साल के दौरान ऐसे तलाक़ के केस आना कम नहीं हुए। अब तीन तलाक़ का एक नया चोर दरवाजा खोल लिया गया है, जिसका नाम है- तलाक़-ए-अहसन
triple talaq law

कैफ़ी आज़मी साहब ने अपनी नज़्म औरत में बेहद ख़ास बातें दर्ज कीं। वो औरत को ललकारते हुए कहते हैं- रुत बदल डाल अगर फूलना फलना है तुझे... अपनी तकदीर का उन्वान बदलना है तुझे... राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे... उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे...। हिन्दुस्तान की औरतें कैफ़ी के इस आह्वान पर रूत बदलने निकल पड़ीं, खुद में जोश, अक्ल और हिम्मत भर कर सवाल पूछने लगी व्यवस्था से। मुसलमान औरतों ने अपनी आज़ादी के लिए लंबा संघर्ष किया, नाइंसाफी के सवालों को हिम्मत से उठाया, उनका क़ाफ़िला कभी रुकने नही पाया और हिन्दुस्तान की तारीख़ में 22 अगस्त 2017 दर्ज हो गया। सुप्रीम कोर्ट ने तलाक़-ए-बिद्दत को असंवैधानिक करार दे दिया। यूं तो अगस्त तारीख़ी महीना पहले से ही था, अगस्त क्रान्ति, देश की आज़ादी की घोषणा ये सब इसी महीने में हुईं।

हंगामाख़ेज बहसें खूब चलीं, एक तरफ मज़हबी तंजीम मुस्लिम औरतों को सुप्रीम कोर्ट में कम अक़्ल और तीन तलाक़ को आस्था बता रही थी, वही दूसरी ओर सरकार का दर्द मुस्लिम औरतों के लिए छलका जा रहा था। दो अध्यादेशों से गुजरते हुए आखिर तीन तलाक़ पर क़ानून 30 जुलाई 2019 में बन ही गया। क़ानून बनना तो बहुत ज़रूरी था ही, क्योंकि इस नाइंसाफ़ी को औरतें सदियों से अपने कांधे पर ढो रही थी। ये अलग बात है कि जब क़ानून बना तो उसमें कई बड़े सुराख रह गए, जिन्हें भरा जाना अभी बाकी है।

इतनी बहसों के बावजूद, क़ानून आ जाने के बाद भी गुज़रे एक साल के दौरान ऐसे तलाक़ के केस आना कम नहीं हुए, अगर हम सिर्फ उत्तर प्रदेश के केसों को ही लें तो पाते है कि क़ानून बनने के महज 28 दिन के अन्दर (मेरठ 26, सहारनपुर 17, शामली 10, वाराणसी 10) 216 केस दर्ज हुए और उनमें से मात्र 2 केस में गिरफ्तारी हुई, तत्कालीन डीजीपी श्री ओम प्रकाश सिंह का कहना था कि इस क़ानून को और प्रभावी बनाने और इसके आरोपियों की गिरफ्तारी की हम सम्भावनाएं तलाश रहे है। वह पूरी न हो सकीं, और औरतें बेदर-बेघर भटकती ही रहीं।

इसके बाद बाराबंकी में 6,लखनऊ में 9, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, फतेहपुर, आगरा, बलिया, कुशीनगर, मथुरा, हाथरस, बदायूं से 1-1 मामले संज्ञान में आए है। जिनमें प्रथम सूचना तो लिखी गई लेकिन वहां भी एक-दो मामलों को छोड़ कर किसी में गिरफ्तारी नहीं हुई। इसके अलावा और भी न जाने कितने मामले होगे जो न तो थाने और न ही महिला संगठनों तक पहुंच पाए होंगे। पुलिस की इतनी ढीली-ढाली कार्रवाई का लाभ भी पतियों ने उठाया और वह धार्मिक संगठन से तलाक़ ले आए। यह बिल्कुल वैसे ही जैसे घरेलू हिंसा के अन्य मामलों में महिला आज भी भटकती रहती है और थाने प्रथम सूचना दर्ज करने से बचते हैं। वहीं लखनऊ के हुसैनगंज, सआदतगंज व ऐशबाग निवासी एक-एक महिला सहित लखनऊ में पहले से चल रहे मामलों में 13 में समझौता भी हो गया।

