एक तरफ़ PM ने किया गांधी का आह्वान, दूसरी तरफ़ वन अधिनियम को कमजोर करने का प्रस्ताव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जलवायु परिवर्तन के बढ़ते खतरे से निपटने के लिए "प्रकृति के अनुरूप जीवन शैली" अपनाने पर जोर देने के बमुश्किल एक हफ्ते बाद ही, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने एक 'परामर्श पत्र' जारी किया। इसमें वन (संरक्षण) अधिनियम,1980 (FCA) के दायरे में कई बुनियादी ढांचा गतिविधियों को संचालित करने की छूट दी गई है।
ग्लोबल सिटीजन द्वारा 25 सितम्बर को आयोजित 'ग्लोबल सिटीजन लाइव' में एक वीडियो संबोधन में- नरेन्द्र मोदी ने कहा "दुनिया को यह स्वीकार करना होगा कि वैश्विक वातावरण में कोई भी बदलाव सबसे पहले स्वयं से शुरू होता है। जलवायु परिवर्तन को कम करने का सबसे सरल और सबसे सफल तरीका प्रकृति के अनुरूप मानवीय जीवन शैली का अनुसरण करना है।" ग्लोबल सिटीजन एक अंतरराष्ट्रीय पैरोकार समूह है, जिसका मकसद पृथ्वी की रक्षा करना है, उसका संरक्षण करना है। दुनिया से भूख और गरीबी को समाप्त करना है।
हालांकि, पर्यावरण मंत्रालय ने भारत में वनों के संरक्षण के नियमों के खिलाफ जाते हुए कई गैर-वानिकी गतिविधियों को भी छूट देने का प्रस्ताव दिया, जिसमें देश की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर रक्षा-सुरक्षा से संबंधित परियोजनाएं, चिड़ियाघर का निर्माण, वन प्रशिक्षण का बुनियादी ढांचा, और वन भूमि पर सर्वेक्षण और जांच के कार्य शामिल हैं।
विडंबना यह है कि वन अधिनियम में व्यापक परिवर्तन का यह प्रस्ताव 2 अक्टूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 152वीं जनशताब्दी पर किया गया, जिनकी पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रतिबद्धता का आह्वान खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में किया था-“महान महात्मा गांधी व्यापक रूप से शांति और अहिंसा पर अपने महान विचारों के लिए जाने जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि वे दुनिया के सबसे महान पर्यावरणविदों में भी एक थे? उन्होंने शून्य-कार्बन जीवन शैली के पथ-चिह्नों का अनुसरण किया था। उन्होंने (गांधी ने) जो कुछ भी किया, हमारी इस पृथ्वी ग्रह के कल्याण की प्राथमिकता को संसार की हर चीज से ऊपर रख कर किया था।”
यह परामर्श पत्र विस्तारित पहुंच ड्रिलिंग (ईआरडी) तकनीक के जरिए हाइड्रोकार्बन की खोज करने और निष्कर्षण ईकाई की स्थापना को भी वन मंत्रालय की मंजूरी से छूट की सिफारिश करता है। भूमिगत सुरंगों के एक विस्तृत नेटवर्क के माध्यम से इस प्रौद्योगिकी से निश्चित दूरी पर एक ब्लॉक से हाइड्रोकार्बन निकाले जाते हैं। इस प्रौद्योगिकी का उपयोग ज्यादातर संरक्षित क्षेत्रों जैसे जंगलों, राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों में किया जाता है।
हाल के दिनों में, असम के वर्षा वनों में पारिस्थितिक रूप से नाजुक डिब्रू-सैखोवा राष्ट्रीय उद्यान के ठीक बाहरी हिस्से में- बागजान गैस रिसाव (27 मई 2020) के बाद ईआरडी तकनीक से हाइड्रोकार्बन निष्कर्षण के लिए कलस्टर बोरवेलों की ड्रिलिंग किए जाने को लेकर पर्यावरणविदों ने सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुख ऑयल इंडिया लिमिटेड की काफी लानत-मलामत की थी।
ईआरडी तकनीक के इस्तेमाल से हाइड्रोकार्बन की खोज के काम को वन मंजूरी से छूट देने के प्रस्ताव को तेल और प्राकृतिक गैस कंपनियों के लिए एक बोनस ही माना जा सकता है। पिछले साल मोदी सरकार ने हाइड्रोकार्बन की खोज को पर्यावरणीय मंजूरी की अपरिहार्यता से छूट दे ही दी थी।
