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महामारी के दौरान ग़रीब बच्चियों की शिक्षा पर देना चाहिये ज़्यादा ध्यान

समाज में लड़कियों के ख़िलाफ़ प्रचलित पूर्वाग्रहों के चलते बच्चियां इससे सबसे अधिक प्रभावित रही हैं।
महामारी के दौरान ग़रीब बच्चियों की शिक्षा पर देना चाहिये ज़्यादा ध्यान

ज्ञान पाठक लिखते हैं कि बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देकर ही भारत के भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है।

इस संसार में शायद ही कोई ऐसी ज्ञात प्रजाति हो, जिसके महिला-समुदाय के साथ इसके पुरुषों द्वारा इतना खराब बर्ताव किया जाता हो, जितना कि हमारे यहाँ किया जाता है। संकट के समय में ये महिलाएं और लड़कियां ही हैं, जिनके हिस्से में अपने जीवन को परिवार के बाकी के सदस्यों की खुशहाली के लिए होम करना बदा रहता है। लेकिन इस सबके बावजूद हम उनके साथ असमानतापूर्ण व्यवहार करना जारी रखे हुए हैं।

कोविड-19 संकट ने इस स्थिति को अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ा दिया है।

लाखों की संख्या में गरीब बालिकाओं को इस आर्थिक संकट का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है, जिसमें उनमें से लाखों के पास स्कूलों में वापस लौटने की कोई उम्मीद नहीं दिखती। इस प्रकार उन्हें किसी भी प्रकार की उन्नति की उम्मीद से बाहर कर दिया गया है। हम इस महामारी के बाद के प्रभावों से वास्तविक तौर पर प्रभावित हों, इससे पहले ही हमें उनकी शिक्षा के बंदोबस्त पर ध्यान देने की आवश्यकता है। हमने लॉकडाउन में देखा है कि किस प्रकार से देश में सबकुछ पूरी तरह से ठप हो चुका था।

इस दौरान अर्थव्यवस्था का पहिया पूरी तरह से जाम हो चुका था; लाखों की संख्या में लोगों को अपनी आजीविका के साधनों और घरेलू स्तर पर खाद्य सुरक्षा से समझौता करने को मजबूर होना पड़ा था। भोजन का निवाला महिलाओं से पहले पुरुषों को और इसी प्रकार बेटियों से पहले बेटों के हिस्से में दिया गया था। भारतीय परिवारों के भीतर महिलाओं और बच्चों के खिलाफ इस प्रकार का पूर्वाग्रह एक खुला रहस्य रहा है।

भोजन का निवाला महिलाओं से पहले पुरुषों को और इसी प्रकार बेटियों से पहले बेटों के हिस्से में दिया गया था। भारतीय परिवारों के भीतर महिलाओं और बच्चों के खिलाफ इस प्रकार का पूर्वाग्रह एक खुला रहस्य रहा है।

चूँकि आँगनबाड़ियों को जिन्हें एकीकृत बाल विकास सेवा (आईसीडी) के तहत संचालित किया जा रहा था, को बंद कर दिया गया था, तो ऐसे में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को वहाँ से भोजन नहीं खिलाया जा सकता था। इसी प्रकार पाँच वर्ष की उम्र से बड़े बच्चों को भी महामारी के दौरान उनके स्कूलों में दिया जाने वाला मध्यान्ह भोजन मुहैय्या नहीं किया जा रहा था। इस सबने उनके स्वास्थ्य को काफी हद तक प्रभावित किया है।

कितना अधिक? इसे हम भविष्य में जान पायेंगे, जब इस पर एक सघन सर्वेक्षण का संचालन और उसे प्रकाशित किया जायेगा। लेकिन जब तक कि आंगनवाड़ी केन्द्रों और स्कूलों को दोबारा से नहीं खोला जाता है, इस स्थिति में सिर्फ गिरावट का क्रम ही बना रहने वाला है।

हम इस तथ्य से अवगत हैं कि देश में स्कूलों के बंद होने से 29 करोड़ बच्चे प्रभावित हुए हैं।

यहाँ तक कि जहाँ पर इंटरनेट कनेक्शन उपलब्ध थे, वहाँ इसकी गुणवत्ता इतनी खराब थी कि छात्रों के लिए ऑनलाइन कक्षाओं को जारी रख पाना असंभव बन गया था। एक और मुद्दा गरीब छात्रों के बीच में मोबाइल हैण्डसेट या कम्प्यूटरों की उपलब्धता का भी बना हुआ था।

डिजिटल इंडिया देश के सभी हिस्सों में इंटरनेट कनेक्टिविटी मुहैय्या करा पाने में असफल सिद्ध हुआ है, जिसके चलते लॉकडाउन के दौरान कई संस्थानों द्वारा आयोजित ऑनलाइन कक्षाओं से यह छात्रों को नहीं जोड़ पाया। यहाँ तक कि जहाँ इंटरनेट कनेक्शन उपलब्ध थे, वहां गुणवत्ता इतनी खराब थी कि छात्रों के लिए ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेना असंभव था। एक और मुद्दा गरीब छात्रों के बीच हैंडसेट या कंप्यूटर की उपलब्धता का भी बना हुआ था।

जो गरीब परिवार हैं वहाँ पर कंप्यूटर या एक स्मार्टफ़ोन अभी भी एक विलासिता की वस्तु बनी हुई है। इसके साथ ही एक औसत भारतीय परिवार में जहाँ तीन बच्चे हैं, ऐसे में उनमें से प्रत्येक के लिए स्मार्टफोन और कंप्यूटरों को खरीद पाना संभव नहीं है। ऐसे उदाहरण में जहाँ परिवार केवल एक स्मार्टफोन को ही वहन करने की स्थिति में था, इसे सभी बच्चों के बीच में साझा किये जाने के उदाहरण पाए गए हैं। एक बार फिर से बालिकाओं के खिलाफ प्रचलित पूर्वाग्रहों के चलते उनके बीच में इस सुविधा को साझा करने से रोका गया था।

यही वजह है कि मीडिया में इससे संबंधित कई आत्महत्याओं की रिपोर्टें देखने में आईं थीं। ऑनलाइन कक्षाओं में अपनी उपस्थिति लिए मोबाइल और इंटरनेट की उपलब्धता के मामले में ऐसे गरीब घरों के 37 प्रतिशत लड़कों के मुकाबले में मात्र 26 प्रतिशत लड़कियों के पास ही यह सुविधा उपलब्ध थी। 

हालिया एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट ने अनुमान लगाया है कि 6-18 आयु वर्ग के स्कूली बच्चों के स्कूलों से बाहर होने की रफ्तार में तेजी से वृद्धि हुई है। ये आँकड़े 2018 के 1.8 प्रतिशत से बढ़कर 2020 में 5.5 प्रतिशत तक पहुँच चुके हैं। जबकि 16 वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों में इसमें 4 प्रतिशत से लेकर 5.5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। 

ऐसे उदाहरण में जहाँ परिवार केवल एक स्मार्टफोन को ही वहन करने की स्थिति में था, इसे सभी बच्चों के बीच में साझा किये जाने के उदाहरण पाए गए हैं। एक बार फिर से बालिकाओं के खिलाफ प्रचलित पूर्वाग्रहों के चलते उनके बीच में इस सुविधा को साझा करने से रोक दिया था।

तकरीबन 60 लाख बच्चे पहले से ही स्कूलों से बाहर हैं, और आर्थिक असुरक्षा के चलते इस आँकड़े में और अधिक इजाफ़े की संभावना है। इसकी एक वजह यह भी है कि कोविड-19 लॉकडाउन एवं रोकथाम के उपायों के कारण स्कूलों में दाखिले की प्रकिया पूरी नहीं हो सकी थी। इसके अतिरिक्त माता-पिता ने अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के खर्चों को वहन कर पाने में असमर्थता के चलते भी उन्हें घर पर ही रखने का फैसला लिया था।

बालिकाओं के खिलाफ प्रचलित पूर्वाग्रहों के चलते बालिकाएं इससे सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। लडकों के बारे में यह मान्यता है कि वे भविष्य में वे परिवार का भरण-पोषण करेंगे, और इस प्रकार लड़कियों की तुलना में उनकी शिक्षा को लेकर पहली वरीयता दी जाती है। 

गरीब परिवारों से आने वाली तकरीबन 37 प्रतिशत लडकियाँ इस बात को लेकर अनिश्चय में हैं कि एक बार जब यह महामारी खत्म हो जाती है तो क्या वे स्कूलों में पुनः प्रवेश ले भी पाएंगी या नहीं। राईट टू एजुकेशन फोरम द्वारा संचालित एक सर्वेक्षण के अनुसार सेंटर फॉर बजट एंड पालिसी और चैम्पियंस फॉर गर्ल्स एजुकेशन ने अपने सर्वेक्षण में पाया है कि जिन करीब 70 प्रतिशत परिवारों के बीच में सर्वेक्षण किया गया था उनके पास पर्याप्त भोजन की व्यवस्था नहीं थी, जिसके चलते शिक्षा और उसमें भी विशेष तौर पर बालिकाओं की शिक्षा को सर्वाधिक जोखिम में डाल दिया है।