इसके अलावा वह मामले जो मजहबी अदालतों (दारूल क़जा) में गए उनमें भी एक नया ट्रेड नज़र आया। मुस्लिम महिला का विवाह में संरक्षण अधिनियम-2019 क़ानून आने के बाद अब दारूल इफ्ता (फ़तवा केन्द्र) ने ऐसे मामलों में तीन तलाक़ की जगह एक नया चोर दरवाजा खोल लिया है। जो कमोबेश वैसा ही है। अब जो फतवे वह जारी कर रहे है उसमें पति लिख रहे हैं कि मैंने पत्नी को तलाक़-ए-अहसन दिया, और मुफ़्ती फ़तवे में लिख रहे हैं कि यदि तीन माह तक लड़की रूजू नहीं करती तो तलाक़ हो जाएगा। न दोनों पक्षकारों के बीच कोई सुलह-समझौता न परिवार बचाने की कोशिश। जो तलाक़ पहले 3 सेकेन्ड में हो जाता था अब वह तीन माह का वक्त किसी तरह काट कर, लड़की को बहाने से मायके पहुंचाकर हो रहा है। तलाक़-ए-अहसन का उल्लेख क़ुरआन में नहीं है लेकिन धार्मिक संगठनों में तैयार क़ानून में है। तलाक़-ए-अहसन में पति अपनी पत्नी को शुद्व काल में केवल एक बार उसे सम्बोधित करते हुए कहता है मैंने तुम्हें तलाक़ दिया, इसके बाद पत्नी तीन मासिक धर्म तक इद्दत का पालन करे, इस बीच सम्भोग भी न हो, पत्नी उसी घर में रहे और तीन माह पूर्ण होने पर यदि उनके बीच समझौता न हो केवल वक्त बीत गया हो तो भी तलाक़ पूर्ण मान लिया जाता है। तलाक़ की यह विधि भी अनिवार्य मध्यस्थता की बात नहीं करती, इसी का परिणाम दिख रहा है कि पति अब तीन तलाक़ न देकर तलाक़-ए-अहसन दे रहे है मुफ्ती के ऐसे फ़तवे गैरज़िम्मेदाराना और क़ुरआन के विरूद्ध भी है।

नूरी बानो (बदला हुआ नाम) ने बताया कि लॉकडाउन में वह अपने मायके में थी, उन्हें एक स्पीड पोस्ट से फतवा प्राप्त हुआ कि उन्हें पति ने तलाक़-ए-अहसन दे दिया है। खतीजा ने बताया कि उनके पति ने उन्हें पत्र भेजा कि उन्होंने उन्हें एक तलाक़ दे दिया है, उसके बाद वह गायब है सलमा बेगम ने बताया कि वह घर में ही थी पति ने एक दिन अचानक ही कहा कि वह उन्हें तलाक़-ए-अहसन दे रहे हैं। ऐसे अनेकों मामले जो मज़हबी अदालत गए उनका तलाक़ हो चुका है, पड़ताल में एक प्रतिशत महिलाएं भी मज़हबी संगठन के फतवे को चुनौती देने की हिम्मत नहीं कर पाई जबकि 1988 में केरल हाईकोर्ट ने सनाउल्लह गनाई बनाम मौलवी अकबर के केस में भी फ़तवों को अमान्य किया था जिसमें सनाउल्लाह को इस्लाम धर्म से बाहर कर दिया और फ़तवे के माध्यम से उसे गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया गया था। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में एक और फ़ैसले में फ़तवों को अमान्य करार दिया था, और उन्हें जबरन लागू कराने वाले पर कठोर कार्यवाही करने के संकेत दिए थे। महिलाओं की ऐसी स्थिति सरकार की असफलता के कारण ही है, यदि पुलिस सक्रिय रूप से ऐसे मामलों में अपना दखल देती तो महिला को इंसाफ तो मिलता ही साथ ही धार्मिक संगठनों द्वारा दिए जा रहे ऐसे फैसलों से भी समाज को बचाया जा सकता था।