केंद्र सरकार ने पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआइए) अधिसूचना- 2006 में संशोधन के लिए 16 जनवरी, 2020 को एक अधिसूचना जारी की थी, जिसके अंतर्गत हाइड्रोकार्बन अन्वेषण को B2 कोटि के उद्योगों के अंतर्गत रखा गया है। इस कारण संयंत्र के पर्यावरण पर प्रभाव के आकलन, इससे संबंधित जन सुनवाई करने और स्थापना के लिए पर्यावरण मंत्रालय से मंजूरी की आवश्यकता नहीं होती है।
यदि प्रस्तावित संशोधनों को वन अधिनियम में शामिल कर लिया जाता है तो वन क्षेत्रों में निष्कर्षण योग्य प्राकृतिक खनिज संसाधनों की मौजूदगी का पता लगाने के लिए, सर्वेक्षण का काम करने, जांच गतिविधियां चलाने, खनिजों का पता लगाने के लिए ड्रिलिंग को भी आगे से वन मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं होगी। परामर्श पत्र में कहा गया है,“ऐसी कई गतिविधियों में, जिनमें वन भूमि का उपयोग बहुत कम समय के लिए किया जाता है, और जिसके चलते उस वन भूमि या वहां की जैव विविधताओं में कोई प्रत्यक्ष परिवर्तन नहीं होता है,” उन गतिविधियों को भी कानून से छूट देने पर विचार किया गया है। लेकिन चूंकि ऐसी गतिविधियां जो "गैर-वानिकी गतिविधि मानी जाती हैं, इसलिए इसमें केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति की एक औपचारिक प्रक्रिया का पालन करना पड़ता है, जिसमें दरअसल बहुत सारा समय लग जाता है", इसलिए परामर्श पत्र का कहना है कि इसके निदान के लिए, "विशेष रूप से ऐसी गतिविधियां, जिनके प्रभाव बोधगम्य नहीं हैं, उन मामलों में वन अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं हो सकते हैं।"
जाहिर है कि सरकार वन भूमि के एक हिस्से को किसी निजी संस्था को पट्टे पर खनन के लिए देने से पहले केंद्र की मंजूरी की अनिवार्यता को संशोधन के जरिए खत्म कर देना चाहती है। इसके बजाय, अधिनियम की एक धारा जो गैर-वानिकी उपयोग के लिए वन भूमि को हटाने के लिए केंद्र की मंजूरी को अनिवार्य बनाती है, खनन पट्टे देते समय लागू होगी।
पर्यावरण कार्यकर्ता विस्तारित सप्ताहांत (2-3 अक्टूबर) के दौरान प्रस्तावित संशोधनों की अधिसूचना को लेकर पहले से ही लामबंद हो चुके हैं, जो एक पखवाड़े के 13 दिनों में लोगों से प्रस्ताव पर उनकी राय मांगी गई है।
खदान, खनिज और पीपुल(एमएमएंडपी) नामक संस्था के अध्यक्ष रेब्बाप्रगदा रवि ने न्यूज़क्लिक को बताया कि “ये संशोधन वनों के संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनी प्रावधानों को गंभीर रूप से कमजोर कर देंगे। ऐसा लगता है कि ये संशोधन-प्रस्ताव केवल कॉर्पोरेट क्षेत्र के व्यापार में सहुलियत देने के लिए पेश किए गए हैं। सरकार ने इस प्रस्ताव में वन में रहने वाले लोगों का उल्लेख नहीं किया है, जिनका जीवन और आजीविका, सब कुछ वन संसाधनों पर ही निर्भर है, "
एमएमएंडपी, खनन से पीड़ित व्यक्तियों और समुदायों का एक सहयोगी संगठन है।
संसद ने साल 2006 में, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम बनाया था, जो आजीविका, आवास और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों सहित विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं के लिए वन संसाधनों पर वन निवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता देता है।
गैर-वन उद्देश्यों के लिए वन भूमि को पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम,1996 के अंतर्गत स्थानांतरित करने में ग्राम सभाओं (देश में शासन की सबसे निचली ईकाई जिसमें किसी विशेष गांव के सभी वयस्क सदस्य शामिल होते हैं।) की सहमति जरूरी है। हालांकि, एफसीए के तहत कई छूटों का प्रस्ताव करते हुए भी परामर्श पत्र में इस अधिनियम का कोई जिक्र नहीं किया गया है।
