महामारी के दौरान ऑनलाइन ओपन बुक इम्तिहान- क्या छात्रों से बदला लेने की कोशिश है?
जब से दिल्ली विश्वविद्यालय ने घोषणा की है कि वह अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए ऑनलाइन ओपन बुक इम्तिहान करने जा रहा है, छात्रों और शिक्षकों ने इस कदम के खिलाफ पुरज़ोर विरोध किया है, इस प्रक्रिया की व्यवहार्यता और गुणवत्ता के मामले में प्रक्रिया के कई स्तरों पर पेश होने वाली बाधाओं और न्यायपरकता की गंभीर चिंताओं की तरफ इशारा किया है।
ऑनलाइन ओपन बुक इम्तिहान को लेकर इस तरह की अफरा-तफरी, अनिश्चितता और अटकलों से हालत और बदतर हो गए हैं क्योंकि छात्रों ने पिछले कुछ हफ्तों से भयानक उतार-चढ़ाव का सामना किया है और उसे झेला है।
आइए हम ऑनलाइन ओपन बुक इम्तिहान पर दर्ज आपत्तियों की समीक्षा करें। इसमें घर में इंटरनेट के होने और गति के स्पष्ट मुद्दे शामिल हैं, क्योंकि,खासकर दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र देश के कोने-कोने से आते हैं और कई जगहों पर स्थिर इंटरनेट की बात तो आप छोड़ ही दें, बिजली भी नियमित रूप से नहीं आती है।
अधिक स्पष्ट रूप से देखा जाए तो, देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद और विश्वविद्यालय के अचानक बंद होने की घोषणा के समय आधे से अधिक छात्र (विश्वविद्यालय के छात्र प्रोफ़ाइल के लगभग आधे), मध्य-अवधि छुट्टियों के दौरान घर गए हुए थे। इसलिए, छात्रों के पास इस बात की जानकारी भी नहीं थी कि वे फंसने वाले हैं, तब उनके पास शायद ही कोई अध्ययन सामग्री थी। भले ही कुछ सामग्री शिक्षकों ने ऑनलाइन के माध्यम से उपलब्ध करा दी हो, लेकिन यह सामाग्री शायद ही पर्याप्त हैं। कॉपीराइट प्रतिबंधों के कारण इस सामग्री के एक बड़े हिस्से को भी खुले तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है।
कई छात्रों के पास घर में लैपटॉप नहीं हैं, भले ही यह तर्क दिया जा रहा है कि अध्ययन सामग्री सभी के लिए अपलोड की जा रही है, लेकिन क्या अधिकारी, इस बात को न्यायपूर्ण ठहरा सकते हैं कि ये छात्र अपने मोबाइल फोन की स्क्रीन का इस्तेमाल कर परीक्षा की तैयारी करेंगे? ऐसी स्थिति में उनकी दशा और भी अधिक भयानक हो जाती है जहां पाठ्यक्रमों के बड़े हिस्से को अभी तक पढ़ाया नहीं गया है और ऑनलाइन कक्षाएं, यदि आयोजित की गई हैं, तो शायद ही वह कोई सच्चा विकल्प बन पाया था, विशेष रूप से बहुमत छात्रों का ऑनलाइन कक्षा तक ना पहुंच पाने के मामले में।
इसके अलावा, परीक्षा की तैयारी के लिए उचित गोपनीयता और एक वातावरण की आवश्यकता होती है। कई छात्रों की घरेलू स्थिति इसतरह के वातावरण के अनुकूल नहीं हो सकती है, खासकर, जब परिवार के सदस्य महामारी के कारण हर समय घर पर होते हैं। कई छात्र जो नियमित अध्ययन और परीक्षा की तैयारी के लिए पुस्तकालयों का इस्तेमाल करते हैं, उनकी अब इन पुस्तकालयों तक पहुँच नहीं है।
इस तरह के हालात न केवल एक छात्र के लिए बल्कि परिवार के सदस्यों के लिए भी कष्टदायक हो सकते है, जिन्हें परिवार के छात्र के हित में अपनी दिनचर्या और जगह को समायोजित करना पड़ सकता है। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक रूप से वंचित छात्रों को इन सभी समस्याओं का सामना करना पड़ेगा, और इसके भीतर, घरेलू काम का अत्यधिक असमान बोझ, जिसे अक्सर महिलाएं ही घर पर साझा करती हैं, उन्हें भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
यहाँ परीक्षा की गुणवत्ता का मुद्दा भी गंभीर हैं, जिसका कोई जवाब नहीं दिया जा रहा है। ओपन बुक इम्तिहान के लिए स्रोत सामग्री उपलब्ध है, जिसे किसी अन्य के साथ साझा करना या उस पर चर्चा करना निषेद्ध हैं, लेकिन इस मामले में उसका आसानी से उल्लंघन किया जा सकता है क्योंकि आप पर कोई नज़र नहीं रखी जाएगी। विश्वविद्यालय यह कैसे सुनिश्चित करेगा कि छात्र जो उत्तर अपलोड कर रहे हैं, वे एक-दूसरे से (समानांतर इंटरनेट संचार के माध्यम के कारण) कॉपी नहीं किए गए हैं या किसी और द्वारा तैयार नहीं किए गए हैं? इस मामले में विश्वविद्यालय भ्रष्टाचार और धन के बेज़ा इस्तेमाल को कैसे रोकेगा? ऐसे में क्या किसी भी छात्र की ओर से किसी को भी परीक्षा लिखने के लिए पैसे की पेशगी की जा सकती है, जिसके लिए आपको सिर्फ एक पासवर्ड की जरूरत होती है? इस इम्तिहान के लिए यदि केवल छात्र को एक शपथ पत्र पर घोषित करना है कि वह इम्तिहान देते वक़्त किसी अनुचित साधन का इस्तेमाल नहीं कर रहा है, तो हमें शायद नियमित परीक्षाओं के दौरान विजिलेशन को रोक देना चाहिए और छात्रों से केवल एक शपथ पत्र पर हस्ताक्षर ले लेने चाहिए क्योंकि वे धोखा नहीं देंगे!
छात्रों और शिक्षकों ने उपरोक्त आधार पर परीक्षाओं का विरोध करते हुए, ठोस विकल्प पेश किए हैं, जिन्हे वास्तव में गैर-टर्मिनल सेमेस्टर के छात्रों के लिए, बिना सोचे समझे स्वीकार कर लिया गया था। इसमें सबसे अधिक चौंकाने वाला मुद्दा यह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) या विश्वविद्यालय के अधिकारियों को क्यों लगता है कि अंतिम सेमेस्टर के छात्रों के लिए परीक्षा देना जरूरी है, जबकि अन्य सेमेस्टर के छात्रों को परीक्षा दिए बिना ऊपरी कक्षा में पदोन्नत किया जा सकता है,वह भी उन्हें पिछले सेमेस्टर के हिसाब से औसत अंक देकर।
पहले से ही एक समझ बनाई गई है कि छात्रों को "अंतिम परीक्षा" लिखनी होती है। वास्तव में, इस पर एचआरडी मंत्री को एक टेलीविजन चैनल के साक्षात्कार में "अंतिम परिक्षा" देने की आवश्यकता पर बल देते सुना गया है। यह आश्चर्य की बात है कि शिक्षा अधिकारियों को यह भी नहीं पता है कि विश्वविद्यालयों में अब अंतिम परीक्षा नाम की चिड़िया नहीं होती है। "अंतिम परीक्षा" का अर्थ है कि स्नातक या स्नातकोत्तर कार्यक्रम में आपके संपूर्ण ज्ञान को अंतिम परीक्षाओं के माध्यम से परीक्षा लेना। अब विश्वविद्यालयों में यह प्रणाली दशकों से काम नहीं कर रही है, और सेमेस्टर प्रणाली को अधिकांश विश्वविद्यालयों में लागू किया जा रहा है, इस तरह की "अंतिम" परीक्षाओं का उदाहरण मज़ाक का पात्र है।
प्रत्येक सेमेस्टर अपने में स्वतंत्र है और अक्सर शुरुआती या मध्यवर्ती सेमेस्टर में सबसे अधिक पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। अंतिम सेमेस्टर अक्सर कुछ मध्यवर्ती सेमेस्टर की तुलना में कम वजन रखता है। यदि इस तरह के इंटरमीडिएट सेमेस्टर के छात्रों को मौलिक पाठ्यक्रमों में परीक्षाओं के बिना पदोन्नत किया जा सकता है, तो अंतिम सेमेस्टर के छात्रों को उत्तीर्ण करने में इतना झक क्यों मारा जा रहा है, जबकि यहां दूसरों के मामले में इस्तेमाल किए गए समान सूत्र का उपयोग करना है?
