ऑनलाइन शिक्षा पैकेज: मनुवाद और मनीवाद!
कोरोना महामारी संकट वर्तमान में दुनिया भर में व्याप्त है। इस महामारी की शुरुआत रहस्यमयी थी और इसका अंत भी कोई नहीं जानता। कोरोना के रहस्यमय शुरुआत के बारे में अफवाहें मुख्य लड़ाई से लोगों को विचलित कर रही हैं फिर भी आशावादी दुनिया अंधेरे में भटक रही है। एक-दूसरे के गलतियों से और अनुभवों से सीखना दुनिया ने शुरू कर दिया है। दुनिया ने इस संकट से कई सबक सीखे हैं जिनमें से एक ‘सरकारों की कमजोरी’ है।
कोरोना आपातकाल में आम जनता को इस सरकार से उम्मीदें होना स्वाभाविक है। सरकार लोगों की समस्याओं को हल करने की कोशिश कर रही है लेकिन क्या सरकार की नीति और नीयत इसके लिए सही है? यह एक वास्तविक प्रश्न है जो कई क्षेत्रों में विभिन्न समस्याओं के साथ आया है। विभिन्न समस्याओं में से एक मुख्य समस्या शिक्षा के क्षेत्र में है। इस मुद्दे को देखते हुए यह एक सवाल है कि क्या सरकार इस मुद्दे पर पर्याप्त गंभीर है? हाल ही में, केंद्र सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये के वित्तीय पैकेज की घोषणा की। इस घोषित कार्यक्रम से सरकार की नीति की दिशा स्पष्ट है। यह सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण है जिसमें शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र कोई अपवाद नहीं हैं। अपने पांचवें दिन के संवाददाता सम्मेलन में वित्त मंत्री ने शिक्षा के संबंध में कुछ घोषणाएं कीं। कोरोना संकट के दौरान शिक्षा क्षेत्र में पैदा हुई समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार के प्रयास पर्याप्त हैं या नहीं, इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए।
कोरोना संकट में लोगों को चार-आयामी दृष्टिकोण का उपयोग करना चाहिए। लोकतंत्र की वास्तविकता यह है कि वर्तमान सरकार 2024 तक विभिन्न क्षेत्रों में विशेषज्ञों की कमी के बावजूद सत्ता में बनी रहेगी इसलिए, लोगों को समर्थन-संवाद-संघर्ष और समन्वय के चार आयामों का उपयोग करना चाहिए।
कोरोना संकट ने दुनिया भर के शिक्षा क्षेत्र को प्रभावित किया है। बेशक विद्यार्थी इससे अधिक प्रभावित होता है। यूनेस्को के अनुसार, कोरोना ने दुनिया भर में कुल 126 करोड़ छात्रों की शिक्षा रोक दी है। इसमें से 32 करोड़ अकेले भारत के हैं। दुनिया भर में प्रभावित होने वाली संख्या कुल छात्रों का 72 प्रतिशत है।
इसलिए, सरकार को शिक्षा के क्षेत्र पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। असल में शिक्षा के लिए अलग से एक वित्तीय सहायता पैकेज दिया जाना चाहिए था। यह सरकार के ऋण पैकेज का मूल दोष है। वित्त मंत्री ने शिक्षा को लेकर पीएम ई विद्या कार्यक्रम की घोषणा की। इस विषय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने भी पिछले महीने कुछ आदेश जारी किए थे। यद्यपि कोरोना संकट गहरा रहा है फिर भी सरकार देश और देशवासियों के प्रति अपनी नीति को बदलने के लिए तैयार नहीं है। सरकार, जो "एक नेता, एक झंडा, एक पार्टी" की तानाशाही व्यवस्था की भाषा बोलती है, वही शिक्षा क्षेत्र में "एक वर्ग, एक चैनल, एक देश, एक डिजिटल मंच" की नीति जारी रखे हुई है। यह असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है। कोरोना के कारण सभी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय बंद हैं। इससे समाज में छात्रों के भविष्य को लेकर चिंता बढ़ गई है। चूँकि शिक्षा का विषय संविधान के अनुसार केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के दायरे में है, राज्य सरकारों की सहमति और सहयोग के बिना किसी भी नीति या कार्यक्रम का कार्यान्वयन असंभव है। ऐसा क्यों दिखाया गया है कि सरकार को इसकी जानकारी नहीं है? कम से कम यहां हमें शिक्षा क्षेत्र पर केंद्र सरकार की घोषणा पर कुछ आपत्तियां उठानी होंगी।
सबसे पहली बात, यह योजना बिना दांत और पंजे के एक बाघ की तरह है। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी भी सरकारी घोषणा को वित्त पोषित किया जाना होता है। वित्त मंत्री ने शिक्षा क्षेत्र के कार्यक्रमों के लिए किसी भी वित्तीय कोष का उल्लेख नहीं किया है। सरकार द्वारा उठाया गया ये कोई पहला कदम नहीं है इससे पहले भी शिक्षा क्षेत्र के बजट में कटौती की गयी है। साल 2019 में शिक्षा क्षेत्र में बजट का हिस्सा कुल बजट के 3.5 प्रतिशत से घटाकर 3.3 कर दिया गया है इसलिए, केंद्र सरकार को कोई भी योजना लाने के साथ उस योजना के लिए वित्तीय कोष की भी घोषणा करनी चाहिए।
सरकार की मंशा पर कुछ और भी सवाल उठते हैं। सरकार कोरोना संकट का उपयोग करके अपने छिपे हुए एजेंडे का पालन कर रही है। ई-लर्निंग विज्ञान और तकनीकी शिक्षा पाठ्यक्रमों पर लागू नहीं होता है जिसमें शिक्षकों और विशेषज्ञों की उपस्थिति आवश्यक है। ऑनलाइन शिक्षा पर सरकार की नीति नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का हिस्सा रही है। यह राष्ट्रीय शिक्षा नीति जनविरोधी, निजीकरण और पूंजीवाद समर्थक है। इस नीति के माध्यम से गरीबों की शिक्षा को समाप्त कर दिया जाएगा। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि सरकार केवल कोरोना काल में ऑनलाइन शिक्षा शुरू कर रही है। यह बिल्कुल सरकार की पुरानी नीति है। भारत में संघीय प्रणाली और इस तथ्य को जानते हुए कि शिक्षा समवर्ती सूची में है, क्या केंद्र सरकार ने इन कार्यक्रमों की घोषणा करने से पहले राज्य सरकार से परामर्श किया है? यह प्रश्न अनुत्तरित है।
शिक्षा व्यवस्था में राज्य सरकार को सलाह देने वाला अंतिम कड़ी शिक्षक है। सरकार ने भी इन शिक्षकों से सलाह लेने की जहमत नहीं उठाई। शिक्षा एक बहुआयामी प्रक्रिया है। ई-लर्निंग में, शिक्षा प्रक्रिया का पूर्ण बोझ केवल विद्यार्थियों पर रखा जाता है। यूजीसी ने खुद पिछले महीने लगभग 25 प्रतिशत शैक्षिक कार्य ई-लर्निंग के माध्यम से ऑनलाइन करने का आदेश जारी किया है। इसमें व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया द्वारा अध्ययन को शिक्षण का आधार माना जाता है जो निजता की सुरक्षा को ख़तरे में डालने वाली सोशल मीडिया कंपनियों को बढ़ावा देने के लिए उठाया गया कदम है।
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पिछले अनुभव बताते हैं कि सरकार द्वारा नोटबंदी की घोषणा के बाद डिजिटल लेनदेन के नाम पर पेटीएम को बढ़ावा दिया गया था। इस तरह से निजी कंपनियों का प्रचार एक खतरनाक कदम है जो वैश्विक पूंजीवाद से प्रेरित है और जो मानव-आधारित शिक्षा प्रणाली का विरोध करता है। शिक्षा छात्रों और शिक्षकों का सामूहिक प्रक्रिया है जो सामुदायिक अध्ययन के साथ उदात्त मूल्यों को प्राप्त करता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से, एक राष्ट्रीय चरित्र वाला नागरिक उभरता है। ऑनलाइन एकतरफ़ा शिक्षा प्रक्रिया इसका विकल्प नहीं हो सकता। ऑनलाइन शिक्षण कुछ हद तक असाधारण परिस्थितियों में विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए एक उपयोगी माध्यम हो सकता है। इसका स्कूल स्तर के छात्रों के लिए कोई फायदा नहीं है। मोबाइल लैपटॉप कंप्यूटर पर ऑनलाइन कक्षाएं लेने वाले बच्चों में मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ रही हैं। विशेष रूप से दृश्य हानि की समस्या का सामना करना पड़ता है।
नेत्र रोग विशेषज्ञों के अनुसार, सूखी आंखें या एलर्जी, आंखों में जलन, सिरदर्द और दृष्टि संबंधी समस्याएं हो सकती हैं। इसके अलावा, आंखों पर लगातार तनाव स्मृति को प्रभावित कर सकता है। लक्षणों में मानसिक रूप से बढ़ती चिड़चिड़ापन और आक्रामकता शामिल है। ई-लर्निंग ऑनलाइन लर्निंग के लिए इंटरनेट एक आवश्यक माध्यम है। शिक्षकों के मार्गदर्शन और नियंत्रण के बिना, जब सरकार बच्चों के लिए इंटरनेट खोलेगी या उन्हें भी इसका आदी बना देगी, तो वह बच्चों को इंटरनेट अपराध व अश्लील चीजों से कैसे बचाएगी? सरकार के पास इसके लिए कोई योजना नहीं है। मैंने 2011 में स्थानीय संगठनों के निमंत्रण पर चीन का अध्ययन दौरा किया था। उस समय, वहाँ के प्रोफेसरों ने हमें Google खोज इंजन का उपयोग करके दिखाया जिसमें ऐसी आपत्तिजनक चीजें गूगल पर उपलब्ध नहीं थीं। ऐसा इसलिए है क्योंकि Google का उपयोग वहां चीनी सरकार द्वारा फ़िल्टर करके किया जाता है। चीनी सरकार ने Google को इस शर्त पर देश में प्रवेश करने की अनुमति दी है कि वह इस तरह की आपत्तिजनक चीजों को न दिखाए। क्या भारत सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर इस तरह की पूर्व शर्त लगाने की क्षमता रखता है?
बच्चों को पढ़ाने के लिए, राज्य स्तर और केंद्रीय स्तर पर शिक्षा विशेषज्ञ बच्चों की मानसिक और शारीरिक आयु के अनुसार पाठ्यक्रम तैयार करते हैं और नियंत्रित कक्षा वातावरण में शिक्षकों के मार्गदर्शन में पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। सरकार द्वारा ई-लर्निंग, ऑनलाइन लर्निंग चलाया जाए उनका विरोध नहीं है लेकिन उन्हें शिक्षकों के मार्गदर्शन में होना चाहिए।
यह नीति समुचित शिक्षा में बाधक है जो पूरे देश में विविध भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता पर विचार किए बिना एक ही भाषा-संस्कृति और सोच को थोपने की कोशिश है। भारत में, वर्तमान रिकॉर्ड-तोड़ बेरोजगारी दर 27 प्रतिशत तक पहुंच गई है। ऑनलाइन शिक्षा कुशल लोगों को पैदा नहीं करेगी जो रोजगार योग्य हैं। इससे हम एक ऐसी युवा पीढ़ी को जन्म देंगे जो बिना मानवीय मूल्यों के बेरोजगार, अकुशल होंगे।
इसके अलावा, अगर हम ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से पढ़ाना जारी रखते हैं, तो हम कई शिक्षकों को बेरोज़गार होते देखेंगे क्योंकि शिक्षक की मुख्य भूमिका को शिक्षा क्षेत्र से धीरे-धीरे समाप्त कर दिया जाएगा और सारी जिम्मेदारी केवल तकनीक और कंप्यूटर को दे दी जाएगी।
इसके अलावा, ऑनलाइन शिक्षा से उत्पन्न एक और ख़तरा यह है कि गरीब, पिछड़े वर्ग और लड़कियां शिक्षा में पिछड़ जाएंगी। केवल जिनकी जेब में पैसा है वे शिक्षा बाजार में शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा का बाजारीकरण होगा। छात्रों को ग्राहक की भूमिका निभानी होगी। जिससे संविधान में निहित सामाजिक न्याय का सिद्धांत बाधित होगा.
फुले-शाहू-अंबेडकर, महात्मा गांधी, विवेकानंद, भगत सिंह, रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महापुरुषों ने शिक्षा को व्यक्तित्व विकास, मानवीय मूल्यों को उभारने वाला और सामाजिक परिवर्तन का साधन माना है शिक्षा का राष्ट्र निर्माण में महती भूमिका है। भारतीय संविधान भी इसी तरह के नेक इरादे की उम्मीद करता है लेकिन इस नेक काम से इतर केंद्र सरकार शिक्षा की संकीर्ण व्याख्या कर रही है क्योंकि पूँजीपतियों का एक मात्र उद्धेश्य है कि सस्ते, ग़ुलाम और कुशल मज़दूर वर्ग का निर्माण करना। यह शिक्षा मंत्रालय के बदले हुए नाम जो अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय कर दिया गया है में परिलक्षित होता है। खेल, संस्कृति, कला मुख्य विषय हैं जो बच्चे के जीवन को सम्पूर्ण बनाते हैं। ई-लर्निंग, ऑनलाइन शिक्षा में इसका कोई स्थान नहीं होगा।
सरकार ने देश भर के 100 अग्रणी विश्वविद्यालयों को इस साल मई से ऑनलाइन पाठ्यक्रम शुरू करने की अनुमति दी है। आज अग्रणी विश्वविद्यालयों को तय करने की प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान खड़ा होता है. इसका एक उदाहरण सरकार द्वारा जियो विश्वविद्यालय को सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय का पुरस्कार दिया जाना है, जब वह मौजूद भी नहीं था। पिछले कुछ वर्षों में, सरकार ने केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालयों जैसे सरकार द्वारा संचालित विश्वविद्यालयों के लिए दी जाने वाले खर्चे में कटौती की है।
सरकार के कई मंत्री धार्मिक शिक्षा का समर्थन करते हैं। सरकार की नीति के बारे में देश के दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिला वर्गों में अविश्वास है। इसके लिए सरकार जिम्मेदार है। महापुराण में मिथकों को इतिहास के रूप में प्रचारित किया जाता है। सरकार के दर्जनों मंत्री वैज्ञानिक दृष्टिकोण के खिलाफ बोलते हैं। नैदानिक सोच और इस तरह के वातावरण की विधि वर्तमान शैक्षिक दुनिया में उपलब्ध नहीं है। इसलिए, यह निश्चित नहीं है कि सरकार द्वारा संविधान के अनुसार अपेक्षित धर्मनिरपेक्ष शिक्षा मिलेगी। इसलिए, चाहे वह राष्ट्रीय शिक्षा नीति हो या ई-लर्निंग कार्यक्रम, सरकार पर संदेह करने की पर्याप्त गुंजाइश है।
आज स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का आभाव है, जो बच्चे पढ़ नहीं सकते, बुनियादी गणित नहीं कर सकते ऐसे में भारत जैसे देश में ई-लर्निंग नीति लागू करना लोगों के हित में नहीं है, बल्कि पूंजीपतियों के हित में है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश में केवल 11.80% स्कूलों में ही कंप्यूटर हैं। देश के 55.8% स्कूलों में आवश्यक बिजली कनेक्शन उपलब्ध है।
2017-18 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार, देश के ग्रामीण क्षेत्रों में 15 प्रतिशत से कम घरों में इंटरनेट का उपयोग होता है।
मार्च 2018 में, केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 'ऑपरेशन डिजिटल ब्लैकबोर्ड' योजना की घोषणा की। आगे क्या हुआ यह अभी तक जनता को पता नहीं है। ऐसा ही 'पीएम ई विद्या योजना' के साथ भी हो सकता है।
इस तरह की शैक्षिक नीति भारत में सामान्य जनसंख्या की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर विचार किए बिना उठाया गया कदम है। देश में आम जनता के लिए घर पर ई-लर्निंग के लिए उपयोगी तकनीकों का पहुंच होना असंभव है। यह सोच लेना कि शिक्षा प्राप्ति केवल कुछ लाख घरों में स्मार्ट फोन के माध्यम से छात्रों तक पहुँचेगा, हास्यास्पद है।
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भारत में, सातवीं कक्षा तक ड्रॉपआउट दर लगभग 30% और दसवीं कक्षा तक 50% है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों का अनुपात केवल 11 प्रतिशत है। विभिन्न पिछड़ी जातियों, जनजातियों और आदिवासियों से संबंधित लोगों की गंभीर सामाजिक स्थितियों को देखते हुए, शिक्षा अभी भी उनके पहुच से बहुत दूर है। भारत के कई गाँवों में इंटरनेट उपलब्ध नहीं है। कंप्यूटर, स्मार्ट टीवी और यहां तक कि क्लास रूम उपलब्ध नहीं हैं। ई-लर्निंग एक ऐसी स्थिति में एक मृगतृष्णा होगी जहां कोई प्रशिक्षित शिक्षक नहीं हैं जहां कंप्यूटर उपलब्ध नहीं हैं वहां यह नीति "मनुवाद और मनीवाद" की तरह है।
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इसके लिए, सरकार को अपनी ज़िद छोड़नी चाहिए और उचित कदम उठाने चाहिए। सरकार की सभी शैक्षिक नीतियों को तैयार करने में, ऐसा लगता है कि सरकार के सामने एक समृद्ध और आत्मनिर्भर मध्यम वर्ग रहा होगा। क्या उन्हें गरीबों की परवाह नहीं है? सरकार को एक अलग विकल्प का उपयोग करना चाहिए। ऑनलाइन शिक्षा के बजाय, सरकार को आंतरिक मूल्यांकन, स्व-अध्यन, परियोजनाओं, शिक्षा प्रणाली में खेलों के माध्यम को अपनाना चाहिए।
कोरोना संकट के इस दौर में हफ्ते में तीन दिन छात्रों की संख्यां और पढ़ाने के घंटों को कम करके सरकार द्वारा निर्देशित सामाजिक दूरी बनाते हुए स्कूलों को शुरू करके विद्याथियों के समुचित विकास की दिशा में काम करने का प्रयास किया जा सकता है।
इसके अलावा, सरकार के लिए यह फायदेमंद होगा कि वह विभिन्न स्थानीय शिक्षकों के कुछ सुझावों पर विचार करे जो रचनात्मक हैं। जहां जर्मनी और क्यूबा जैसे देशों के पास स्वास्थ्य क्षेत्र का पूर्ण सरकारी नियंत्रण है, वे कोरोना से उबरने में सक्षम थे। भारत में स्वास्थ्य के निजीकरण के कारण, देश की जनता को बहुत अधिक दर्द सहना पड़ा है, कई लोगों की जान चली गई है। अगर हमने वास्तव में इससे सबक सीखा है, तो आइए शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में सरकारीकरण और राष्ट्रीयकरण पर जोर दें, चाहे सरकार कोई भी हो।
लेखक गिरीश फोंडे वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक यूथ के पूर्व उपाध्यक्ष और शिक्षा बचाओ सिविल एक्शन कमेटी के राज्य संयोजक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। आपसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।
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