लखनऊ निवासी नेट बॉल की नेशनल खिलाडी सुमैरा जावेद ने कहा कि पुलिस ने उनकी एफआईआर तो दर्ज की परन्तु उनके केस को लगातार कमजोर कर दिया, आईजीआरएस पोर्टल पर भी उनकी शिकायत को निस्तारित बता दिया गया। इसी तरह अफरोज निशां भी पुलिस पर सवाल करती हैं और कहती हैं कि पुलिस ने उनके केस में मदद नहीं की, स्वयंसेवी संस्था उनका मामला लड़ रही है रूबीना मिर्ज़ा भी ऐसा ही आरोप लगाती है कि जब उनके पति ने उन्हें मार-पीट कर घर में कैद कर दिया था तो पुलिस की मदद से वह बाहर तो निकली लेकिन पुलिस ने उनके ही घर में उन्हें चोरी का आरोपी बना दिया। यह हाल तब है जबकि उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव गृह श्री अविनाश अवस्थी ने पुलिस को ऐसे मामलों में प्राथमिकता के आधार पर एक्शन लेने के निर्देश दिए हैं।   

इस गुज़रे साल में शरीयत का जितना बोलबाला सुनाई दिया शायद ही कभी सुनाई दिया हो। यहां यह जानना भी ज़रूरी है कि आखिर शरीयत है क्या? शरीयत का शाब्दिक अर्थ है अनुसरणीय मार्ग अर्थात जो अनुकरण करने योग्य हो। अल्लाह के कुछ निर्देश अनिवार्य हैं, कुछ अपेक्षित हैं और कुछ वैकल्पिक हैं अर्थात जिन्हें पालन किया भी जा सकता है और नहीं भी। इस प्रकार अल्लाह ने मानवीय आचरण के लिए मार्गदर्शन दिया है। अल्लाह के इन्ही निर्देशों को शरीयत कहते हैं। स्पष्ट है कि तीन तलाक़ मानवीय आचरण नहीं है। इसलिए वह क़ुरआन में भी नहीं है। दुर्भाग्य है कि चलन में अभी भी बना हुआ है।

हमें एक बात और समझनी पड़ेगी कि शरीयत और शरीयत क़ानूनों में फर्क है। जिन्हें हम शरीयत क़ानून कहते है वह क़ुरआन के आधार पर नहीं बनाए गए हैं। वह इंसानों के बनाए गए क़ानून है, विशेषकर पारिवारिक क़ानून। जिसमें क़ुरआन का 5 प्रतिशत नियम भी लागू नहीं है। यह हदीसों पर आधारित है और हदीसें क़ुरआन आने के 250 से 300 साल बाद लोगों द्वारा लिखे गए दस्तावेज़ हैं जिनका कोई प्रमाणिक स्रोत भी नहीं मिलता।

हमारे सामने जो क़ानून अभी मौजूद है वह है मुस्लिम विधि समय के साथ यह मुहम्मडन लॉ और बाद में एंग्लों मोहम्मडन लॉ कहलाया। मौजूदा मुस्लिम विधि को इस्लामिक लॉ कहना या समझना एक भूल है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इसे ही इस्लामिक लॉ समझा जाता है। यह मुस्लिम विधि भी इंसाफ़ आधारित नहीं है कम से कम क़ुरआन में जो हक़ औरत को दिए इस विधि में उनका उल्लेख तक नही है। इस नाइंसाफी भरे क़ानून के साथ ही हिन्दुस्तान की मुसलमान औरते लंबे समय से जी रही है।

आंग्ल संसद ने शरीयत एप्लीकेशन एक्ट 1937 बनाया। मोटे तौर पर समझें तो यह एक्ट मुसलमानों पर मुस्लिम विधि ही लागू होगी इस बात का महज़ एक एनाउन्समेन्ट ही रहा। क़ानून तो पुराना ही लागू रहा।

