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बलराज साहनी: 'एक अपरिभाषित किस्म के कम्युनिस्ट'

‘‘अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है, जो ‘जन कलाकार’ का ख़िताब का हक़दार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से क़ायम करने के लिए समर्पित किए थे"। 13 अप्रैल बलराज साहनी की पुण्यतिथि विशेष
Balraj Sahni
फ़ाइल फ़ोटो। साभार: गूगल

बलराज साहनी एक जनप्रतिबद्ध कलाकार, हिंदी-पंजाबी के महत्वपूर्ण लेखक और संस्कृतिकर्मी थे। जिन्होंने अपने कामों से भारतीय लेखन, कला और सिनेमा को एक साथ आबाद किया। उनके जैसे कलाकार विरले ही पैदा होते हैं।

साल 1936 में बलराज साहनी की पहली कहानी ‘शहजादों का ड्रिंक’, उस वक़्त की हिंदी की मशहूर पत्रिका ‘विशाल भारत’ में छपी। इसके बाद, तो यह सिलसिला चल निकला। ‘विशाल भारत’ के अलावा उस दौर की चर्चित पत्रिकाओं ‘हंस’, ‘अदबे लतीफ़’ आदि में भी उनकी कहानियां नियमित तौर पर प्रकाशित होने लगीं।

बलराज साहनी ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद लाहौर में कुछ दिन पत्रकारिता की। लेकिन यहां उनका मन नहीं रमा। साल 1937 में वे गुरु रबीन्द्रनाथ टैगोर के विश्वभारती विश्वविद्यालय ‘शांति निकेतन’ चले गए। जहां उन्होंने दो साल तक हिंदी का अध्यापन किया। अध्यापन बलराज साहनी की आख़िरी मंज़िल नहीं थी। उनकी आंतरिक बेचैनी उन्हें महात्मा गांधी के वर्धा स्थित आश्रम ‘सेवाग्राम’ तक ले गई। जहां उन्होंने ‘नई तालीम’ में सहायक संपादक की ज़िम्मेदारी संभाली। मगर यहां भी वे ज़्यादा लंबे समय तक नहीं रहे। बीबीसी लंदन के अंग्रेज़ डायरेक्टर-जनरल लाइनल फील्डन महात्मा गांधी से मिलने उनके आश्रम पहुंचे, तो वे बलराज साहनी की क़ाबिलियत से बेहद मुतअस्सिर हुए। लाइनल फील्डन ने उनके सामने बीबीसी की नौकरी की पेशकश रखी। जिसे उन्होंने फ़ौरन मंज़ूर कर लिया। ‘बीबीसी लंदन’ में बलराज साहनी ने साल 1940 से लेकर 1944 तक हिंदी रेडियो के एनाउंसर के तौर पर काम किया। इस दौरान उन्होंने खूब भारतीय साहित्य पढ़ा। कुछ रेडियो नाटक और रिपोर्ताज भी लिखे।

बलराज साहनी ने लंदन से बहुत कुछ सीखा। उस वक़्त दुनिया में दूसरी आलमी जंग छिड़ी हुई थी। रेडियो की नौकरी ने उन्हें तमाम तजरबात सिखाए। यही नहीं मार्क्सवाद की शुरुआती तालीम भी उन्हें वहीं हासिल हुई। बलराज साहनी आहिस्ता-आहिस्ता वैज्ञानिक समाजवाद की ओर आकृष्ट हुए। उन्होंने थिएटर और सोवियत फ़िल्में देखीं। मार्क्स और लेनिन की मूल किताबों से उनका साबका पड़ा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद को उन्होंने एक वैचारिक रौशनी के तौर पर तस्लीम किया।

बीबीसी की नौकरी के दौरान ही वे ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे। बलराज साहनी खु़द कहा करते थे,‘‘टैगोर, गांधी, मार्क्स, लेनिन और स्तानिस्लावस्की मेरे गुरु हैं।’’ मार्क्सवादी विचारधारा से एक बार उन्होंने जो नाता जोड़ा, तो अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक इसका साथ निभाया।

लंदन में कुछ साल गुज़ारने के बाद, वे भारत आ गए। यहां आते ही वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। बलराज साहनी एक क्रिएटिव इंसान थे और उनकी ज़िंदगी का मक़सद एक दम स्पष्ट था। सांस्कृतिक कार्यों के ज़रिए ही वे देश की आज़ादी में अपना योगदान देना चाहते थे। देश में नवजागरण के लिए एक अंग बनना चाहते थे। यही वजह है कि कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक संगठन ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ (इप्टा) दोनों में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया। इप्टा में उन्होंने अवैतनिक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर काम किया।

इप्टा में बलराज साहनी की इब्तिदा ड्रामे के डायरेक्शन से ही हुई। ख़्वाजा अहमद अब्बास ने जब अपने नाटक ‘जुबैदा’ के डायरेक्शन की ज़िम्मेदारी इप्टा में नये-नये आए बलराज साहनी को सौंपी, तो सभी को एक दम तअज्जुब हुआ। अब्बास ने पहली ही नज़र में उनकी क़ाबिलियत को पहचान लिया था। बहरहाल, बलराज साहनी ने भी उन्हें निराश नहीं किया। नाटक बेहद कामयाब हुआ। ‘जुबैदा’ की कामयाबी के साथ वे इप्टा के अहमतरीन मेंबर हो गए। यह वह दौर था, जब इप्टा से देश भर के बड़े-बड़े कलाकार, लेखक, निर्देशक और संस्कृतिकर्मी आदि जुड़े हुए थे। इप्टा का आंदोलन पूरे भारत में फैल चुका था। राजनीतिक-सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण इस नाट्य आंदोलन का एक ही मक़सद था, देश की आज़ादी। बलराज साहनी ने अपने-आप को जैसे पूरी तरह से इसके लिए झौंक दिया था।

एक दौर ऐसा भी आया, जब बलराज साहनी इप्टा में नेतृत्वकारी भूमिका में आए। इप्टा की मुंबई शाखा के महासचिव की ज़िम्मेदारी उन्हें मिली। इस जिम्मेदारी को उन्होंने पूरी गंभीरता और समर्पण के साथ निभाया। बलराज साहनी ने नये लोगों को इप्टा और उसकी विचारधारा से जोड़ा। लोक शाइर अण्णा भाऊ साठे, पवाड़ा गायक गावनकर और अमर शेख़ आदि उन्हीं की खोज थे। बलराज साहनी ने ना सिर्फ़ इन सब की प्रतिभा पहचानी, बल्कि उन्हें इप्टा में एक नया मंच भी प्रदान किया। वैचारिक तौर पर उन्हें प्रशिक्षित किया।

बलराज साहनी ने इप्टा में अभिनय-निर्देशन के साथ-साथ ‘जादू की कुर्सी’, ‘क्या यह सच है बापू?’ जैसे विचारोत्तेजक नाटक भी लिखे। अपनी सियासी सरगर्मियों और वामपंथी विचारधारा के चलते बलराज साहनी को कई मर्तबा जे़ल जाना पड़ा। लेकिन उन्होंने अपनी विचारधारा से कभी कोई समझौता नहीं किया।

हालांकि वे कम्युनिस्ट पार्टी के कार्डधारक मेंबर नहीं थे, लेकिन पीसी जोशी की नज़र में बलराज साहनी अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक ‘‘एक अपरिभाषित किस्म के’’ कम्युनिस्ट बने रहे।

इप्टा ने जब अपनी पहली फ़िल्म ‘धरती के लाल’ बनाने का फ़ैसला किया, तो बलराज साहनी को उसमें एक अहम किरदार के लिए चुना गया। इस फ़िल्म में अदाकारी करने के साथ-साथ उन्होंने सहायक निर्देशक की ज़िम्मेदारी भी संभाली। ‘धरती के लाल’, साल 1943 में बंगाल के अंदर पड़े भयंकर अकाल के पसमंज़र पर थी। ख़्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में बलराज साहनी ने किसान का रोल किया। जीनियस डायरेक्टर बिमल रॉय की ‘दो बीघा ज़मीन’, बलराज साहनी की एक और मील का पत्थर फ़िल्म थी। ‘धरती के लाल’ में ‘निरंजन’ और ‘दो बीघा जमीन’ फ़िल्म में ‘शंभु महतो’ के किरदार में उन्होंने जैसे अपनी पूरी जान ही फूंक दी थी। दोनों ही फ़िल्मों में किसानों की समस्याओं, उनके शोषण और उत्पीड़न के सवालों को बड़े ही संवेदनशीलता और ईमानदारी से उठाया गया था। ये फ़िल्में हमारे ग्रामीण समाज की ज्वलंत तस्वीरें हैं। ‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा जमीन’ हो या फिर ‘गरम हवा’ बलराज साहनी अपनी इन फ़िल्मों में इसलिए कमाल कर सके कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता इन किरदारों के प्रति थी। वे दिल से इनके साथ जुड़ गए थे। इस हद तक कि कोलकाता की सड़कों पर उन्होंने ख़ुद हाथ रिक्शा चलाया।

अपने पच्चीस साल के फ़िल्मी करियर में बलराज साहनी ने एक सौ पच्चीस से ज़्यादा फ़िल्मों में अदाकारी की। जिसमें कई फ़िल्में ऐसी हैं,जिनमें उनकी अदाकारी भुलाई नहीं जा सकती। तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े कलाकार-लेखक-निर्देशकों ने जब भी कोई फ़िल्म बनाई,उनकी पहली पसंद बलराज साहनी ही होते थे। राजिंदर सिंह बेदी निर्देशित फ़िल्म -‘गरम कोट’, चेतन आनंद-‘हक़ीक़त’, ज़िया सरहदी-‘हम लोग’ और एमएस सथ्यु की फ़िल्म ‘गरम हवा’ के नायक बलराज साहनी थे। उन्होंने भी अपनी अदाकारी से निर्देशकों को निराश नहीं किया। कमोबेश यह सारी की सारी फ़िल्में यथार्थवादी सिनेमा का बेहतरीन नमूना हैं।

फ़िल्म निर्माता-निर्देशक-लेखक ख़्वाजा अहमद अब्बास ने बलराज साहनी की अदाकारी की अज़्मत को बयां करते हुए, अपने एक लेख ‘जन कलाकार बलराज साहनी’ में लिखा हैं,‘‘अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है, जो ‘जन कलाकार’ का ख़िताब का हक़दार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से क़ायम करने के लिए समर्पित किए थे।.......बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था।

बलराज साहनी, पंजाबी ज़बान के बड़े लेखक-नाटककार गुरशरण सिंह के थिएटर ग्रुप ‘पंजाबी कला केन्द्र’ से भी जुड़े रहे। उनके साथ वे पंजाब के दूर-दराज के अनेक गांवों तक गए। इस ग्रुप के ज़रिए उन्होंने अवामी थियेटर को जनता तक पहुंचाया। लोगों में जनचेतना फैलाई। सिनेमा, साहित्य और थिएटर में एक साथ काम करते हुए भी बलराज साहनी सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों के लिए समय निकाल लेते थे। सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में देशवासियों की मदद के लिए वे हमेशा पेश-पेश रहते थे। बंटवारे के दौरान हुए साम्प्रदायिक दंगों में उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ साम्प्रदायिकता विरोधी मुहिम का संचालन किया। महाराष्ट्र के भिवंडी में जब साम्प्रदायिक दंगा हुआ, तो वे अपनी जान की परवाह किए बिना दंगाग्रस्त इलाके गए। उन्होंने वहां हिंदू-मुस्लिम दोनों क़ौमों के बीच अमन और भाईचारा क़ायम करने का अहमतरीन काम किया। समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता में उनका गहरा यक़ीन था और इन मूल्यों को स्थापित करने के लिए उन्होंने ज़मीनी स्तर पर काम किया। बलराज साहनी एक सच्चे कलाकार थे और अपने देशवासियों से बेहद प्यार करते थे। अपने चर्चित लेख ‘आज के साहित्यकारों से अपील’ में उन्होंने देशवासियों के लिए पैग़ाम देते हुए लिखा है,‘‘हमारा देश अनेक क़ौमियतों का सांझा परिवार है। वह तभी उन्नति कर सकता है, अगर हर एक क़ौम अपनी जगह संगठित और सचेत हो, और अपनी जगह भरपूर मेहनत और उद्यम करे। जैसे हर क़ौम, वैसे ही हर व्यक्ति समान अधिकार रखने वाला हो-आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक। भारतीय एकता और उन्नति का संकल्प लोकवाद और समाजवाद के आधार पर ही किया जा सकता है, न कि बड़ी मछली छोटी मछली को हड़प करने का अधिकार दे कर।’’

सिनेमा, साहित्य और थिएटर के क्षेत्र में बलराज साहनी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। भारत सरकार के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्मश्री’ के अलावा उनकी किताब ‘मेरा रूसी सफ़रनामा’ के लिए उन्हें सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से नवाज़ा गया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पहले महासचिव पीसी जोशी, बलराज साहनी के अज़ीज़ दोस्त थे। तक़रीबन चार दशक तक उनका और बलराज साहनी का लंबा साथ रहा। बलराज साहनी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पीसी जोशी ने एक शानदार लेख ‘बलराज साहनी : एक समर्पित और सर्जनात्मक जीवन’ लिखा है। बलराज साहनी की अज़ीम-ओ-शान शख़्सियत और वे जनता के बीच क्यों मक़बूल थे?, इस पर जोशी की बेलाग राय है,‘‘बलराज साहनी का जीवन और कृतित्व एक उद्देश्यपूर्ण और खूबसूरती से जी गई, बेहतरीन ज़िंदगी की कहानी है। जैसे-जैसे समय बीतता गया, उस शख़्स के समर्पित तरीके से अंजाम दिए गए कामों का गौरवशाली रिकॉर्ड ऊंचा से ऊंचा होता गया और उनमें से हरेक काम को उसने अपनी सर्जनात्मकता से ज़रूर कुछ समृद्ध बनाया। उन्होंने लेखन और सांस्कृतिक क्षेत्र में जो भी कार्य किया, वह आम जनता की समझ में आने वाला था। इसीलिए उनका रचनात्मक कार्य जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ।’’

बलराज साहनी को जितनी भी ज़िंदगी मिली, उन्होंने उसे भरपूर जिया। उनकी ज़िंदगी बामक़सद और खूबसूरती से जी गई बेहतरीन ज़िंदगी थी। बलराज साहनी के निधन पर कॉमरेड पीसी जोशी ने उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि इन अल्फ़ाज़ में दी,‘‘बलराज साहनी का जीवन और उसका कार्य, तमाम प्रगतिशील व समाजवादी बुद्धिजीवियों के लिए और उनसे भी बढ़कर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जैसे ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील संगठनों के लिए तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे संगठनों के लिए भी, प्रेरणा का स्रोत है और उसका दुःखद अंत हम सबके लिए एक सबक है।’’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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