NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu
image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
आंदोलन
भारत
राजनीति
स्टैन स्वामी की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों ने देश को दिखाई राह
झारखंड ने पहचान की राजनीति और नागरिक अधिकारों के बीच संबंध को तोड़ने का काम किया है। यह संबंध कई बार बड़े जनविद्रोहों के बीच में बाधा बनता रहा है।
एजाज़ अशरफ़
23 Oct 2020
स्टेन स्वामी

8 अक्टूबर को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने 83 साल के स्टैन स्वामी को जनवरी, 2018 में हुई भीमा कोरेगांव हिंसा के सिलसिले में गिरफ़्तार किया था। इसके एक दिन बाद 9 अक्टूबर को रांची के अल्बर्ट एक्का चौक पर 125 सामाजिक कार्यकर्ता इकट्ठा हुए। इन भावनाओं को झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के ट्वीट से और बल मिला। उसी सुबह किए गए ट्वीट में स्टैन स्वामी की तरफ इशारा करते हुए, सोरेन ने बीजेपी की केंद्र सरकार को निशाना बनाते हुए लिखा, "यह किस तरह की हठ है कि तुम्हारे (बीजेपी) खिलाफ़ उठने वाली हर विरोधी आवाज़ को दबा दिया जाए?"

जहां तक आंकड़ों की बात है तो 125 लोगों का प्रदर्शन शायद ही कभी मीडिया की नज़र में आता हो। लेकिन तबसे अब तक यह विरोध बढ़ता ही गया है। 12 अक्टूबर को अलग-अलग नागरिक अधिकार समूहों ने रांची में बिरसा मुंडा समाधि पर एक दिन का उपवास रखा। उसी जगह अगले चार दिन तक लोग दो बजे से लेकर पांच बजे तक इकट्ठा होते रहे, इस दौरान लोग नारे लगाते, गाने गाते। 16 अक्टूबर को रांची के कैथोलिक चर्च डॉयसिस ने एक मानव श्रंख्ला बनाई, जो ढाई किलोमीटर लंबी थी। एक घंटे चले इस कार्यक्रम के बाद सेंट मेरीज़ कैथेड्रल में स्वामी के लिए प्रार्थना की गई। 17 अक्टूबर को बीजेपी को छोड़कर सभी राजनीतिक दलों ने न्याय जुलूस में हिस्सा लिया और स्वामी को छोड़े जाने की अपील की।

सामाजिक कार्यकर्ता दयामणी बारला एक सांस में कई जिलों के नाम गिनाते हुए कहते हैं, "बोकारो, जमशेदपुर, सिंहभूम पूर्व और पश्चिम, गोंडा और गिरडीह, इस तरह के विरोध प्रदर्शन झारखंड में हर जगह हो रहे हैं। लोगों में भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाने को लेकर डर है, उन्हें वहां संक्रमित होने का खतरा है, नहीं तो हमारे प्रदर्शनों में और भी ज़्यादा लोग जुड़ते।" वहीं अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ एक दूसरी वज़ह बताते हुए कहते हैं, "लोगों में डर है कि सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन करने पर बुरे नतीज़े भुगतने पड़ सकते हैं।"

झारखंड में क्यों जारी हैं विरोध प्रदर्शन

स्टैन स्वामी को छोड़े जाने की मांग के साथ हो रहे प्रदर्शन, झारखंड के अतीत के प्रदर्शनों से अलग हैं। 2018 की गर्मी से 8 अक्टूबर को स्वामी की गिरफ़्तारी तक, 15 नागरिक कार्यकर्ताओं को भीमा कोरेगांव की हिंसा में उनकी कथित भूमिका को लेकर गिरफ़्तार किया जा चुका है। उनमें से ज़्यादातर विख्यात अकादमिक जगत की हस्तियां हैं, जिनके काम को वंचित तबकों में सराहा जाता रहा है। फिर भी उनकी गिरफ़्तारी से शायद ही कहीं लंबे विरोध प्रदर्शन हुए हों।