शरीयत एक्ट 1937 क्यों बनाया गया? जैसा कि विदित है मुसलमानों के पास एक अपनी मुस्लिम विधि पहले से थी, उसमें तब से लेकर अब तक कोई विशेष सुधार नहीं हुआ है। 1937 से पहले भारतीय आंग्ल अदालतें सम्परिवर्तित मुसलमानों के उत्तराधिकार के मामले मुस्लिम विधि के अनुसार न देखकर प्रथागत हिन्दू विधि द्वारा विनियमित कर दिया करती थींजो मृतक के जीवन के अधिकांश वर्षों तक लागू रहीं। इससे मुस्लिमों पर गैर-मुस्लिम विधि लागू हो जाया करती थी। मुसलमानों के मन में इससे कई आशंकाए उभरी, उन्हें लगा कि ऐसा करने से मुस्लिम विधि के दूषित हो जाने की सम्भावना थी। यह सवाल उठने लगा। तत्पश्चात ब्रिटिश-शासन प्रणाली ने किसी भी प्रकार की प्रथा एवं अन्य विधि को मुस्लिम व्यैक्तिक विधि में स्थान न देने के उद्देश्य से केन्द्रीय विधान मण्डल ने यह अधिनियम पारित किया। इस अधिनियम की धारा 2- यह निर्धारित करती है कि वैयक्तिक मामलों से सम्बन्धित किसी वाद में यदि दोनों पक्षकार मुस्लिम हैं तो निर्णय देने में केवल मुस्लिम विधि के नियम ही लागू होंगे, इन मामलों में कोई प्रथागत विधि लागू नही हो सकती। इस धारा में निम्न मामले वैयक्तिक मामले माने गए है-

निर्वसीयत उत्तराधिकार (विरासत), महिलाओं की विशिष्ट सम्पत्ति, विवाह, विवाह विच्छेद (सभी प्रकार के), भरण-पोषण अथवा निर्वाह, मेहर, संरक्षकता, दान, न्यास एवं न्यास सम्पत्तियां और वक़्फ़।

अदालतें अब उपरोक्त मामलों में मुस्लिम विधि लागू करने के लिए न केवल सक्षम है वरन बाध्य भी हैं।

भारतीय मुसलमानों के कार्यकलापों के केवल वह पक्ष जो वैयक्तिक या कौटुम्बिक कहलाते हैं जिनका उल्लेख शरीयत एक्ट में है मुस्लिम विधि द्वारा विनियमित किए जाते हैं।

शरीयत एक्ट बनवाने का उस दौर के मुसलमानों का बस इतना ही मकसद रहा, लेकिन जो मुस्लिम विधि पहले से चल रही थी जो नाइंसाफी पर थी, उसमें सुधार करने का कोई प्रयास न तो सरकार और न ही मुस्लिम समुदाय ने किया।

एक लंबे समय के बाद इस सदी की मुस्लिम महिलाओं ने यह बीड़ा ज़रूर उठाया और यह महसूस भी किया कि जो अधिकार उन्हें संविधन और क़ुरआन से मिले मुस्लिम विधि उन अधिकारों को उनसे छीन लेना चाहती है। आवाज़ उठी और उसका असर दूर तलक हुआ।

चूंकि मुस्लिम विधि में फंस कर मुस्लिम महिलाओं को कभी इंसाफ नहीं मिल पाएगा, तीन तलाक़ क़ानून बन जाने के बाद भी हमने देखा दूसरे रास्ते अख़्तियार कर उन्हें घर से बेदख़ल किया जा रहा है। इसलिए उनकी अगली मांग यही है कि संविधान के आलोक में एक भारतीय पारिवारिक क़ानून बने जिसकी बुनियाद इंसाफ पर हो किसी धर्म ग्रन्थ पर नहीं। उसी दिशा में प्रयास किए जाने की ज़रूरत है। टुकडों-टुकडों में क़ानून बनाना और उसका प्रयोग महिला हित नही राजनीतिक हित साधने के लिए करना महिलाओं के साथ छलावा है। वह अपने आप को समाज के हवाले नहीं करना चाहती ताकि कोई भी उनके जीवन का फ़ैसला करता रहे।

यह भी बड़ा सवाल है कि मुस्लिम महिला अधिकार के प्रश्न को धार्मिक चिंताओं से बाहर खींच कर मानवाधिकार के प्रश्न के रूप में स्थापित किया जाए। यह तभी मुमकिन हो पाएगा जब इंसाफ़ पसंद क़ानून बने और उसे लागू करने की सरकार की मंशा भी साफ़ हो, वरना उसका हश्र भी तीन तलाक़ क़ानून वाला ही होगा वह किसी राजनीतिक दल को तो लाभ पहुंचा पाएगा परन्तु महिला को नहीं।

 

(लेखक रिसर्च स्कॉलर व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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