परामर्श पत्र ने यह तय करने के लिए सलाहियत का भी आह्वान किया है कि क्या-कभी समझौता न की जा सकने वाली राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रकृति के लिए-देश की अंतरराष्ट्रीय सीमा के साथ रक्षा एवं सुरक्षा से संबंधित सभी परियोजनाओं को अधिनियम से छूट दी जानी चाहिए। यह संशोधन प्रस्ताव इस तर्क पर किया गया है कि स्पष्ट रूप से "कई बार, राष्ट्रीय महत्व की रणनीतिक और सुरक्षा परियोजनाओं में देरी हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप महत्त्वपूर्ण स्थानों पर इस तरह के बुनियादी ढांचे के विकास को झटका लगता है"
चिड़ियाघरों, वन्यजीव सफारी और यहां तक कि वन प्रशिक्षण बुनियादी ढांचे की स्थापना के लिए भी वन मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि ये गतिविधियां "वनों के संरक्षण के लिए सहायक हैं"। विशेषज्ञों ने मंत्रालय के इस विचार के लिए उसकी अक्लमंदी पर सवाल उठाया है कि पेड़ों की कटाई के बाद कंक्रीट संरचनाओं के निर्माण को भी वन संरक्षण के लिए सहायक गतिविधि के रूप में माना जा सकता है।
इसके अलावा, कानून के मौजूदा प्रावधानों के उल्लंघन के मामले में दंड की मौजूदा अवधि 15 दिनों से बढ़ा कर एक वर्ष तक करने और उसे संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध भी बनाए जाने का प्रस्ताव है।
प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण के लिए काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था कन्जर्वेशन एक्शन ट्रस्ट से संबद्ध देबी गोयंका ने न्यूजक्लिक को बताया कि “वन भूमि के डायवर्जन की अनुमति देने वाले सरकारी अधिकारियों पर इस कानून के तहत कभी भी मुकदमा नहीं चलाया जाता है, क्योंकि सरकार कभी भी इस तरह के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देती है,”
गोयंका ने कहा कि “किसी अपराध को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है या नहीं, यह तय करने के लिए सरकार को मौजूदा आपराधिक कानूनों पर फिर से विचार करना होगा। एफसीए के तहत दंडात्मक प्रावधानों को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ाया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसके तहत अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती हैं, जो दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों के भी अनुरूप हैं।”
इसके साथ ही, विशेषज्ञों ने वन भूमि के संरक्षण में एफसीए की प्रभावशीलता पर भी सवाल उठाया है। दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से संबद्ध कांची कोहली कहती हैं, “जब से यह अधिनियम लागू हुआ है, वह राजनीतिक और अपारदर्शी बना हुआ है, और इसका उपयोग उपयोगकर्ता-अधिकारों को चुनिंदा रूप से प्राथमिकता देने में किया गया है। इसे गोदावर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के माध्यम से और मजबूत किया गया है।"
कोहली को लगता है कि संशोधन-प्रस्ताव "राजस्व और अन्य सरकारी भूमि को विभागीय संपत्ति के रूप में व्यवहार करने और उद्यम करने की अनुमति देने के लिए कानून के दायरे की पुनर्व्याख्या करते हैं।" इसके अलावा, संशोधन, "जलवायु अनुकूलन लक्ष्यों और नीतिगत लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक तंत्र के रूप में निजी भूमि पर पौधरोपण को बढ़ावा देते हैं। पर वास्तव में, वे न तो वन संरक्षण को प्राथमिकता देते हैं और न ही वन अधिकारों को लेकर लंबे समय से लंबित चले आ रहे अन्याय को दूर करते हैं”
अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:-
PM Invoked Gandhi, Centre Sought Dilution of Forest Act on Oct 2
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