Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

पटनाः ऐतिहासिक सरकारी उर्दू लाइब्रेरी के गिराए जाने के साथ एक विरासत भी ख़त्म हुई

बिहार की राजधानी पटना की विरासत को ख़त्म किए जाने और शहरवासियों की ख़ामोशी इस सच्चाई को उजागर करती है कि अब किसी को इतिहास की परवाह नहीं है।
patna

साल 2022 के जाते जाते लोगों की नज़रों के सामने पटना शहर की विरासत भी ख़त्म कर दी गई। अशोक राजपथ रोड पर स्थित भारत की एकमात्र सरकारी उर्दू लाइब्रेरी को ज़मीनदोज़ कर दिया गया। ख़ुदा बख़्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी और बिहार उर्दू अकादमी, पटना की सरकारी उर्दू लाइब्रेरी या बिहार उर्दू लाइब्रेरी के बगल में स्थित ये इमारत देश की आज़ादी से पहले से ही साहित्य का केंद्र था। 1938 में इसकी स्थापना के बाद से यह अख़बारों और पत्रिकाओं की एक विस्तृत श्रृंखला के संग्रह के लिए यह जाना जाता रहा है। बिहार उर्दू लाइब्रेरी में 40,000 से अधिक दुर्लभ पांडुलिपियों और पुस्तकों के होने की बात कही जाती रही है।

गिराए गए इस सरकारी लाइब्रेरी का मलबा मेन रोड से दिखता था लेकिन पूरी तरह इसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। यह आश्वासन दिया गया है कि सरकार इस उर्दू लाइब्रेरी की पुस्तकों और पत्र पत्रिकाओं समेत अन्य चीजों को एक नए भवन में स्थानांतरित कर देगी। हालांकि, यह राष्ट्रीय आंदोलन के बड़े व्यक्तित्व के लिए स्मरण की इस एकमात्र स्थल को पुनर्स्थापित नहीं कर पाएगा जिन्होंने इस पुस्तकालय के लिए अपना योगदान दिया था। इमारत गिराए जाने को लेकर शोर शराबा करने वाले केवल वे ही लोग हैं जो फ्लाईओवर और मेट्रो परियोजना के लिए रास्ता बनाने के लिए ख़ुशी मनाते हैं। इस बार उर्दू प्रेस में भी बिहार उर्दू लाइब्रेरी को गिराने को लेकर कोई चर्चा नहीं है।

बिहार विधानसभा पुस्तकालय समिति द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में 1950 के दशक में मौजूद 541 पुस्तकालयों में से केवल 51 पुस्तकालय बचे हैं।

औसतन, बिहार सरकार अपने बजट का 0.01% पुस्तकालयों को आवंटित करती है। बजट में ये कमी इस बात का संकेत देती है कि अधिकारियों के लिए पढ़ाई लिखाई कितना महत्वपूर्ण है। राजधानी पटना पहले ही अपने बहुसांस्कृतिक अतीत और विरासत का एक बड़ा हिस्सा खो चुकी है। इस नुक़सान को ध्यान में रखते हुए, हमें शहर के अतीत से जो कुछ अब तक बचा हुआ है उसे ज़रूर बचाना चाहिए। इतिहास के बेहद अहम और अपूरणीय प्रवेश द्वार के रूप में जाने जाने वाले पुस्तकालयों को हर क़ीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए। हालांकि, मौजूदा पुस्तकालयों की स्थिति, विशेष रूप से उर्दू पुस्तकों और पांडुलिपियों वाले पुस्तकालयों की स्थिति चौंकाने वाले हैं।

सिर्फ़ किताबें और साहित्य ही नहीं, भाषा भी आज ख़तरे में है क्योंकि दक्षिणपंथी शक्तियां भारत की भाषाई विविधता पर हमला कर रही हैं। बिहार 87 लाख से अधिक लोग उर्दू बोलने वाले हैं लेकिन इस बड़ी आबादी के पास बिहार के पहले शिक्षा मंत्री बैरिस्टर डॉ सैयद महमूद द्वारा स्थापित पुस्तकालय के अलावा कोई पुस्तकालय नहीं है।

यहां तक कि बिहार उर्दू लाइब्रेरी भी इस क्षेत्र में उनके कई योगदानों में से एक था। इसका महत्व और भूमिका स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष तक फैली हुई है। महान स्वतंत्रता सेनानी और वकील मज़हर-उल-हक़ के दामाद महमूद को ब्रिटिश विरोधी राजनीतिक गतिविधियों के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया था। वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में क़ानून की पढ़ाई करने के लिए चले गए। उन्होंने जर्मनी से पीएचडी की डिग्री हासिल की और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए भारत लौट आए।

होम रूल आंदोलन, असहयोग आंदोलन और ख़िलाफ़त आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक सक्रिय सदस्य महमूद जवाहरलाल नेहरू के साथ अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के उप महासचिव बने। मुस्लिम लीग के विरोध की एक मज़बूत आवाज़ रहे महमूद और डॉ. एमए अंसारी ने कांग्रेस पार्टी के भीतर मुस्लिम राष्ट्रवादी पार्टी की नींव रखी। 1937 तक महमूद इसके महासचिव थे और इसी साल वे श्रीकृष्ण सिन्हा के नेतृत्व वाली बिहार सरकार में शिक्षा, विकास और योजना मंत्री बने।