यह संभव है कि झारखंड में इसलिए प्रदर्शन हो रहे हैं क्योंकि वहां बीजेपी की सरकार नहीं है। प्रदर्शनकारियों को लगता है कि शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों पर राज्य सरकार कार्रवाई नहीं करेगी। खासकर तब, जब सोरेन भी केंद्र के खिलाफ़ नाराज़गी जता चुके हैं। यह भी कहा जा सकता है कि स्टैन स्वामी की पूरे झारखंड में लोकप्रियता हो सकती है। बहुत सारे नागरिक कार्यकर्ताओं ने इसकी पुष्टि भी की है। कई सालों से वे आदिवासियों को उनके अधिकारों के लिए साक्षर करते आ रहे हैं। स्वामी ने विकास के नाम पर उनकी ज़मीनों को छीने जाने के खिलाफ़ संघर्ष में भी आदिवासियों का साथ दिया है। इसमें भी कोई शक की बात नहीं है कि स्वामी को चर्च का समर्थन भी मिला है, हालांकि चर्च के साथ उनका संबंध हमेशा सरल नहीं रहा।

इन सब वज़हों के बावजूद, स्वामी की गिरफ़्तारी पर झारखंड की प्रतिक्रिया नागरिक अधिकार आंदोलनों में कुछ तो अहमियत रखती ही है। रांची में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता ज़ेवियर दास कहते हैं, "अगर नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ हुए प्रदर्शनों ने देश को बिंदु A से बिंदु B पर पहुंचाया है, तो स्टैन स्वामी के लिए हुए प्रदर्शनों ने उसे बिंदु C तक पहुंचाया है। अब इसमें पीछे पलटकर नहीं जाया जा सकता। लोगों में जेल भेजे जाने का खौफ खत्म हो चुका है।"

नागरिकता संशोधन विरोधी प्रदर्शन राष्ट्रव्यापी और प्रबल थे। दिल्ली में फरवरी के महीने में हुई सांप्रदायिक हिंसा का आरोपी बनाकर जिन युवा पुरुषों और महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, उनके बारे में दिल्ली ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। यह चीज भीमा कोरेगांव में गिरफ्तार किए गए 16 आरोपियों के मामले में भी लागू होती है। दोनों मामलों में कई लोगों का मानना है कि आरोपियों पर साजिशन राजद्रोह और UAPA कानून के तहत आतंकी गतिविधियों की धाराएं लगाई गई हैं। लेकिन केवल झारखंडी लोगों ने ही अपने गुस्से और स्वामी के खिलाफ़ लगाए गए आरोपों पर अविश्वास को खुलकर जाहिर किया है।

जनआंदोलन नहीं

फिर भी अभी प्रदर्शनकारियों की संख्या इतनी नहीं हो पाई है कि उससे केंद्र की बीजेपी सरकार को चिंता होने लगे, खासकर तब जब प्रदेश चुनाव में अभी चार साल बाकी हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि प्रदर्शनों में कम संख्या पहुंचने की वज़ह लोगों में सहानुभूति की कमी नहीं, बल्कि उनमें जानकारी का आभाव है।

रांची में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता सिराज दत्ता कहते हैं, “लोगों को जानकारी देना मीडिया का काम है। मीडिया अब वह मामले नहीं उठाती, जो केंद्र सरकार को असहज कर सकते हैं। नागरिक कार्यकर्ताओं और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हुए हमलों की प्रबलता के अनुपात में मीडिया ने कवरेज नहीं की।” दूसरे शब्दों में कहें तो नागरिक अधिकार उल्लंघन पर जारी चुप्पी ने लोगों की नज़र, भारतीय राज्य के तानाशाही की ओर बढ़ते कदमों को देखने से दूर कर रखी है।

रांची में एक वकील और महंत पीटर मार्टिन कहते हैं, “हमारा मीडिया अब लोगों का मीडिया नहीं है। अब वह झूठी कहानियां गढ़कर वास्तविकता की तस्वीर तोड़-मरोड़कर पेश करता है। ताकि अगर कोई ज़मीन समायोजन की बात करे तो राज्य उसे नक्सली करार दे सके और मीडिया इन आरोपों का गुणगान कर सके।” इसलिए कोई आश्यचर्य नहीं होना चाहिए कि नागरिक अधिकार ज़्यादतियों का कोई सामूहिक विरोध नहीं होता, इन ज़्यादतियों के सब ज़्यादा शिकार गरीब़ लोग होते हैं।

