भाषा की कविता: ‘काजल और रोशनी के बीच धुंधली सी एक कतरा सतह’

भाषा सिंह कौन हैं? एक पत्रकार, जो तीन दशक से अख़बार से लेकर वेबसाइट और यू-ट्यूब तक का सफ़र कर रही हैं। एक लेखक जिसने मैला ढोने वाली औरतों के ‘अदृश्य भारत’ को दृश्यमान किया। शाहीन बाग़ की औरतों के संघर्ष को दर्ज किया और कहा कि यह ‘लोकतंत्र की नई करवट’ है। एक संस्कृतिकर्मी जो हर मोर्चे पर नज़र आती हैं। और अब एक कवि, जो अपनी कविता में रचती है एक ‘अलहदा-सा पथरीला रास्ता’।
इन सब रूप-रंगों को ही मिलाकर बनती है भाषा, भाषा सिंह। ज़िंदगी के हर मोड़ पर खड़ी, हर मोर्चे पर डटी।
दिल्ली स्थित ‘गुलमोहर किताब’ प्रकाशन से भाषा सिंह का पहला कविता संग्रह आया है। नाम है– योनि-सत्ता संवाद, पलकों से चुनना वासना के मोती। नाम से ही जाहिर है कि भाषा सिंह भाषा के, वर्जनाओं के सारे बांध-बंधन तोड़ देना चाहती हैं। चुनौती देती हैं सत्ता को, कथित सभ्य समाज को।
इसी नाम से उनकी सोच, उनकी कविता, उनके संघर्ष और चुनौतियां को समझा जा सकता है। भाषा चाहती तो अपनी किताब को ‘योनि-सत्ता संवाद’ की जगह ‘स्त्री-सत्ता संवाद’ भी नाम दे सकती थीं। या और कोई भावुक सा साहित्यिक नाम। ‘वासना के मोती’ की जगह ‘कामना के मोती’ भी लिख सकती थीं। लेकिन नहीं, वे कथित सभ्य या सभ्यों की भाषा और राजनीति को उघाड़ कर रख देना चाहती हैं, बेपर्दा कर देती हैं।
‘योनि-सत्ता संवाद’ सिर्फ़ राजनीतिक, धार्मिक या पूंजीवादी सत्ता से नहीं है। पुरुषवादी सत्ता से भी है। और वह अपनी पहली ही कविता में मां के प्रतीक के माध्यम से सवाल करती हैं कि “मां तुमने मेरे पिता को/ क्यों नहीं छोड़ दिया/ कैसे रह गईं तुम उनके साथ/ और स्वाहा कर दिया अपना जीवन”।
योनि की ही तरह वासना शब्द सुनते ही हमारा कथित सभ्य समाज घबरा जाता है, डर जाता है, उसके पसीने छूट जाते हैं। शायद इस शीर्षक को पढ़कर भी वो खट्टे-मीठे, टेढ़े-मेढ़े, बुरे से मुंह बना रहा हो। खुसर-पुसर कर रहा हो कि ये क्या है? कविता को ही ख़ारिज कर रहा हो।
ऐसे किसी भी विवाद से बचने के लिए भाषा वासना को कामना, इच्छा, ख़्वाहिश, Desire का भी नाम दे सकती थीं। जैसे हम सब आमतौर पर करते हैं। लेकिन मेरी समझ से वासना शब्द का इनमें से कोई विकल्प नहीं हो सकता।
इसी शीर्षक की कविता के अंग्रेज़ी अनुवाद में Desire शब्द का भी प्रयोग किया गया है। लेकिन वहां भी बड़ी बेबाकी से उन्होंने इसे Vasna-desire के तौर पर दर्ज किया है।
वासना के ही अर्थों में उर्दू-अरबी में शब्द है हवस, यानी तीव्र इच्छा। उत्कंठा, लालसा। वह इच्छा जिसकी संतुष्टि बराबर या बार बार की जाती हो।
उर्दू शायरी में इस शब्द से परहेज़ नहीं किया जाता। और बहुत बेहतर ढंग से प्रयोग किया जाता है–
एक ही तो हवस रही है हमें
अपनी हालत तबाह की जाए
– जौन एलिया
तीर खाने की हवस है तो जिगर पैदा कर
सरफ़रोशी की तमन्ना है तो सर पैदा कर
– अमीर मीनाई
भाषा सिंह के इस कविता संग्रह में कुल 29 कविताएं हैं। इन्हीं में से चार कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद भी है। यह अनुवाद रचनाकार व अनुवादक अमृता बेरा और शोध छात्रा खिलखिल भाषानंदनी ने किया है।
अपनी कविताओं के बारे में भाषा ख़ुद इतनी बेबाकी से लिखती हैं कि उससे बेहतर उनकी समीक्षा नहीं हो सकती है।
भाषा अपनी किताब की प्रस्तावना या भूमिका जिसे उन्होंने नाम दिया है– ताकि सनद रहे– में लिखती हैं,
“मेरे लिए कविता में बतौर एक विधा वह ताक़त है जो ख़ुद को बेपर्दा-खंगालने की वैसी कूची देती है, जो अमृता शेरगिल की न्यूड पेंटिंग में नज़र आती है। अपने और अपनों को तो उधेड़ना मुश्किल ज़रूर है लेकिन इसके बिना औरत की मुक्ति की राह नहीं निकलती। बिंब से बिंब टकराते हैं, सरहदों को बेमानी करते हैं और गुंजा देते हैं—personal is political (जो निजी है वह राजनीतिक है)। राजनीतिक दृष्टि हर रचना का अनगूंज स्वर तय कर देती है”।