कई मौक़ों पर महमूद ने सांप्रदायिकता और जातिवाद पर कांग्रेस पार्टी से असहमति जताई। उर्दू और हिंदी बोलने वालों के बीच बढ़ती खाई से बेहद निराश होकर उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर विभाजन का मुक़ाबला करने के लिए द्विभाषी समाचार पत्र 'रौशनी' लॉन्च किया।

मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने "देहात सुधार" विभाग की स्थापना की जिसमें उन युवाओं को नियुक्त किया गया जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लिया और ब्रिटिश दमन के कारण बेरोज़गार हो गए। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण जैसे ही महमूद ने अन्य मंत्रियों के साथ इस्तीफ़ा दिया ब्रिटिश सरकार ने इस विभाग को ख़त्म कर दिया।

वह बिहार के प्रत्येक ज़िले में एक लाइब्रेरी स्थापित करना चाहते थे। हालांकि, मुस्लिम लीग और अंग्रेज़ों के विरोध के कारण उन्हें इस योजना को पटना शहर तक ही सीमित रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। ज़िला पुस्तकालयों को स्थापित करने के बजाय महमूद ने इस शहर को अपना पहला और एकमात्र सरकारी उर्दू लाइब्रेरी दिया।

अशोक राजपथ पर बिहार उर्दू पुस्तकालय की इमारत को शहर के बुनियादी ढांचे के लिए रास्ता बनाने के लिए चुपचाप तरीक़े से बुलडोज़़र चला दिया गया। यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम के बड़े व्यक्तित्व को याद करने वाली एकमात्र इमारत थी। इसके विध्वंस और शहरवासियों की ख़ामोशी इस सच्चाई को उजागर करती है कि अब किसी को इतिहास की परवाह नहीं है।

सरकार ने ख़ुदा बख़्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी या सुल्तान पैलेस के एक हिस्से को गिराने का भी फ़ैसला किया था, लेकिन सौभाग्य से व्यापक विरोध प्रदर्शन ने इसे बचा लिया। अब बिना हो हल्ला के बिहार के इस उर्दू लाइब्रेरी की इमारत को गिरा दिया गया है।

देश को अपना जीवन और करियर समर्पित करने वाले एक व्यक्ति के योगदान को याद करने और संरक्षित करने के बजाय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार सरकार ने भारत की आज़ादी के 75 वें वर्ष में उनके नाम को मिटा दिया और उनके योगदान को मलबे में तब्दील कर दिया। अध्यक्ष और अधिकारियों के बिना बिहार उर्दू लाइब्रेरी अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा था।

सरकार ने कहा है कि इस लाइब्रेरी को नए भवन में स्थानांतरित किया जाएगा। निश्चित ही मंत्री और अधिकारी नए परिसर का उद्घाटन करेंगे, लेकिन इस प्रक्रिया में महमूद की विरासत मिट जाएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि यदि राज्य सरकार ने इस तरह की मांगों पर ध्यान दिया होता तो मूल इमारत को संरक्षित, पुनर्जीवित और नवीनीकृत किया जा सकता था।

इस लाइब्रेरी के विध्वंस को मुसलमानों के ख़िलाफ़ लगातार होने वाले सामाजिक-राजनीतिक हमलों से अलग नहीं किया जा सकता है। भारत के मुसलमानों को निरंतर घुसपैठिए और बाहरी कहा जाता है, भारत के विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, और उनके योगदान को दरकिनार कर दिया जाता है। इसीलिए बिहार उर्दू लाइब्रेरी के विध्वंस को संघ परिवार के मुस्लिम योगदान और विरासत को दरकिनार करने के एजेंडे के अनुरूप एक प्रोजेक्ट के रूप में देखा जाएगा। मुख्यमंत्री और उनका जनता दल (यूनाइटेड) ख़ुद को अल्पसंख्यक समुदाय के हितैषी के रूप में कितना भी पेश करे उनकी हरकतें उनकी असली मंशा को उजागर करती हैं।

बिहार के मुख्यमंत्री ने विकास की जो धारणा रखी वह सतही है। पटना की बहुसांस्कृतिक विरासत की क़ब्रिस्तान पर बिहार की नई सड़कें बन रही हैं। नए सरकारी पुस्तकालयों को खोलने या मौजूदा पुस्तकालयों को बेहतर करने के बजाय, सरकार जो कुछ भी मौजूद है उसे नष्ट करने, ध्वस्त करने और मिटाने पर आमादा है। जानबूझकर उपेक्षित अतीत की इन कहानियों और विरासतों को उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बिना फिर से नहीं बनाया जा सकता है।

लेखक रंगमंच कलाकार व एक्टिविस्ट हैं और प्रिवेंटिव कन्ज़र्वेशन के छात्र हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूलतः अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Easy to Bulldoze—Fall of Patna’s Government Urdu Library and Legacy

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest