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फ़ासीवादी व्यवस्था से टक्कर लेतीं  अजय सिंह की कविताएं

अजय सिंह हमारे समय के एक बेबाक और बेख़ौफ़ कवि हैं। शायद यही वजह है कि उनकी कविताएं इतनी सीधे सीधे और साफ़ साफ़ बोलती हैं। इन्हीं कविताओं का नया संग्रह आया है—“यह स्मृति को बचाने का वक़्त है”, जिसका शुक्रवार को दिल्ली में लोकार्पण हुआ। इस मौके पर कवि और अन्य लोगों ने उनकी कविताओं का पाठ किया और गहन चर्चा की।
Ajay singh

“सब याद रखा जायेगा, कुछ भी भुलाया नहीं जायेगा, सब कुछ याद रखा जायेगा”

यही कहते हैं अजय सिंह, यही कहती है उनकी कविताओं की किताब “यह स्मृति को बचाने का वक़्त है”, जिसका शुक्रवार, 22 अप्रैल को दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में लोकार्पण किया गया।

यह किताब बाबरी मस्जिद 1992 और गुजरात विनाशलीला 2002 को भी याद रखती है और रखने को कहती है और शाहीनबाग़- नये भारत की खोज को भी। कश्मीरी जनता पर हुए अत्याचार को भी और दिल्ली में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों को भी। अजय सिंह याद करते हैं हाथरस को भी, जेल में बंद सिद्दीक कप्पन और उनके साथी को भी तो मुज़फ़्फ़रनगर 2013 को भी और भीमा कोरेगांव को भी। सैप्टिक टैंकों व सीवर/गटर में मार दिए गए भारतीय नागरिकों को भी तो दिल्ली की सीमाओं पर एक साल से ज़्यादा समय तक हुए किसान आंदोलन और उसमें भी महिला किसानों की प्रभावशाली व अगुआ भागदारी को भी...

इन सबको क्यों याद रखना चाहिए, इसकी ज़रूरत को वह अपनी कविता में रेखांकित करते हैं।  

वह कहते हैं— कई तरह की बीमारियां लायी गयी हैं हमारी स्मृति को धुंधला कर देने फिर उसे नष्ट कर देने के लिए... यही वो वक़्त है जब स्मृति को बचाने के लिए हमें हमलावर होना चाहिए...ऐसे में हमें अपने देश को नये सिरे से ढूंढ़ना चाहिए...

यही वो वक़्त है

जब ज़िंदा रहने  आगे लड़ने के लिए

नये प्रेम की संभावना तलाशी जाये

और पुराने सभी प्रेमों को पुनर्जीवित किया जाये

प्रेम करने का सिलसिला बिना रुके जारी रहना चाहिए

यही चीज़ हमें बचायेगी

हमारी स्मृति को बचायेगी

गुलमोहर किताब द्वारा आयोजित इस लोकार्पण समारोह में अजय सिंह ने इसी किताब से अपनी कविताओं का पाठ भी किया, जिनपर बाद में चर्चा भी हुई।

कार्यक्रम की शुरुआत में अजय सिंह ने सबसे पहले व्लादिमीर लेनिन को उनके जन्मदिन पर याद किया। साथ ही उन्होंने दिल्ली के जहांगीरपुरी में चल रहे ‘हिन्दुत्व फ़ासीवादी बुलडोज़र’ को रोकने के लिए सीपीआई-एम नेता बृंदा करात ने जिस तरह आगे खड़े होकर चुनौती दी, उस पहल और साहस को सलाम किया।

इससे अलावा कार्यक्रम की शुरुआत में फादर स्टेन स्वामी, मार्क्सवादी विचारक चिंतक लेखक ऐजाज़ अहमद, प्रगतिशील धारा के हिंदी के प्रसिद्ध लेखक आलोचक राम निहाल गुंजन को याद करते हुए उनके निधन पर एक मिनट का मौन रखा गया।      

इसके बाद कविताओं का सिलसिला शुरू हुआ, जो काफी देर चला और श्रोता उसमें डूबते उतरते रहे। अजय सिंह ने अपने इस दूसरे कविता संग्रह से कई कविताओं का पाठ किया जैसे – “क़दीमी कब्रिस्तान”, “प्रधानमंत्री की सवारी”, “पुराने ढंग की प्रेम कविता”, “भाषा का सही इस्तेमाल” “यह स्मृति को बचाने का वक़्त है”, “दुनिया बीमारी या महामारी से ख़त्म नहीं होगी”, “राखी के मौके पर एक बहन की पुकार”, “शोभा की सुन्दरता” आदि।

कविता पाठ के बाद कविताओं पर चर्चा हुई। आलोचक वैभव सिंह ने अपनी लिखित टिप्पणी में कहा—

"ऐसे अंधकारपूर्ण समय में जब धर्म, सत्ता और पूंजी ने संगठित होकर मनुष्य की संवेदना को जकड़ना आरम्भ कर दिया है, अत्याचार सहना और उसे होते देखना उसकी विवशता बन चुकी है, तब संघर्ष, विचार, प्रेम, सामूहिकता से जुडी स्मृतियां उसे फिर से अपने पर भरोसा करना सिखा सकती हैं। अजय सिंह की कविता ‘यह स्मृति बचाने का वक्त है ’ देश के भयावह यथार्थ का वर्णन करने के बाद कहती है –ऐसे में हमें अपने देश को/ नए सिरे से ढूंढना चाहिए।

वर्तमान राजनीति जिस प्रकार से प्रचार, दुष्प्रचार, प्रोपेगेंडा, विकृत सूचना, अफवाह के बल पर जनता के साथ बिना नागा, बिना रुके, धोखेबाजी कर रही है, अजय सिंह की कविताएं पूरी ताकत से उसके विरोध में खड़ी हैं। वे अपने पाठकों को कुंठा व उदासी से बाहर निकाल कर बड़े स्वप्न देखना सिखाती हैं। उन्हें भरोसा दिलाती हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। इस देश को हम फिर से वापस हासिल कर सकते हैं”।

इस अवसर पर वरिष्ठ कवि असद ज़ैदी ने भी अपनी बात लिखकर प्रेषित की जिसे  मुकुल सरल ने अपनी शानदार शैली में पढ़कर सुनाया।

बकौल असद जी— “ हिन्दी में कोई और कवि स्मृति की बात करता या किताब का नाम ‘यह स्मृति को बचाने का वक़्त है’ रखता तो मेरा माथा ज़रूर ठनकता। मैं घबराता कि अब कौन से प्रेत जगाए जा रहे हैं। स्मृति हिन्दी में एक बहुत ‘काम्प्रोमाइज़्ड शब्द है, बल्कि एक बदनाम शब्द। अजय उसे उसके मूल आशय में पुनर्स्थापित कर रहे हैं। उसमें सपनों की स्मृति है, ‘पवित्र आवारगी’ की स्मृति है, संघर्षों की याद है, गिरावट और पतन का इतिहास है, राजकीय दमन और अंधराष्ट्रवाद की स्मृति है, कुल मिलाकर उस रास्ते का बयान है जिसपर चलकर हम आज के फ़ासिस्ट मक़ाम तक पहुँचे हैं। 

उनकी किताब को हाथ में लेकर मुझे यही ख़ुशी है कि मैं एक वरिष्ठ का हमख़याल हूँ। कविताएँ पढ़ता हूँ और ग़ालिब के उस मशहूर कथन को दोहराए बग़ैर नहीं रह  सकता −“देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा / मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है।”

यहां कविता संग्रह के अंत में वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल की (4 नवम्बर 2019) परिशिष्ट में जो टिप्पणी दी गई है वह काफी प्रसांगिक और काबिले ग़ौर है और उनकी कविताओं की ईमानदारी से व्याख्या करती है। पढ़ें उसका एक अंश— “अजय सिंह की कविताएं सुनना और उनसे गुजरना एक अच्छा और आश्वस्त करने वाला भाव पैदा करता है। ये कविताएं , ... मुझे लगता है कि इस देश में इस समय, जो अँधेरा और बद-बख्ती बढ़ रही है, वामपंथ और अजय सिंह की अपनी जो वामपंथी राजनीति रही है, उसकी जो विफलता बढ़ रही है, जिसके साथ कवि की बेचैनी और परेशानी बढ़ रही है, उन सबको अपने में समेटने वाली रचनाएं हैं।

अजय की कविताओं में जो प्रेम—राजनीति, सुंदरता—राजनीति— यह जो एक नया आयाम आया है, बहुत अच्छा है। किस तरह प्रेम और राजनीति में कोई अंतर नहीं है, क्रांति और प्रेम में कोई अंतर नहीं है,  सुंदरता और क्रांति में कोई अंतर नहीं है—यह बहुत अच्छी बात, नया वितान है। ये कविताएं बहुत अच्छी हैं, मजबूत बिंबों से भरी हैं”।

इस अवसर पर नाट्य और फिल्म निर्देशक लोकेश जैन ने अजय सिंह की कविता “मर्द खेत है और औरत हल चलाती है” का नाटकीय पाठ  किया। यह कविता सन्देश देती है कि ब्राह्मणी पितृसत्ता का नाश हो, मनुस्मृति को फिरसे जलाना चाहिए।

नाटककार राजेश कुमार ने भी अजय सिंह की कविताओं पर अपनी राय रखी। वरिष्ठ लेखक कहानीकार पंकज बिष्ट और इब्बार रब्बी ने भी कविताओं पर बात रखी और उनकी  प्रशंसा की। रब्बी साहब ने पुराने संस्मरण दिलचल्प ढंग से सुनाए। उन्होंने कहा कि अजय समय का दस्तावेज़ीकरण कर रहे हैं और यह ऐतिहासिक कार्य है। उन्होंने कहा कि कवि औरत की पहचान का पक्षधर है। और औरत शरीर से परे अपनी स्वतंत्रता चाहती है।

पत्रकार धीरेश सैनी ने अजय सिंह की कविताओं को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में रखते हुए इस समय को बुलडोजर समय बताया। उन्होंने कहा कि आज दिल्ली की जहाँगीरपुरी में जो हो रहा है, पूरे देश में जो हो रहा है, ऐसे में ये मायने रखता है कि बुलडोजर के पीछे कौन है। इसकी शिनाख्त अजय सिंह की कविताओं में है।

आलोचक आशुतोष कुमार ने अपनी टिप्पणी जिसे कवि दामिनी ने अपने विशिष्ट अंदाज़ में पढ़कर सुनाया, में कहा कि अजय सिंह लेख, आलोचना, कहानी और व्यंग्य का काम अपनी कविताओं से लेते हैं।  कथाकार महेश दर्पण ने कहा कि अजय सिंह कविता में समय की समीक्षा करते हैं।

नारीवादी लेखिका और आलोचक सुधा अरोड़ा ने कहा कि जिस तीखे-तेवर में अजय सिंह की कविताएं बात करती हैं वह बहुत कम सुनने को मिलता है। इनकी कविताओं में कई तरह के रंग हैं। कविताओं में शब्दों की अपनी ताकत है। उन्होंने “मर्द खेत है औरत हल चला रही है” कविता को शिल्प और सन्देश की दृष्टि से एक बेहतरीन बताया। 

कवि संस्कृतिकर्मी शोभा सिंह ने इन कविताओं को अपने समय की जरूरी कविताएं कहा। उन्होंने कहा कि ये कविताएं बताती हैं कि स्मृति भंग करने वाले विध्वंस के दौर को कैसे देखें। इन कविताओं में फ़ासीवादी निज़ाम पर तीखी प्रतिक्रिया की गई है। उन्होंने कहा कि इस संग्रह में प्रेम पर कई कविताएं हैं जो चौंकाती हैं। कविताओं में नए प्रतीक और नए बिम्बों का इस्तेमाल किया गया है।

वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह ने कार्यक्रम का सफलतापूर्वक संचालन किया।

इस चर्चा और कविता पाठ में बड़ी संख्या में कवि, लेखक, संस्कृतिकर्मियों, पत्रकारों व अन्य साहित्य प्रेमियों की भागीदारी रही। लेखिका व कला मर्मज्ञ सहबा हुसैन,  पत्रकार व लेखक देबाशीष मुखर्जी, वरिष्ठ पत्रकार-लेखक रामशरण जोशी, वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह, नवजीवन के संपादक दिवाकर, कार्टूनिस्ट इरफ़ान, लेखिका रचना त्यागी, सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के नेता बेजवाड़ा विल्सन, दलित चिंतक संतराम आर्या, वनिता पत्रिका की संपादक इंदिरा राठौर, जनचौक वेबसाइट के संपादक महेंद्र मिश्रा, जनज्वार वेबसाइट के संपादक अजय प्रकाश, लेखक व पत्रकार चंद्रभूषण, सामाजिक कार्यकर्ता सुलेखा सिंह, पत्रकार कृष्ण सिंह, श्रीराम शिरोमणि, अखिलेश अखिल, अफ़ज़ल इमाम, अजय शर्मा, सहित बड़ी संख्या में लोग मौजूद रहे।

इस मौके पर गुलमोहर किताब की तरफ से 10 कविता पोस्टर भी जारी किये गये।  

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