तो यही है भाषा, यही है उनकी कविता। जिसमें जो निजी है वो राजनीतिक है। जो राजनीतिक है वो निजी है।
इन कविताओं में प्रेम का उत्कट स्वर है, पुकार है– “अमलतास नहीं तो गुलमोहर-सा खिल जाओ मेरे बगलगीर…” "सदाबहार ही रहना तुम/ नहीं बनना कोई और फूल", तो एक तीख़ी नफ़रत भी, नफ़रत करने वालों से, बांटने वालों से, नफ़रती ब्रिगेड से। इतनी नफ़रत कि वह कहती हैं– “मेरी छाती की नसें तन जाती हैं/ समय से पहले ही/ उनमें दूध उतरने को होता है/ गर्भ में सोया सृष्टि बीज कुनमुनाने लगता है”।
इस दुनिया को बेहतर बनाने का ख़्वाब है और उसके लिए लंबी जद्दोजहद, संघर्ष मौजूद है। और जैसा उन्होंने ख़ुद कहा कि ‘राजनीतिक दृष्टि हर रचना का अनगूंज स्वर तय कर देती है’। वह दृष्टि जिसमें ‘टोकरी उलीचने की शिद्दत’ भी शामिल है।
यही दृष्टि उनकी हर रचना को ख़ास बना देती है। हालांकि ‘कला कला के लिए’ मानने वालों को इससे आपत्ति हो सकती है। लेकिन क्या फ़र्क़ पड़ता है। यह कविताएं उनके लिए नहीं हैं। यह तो उनके लिए हैं जो ‘कला, जीवन के लिए’ मानते हैं और जानते हैं कि प्रेम हो या जीवन निर्वात में नहीं पल-पनप सकता है।
इसी राजनीतिक दृष्टि जो ज़ाहिर है प्रगतिशील है, मार्क्सवादी है उससे वह लगभग हर कविता में काम लेती हैं। वह ख़ुद अपनी शिनाख़्त एक मार्क्सवादी, अंबेडकरवादी और नारीवादी के तौर पर करती हैं। ‘हर क़दम पर कुछ नया सीखने को तत्पर एक ऐसी बंजारन, जो गढ़ों-मठों को तोड़ योनि-सत्ता संवाद कायम कर वासना के मोती चुनने को आतुर है’।
हम चाहें तो यहां इसकी गवाही में उनकी तमाम कविताओं के उद्धरण दे सकते हैं। लेकिन इसके लिए बेहतर है कि किताब पढ़ी जाए और ख़ुद देखा, समझा और महसूस किया जाए।
आलोचना ज़रूरी है तो यही कहा जा सकता है कि कुछ कविताएं लंबी हो गई हैं। कहीं कहीं राजनीतिक स्वर, राजनीतिक वक्तव्य में बदल जाता है। यानी उनका पत्रकार और एक्टिविस्ट हावी हो जाता है। हालांकि एक पूर्णकालिक पत्रकार और संस्कृतिकर्मी के लिए यह सहज स्वाभाविक ही है।
लेकिन कुल जमा सभी कविताएं एक बड़ा वितान रचती हैं। जीवन के बहुआयामी रंगधनुष और कविता के आस्वाद के साथ एक बड़ा गंभीर विमर्श भी हमारे सामने रखती हैं। इसे उनकी एक बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है।
आख़िर में उनकी एक कविता का एक अंश साझा करना ज़रूरी समझता हूं। वो भी इसलिए कि मेरी समझ में एक कवि और कविता के तौर पर अगर भाषा सिंह का कोई परिचय है तो वह उनकी कविता ‘तुमी बहती हो क्यों’ में मिलता है। यह कविता सिक्किम में बहने वाली तीस्ता नदी को लेकर लिखी गई है लेकिन मैं इसे भाषा का ही रूपक समझता हूं। इसलिए जहां तीस्ता है, मैं वहां भाषा का नाम रख रहा हूं–
भाषा ‘तुमी बहती हो क्यों’
(तुमी लिखती हो क्यों, तुमी जीती हो क्यों)
हू-हू हुंकारती लहरों की ज्वाला
सब कुछ उलट-पलट करने को आतुर
पर्वतों से लोहा ले उन्हें धकियाती
प्रेम की धधक से भरपूर तुम
अपने आने का उद्घोष करती
सिरजती हो अलहदा-सा पथरीला रास्ता
ऊंची चोटियों के बर्फ़ीले उन्माद से घिरे
सफ़ेदिया लहर की पतली-मोटी लकीर से
मुस्कुराते-इठलाते झरनों को
अपने में डुबो लेने का एकाधिकार
रखने वाली भाषा (तीस्ता) तुम
हर मोड़ पर मिलती हो
नित नवीन छवि के साथ
तेरे हर रूप में झलकती है
प्रेम में डूबी स्त्री की आंख
जो गहरे... बहुत गहरे उतर
पलकों से चुनती तो है
मिलन के मोती
पर बचाये रखती है
काजल और रोशनी के बीच
धुंधली सी एक कतरा सतह
जहां बोती है वह सिर्फ़ ख़ुद को
कभी गर्भ में देती है उसको आंच तो कभी
प्रलय में लगाती है उसे पार
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।