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मुद्दा : दिमाग़ को ग़ुलाम बनाने वाली शिक्षा नीति

दिमागों का पुनरुपनिवेशीकरण करने वाली शिक्षा प्रणाली उस कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ की ही जोड़ीदार है जिसने हमारे देश में राजनीतिक वर्चस्व हासिल कर लिया है।
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तीसरी दुनिया पर साम्राज्यवाद का वर्चस्व सिर्फ हथियारों से या आर्थिक ताकत से ही कायम नहीं किया जाता है। उसे विचारों के वर्चस्व के जरिए, इस वर्चस्व के शिकार बनने वालों को दुनिया उस नजर से देखने के लिए तैयार करने के जरिए भी कायम किया जाता है जिस नजर से साम्राज्यवाद चाहता है कि वे दुनिया को देखें।

साम्राज्यवाद से आजादी और शिक्षा

इसलिए तीसरी दुनिया में आजादी की एक पूर्व शर्त यह है कि दिमाग की इस गुलामी से मुक्ति पायी जाए और साम्राज्यवाद द्वारा पैदा की गयी विकृतियों से आगे जाकर सचाई तक पहुंचा जाए। साम्राज्यवादविरोधी संघर्ष इस बात को पहचानता था। वास्तव में इस संघर्ष की तो शुरूआत ही यह चेतना आने के साथ होती है और चूंकि औपचारिक राजनीतिक निरुपनिवेशीकरण पर साम्राज्यवादी परियोजना खत्म नहीं हो जाती है। नवस्वाधीन पूर्व-उपनिवेशों में शिक्षा व्यवस्था को लगातार इसे लक्ष्य बनाकर चलना चाहिए कि साम्राज्यवाद द्वारा गढ़े गए असत्यों से आगे तक जाए।

यह तकाजा करता है कि भारतीय शिक्षा संस्थाओं की पाठ्यक्रम विषयवस्तु और पाठ्य सामग्री, विकसित दुनिया की संस्थाओं की पाठ्यक्रम विषयवस्तु और पाठ्य सामग्री से भिन्न हो। यह मानविकियों तथा सामाजिक विज्ञानों के संबंध में तो स्वत: स्पष्ट ही है जिनके मामले में देश के वर्तमान को उसके औपनिवेशिक अतीत को हिसाब में लिए बिना तो समझा ही नहीं जा सकता है। और विकसित दुनिया के विश्वविद्यालय बड़ी कोशिश से यह नाता जोडऩे से ही बचते हैं और देश की पिछड़ेपन की वर्तमान अवस्था के लिए भांति-भांति के बाहरी कारकों को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करते हैं जैसे लोगों का आलसीपन, उद्यमीपन का अभाव, अंधविश्वास और सबसे बढक़र आबादी का बहुत ज्यादा बढ़ जाना।

बहरहाल, प्राकृतिक विज्ञानों के मामले में भी तीसरी दुनिया के देशों के विश्वविद्यालयों की पाठ्य विषयवस्तु और पाठ्य सामग्री, विकसित दुनिया के विश्वविद्यालयों की जैसी ही नहीं हो सकती है। इसकी वजह यह नहीं है कि मिसाल के तौर पर आइंस्टीन की थ्योरी या क्वांटम भौतिकी में कोई साम्राज्यवादी विचारधारा निहित है। इसके बजाए इसकी वजह यह है कि तीसरी दुनिया के देशों की अनेकानेक वैज्ञानिक चिंताएं, विकसित देशों की वैज्ञानिक चिंताओं से भिन्न हो सकती हैं। वास्तव में ब्रिटिश वैज्ञानिक तथा मार्क्सवादी बुद्धिजीवी, जेडी बर्नाल का, जिनकी गिनती बीसवीं सदी की महान हस्तियों में होती है, यही नजरिया था।

यह मानना कि तीसरी दुनिया के देशों की पाठ्य विषयवस्तु तथा पाठ्य सामग्री, विकसित दुनिया के विश्वविद्यालयों के जैसी ही होनी चाहिए अपने आप में ही साम्राज्यवाद द्वारा गुलाम बना लिए जाने का लक्षण है। भारत में नियंत्रणात्मक दौर की शिक्षा नीति इस सचाई को पहचानती थी। उस दौर की शिक्षा नीति की स्वत:स्पष्ट विफलताएं अपनी जगह, उस दौर की शिक्षा नीति पर कम से कम गलत नजरिए का आरोप नहीं लगाया जा सकता था।

शिक्षा के उपनिवेशीकरण की वापसी

बहरहाल, नव-उदारवाद के साथ चीजें बदलने लगीं। आखिरकार, भारतीय बड़ा पूंजीपति वर्ग वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के साथ एकीकृत होता गया। भारतीय उच्च मध्यवर्गीय युवा वर्ग बहुराष्ट्रीय निगमों में रोजगार की ओर देखने लगा और देश के विकास को विदेशी बाजारों के लिए मालों का निर्यात करने पर और देश में विदेशी वित्त को तथा विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करने पर निर्भर बना दिया गया। उल्लेखनीय है कि सरकार के शीर्ष पदाधिकारियों तक ने ईस्ट इंडिया कंपनी को फिर से भारत में न्यौतने की बातें करनी शुरू कर दीं।

चूंकि नव-उदारवाद के दौर में वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी का वर्चस्व होता है और चूंकि इस पूंंजी को एक वैश्वीकृत (या कम से कम समांगी) टैक्रोक्रेसी की जरूरत होती है। पूरा जोर इस तरह की टैक्रोकेे्रसी को प्रशिक्षित करने के लिए, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक समांगी या एकसार शिक्षा प्रणाली की ओर झुक जाता है। जाहिर है कि ऐसी व्यवस्था अनिवार्य रूप से विकसित देशों से ही निकलती है।

इसका मतलब है एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का लाया जाना जो दिमागों का निरुपनिवेशीकरण करने लिए नहीं हो बल्कि उनका पुनरुपनिवेशीकरण करने लिए हो। इसी लक्ष्य के लिए, पहले यूपीए की सरकार ने अनेक जाने-माने विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपनी शाखाएं स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया था और उनसे कुछ भारतीय विश्वविद्यालयों को ‘‘गोद’’ लेने के लिए भी कहा था ताकि उन्हें अपनी ही प्रतिकृति के रूप में ढाल सकें। जाहिर है कि इस योजना के तहत आक्सफोर्ड, हार्वर्ड तथा कैंब्रिज विश्वविद्यालयों को कोई भारत में, इस देश में ही तैयार किए गए पाठ्यक्रम तथा पाठ्यवस्तु का अनुसरण करने के लिए आमंत्रित नहीं किया जा रहा था बल्कि उन्हें उसी सब की अनुकृति तैयार करने के लिए आमंत्रित किया गया था जिस सब का वे अपने देश में अनुसरण करते हैं।

इसके पीछे विचार यह था कि एक ऐसी प्रक्रिया शुरू की जाए जिसके तहत भारतीय और विकसित देशों के विश्वविद्यालयों के बीच पाठ्यक्रम तथा पाठ्य वस्तु की एकरूपता हो और इस तरह भारतीय विश्वविद्यालयों में दिमागों के निरुपनिवेशीकरण की दिशा में पहले जो कोशिशें की गयी थीं उन्हें पीछे धकेल दिया जाए। वास्तव में एक भारतीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने तो संसद में खुलेआम यह कहा था कि उसका मकसद, भारत में हार्वर्ड की शिक्षा मुहैया कराना था ताकि भारतीय छात्रों को इस शिक्षा के लिए विदेश नहीं जाना पड़े।

विकसित देशों की शिक्षा से एकरूपता

यूपीए सरकार ने जिसकी शुरूआत की थी उसे एनडीए सरकार ने बहुत हद तक आगे ही बढ़ाया है। और उसने जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति अपनायी है, वह तो इस विचार पर सरकारी मोहर ही लगा देती है कि भारत और विकसित देशों की बीच एकरूप शिक्षा व्यवस्था होनी चाहिए, जिसका अनिवार्य रूप से मतलब यह है कि भारतीय और विकसित देशों के विश्वविद्यालयों में एक जैसी पाठ्यचर्या, पाठ्वस्तु तथा पाठ्य सामग्री का अपनाया जाना सुनिश्चित किया जाए।

इस एकरूपता की दिशा में वर्तमान सरकार ने दो निर्णायक कदम उठाए हैं। पहला, भारत में उन विश्वविद्यालयों को नष्ट करना जो साम्राज्यवादी विमर्श की काट मुहैया करा रहे थे और जिन्होंने ठीक इसी वजह से अपनी ओर सारी दुनिया का ध्यान खींचा था। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, जादवपुर विश्वविद्यालय तथा अन्य विश्वविद्यालय इसके स्वत:स्पष्ट उदाहरण हैं।

दूसरा कदम है विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दबाव में, अलग-अलग भारतीय विश्वविद्यालयों और विदेशी विश्वविद्यालयों के बीच वार्ताएं चलवाना ताकि भारतीय विश्वविद्यालयों में विभिन्न विषयों में पाठ्यक्रमों को, विकसित देशों के विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों का क्लोन बनाया जा सके। इसमें बस एक ही ‘मगर’ लगा हुआ है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय विश्वविद्यालयों की पाठ्य वस्तु में वैदिक गणित जैसे विषयों पर कुछ सामग्री जरूर शामिल कराना चाहता है जिसके लिए विदेशी विश्वविद्यालय हमेशा राजी ही हो जाएं यह जरूरी नहीं है।

प्राचीन महानता और रोजगारोन्मुखता के पर्दे में

बेशक, वक्त के साथ इन मुद्दों पर भी कुछ रास्ता निकाल लिया जाएगा। और इस तरह भारतीय विश्वविद्यालयों में ऐसी पाठ्यचर्या तथा पाठ्य वस्तु होगी जो नव-उदारवाद की मांगों और हिंदुत्ववादी तत्वों की मांगों के मिश्रण को दिखाती होगी। इस तरह, दिमागों का उपनिवेशीकरण तो किया जा रहा होगा लेकिन उसके ऊपर-ऊपर से इसकी पालिश चुपड़ी जा रही होगी कि, ‘प्राचीन काल में हमारा देश कितना महान था।’ साम्राज्यवाद को उससे कोई समस्या नहीं होने वाली है। जब तक साम्राज्यवाद को जो कि एक आधुनिक परिघटना है, जो पूंजीवाद के विकास में से निकली है, एक शोषणकारी व्यवस्था के रूप में नहीं बल्कि भारत जैसे देशों के प्रति एक उदार, सभ्यताकारी मिशन के रूप में चित्रित किया जाता रहता है और जब तक इन देशों की पिछड़ेपन की वर्तमान अवस्था के लिए किसी भी तरह से साम्राज्यवाद की परिघटना को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता है। और यह तो विकसित देशों के विश्वविद्यालयों की पाठ्य वस्तु से एकरूपता होने की सूरत में होना वाला ही नहीं है तब प्राचीन काल में यहां क्या हुआ क्या नहीं हुआ, इसकी साम्राज्यवाद ज्यादा फिक्र करने वाला नहीं है। कम से कम उदार साम्राज्यवादी नजरिया तो इसकी खास फिक्र करने वाला नहीं ही है। इससे भिन्न, अति-दक्षिणपंथी नजरिया जरूर इसे मंजूर नहीं करेगा क्योंकि वह तो एक श्वेत श्रेष्ठतावादी विमर्श का हामी है।

एक वैकल्पिक प्रवृत्ति, हालांकि उसका नतीजा भी दिमागों का उपनिवेशीकरण ही होता है, यह है कि सामाजिक विज्ञानों तथा मानविकियों को खत्म ही कर दिया जाए या उन्हें बहुत ही तुच्छ विषयों में घटा दिया जाए और उनकी जगह पर ऐसे पाठ्यक्रमों को बैठा दिया जाए जो सिर्फ और सिर्फ ‘‘रोजगारोन्मुखी’’ हों और समाज के संबंध में कोई सवाल नहीं उठाते हों जैसे प्रबंधन और कॉस्ट अकाउंटिंग! वास्तव में, हिंदुत्ववादी तत्वों और कारपोरेटों, दोनों का ही इसमें निहित स्वार्थ है। वे दोनों ही छात्रों को ऐसा बनाने के लिए उत्सुक हैं जो सिर्फ और सिर्फ आत्मकेंद्रित हों और सामाजिक विकास के यात्रापथ के बारे में कोई सवाल ही नहीं उठाएं। इस समय यह प्रवृत्ति भी जोर पकड़ रही है।

कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ और गुलामी की शिक्षा

दिमागों का पुनरुपनिवेशीकरण करने वाली शिक्षा प्रणाली, उस कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ की ही जोड़ीदार है, जिसने हमारे देश में राजनीतिक वर्चस्व हासिल कर लिया है। कारपोरेट, इसी तरह का पुनरुपनिवेशीकरण चाहते हैं और हिंदुत्ववादी तत्व, जो कभी भी उपनिवेशविरोधी संघर्ष से जुड़े नहीं
थे, जिन्होंने कभी भी राष्ट्र निर्माण का अर्थ समझा ही नहीं, जो साम्राज्यवाद की भूमिका तथा उसके महत्व को और इसलिए दिमागों का निरुपनिवेशीकरण करने की जरूरत को ही नहीं समझते हैं, प्राचीन भारत की महानता के विरुदगान के नाम पर कुछ जुबानी जमा-खर्च किए जाने भर से पूरी तरह से संतुष्ट हैं। उनके लिए तो ऐसी शिक्षा व्यवस्था ही बहुत है जो थोड़े-बहुत वैदिक तेल-मसाले के साथ, साम्राज्यवादी विचारधारा को परोसती हो। हमारा देश इस समय ठीक ऐसी ही शिक्षा व्यवस्था का निर्माण करने की प्रक्रिया में है।

लेकिन कारपोरेट-हिंदुत्व गठजोड़ तो खुद ही नव-उदारवाद के संकट का एक प्रत्युत्तर है। कारपोरेट पूंजी इसकी जरूरत महसूस कर रही है कि इस संकट के सामने, अपना वर्चस्व बनाए रखनेे लिए, उसे हिंदुत्ववादी तत्वों के साथ गठजोड़ कर लेना चाहिए। इसी प्रकार, राष्ट्रीय शिक्षा नीति राष्ट्र को आगे ले जाने के लिए तो है ही नहीं, यह तो इस संकट पर ही पार पाने के लिए है और यह किया जाना है सोच-विचार को ही नष्ट करने के जरिए, लोगों को सवाल पूछने तथा सत्य तक पहुंचने से रोकने के जरिए। यह नीति जिस ‘‘रोजगारोन्मुखता’’ का ढोल पीटती है वह सिर्फ मुट्ठीभर लोगों के लिए है। वास्तव में नव-उदारवाद का संकट तो कुल मिलाकर रोजगार में कमी ही लाता है। इसी के अनुरूप, यह शिक्षा प्रणाली बड़ी संख्या में लोगों को बाहर रखकर चलती है। शिक्षा के बजाए एक वैकल्पिक विमर्श के दायरे में जो भौतिक जीवन के प्रश्नों को किनारे कर के चलता है उनके दिमागों को सांप्रदायिक जहर से भरा जाएगा और उन्हें फासीवादी गुंडा दस्तों के संभावित कम वेतन के रंगरूटों में तब्दील कर दिया जाएगा।

इसलिए यह शिक्षा नीति सिर्फ संक्रमणकालीन ही हो सकती है, जब तक कि युवा बेरोजगारी के संबंध में, अपनी नियति बना दिए गए संकट के संबंध में, सवाल पूछना शुरू नहीं कर देते हैं। और जैसे-जैसे नव-उदारवाद के परे, किसी विकास यात्रा पथ की तलाश की जाएगी, वैसे-वैसे एनडीए सरकार जिस शिक्षा व्यवस्था को लाने की कोशिश कर रही है, उससे परे जाने वाली एक शिक्षा प्रणाली की तलाश भी शुरू होगी। और दिमागों का निरुपनिवेशीकरण फिर से एजेंडे पर आ जाएगा, जैसे कि उपनिवेशवादविरोधी संघर्ष के दौरान एजेंडे पर आया था।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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