दरअसल सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ़ राज्य द्वारा लगाए गए आरोपों की जांच ना कर पाना भी लोगों के सामने एक बड़ी समस्या है। एक चीज तो यह है कि भारतीय लोगों का राज्य की वैचारिक तटस्थता और ईमानदारी में अटूट भरोसा होता है। दूसरी बात, उन्हें लगता है कि देश के खिलाफ़ होने वाली “साजिशों को सिर्फ राज्य ही तोड़ सकता है।” उनका नैसर्गिक झुकाव राज्य द्वारा प्रायोजित अवधारणा के प्रति होता है, जब तक कि उसे मीडिया या न्यायपालिका द्वारा तोड़ ना दिया जाए। मुकदमे कई सालों तक चलते रहते हैं और इस दौरान आरोपी जेल में सड़ते रहते हैं, उन्हें उनके परिवार और दोस्त छोड़कर सभी भूल जाते हैं।

इसलिए यह जरूरी है कि राज्य को फर्जी मामलों में लोगों को फंसाने और गिरफ़्तार करने का डर हो। लेकिन राज्य को तब तक जरूरी नहीं होगा, जब तक उस पर नियंत्रण करने वालों को लोगों के अधिकारों के उल्लंघन की दशा में सजा का डर नहीं होगा। इन लोगों को सिर्फ एक ही डर होता है- वोटे खोने का डर। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि न्यायपालिका राज्य को अति करने से नियंत्रण में रखे, लेकिन यह चीज अब काफ़ी कम ही देखने को मिल रही है।

ज़्यादातर स्थितियों में, राज्य द्वारा नागरिक अधिकारों के उल्लंघन की दशा में इनके खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाले समूह बड़ी संख्या में लोगों को इकट्ठा नहीं कर पाते। जहां मीडिया दब चुका है और न्यायपालिका राहत नहीं पहुंचा रहा है, तो राज्य के गलत व्यवहार के खिलाफ़ सिर्फ राजनीतिक दल ही झंडा बुलंद कर सकते हैं। ज्यां द्रे का कहना है कि “यहां समस्या इस बात की है कि सभी पार्टियां अपने आप में ही तानाशाही भरे रवैये से काम करती हैं।” ज्यां आगे कहते हैं, “मुझे मध्यम वर्ग के लोकतंत्र के प्रति निष्ठा को देखकर भी आश्चर्य होता है। वे लोग हमारी कम होती आजादी के खिलाफ़ ज़्यादा तेजतर्रार प्रतिरोध पैदा कर सकते थे।”

फिर भी विडंबना है यह है कि बीजेपी नहीं, बल्कि विपक्षी पार्टियों को लगता है कि अगर वे नागरिक अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ़ जनसमूह को इकट्ठा करेंगी, तो उनके वोट कट सकते हैं। विपक्षी दलों में से कुछ ने ही कश्मीर में अनुच्छेद 370 के हटाए जाने, कश्मीरी नेताओं को गिरफ्तार करने और पिछले साल कश्मीर में लॉकडाउन का विरोध किया था।

ज़ेवियर दास इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं, “राजनीतिक दल नहीं जानते कि जब किसी मुद्दे को राष्ट्रीय सुरक्षा के आवरण में लपेटा जाता है, तो उस पर कैसे प्रतिक्रिया देनी है।” तब विपक्षी दल नहीं चाहते थे कि कश्मीर मुद्दे पर उन्हें देशद्रोही बोला जाए। उन्होंने भीमा कोरेगांव मामले में हाथ नहीं डाला, क्योंकि वे “अर्बन नक्सल” की मदद करते हुए दिखाई देना नहीं चाहते थे। इसी तरह जब नागरिकता संशोधन कानून के प्रदर्शनकारियों को UAPA में गिरफ्तार किया गया, तब विपक्षी दल एक ऐसे समूह की मदद करते हुए नज़र आना नहीं चाहते थे, जो भारत को बदनाम करने की साजिश रच रहा था।

व्यक्तिगत अधिकार बनाम् पहचान की राजनीति

नागरिक अधिकारों पर विपक्ष की आनाकानी के पीछे एक सामाजिक-राजनीतिक विरोधभास छुपा हुआ है: संविधान में अधिकार व्यक्तिगत स्तर पर दिए गए हैं। लेकिन भारत में राजनीतिक एकत्रीकरण की ईकाई जाति, धर्म या भाषा है। केवल तभी, जब राज्य द्वारा किसी व्यक्ति के अधिकारों के उल्लंघन को उसके सामाजिक समूह के अधिकारों का उल्लंघन माना जाता है, तभी उस पर राजनीतिक गोलाबंदी चालू होती है।

उदाहरण के लिए हाथरस में दलित लड़की से गैंगरेप और हत्या को किसी एक व्यक्तिगत शख्स के बजाए दलितों के अधिकारों का उल्लंघन माना गया। दलित समूहों का समर्थन हासिल करने की संभावना ने विरक्षी दलों को हाथरस के मुद्दे पर आक्रामक रवैया अपनाने के लिए मजबूर कर दिया, फिर उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा बनाई गई उस धारणा की भी परवाह नहीं की गई, जिसमें कहा जा रहा था कि लड़की के साथ हुई हैवानियत अंतरराष्ट्रीय साजिशकर्ताओं द्वारा राज्य में जातिगत हिंसा फैलाने की साजिश है। गैंगस्टर विकास दुबे की हत्या एक गर्मा-गरम मुद्दा बन गई थी, क्योंकि वह ब्राह्मणों के योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में “राजपूत शासन” के अधीन होने का प्रतीक बन गया था। 

इसके उलट, भीमा कोरेगांव मामले में आरोपी- सुधार भारद्वाज या गौतम नवलखा ने वंचित समूहों की आवाज़ उठाने में कई साल लगा दिए। उनके हस्तक्षेप से राज्य पर दबाव बना कि वो नागरिकों के प्रति अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरा करे। उन्होंने जाति या धर्म के बजाए वर्ग पर अपना ध्यान केंद्रित किया। जहां भारद्वाज की राजनीति को उनका सामाजिक समूह अपने हितों के लिए खतरे के तौर पर महसूस करेगा, वहीं दलित मुद्दों के लिए लड़ने वाली पार्टियां सुधा भारद्वाज की जातिगत् पहचान को अपने समर्थकों के लिए किसी भी तरह का आकर्षण नहीं मानेंगी।

नागरिक अधिकार और पहचान की राजनीति के इस संबंध ने अकादमिक जगत की शख्सियत और सामाजिक कार्यकर्ता आनंद तेलतुंबड़े को अकेला कर दिया है। वह भी भीमा कोरेगांव मामले में आरोपी हैं। उनकी शादी भीमराव आंबेडकर की पोती से हुई है। यह वही आंबेडकर हैं, जिन्हें हर पार्टी अपनाती है। इसके बावजूद बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने तक आनंद की गिरफ्तारी पर मजबूती के साथ विरोध नहीं किया। ऐसा क्यों है?

ऐसा इसलिए है क्योंकि तेलतुंबड़े दलित राजनीति के पारंपरिक ढांचे को नकारते हैं। उनका मानना है कि “जाति की बुनियाद में अमीबा के गुण हैं। जो केवल बांटती है।” लेख के लेखक के साथ 2018 में बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था, “जब तक दलित अपनी जातिगत पहचान से ऊपर उठकर दूसरे वंचित तबकों के लोगों के साथ एक वर्गीय एकता नहीं बनाते, उनका संघर्ष कभी फलदायी नहीं हो सकता।” यही प्राथमिक वज़ह है कि आंबेडकर को मानने वालों ने आनंद तेलतुंबड़े से खराब व्यवहार पर विरोध नहीं जताया।

इसके उलट झारखंडी लोग स्टैन स्वामी के साथ खुलकर खड़े हुए हैं। दयामनी बारला इसे समझाते हुए कहते हैं, “झारखंड ने देश को पहचान की राजनीति और नागरिक अधिकारों के बीच संबंध को तोड़ने का रास्ता दिखाया है।”

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Protests Against Stan Swamy’s Arrest Show the Nation the Way

 

Stan Swamy
Protests and movements
Media
Bhima Koregaon

Trending

किसान आंदोलन : सरकार का प्रस्ताव किया ख़ारिज़, 26 जनवरी को रिंग रोड पर होगा ट्रैक्टर मार्च
जनता संसद का विशेष किसान सत्र
परंजॉय के लेख पढ़िए, तब आप कहेंगे कि मुक़दमा तो अडानी ग्रुप पर होना चाहिए!
श्रम संहिताओं के क्रियान्वयन पर रोक की मांग, ट्रैक्टर परेड और अन्य
बिहार : छोटी अवधि के सीज़न में धान की कम ख़रीद से दुखी किसान
किसान आंदोलन; 11वें दौर की बातचीत: फेस सेविंग मैकेनिज़्म की तलाश में सरकार

Related Stories

दुनिया: राज्य द्वारा किया जाने वाला दमन महामारी की आड़ में हुआ तेज़
पीपल्स डिस्पैच
दुनिया: राज्य द्वारा किया जाने वाला दमन महामारी की आड़ में हुआ तेज़
02 January 2021
(पीपल्स डिस्पैच आपके लिए 2020 में हुए घटनाक्रमों पर लेखों और वीडियो की एक श्रृंखला लेकर आया है। 2020 एक उथल-पुथल भरा साल रहा, जिसमें हमने मानवत
kisan andolan
अमित भादुड़ी
हमें आईना दिखाते किसान
16 December 2020
ई
cartoon click
आज का कार्टून
कार्टून क्लिक : मित्रों... नामकरण करा लो
04 December 2020
आज हमारी सरकार के नुमाइंदे, उसकी ट्रोल आर्मी और हमारा तथाकथित मुख्यधारा का मीडिया नामकरण में इस क़दर माहिर हो गया है कि आंदोलन बाद में होता है, वो

Pagination

  • Next page ››

बाकी खबरें

  •  संसद
    के एस सुब्रमण्यन
    जनता संसद का विशेष किसान सत्र
    22 Jan 2021
    इस सत्र ने कृषि को लेकर एक वैकल्पिक नीति एजेंडा पर बातचीत का दरवाज़ा खोला और यह दिखाया कि महामारी के दौरान भी सरकार किस तरह संसदीय सत्र चला सकती है।
  • कोरोना वायरस
    न्यूज़क्लिक टीम
    कोरोना अपडेट: देश में 24 घंटों में 14,545 नए मामले, 163 मरीज़ों की मौत
    22 Jan 2021
    देश में पिछले 24 घंटों में कोरोना के 14,545 नए मामले सामने आए हैं। देश में अब तक 10 लाख 43 हज़ार 534 लोगों को कोरोना की वैक्सीन दी जा चुकी है जिनमे से पिछले 24 घंटो में 2 लाख 37 हज़ार 50 लोगों को…
  • किसान आंदोलन
    लाल बहादुर सिंह
    किसान आंदोलन; 11वें दौर की बातचीत: फेस सेविंग मैकेनिज़्म की तलाश में सरकार
    22 Jan 2021
    सरकार भारी दबाव के बीच फिलहाल tactical retreat के लिए मजबूर है, वह आंदोलन के नागपाश से निकलने के लिए छटपटा रही है और face saving मैकेनिज़्म की तलाश में है।
  • बिहार : संक्षिप्त मौसम में धान की धीमी ख़रीद से दुखी किसान
    मोहम्मद इमरान खान
    बिहार : छोटी अवधि के सीज़न में धान की कम ख़रीद से दुखी किसान
    22 Jan 2021
    बिहार के किसानों ने मांग की है कि सरकार ख़रीद की अवधि को फ़रवरी या मार्च तक बढ़ाए क्योंकि ऐसा पहले भी होता रहा है।
  • किसान आंदोलन
    न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
    किसान आंदोलन : सरकार का प्रस्ताव किया ख़ारिज़, 26 जनवरी को रिंग रोड पर होगा ट्रैक्टर मार्च
    21 Jan 2021
    “हमारी केवल एक ही मांग है जिसके लिए हम आंदोलन कर रहे हैं वो है तीनों कानूनों की वापसी। इससे कम कुछ मंज़ूर नहीं, कल की वार्ता में हम यह सरकार को बता देंगे।”
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें