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अगर वे सिर्फ अंग्रेजी सीख लेते हैं तो ओबीसी आरक्षण का फायदा उठाने की स्थिति में आ सकते हैं

आरक्षण एक एक बैसाखी के समान है लेकिन अंग्रेजी माध्यम से अगर शिक्षा ग्रहण करते हैं तो यह उनके पैरों के समान काम आएगी।
OBCs Take Advantage of Reservation

पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की 30 वीं वर्षगांठ के अवसर पर सुप्रसिद्ध समाज विज्ञानी, लेखक और कार्यकर्त्ता प्रोफेसर कांचा इलैया शेफर्ड का मानना है कि मण्डल से हम उस अभीष्ट को अभी तक हासिल नहीं कर सके हैं, जिसे ध्यान में रखकर इसके लिए संघर्ष किया गया था। उनका मानना है कि बिना अंग्रेजी शिक्षा हासिल किये किसी भी सूरत में पिछड़ी जातियों का, जिन्हें वे ऐतिहासिक तौर पर शुद्र समुदाय के बतौर शिनाख्त करते हैं, कभी भी प्रगति नहीं कर सकते। इलैया के अनुसार आरक्षण एक बैसाखी के समान है लेकिन अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा उनके पैरों के बतौर काम आ सकती है। यदि सफलता पानी है तो हमें अगले 25 साल इस पर न्योछावर करने होंगे। एक साक्षात्कार के कुछ महत्वपूर्ण अंश।

मण्डल कमीशन की रिपोर्ट को स्वीकार किये हुए तीस साल बीत चुके हैं, ऐसे में अन्य पिछड़े वर्ग को आप कहाँ पाते हैं? क्या वे लोग सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर आत्मनिर्भर बन चुके हैं?

सबसे पहले तो इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए कि जबसे बीजेपी सत्ता में आई है, उत्तर भारत में क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व ही विलीन हो चुका है। ये क्षेत्रीय दल मूलतः शूद्रों द्वारा संचालित किये जा रहे थे। इंदिरा गाँधी के जमाने से ये लोग कांग्रेस और ब्राह्मणवाद से अपनी जंग लड़ रहे थे। चौधरी चरण सिंह [पूर्व प्रधान मंत्री] के जमाने से इनके बीच में से धीरे-धीरे मुलायम [सिंह यादव], लालू [प्रसाद यादव], देवी लाल एवं अन्य क्षेत्रीय नेताओं के उभरने का सिलसिला आरंभ हुआ था। लेकिन बीजेपी के सत्ता में आते ही यह सिलसिला खत्म हो चुका है। आरएसएस-बीजेपी ओबीसी समुदाय का इस्तेमाल, जो कि ऐतिहासिक तौर पर शूद्रों की श्रेणी में आते हैं, को मुसलमानों के खिलाफ लठैतों के तौर पर करती रही है, लेकिन आजतक उनमें से किसी एक को भी उसने आरएसएस का मुखिया बनने का मौका नहीं दिया है।

आपको क्या लगता है कि वे कितने समय तक उनके लठैत के तौर पर बने रहेंगे? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या वे अभी भी राजनैतिक तौर पर एक मुख्य ताकत के तौर पर बने हुए हैं?

1989 में जब “अन्य पिछड़ा वर्ग” या कहें ओबीसी वर्ग का आविर्भाव हुआ था, जिसमें ऐतिहासिक तौर पर माने जाने वाले शुद्र समुदायों को भी आरक्षण के उद्येश्य से शामिल किया गया था तो उनमें से कुछ अगुआ कृषक समुदाय वाली जातियों को जैसे कि जाट, गूजर, पटेलों, मराठा, कम्मा, रेड्डी और नायरों को इसमें से बाहर रखा गया था। हालाँकि तमिलनाडु में “अछूतों”, ब्राह्मणों और नायरों को छोड़कर बाकी की सभी जातियां के शूद्र श्रेणी में शामिल होने के चलते उनको ओबीसी श्रेणी में स्थान मिल गया था, और कर्नाटक ने भी इसी तरह लिंगायत को इसमें शामिल किया था, और इसी प्रकार कुछ अन्य भी। इसलिए, हाँ यह सच है कि मण्डल के दौर को आज से ठीक 30 साल पहले के विभाजक रेखा के तौर पर देख सकते हैं। लेकिन इस आयोग की सिफारिशों को असल में लागू किये जाने का सिलसिला 1995 में जाकर ही शुरू हो सका था। इसलिए केन्द्रीय सेवाओं में ओबीसी श्रेणी को अपने वास्तविक प्रयोग में आये अभी 25 वर्ष ही हुए हैं, ना कि 30 वर्ष। ]

इससे क्या परिवर्तन देखने को मिले हैं?

जहाँ तक मेरा अनुमान है इसने दो चीजें की। पहला, इसने ऐतिहासिक तौर पर कृषक समाज से जुड़े शुद्रों और हस्तशिल्प से जुड़े समुदायों जैसे की कुम्हार, बढ़ई, सुनार, हलवाहों और यहाँ तक कि कुछ धनी कृषक समुदाय जैसे उत्तरप्रदेश में यादवों को शिक्षा के बारे में सोचने पर मजबूर करने का काम किया है। ओबीसी समाज शिक्षा के क्षेत्र में अपने लिए निर्धारित 27% कोटे का अभी भी पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है, लेकिन आरक्षण ने उनके परिवारों में शिक्षा का अंकुरण उगाने का काम तो कर दिया है।

इनमें से कुछ लोग तो पहले से ही शिक्षित थे लेकिन अस्सी के दशक में शूद्रों में से जो युवा थे, वे विदेशी विश्वविद्यालयों से शिक्षा हासिल नहीं कर रहे थे। यहाँ तक कि दिल्ली, मुंबई या कोलकाता तक में जो रह रहे थे वे भी, इससे अछूते थे। जबकि इस बीच ब्राह्मण, बनिया और कायस्थ परिवारों ने अपने बच्चों के लिए शिक्षा के क्षेत्र में केन्द्रीय विश्विद्यालयों, आईआईटी और आईआईएम में निवेश के साथ-साथ भारी मात्रा में विदेशों में शिक्षा का प्रबंधन आरंभ कर दिया था। उच्च जाति के लोग एससी/एसटी आरक्षण को लेकर थोड़ी बहुत सहानुभूति रखते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि समाज में कहीं न कहीं उनके साथ छुआछूत की भावना व्याप्त है।

और इस हिसाब से उन्हें कुछ छूट दिए जाने की गुंजाइश बनती है। लेकिन वे ओबीसी को आरक्षण दिए जाने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे। ऐसा इसलिए क्योंकि ओबीसी अर्थात सभी शूद्र जातियों को किस प्रकार से परिभाषित किया गया था, इसको लेकर उनके बीच में मतैक्य था। सभी विदेशी सामाजिक विज्ञान की शिक्षा में उन्हें “प्रभुत्वशाली जातियों” के तौर पर रखा जाता रहा है। देशी समाजशास्त्रियों और इतिहासकारों का भी मानना है कि ये प्रभुत्वशाली जातियां “प्रांतीय शासकों” के तौर पर विद्यमान रही हैं, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इनकी मजबूत पकड़ रही है। और इस प्रकार से उन्होंने ओबीसी के लिए आरक्षण की सुविधा के पर कतरने के लिए क्रीमी लेयर की अवधारणा को आगे करने का काम करना शुरू कर दिया।

क्रीमी लेयर को लेकर आपका क्या मतैक्य है?

क्रीमी लेयर शिक्षित ओबीसी युवाओं को जिनके माता-पिता पहले से ही मध्य वर्ग का हिस्सा हैं, को बाहर करने का काम करता है। आरक्षण के संसाधनों में वे अपने लिए नौकरी का जुगाड़ पा सकते थे। किसी भी नौकरी को हासिल करने के लिए योग्यता की जरूरत पड़ती है, वो चाहे इंजीनियरिंग, मेडिसिन क्षेत्र हो या समाज शास्त्र या प्राकृतिक विज्ञान में मास्टर्स डिग्री का सवाल हो- इन सभी के लिए एक स्तर तक अंग्रेजी भाषा में महारत होनी चाहिए, जिसकी शुद्र समुदायों में उस दौरान कमी बनी हुई थी। यहाँ तक की आज की तारिख में भी वे अंग्रेजी सीखने को लेकर पूरी तरह से उदासीन बने हुए हैं।  

यहाँ तक कि जो सामंती जमींदार हैं वे भी अपने बच्चों को प्राइवेट क्रिश्चियन इंग्लिश मीडियम के स्कूलों में नहीं भेजना चाहते बल्कि उनके बीच अपने बच्चों को थोड़ी बहुत ग्रामीण स्तर के उत्तर माध्यमिक शिक्षा हिंदी या तेलगू या मराठी माध्यम से शिक्षा हासिल करा लेने का चलन देखा गया है। उनके विचार में उनके पास काफी जमीनें हैं, इसलिए उनके बच्चों को नौकरी की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसके चलते उनके बच्चे शहरी औद्योगिक या शैक्षणिक क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धी बन पाने में अक्षम होते चले गए। परिणामस्वरूप पिछले तीस वर्षों में, वे किसी भी क्षेत्र में 27% आरक्षित नौकरी ले पाने में असफल रहे हैं। और ना ही वे निजी क्षेत्र को आरक्षण के मात्रा को लागू कराने के लिए बाध्य ही कर सके।

आपके विचार में ऐसा क्यों हुआ?

क्योंकि ये जाति समूह कभी भी अमेरिकी अश्वेत समुदाय के समान संगठित ताकत के तौर पर एकताबद्ध नहीं रहे हैं।

या कहें भारत में दलित भी?