यही वजह है कि मीडिया में आत्महत्याओं की ढेर सारी रिपोर्टें देखने में आई हैं। ऑनलाइन कक्षाओं में उपस्थिति लिए उपलब्ध मोबाइल और इंटरनेट की उपलब्धता के मामले में गरीब घरों के 37 प्रतिशत लड़कों की तुलना में मात्र 26 प्रतिशत लड़कियों के पास ही यह सुविधा उपलब्ध थी। 

भारत बालिका शिक्षा सूचकांक मामले में महामारी के शुरू होने से पहले भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहा था। 2006 में 11 से 14 वर्ष की उम्र की 10.3 प्रतिशत लड़कियाँ स्कूलों से बाहर थीं। 2018 में यह आंकड़ा 4.1 प्रतिशत का था जो कि एक महत्वपूर्ण गिरावट का संकेत था। 2008 में जहाँ 15-16 वर्ष की आयु के बीच की लड़कियों के स्कूल छोड़ने का प्रतिशत 20 से भी अधिक था, वहीँ 2018 में जाकर यह 13.5 प्रतिशत तक घट चुका था। 

2020 की शुरुआत में 15-18 वर्ष के आयु वर्ग की किशोरवय लड़कियों में से 40 प्रतिशत लड़कियां स्कूलों में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा रही थीं, जबकि सबसे गरीब परिवारों में से 30 प्रतिशत लड़कियों ने तो कक्षाओं में कभी अपने कदम तक नहीं रखे थे।

यह बेहद शोचनीय स्थिति है। हमारे बच्चों के पास शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त है, लेकिन देश में महामारी के ठीक पहले भी आरटीई के अनुपालन की स्थिति बेहद ख़राब बनी हुई थी। विश्व बैंक और यूनिसेफ समर्थित अध्ययन के अनुसार स्कूली शिक्षा में वित्तपोषण में लगातार कमी का रुझान बने रहने के कारण समूचे भारत वर्ष में यह मात्र 12.5 प्रतिशत था, जो 2014-15 में 4.14 प्रतिशत से घटकर 2019-20 में 3.40 प्रतिशत रह गया है।

राईट टू एजुकेशन फोरम द्वारा संचालित एक सर्वेक्षण के अनुसार सेंटर फॉर बजट एंड पालिसी और चैम्पियंस फॉर गर्ल्स एजुकेशन ने अपने सर्वेक्षण में पाया है कि जिन करीब 70 प्रतिशत परिवारों के बीच में सर्वेक्षण किया गया था उनके पास पर्याप्त भोजन की व्यवस्था नहीं थी, जिसके चलते शिक्षा और उसमें भी विशेष तौर पर बालिकाओं की शिक्षा को सर्वाधिक जोखिम में डाल दिया है।

कोविड-19 ने बालिकाओं की स्थिति पर भी ध्यान आकर्षित कराया है। महामारी के दौरान एक हालिया विचलित कर देने वाला रुझान यह देखने को मिला है कि गरीब परिवारों के बीच में अपनी बालिकाओं की शादी जल्द से जल्द कराने और संभावित बोझ को दूर करने की प्रवत्ति देखने को मिली है। यह एक अन्याय है जिसे एक पक्षपातपूर्ण मष्तिष्क समझ पाने में असमर्थ है, और इसमें दुल्हन की उम्र की उपयुक्तता समेत कई महत्वपूर्ण कारकों पर सोचे-विचारे बिना ही लड़कियों की शादी कर देना शामिल है।

ऐसे में वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए केंद्र एवं राज्य सरकारों को बालिकाओं की शिक्षा के लिए बेहतर अवसरों को मुहैय्या कराने पर अपने ध्यान को केन्द्रित करना चाहिए। आगामी बजट में ही गरीब बालिकाओं की शिक्षा पर निवेश पर निश्चित तौर पर वृद्धि किये जाने की आवश्यकता है। यदि और अधिक स्कूलों को नहीं खोले जाते हैं तो ऑनलाइन कक्षाओं से जुड़ने के उपायों और घर पर स्वास्थ्य संरक्षण के उपायों को निश्चित तौर पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। (आईपीए)

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था। 

(ज्ञान पाठक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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