यूजीसी का हालिया बयान कि "परीक्षाओं में बैठने से छात्रों द्वारा अच्छा प्रदर्शन उनमें आत्मविश्वास बढ़ाता है और संतुष्टि प्रदान करता है साथ ही यह उनकी क्षमता, प्रदर्शन और विश्वसनीयता का प्रतिबिंब है जो वैश्विक स्तर पर स्वीकार्यता के लिए जरूरी है" हालांकि इस पर बहस हो सकती है, लेकिन मुद्दा शायद यह नहीं है। यहां महत्वपूर्ण मुद्दा दूसरे सेमेस्टर की तुलना में अंतिम सेमेस्टर के छात्रों के साथ भेदभाव का है।
फिर अन्य छात्रों को ऐसी "संतुष्टि" और "विश्वसनीयता" से वंचित क्यों किया जा रहा है; इसके अलावा, अंतिम सेमेस्टर के छात्रों ने अन्य सभी सेमेस्टर में लिखित परीक्षाओं दी है, जिसमें उनकी "योग्यता, प्रदर्शन और विश्वसनीयता" को आंका जा चुका है? वास्तव में, विडंबना यह है कि अंतिम सेमेस्टर के छात्रों ने खुद के प्रदर्शन को आंकने के लिए सांख्यिकीय रूप से अधिक परीक्षाएँ लिखी हैं, जो इनका अधिक सुसंगत आधार है।
इन गंभीर अनसुलझे और अनुत्तरित मुद्दों के अलावा, पिछले कुछ हफ्तों के दौरान जो हुआ, वह कम से कम हैरान करने वाली बात है। सबसे पहले, हर जगह (सभी प्रमुख समाचार स्रोतों सहित) चर्चा चलाई गई कि यूजीसी ने अंतिम वर्ष की परीक्षाओं को रद्द करने का फैसला किया है और इस बारे में जल्द ही विश्वविद्यालयों को सूचित किया जाएगा। छात्र अधिसूचना का इंतजार करते रहे, जो अंततः वह कभी नहीं आई।
इसके बाद जल्द ही, दिल्ली विश्वविद्यालय ने ऑनलाइन परीक्षा स्थगित कर दी, जिसने छात्रों द्वारा परीक्षा की तैयारी की गति को पूरी तरह से तोड़ दिया। इससे यह अटकलें भी तेज हो गईं कि परीक्षाएं अंतत रद्द कर दी जाएंगी।
डीयू ने माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय को परीक्षा स्थगित करने का एक विचित्र कारण बताया कि उनकी एक उप रजिस्ट्रार की माँ को कोविड़ जांच में पॉज़िटिव पाया गया था। यदि एक अधिकारी के परिवार के सदस्य को हुए कोरोनावायरस के कारण, परीक्षाओं के पूरे कार्यक्रम को स्थगित करना बड़ा कारण हो सकता है, तो उन हजारों छात्रों के बारे में सोंचे जो खुद या उनके परिवार के सदस्य महामारी से प्रभावित हुए हैं या हो रहे हैं? क्या विश्वविद्यालय अपने अधिकारियों और छात्रों के साथ वास्तव में इसके विपरीत व्यवहार नहीं कर रहा है? या, क्या हम यह मान सकते हैं कि विश्वविद्यालय एक पराक्रमी बाजीगर है, जो अपने आकाओं के वश में काम कर रहा है और पूरी तरह से वास्तविकता के संपर्क में नहीं है, और उसे जीवन और छात्रों की भलाई की कोई चिंता नहीं है, वह छात्रों पर केवल अपने निर्णयों को थोप रहा है?
विश्वविद्यालय की छात्रों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है और वह उन्हें केवल एक सबजेक्ट के रूप में देखता है जिन्हे जब जरूरत हो अच्छा प्रदर्शन करने की आवश्यकता है। तथाकथित नकली (Mock) परीक्षा, अपने नाम के हिसाब से वास्तव में नकली थी। इन परीक्षाओं के दौरान छात्रों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ा, विश्वविद्यालय के अधिकारियों को इसका सीधे-सीधे खंडन करना पड़ा जो पूरी तरह से बेईमानी और अक्षमता की एक खेदजनक कहानी बताते हैं।
ताबूत में अंतिम कील यूजीसी ने तब ठोकी जब उसने सोमवार को अंतिम वर्ष के छात्रों को "सितंबर 2020 के अंत तक" परीक्षाओं को ऑफ़लाइन या ऑनलाइन मोड में देने की सिफारिश की थी। एमएचआरडी की अधिसूचना में इसका समर्थन किया गया है, जिसने खुद यह आदेश दिया है कि "यूजीसी दिशानिर्देशों के अनुसार अंतिम परीक्षा अनिवार्य रूप से आयोजित की जानी चाहिए"।
इस कदम ने पूरे देश में अस्थिरता पैदा कर दी है, जबकि कई राज्यों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों ने सभी छात्रों की परीक्षाओं को रद्द कर दिया है, उन्हे उनके द्वारा लिए गए समझदार फैसले को उलटने के लिए मजबूर किया जा रहा है। तनाव के अलावा यह सिफ़ारिश लाखों छात्रों पर दबाव का काम कर रही है, इससे यूजीसी और एमएचआरडी के अधिकार क्षेत्र के बारे में गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं, शिक्षा के मामले में इस तरह की प्रथाओं को लागू करना, वह भी समवर्ती सूची के विषय पर हमला कर, जिसमें राज्य अपने हालत के मद्देनजर निर्णय ले सकते है, महामारी के समय में इसके विपरीत फैसला गलत है।
उच्च शिक्षा सचिव को गृह मंत्रालय का असामान्य पत्र मिला, यह पत्र इस तरह की परीक्षाओं के आयोजन की अनुमति देता है, जो स्पष्ट संकेत देता है कि केंद्र विभिन्न स्तरों पर इस मामले में हस्तक्षेप कर रहा है और राज्यों और संस्थानों पर किसी न किसी तरह का दबाव बनाने का प्रयास कर रहा है।
ऐसे समय में सुखद और दुखद बात यह है कि छात्रों (और शिक्षकों) ने बड़ी तीव्रता और तर्कसंगत ढंग से इसका विरोध किया है और विश्वविद्यालय अधिकारियों और केंद्र सरकार से अपनी सभी लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति का इस्तेमाल कर और जबरदस्त प्रयासों से इसे रद्द करने की अपील की है।
छात्रों की दलील को सिरे से ख़ारिज़ करना और उनके द्वारा इस घातक महामारी में दिखाई गई भारी असंवेदनशीलता से पता चलता है कि केंद्र सरकार संभवतः छात्रों को अनुशासित और दंडित करने के विचार को ही सही मानती है। अटकलबाज़ी इस बात की भी है कि क्या यह उस तीव्र छात्र विरोध का बदला है जिसने देश को महामारी की चपेट में आने से महीनों पहले हिला कर रख दिया था?
लेखक, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-
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