ओबीसी की तुलना में दलित कहीं ज्यादा संगठित है। आप देखेंगे तो पायेंगे कि किस प्रकार से ब्राह्मणों ने जिन्होंने आरक्षण का विरोध किया था, और गाँवों में शूद्रों को दलितों और मुस्लिमों के खिलाफ इस्तेमाल में लाया था। आरएसएस-बीजेपी ने गाँवों में इनका इस्तेमाल किया। इसीलिए आजादी के 70 वर्षों के बाद भी केन्द्रीय सरकार की नौकरियों में शूद्र सबसे कम पढ़े लिखे और कम प्रतिनिधित्व के साथ मौजूद हैं। वहीँ राज्य सरकारों में जहाँ कहीं वे सत्ता में थे वहां पर आरक्षण के नियमों को लागू किया गया और कुछ राज्य के ढांचे अभी भी उनके नियन्त्रण में बने हुए हैं। लेकिन शूद्रों में जो उच्च पदों पर आसीन थे, जिन्हें आरक्षण से बाहर रखा गया था ये वे लोग थे जो ब्राह्मणों और बनिया के साथ खड़े थे। जिसका परिणाम यह रहा की सभी पिछड़ेपन का शिकार बने रहे।

इसे एक दूसरी तरह से देखें: भारत में यदि [अनारक्षित] “उच्च जातियों” को को देखें तो उनमें जाट, पटेल, ब्राह्मण, बनिया इत्यादि हैं। लेकिन सांस्कृतिक तौर पर देखें तो क्या ये सभी सामाजिक समूह एक समान हैं? क्या ब्राह्मण और जाट समुदाय को एक साथ रखकर देखा जा सकता है? हरगिज नहीं। इसलिए अंग्रेजी शिक्षा की कमी, प्रभावी नौकरशाही शक्तियों की कमी और शूद्रों के बीच में उच्च-स्तरीय अकादमिक विद्वानों की कमी के चलते आरक्षण और क्रीमी लेयर को लेकर कभी एक बार बहस तक नहीं हो सकी। जब कोई बहस-मुबाहिसा ही नहीं होगा तो आपको आपके हिस्से का वाजिब हक़ कभी भी नहीं मिल सकता।
लेकिन अब तो भारत में आर्थिक तौर पर कमजोर तबकों या ईडब्ल्यूएस को 10% आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई है। तो क्या ऐसे में वे प्रभुत्वशाली ग्रामीण जमींदार वर्ग जिन्हें ओबीसी की श्रेणी से बाहर रखा गया था, वे आरक्षित नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा में शामिल हो सकेंगे?

नहीं। सभी ऐतिहासिक तौर पर खेतीबाड़ी से जुड़े लोगों को जो ऋग्वेद के लिखे जाने के समय से ही गुलाम थे इन सभी को अपने लिए शूद्र की पहचान को स्थापित करना होगा और आरक्षण की मांग करनी होगी।

लेकिन शूद्र की पहचान राजनीतिक और सामाजिक तौर पर बंटी होने के कारण ऐसा हो पाना संभव नहीं लगता।

दलितों में अगर देखेंगे तो वे अनेकों जातियों में बंटे हुए हैं, लेकिन दलित के तौर पर उनकी एक पहचान है जिसे सारी दुनिया में पहचाना जाता है। इसके साथ ही अब एक और बदलाव देखने में आ रहा है। अभी कुछ समय पहले तक जाटों का यह मत था कि उन्हें क्षत्रिय के बराबर का दर्जा मिल मिलने जा रहा है। लेकिन अब वे इस हकीकत से रूबरू हो चुके हैं कि ऐसा नहीं होने जा रहा है। ना ही ओबीसी को कोई जनेऊ मिलने वाला है और न ही पूरे तौर पर वे क्षत्रिय ही बनने जा रहे हैं। आरएसएस इन दोनों में से एक भी उन्हें नहीं देने जा रहा है।

इसलिए मेरा मत है कि उन्हें अपने शुद्र वाली प्राचीन पहचान को गर्व के साथ सबसे पहले स्थापित करने की जरूरत है। दूसरा यह कि उन्हें अपने बच्चों को सिर्फ इंग्लिश-मीडियम स्कूलों में ही भेजना चाहिए ताकि वे सभ्रांत जातियों के बच्चों के साथ प्रतिस्पर्धा में शामिल हो सकें। जहाँ कहीं वे सत्ता में हैं, वहाँ-वहाँ उन्हें सरकारी स्कूली शिक्षा को अंग्रेजी माध्यम में तब्दील कर देना चाहिए। आन्ध्र प्रदेश ने इसे पहले ही अपने यहाँ लागू कर रखा है, क्योंकि सिर्फ इसी तरीके से हम बुद्धिजीवियों के उत्पादन को सुनिश्चित कर सकते हैं जो ब्राह्मणों, बनिया, कायस्थ या खत्री छात्रों से मुकाबला करने में सक्षम हो सकेंगे। अगले 25 वर्षों में इसके जरिये ओबीसी श्रेणी से अधिक से अधिक लोगों को सक्षम बनाया जा सकता है। अब देखिये, दलित समुदाय के लोग अपने खुद के लिए बौद्दिक काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए वे धार्मिक तौर पर खुद को बौद्ध मानते हैं, और वे ईसाई भी हैं। लेकिन शूद्र की हालत यह है कि भगवान को पूजने के बजाय वह ब्राह्मणों को पूज रहा है।

आप ऐसा कैसे पर कह सकते हैं?

क्योंकि ब्राह्मण जो कुछ भी कहेगा, शुद्र उसी का अनुसरण करेगा। अब देखिये भगवान को किसी मध्यस्थ, दुभाषिये या मार्गदर्शक की जरूरत नहीं पड़ती है। उदाहरण के लिए उत्तर भारत में कोई भी शादी बिना ब्राह्मण पुजारी के मंत्रोच्चार के बिना सम्पन्न नहीं होती। शादी में ब्राह्मण जो मंत्रोच्चारण करता है उसे बाकी का कोई इंसान नहीं समझता। क्या वह वर वधू के लिए भगवान से लंबी उम्र की प्रार्थना कर रहा होता है या अगले ही दिन तलाक माँग रहा होता है? क्या वह भगवान से यह तो नहीं माँग रहा होता है कि कृपा करके इसके मष्तिष्क को कुंद ही रखना? या क्या वह उन्हें विद्वान बनाए जाने की कामना कर रहा होता है? आपको कैसे मालुम? इस सबके बावजूद जब वह कहता है “समरपयामी” [मैं अर्पण करता हूँ], तो आप सबकुछ दे देते हो, लाखों रूपये भी। शादी-ब्याह के लिए कोई गैर-ब्राह्मण पुजारी क्यों नहीं हो सकता?

कई समुदायों में ब्राह्मणों को शादी ब्याह कराने के लिए बुलाने का रिवाज नहीं है, लेकिन इसमें अब बदलाव देखने को मिल रहा है। गैर-ब्राह्मणों में अब पुजारी को आमंत्रित करने का रिवाज.....

हाँ, क्योंकि आरएसएस इस बीच घर-घर जाकर इस अजेंडा को ले गया है। ओबीसी को आरएसएस की कोई समझ नहीं है कि यह हिंदुत्व का राजनीतिक आध्यात्मिक नेटवर्क है। उसने शूद्रों को शाकाहारी बना डाला है। शुरू-शुरू में एक राज्य में यह काम दयानंद सरस्वती ने किया था, इसके बाद गांधी ने एक अन्य राज्य में, लेकिन अब यह आरएसएस है जो इस सबके पीछे की वास्तविक ताकत [इस प्रकार के परिवर्तनों की मुख्य चालक शक्ति] साबित हो रहा है। क्योंकि वह इस बात को भलीभांति समझती है कि यदि ये लोग माँसाहारी बने रहते हैं तो इनकी शारीरिक ताकत से पार पाना काफी मुश्किल होगा। इसलिए उन्होंने इन्हें शाकाहारी में तब्दील कर डाला है, लेकिन मजे की बात यह है कि इन्हें कोई भी धार्मिक अधिकार दिए बिना ही वे यह सब कर पाने में कामयाब रहे हैं।

मैंने उत्तर प्रदेश के एक यादव से पूछा था कि कृष्ण मंदिर को क्यों एक ब्राह्मण पुजारी के हाथों में सौंप दिया गया और किसी यादव पुजारी को क्यों नहीं इसे सुपुर्द कर दिया गया। उसका कहना था कि ‘क्योंकि हमें संस्कृत का ज्ञान नहीं है।’ मैं पूछ बैठा ‘अरे, क्या तुम्हें ऐसा लगता है की कृष्ण भगवान को सिर्फ संस्कृत समझ में आती है?’ असल में ब्राह्मणों ने इनके भेजे को, इनके सोचने समझने की ताकत को नष्ट कर डाला है और वे इनके भगवान बन चुके हैं। मेरा सिर्फ यह कहना है कि उन्हें अपने खुद के पुजारियों को तैयार करना होगा। अगर आप कहते हो कि आप हिन्दू हो तो अच्छा है आप हिन्दू बने रहो, लेकिन एक पुजारी बनो, हो सके तो एक अंग्रेजी बोलने वाला पुजारी बनो। जैसा कि आजकल हर तरफ ब्राह्मण पुजारियों को करते देख सकते हैं। श्री श्री रवि शंकर जैसे लोगों को देखिये, वे अंग्रेजी माध्यम से पढ़े लिखे लोग हैं जो समूचे मध्य वर्ग को अपनी मुट्ठी में जकड़े हुए हैं। शुद्र उनके भक्त बन जाते हैं और अपनी स्त्रियों को उनके प्रवचनों में भेजते हैं और वे उनके इर्दगिर्द बैठे रहते हैं, जहाँ अक्सर उनका शोषण होता है और वे किसी बाबा के चंगुल में फँसे रहते हैं।

लेकिन हमारे पास ओबीसी समुदाय से ऋतंभरा, उमा भारती और प्राची जैसी साध्वी भी तो हैं।

लेकिन उनके पास कौन सी ताकत है? क्या वे तिरुपति मंदिर का संचालन कर सकती हैं? यहाँ तक कि क्या वे वैष्णो देवी मंदिर ही संचालित करके दिखा सकती हैं? इनको आप गाँव के मंदिर वाली छोटी-मोटी देवी के तौर पर ही समझें। यही वजह है कि मोहन भागवत[आरएसएस मुखिया] जब चाहें उन्हें कहीं से भी पदच्युत कर सकते हैं। अभी उमा भारती थोडा-बहुत खुद को स्वतंत्र दर्शा रही थीं, तो उन्हें ठिकाने लगा दिया गया है।

क्या ठीक उसी तरह जैसे जय सियाराम में से सीता को निकाल बाहर किया गया?

जी, बिल्कुल सही कहा...। अब यदि मैं मोटे तौर पर अनुमान लगाऊं या मेरी हालिया पुस्तक [बफैलो नेशनलिज्म: अ क्रिटिक ऑफ़ स्पिरिचुअल फासिज्म] के मुताबिक़ शूद्रों की आबादी कुल जनसंख्या का 55% है। दूसरा मुख्य पहलू यह है कि भारत में होने वाले कुल पूंजी उत्पादन जिसमें हार्डवेयर, सॉफ्टवेर और निर्यात शामिल है उसमें 46% हिस्सा बनियों के हाथ में है, इसके बाद 42% ब्राह्मणों, 3.8% शूद्रों के जिसमें जाट, गुज्जर, पटेल, रेड्डी, कम्मा शामिल हैं, 3.2% दलितों के हाथ में और बाकी मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के हाथ में है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आबादी के 55% के हाथ में मात्र 3.8% पूंजी के संसाधन हैं। हालाँकि देश में कम्मा और मराठा उद्योगपति भी हैं लेकिन इनमें से कोई भी अम्बानी, अडानी या वेदांता की तर्ज पर कम्पनी का मालिक नहीं है। इसलिए कह सकते हैं कि शुद्र खरीदार तो हैं लेकिन उत्पादन में वे कभी भी अपने हिस्से की माँग नहीं करते। क्योंकि अपने हिस्से की माँग करने के लिए उन्हें अंग्रेजी शिक्षा दीक्षा में पारंगत होना पड़ेगा, ठीक है? उन्हें विदेशों से शिक्षित होना चाहिए था, लेकिन वे नहीं हैं।
 
जब आप साझी पहचान की बात करते हैं तो क्या इसमें दलितों को भी शामिल करने की बात शामिल रहती है?

नहीं, लेकिन हम उनके साथ एक घनिष्ठ सामुदायिक-वर्गीय गठबंधन बनाकर रखने वाले हैं, उनके खिलाफ दमन पर रोक लगायेंगे और प्रतिशत के आधार पर संसाधनों को आपस में साझा करेंगे। लेकिन इस बात को ध्यान में रखना होगा कि दलित और ओबीसी न तो एक हैं और न ही समान ही हैं। जिस दिन शूद्रों को इस बात का अहसास हो जायेगा कि उन्हें दलितों के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए, छुआछूत का उस दिन से नाश हो जाएगा। [अकेले] ब्राह्मण के चाहने भर से इस प्रथा को जारी नहीं रखा जा सकता है क्योंकि गाँवों में हम बहुसंख्यक के तौर पर मौजूद हैं। सरदार पटेल को ही ले लें, जिन्हें राष्ट्रवाद, गांधी और हिन्दुवाद के प्रतीक के तौर पर पहचाना जाता है। उन्होंने कभी भी शूद्रों को [एकताबद्ध] ताकत के रूप में तब्दील नहीं किया, लेकिन अम्बेडकरवादियों, दलितों ने ऐसा किया।

कई शुद्र इस बात से खफा हो सकते हैं यदि उन्हें शूद्र कहते हैं, क्योंकि जैसा कि आप कह रहे थे कि उनको लगता है कि वे नव-क्षत्रिय बन चुके हैं।

यह मैं था जिसने इस बात को कहा था कि वे नव-क्षत्रिय हैं, लेकिन एक बार यदि आपने आरएसएस-बीजेपी को जोकि असल में ब्राह्मण-बनिया ताकत है, को सत्ता में आने की अनुमति दे दी तो आपकी नव-क्षत्रिय वाली हैसियत बनी नहीं रहने वाली है। 1999 के बाद से ही, दूसरे शब्दों में कहें तो 21वीं सदी की शुरुआत से आपको एक बार फिर से परम्परागत शुद्र की श्रेणी में वापस धकेल दिया गया है। इसके पीछे की मुख्य वजह यह है कि आपने आरएसएस-बीजेपी को सत्ता सौंपकर, उसी पेड़ की डाली को काटने का काम किया है जिसपर आप खुद बैठे थे। खासकर अब जब उन्होंने बेहद शातिराना ढंग से एक बनिया को ओबीसी के दर्जे में शामिल करा दिया है, ऐसे में किसी को भी नव-क्षत्रिय हैसियत नहीं मिलने जा रहा है। [प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मोध घांची जाति से सम्बद्ध रखते हैं, जिसे ओबीसी की लिस्ट में उनके 2001 में मुख्यमंत्री बनने से पहले शामिल कर लिया गया था। लेकिन यह जाति अति पिछड़े की श्रेणी में कहीं से नहीं आती, जैसा कि मोदी ने एकबार दावा किया था।]

क्या आपके कहने का अभिप्राय यह है कि ओबीसी बंटा हुआ है और शासित है?

ओबीसी आपस में बंटा हुआ रहा है और आरएसएस/बीजेपी द्वारा ब्राह्मणवादी खांचे में इसके वोटों को समेटा जाता रहा है, और इसके बाहुबल का इस्तेमाल मुसलमानों और दलितों के उत्पीडन में लिया जाता रहा है, जबकि हम सभी ब्राह्मणों और बनियों के द्वारा दिल्ली से शासित होते रहे हैं। जरा पता करिए कि कितने शूद्र विदेशी दूतावासों में, या विदेश सेवा में नियुक्त हैं? शीर्षस्थ आईएएस समुदाय में से पता करिए कि कौन सचिवालयों को संचालित कर रहे हैं। यहाँ तक कि ओबीसी प्रधान मंत्री के आफिस तक में आज के दिन एक भी वरिष्ठ शूद्र आईएएस अधिकारी नहीं मिलेगा। एक या दो लोग कुछ क्षेत्रों में कुछ मदद के लिए विदेश मंत्रालय में अवश्य देखे जा सकते हैं, लेकिन सिर्फ एक या दो ही। इसलिए मुद्दा यह है कि बिना विश्वविद्यालयों, आईआईटी, जेएनयू, एचसीयू, डीयू पर आधिपत्य जमाये आप दिल्ली पर शासन नहीं कर सकते। क्योंकि इसके बिना आप कैसे आईएएस, आईएफएस में प्रवेश पा सकते हैं? कूटनीति का आप कैसे सफलतापूर्वक संचालन कर सकते हैं? मेरे कहने का कुल अभिप्राय यह है कि आरक्षण हमारे लिए एक बैशाखी के समान है क्योंकि हम अपंग थे, लेकिन यदि हमने अंग्रेजी-माध्यम से शिक्षा प्राप्ति के मार्ग को चुना होता तो यह हमारे पाँव के तौर पर इस्तेमाल में काम आ रही होती।

आज से तीस वर्षों बाद क्या आप देख पाते हैं कि तब ओबीसी के लिए आरक्षण की जरूरत नहीं पड़ने वाली है?

जैसा कि मार्टिन लूथर किंग ने कहा था, लोग हमसे कहते हैं [प्रो. इलैया इसे शूद्र के तौर पर संदर्भित कर रहे हैं] अपने समय के लिए इन्तजार करो, कि हमारा समय आने वाला है। लेकिन जबतक हम अभी से काम नहीं करेंगे तो वो समय कभी नहीं आने वाला। इसलिये जबतक उनके बच्चे नर्सरी स्कूल से लेकर इंग्लिश मीडियम से अपनी शुरुआत नहीं करेंगे, वह समय कभी नहीं आने वाला। यह समय पिछले 1,500 सदी ईसा पूर्व से नहीं आ सका है जब उन्होंने ऋग्वेद की रचना की थी। यहाँ तक कि आज भी जब आरएसएस-बीजेपी कहती है कि हम सब हिन्दू हैं तो इस बात को ध्यान में रखना होगा कि ऋग्वेद की व्याख्या करने वाला कोई शूद्र नहीं है।

एकबार दिल्ली में एक सम्मेलन के दौरान जहाँ मैं शूद्रों का प्रतिनिधित्व कर रहा था (क्योंकि मैंने साफ़ कर दिया था कि मैं ओबीसी का प्रतिनिधित्व नहीं करने वाला) जिसमें मैंने पूछा था कि किसी एक शूद्र विद्वान का नाम बताएं। वहाँ पर कुल 12 लोग निर्णायक मण्डल में बैठे थे, और वे सभी एक दूसरे की शक्ल देखने लगे थे। मैंने उनसे पूछा भी कि क्या हुआ? क्या मैं अकेला ही शूद्र बुद्धिजीवी हूँ? आप कम से कम दस दलित बुद्धिजीवियों के नामों को गिना सकते हैं, 100 महिला बुद्धिजीवियों और हजारों अन्य के नामों की फेहरिस्त लगा सकते हैं, लेकिन शूद्रों के बीच से एक बुद्धिजीवी तक नहीं ढूंढ सकते? क्यों? उनमें भी कुछ व्यक्तित्व रहे हैं जैसे कि पेरियार, लेकिन वे सिर्फ तमिल में ही लिखते और बातचीत करते थे। [पेरियार ने अंग्रेजी में भी लिखा था, लेकिन जैसा कि प्रो. इलैया इशारा करते हैं कि शूद्रों में खासकर उस दौरान अंग्रेजी से वाकफियत नहीं बन सकी थी, जो आज भी काफी हद तक नहीं है।] ऐसे में आरक्षण हमें बचा पाने में सक्षम नहीं है, यह बात पिछले तीस वर्षों के अनुभव से भी साबित होती है, क्योंकि हमारे बीच इस दौरान एक भी शूद्र बुद्धिजीवी नहीं पनप सका है।
लेकिन देखने में आया है कि जैसे ही ओबीसी सभ्रान्त वर्ग में शामिल होता है वह बीजेपी में पलायन कर जाता है।

उन्हें इस बात को समझना चाहिए कि जब एक शूद्र किसी मंदिर का मुखिया नहीं बन सकता, या वह आरएसएस का मुखिया या जेएनयू या डीयू का वाइस चांसलर या आईआईटी का निदेशक नहीं बन सकता तो ऐसे में यदि वे लोग आरएसएस-बीजेपी में जाते भी हैं तो उनके पास मुसलमानों पर हमले के अलावा कोई काम नहीं मिलने वाला। बदले में उन्हें जेल की हवा खाने को मिल सकती है, लेकिन सभी ब्राह्मण विश्वविद्यालयों, आईआईटी, आईआईएम ही जायेंगे।

इसी तरह हरियाणा में मैं एक प्राइवेट यूनिवर्सिटी में गया था, जहाँ मैंने पाया कि वहाँ के अध्यापकों में एक भी जाट का प्रतिनिधित्व नहीं था। मैंने कहा कि ध्यान से देखिये, यह विश्वविद्यालय जाट की जमीन पर निर्मित किया गया है। यदि ये सभी समुदाय के लोग आज भी खेतीबाड़ी में हैं, खेत जोत रहे हैं या अपने हुक्कों से तम्बाकू पी रहे हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि यहाँ पर कोई बदलाव नहीं हो सका है। कोई भी आन्दोलन, वो चाहे छोटा हो या बड़ा, हमेशा ही बुद्धिजीवियों से ही शुरू होता है। उनके बिना कभी भी कोई आन्दोलन नहीं खड़ा हो सकता। इसलिए आरक्षण के 30वें वर्ष में पहुँचकर उन्हें इस बात का अहसास होना चाहिए कि हमें एक बार फिर से मिल-बैठकर बिलकुल नए सिरे से शुरुआत करनी होगी। इस क्रीमी लेयर का कोई अर्थ नहीं, जमीन के मालिकाने का भी आज के दिन कोई मतलब नहीं रह जाता है। इसी तरह बाबूगिरी वाले रोजगार से आईएएस या आईएफएस या आईआईटी स्नातकों की फ़ौज नहीं खड़ी की जा सकती है। हमें इंग्लिश मीडियम के स्कूलों की उन राज्यों में शुरुआत करनी चाहिए जहाँ ओबीसी सत्ता में हैं और उनके लिए इसे एक एजेंडा के तौर पर लिए जाने की जरूरत है।

जब इलीट ओबीसी वर्ग का हिस्सा आरएसएस-बीजेपी की तरफ खिसकता है तो क्या ऐसा नहीं लगता कि इनके लिए आरक्षण की माँग करके कोई गलती कर दी थी? क्योंकि इसने देश को जाति और धर्म के आधार पर विभाजित करके रख दिया था, और क्या इसने नई समस्याएं नहीं खड़ी कर दी थीं? क्या भारत को कोई अन्य रास्ता नहीं तलाशना चाहिए?

देश कई अन्य मोर्चो पर बंटा हुआ है, वो चाहे भाषा के आधार पर हो या जाति के आधार पर... । हमारे यहाँ किसी एक राष्ट्रीय भाषा को उभरने की इजाजत नहीं दी गई। चीन और भारत के बीच के अंतर को इससे समझ सकते हैं। चीन के पास उसकी अपनी राष्ट्रीय भाषा है, और उसके साथ ही एक अन्य सहायक राष्ट्रीय भाषा के तौर पर अंग्रेजी भाषा मौजूद है। चीन एक वैश्विक टीवी नेटवर्क और एक वैश्विक अखबार चलाता है, लेकिन हम ऐसा कर पाने की हालत में नहीं हैं।

दूसरा यह कि आरएसएस चाहे सत्ता में था या बाहर, वह हमें आपस में बांटने के काम में हमेशा से मशगूल रहा था। बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए ओबीसी के जत्थे को उन्होंने ही आगे किया था। गाँवों में जो मंदिर हैं वे ब्राह्मण पुजारियों के हाथों में हैं, लेकिन शूद्रों के युवाओं से वे कहते हैं कि दलितों को मंदिर में नहीं घुसने देना है। शूद्रों में से युवा जाते हैं और दलितों को मारते पीटते हैं और फिर जेल की हवा खाते हैं। आरएसएस लोगों को आपस में लड़ाने के काम में अंग्रेजों की भी उस्ताद है। हमें ब्राह्मणवाद के ऐतिहासिक नेटवर्किंग को समझने और दलित और खेतिहर मजदूरों के साथ खुद को एकताबद्ध करने की आवश्यकता है।

मण्डल की ताकतें क्यों कमजोर पड़ गईं?

एकता आखिर आती भी तो कहाँ से? काश शूद्रों के नेता के तौर पर यदि सरदार पटेल ने अम्बेडकर की ही तरह हम सबके लिए काफी कुछ साहित्य छोड़ रखा होता [तो चीजें आज भिन्न होतीं]। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं लिखा, यहाँ तक कि अपनी आत्मकथा तक नहीं लिखी। उन्हें “लौह पुरुष” के नाम से जाना जाता है। इसका अर्थ है कि वे सॉफ्ट पॉवर नहीं के तौर पर नहीं थे, वे नेहरु की तरह पण्डित या गांधी की तरह महात्मा नहीं थे। यदि समूचे शूद्र समुदाय को अंग्रेजी माध्यम से पढाया जाता है, जैसाकि अमेरिका में अश्वेतों को एलकेजी से लेकर कॉलेज तक, तो ये ताकतें उन्हें किसी भी कीमत पर विभाजित करने में कामयाब नहीं हो सकतीं। क्योंकि ऐसे में लोग अपने अधिकारों के प्रति व्यक्तिगत तौर पर जागरूक होने लगते हैं, वरना वे लोग उन्हीं भेड़ों की तरह व्यवहार करते रहने के लिए अभिशप्त हैं, और कोई भी कुंभ मेला उन्हें नदी में उतारने में सक्षम है।

दक्षिण में रहने वाले ओबीसी इस मामले में कैसे भिन्न हैं?

सत्य नाडेला ओबीसी समुदाय से आते हैं। क्या उत्तर भारत में उस जैसा एक भी शिक्षित व्यक्ति है? आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी भी एक ओबीसी हैं। इसी तरह तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर [के चंद्रशेखर राव] भी ओबीसी समुदाय से हैं। क्या आपको मालूम है कि हाल ही में केसीआर ने बीजेपी के एजेंडा को एक ही झटके में खत्म करके रख दिया था? जब कोविड-19 महामारी की शुरुआत का समय था तो उस दौरान बीजेपी चिकन, मटन के बहिष्कार का अभियान चलाए हुए थी। केसीआर ने एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया और स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि यह बेहद मूर्खतापूर्ण अपील है। खूब जमकर चिकन, मटन और मछली खाइए और तभी आप सब जिन्दा रह सकते हैं। अगले दिन से ही मीट की दुकानों में भारी भीड़ लगी हुई थी। बीजेपी के अभियान की हवा निकल चुकी थी। उत्तर भारत में एक भी मुख्यमंत्री ऐसा नहीं है जो केसीआर की तरह खुलकर इस बात को कह सके। इसका मतलब ही यह है कि उनकी ब्रेनवाशिंग [पूरी] हो चुकी है। इसके पीछे की वजह यह है कि उत्तर भारत का ओबीसी अंग्रेजी शिक्षा तक अपनी पहुँच नहीं बना सका है।
 
वास्तव में वे इसको लेकर काफी गौरवान्वित रहते हैं। वे तो यह चाहते हैं कि बाकी के भी सभी लोग हिंदी में बात करें.....

माओ [त्से तुंग] ने एक बात कही थी - सैकड़ों विचारों को आपस में होड़ करने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए। यदि उत्तर भारत में बौद्धिक वर्ग को पैदा करना है तो उन्हें दक्षिण भारतीय शूद्रों से हाथ मिलाना चाहिए। यदि वहां पर शूद्र बुद्धिजीवी हैं तो उनकी ताकत का इस्तेमाल करें, उनसे मुलाक़ात करें, देखें कि कैसे वे अपने आस-पास मौजूद ब्राह्मण ताकत के बावजूद उसके बीच में [व्यवस्था में] खुद को टिकाये हुए हैं। अपने समुदाय को आगे लाने के लिए उन्हें चाहिए कि वे बाहर से इसके लिए बैकअप का इंतजाम करें, और इस काम के लिए उनके बीच में मौजूद बुद्धिजीवियों को आगे आकर इस दिशा में कदम बढाना होगा.... .।

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