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उत्तराखंड: स्वास्थ्य के मोर्चे पर ख़स्ताहाल, कोरोना के एक साल के सफ़र में हांफता पहाड़

“स्वास्थ्य सुविधाओं पर हम बहुत कम बजट खर्च करते हैं। इसका असर आम लोगों पर पड़ता है। राज्य के मैदानी ज़िलों की तुलना में 9 पर्वतीय जिलों में सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुविधाएं बेहद कमज़ोर हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के अस्पताल रेफरेल सेंटर की तरह काम करते हैं। लोगों को समय पर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं।”
बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की उम्मीद में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के लोग।
बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की उम्मीद में उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के लोग।

कोरोना की चुनौती से जूझते हुए उत्तराखंड अपना पहला साल पूरा कर रहा है। 15 मार्च को राज्य में पहला कोविड-19 पॉज़िटिव केस सामने आया था। बेहद कमज़ोर स्वास्थ्य सुविधाएं, पहाड़ों में रेफ़रल सेंटर बन चुके अस्पताल और डॉक्टरों की कमी से जूझते राज्य को कोरोना ने मुश्किल चुनौतियों के साथ जरूरी सबक भी दिए हैं।

15 मार्च को उत्तराखंड में पहला कोविड पॉज़िटिव केस सामने आया। विदेश से सफ़र कर लौटे आईएफएस अधिकारी में कोविड-19 संक्रमण की पुष्टि हुई। 31 मार्च तक राज्य में कोविड केस की संख्या 7 हो गई। उत्तराखंड सरकार कोरोना संक्रमण को थामने से जुड़े फैसले केंद्र सरकार की ओर से जारी दिशा-निर्देशों के आधार पर ही कर रही थी।

डेंगू जैसी बीमारियों में ही राजधानी देहरादून के अस्पतालों की स्थिति नाज़ुक हो जाती है। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति का अंदाज़ा हम इससे लगा सकते हैं कि दिसंबर-2020 के आखिरी हफ्ते में कोविड पॉज़िटिव होने पर मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत सपरिवार दिल्ली के अस्पताल में भर्ती हुए। उससे पहले सितंबर में कोविड पॉज़िटिव पायी गईं राज्य की नेता प्रतिपक्ष इंदिरा ह्रदयेश ने भी दिल्ली-एनसीआर के अस्पताल पर ही भरोसा जताया।

कोरोना संक्रमण और देशभर में लॉकडाउन के बाद शहरों में नौकरी-मज़दूरी करने गए लाखों-लाख लोग पैदल ही अपने घरों को चल पड़े थे। रोज़गार की तलाश में पुणे, मुंबई, चेन्नई, दिल्ली जैसे शहरों में नौकरी के लिए गए उत्तराखंड के प्रवासी भी अपने घर-गांव वापस लौटने के लिए बेचैन थे। राज्य सरकार जानती थी कि बहुत से प्रवासी अपने साथ संक्रमण लेकर लौटेंगे।

राज्य में प्रवासियों की वापसी की मांग तेज़ हो रही थी और उत्तराखंड सरकार की चुप्पी गहरी। उत्तर प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्य भी स्पेशल बसें भेजकर अपने लोगों को वापस लौटाने लगे थे। 29 अप्रैल को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने लॉकडाउन में अन्य राज्यों में फंसे लोगों को अपने घर लौटने की अनुमति दी। केंद्र के इस फ़ैसले के बाद प्रवासियों का रजिस्ट्रेशन और वापसी की कार्रवाई शुरू हो गई।

पर्वतीय क्षेत्रों की भौगोलिक स्थिति कोरोना पर रोक के लिहाज से मददगार साबित हो रही थी। दूर-दूर बने घर सोशल डिस्टेन्सिंग को अच्छी तरह लागू कर कर रहे थे। मई-2020 के दूसरे हफ़्ते तक करीब डेढ़ लाख प्रवासी उत्तराखंड वापस लौटने के लिए रजिस्ट्रेशन करा चुके थे। अलग-अलग राज्यों से प्रवासी बसों और ट्रेनों के ज़रिये पहुंचने लगे थे। 15 मई को राज्य में कोविड पॉज़िटिव लोगों की संख्या मात्र 79 थी। दो हफ़्ते बाद 2 जून को ये संख्या एक हज़ार पार कर गई।

लॉकडाउन के दौरान पैदल ही अपने घरों को चल पड़े थे लोग।

अधूरी तैयारियां

हर रोज़ हज़ारों की संख्या में प्रवासी हरिद्वार और हल्द्वानी के रास्ते उत्तराखंड पहुंचने लगे थे। इतनी बड़ी संख्या में कोविड जांच के लिए तैयारी नहीं थी। टेस्टिंग  लैब नहीं थे। जांच के लिए आरटी-पीसीआर किट नहीं थी। प्रवासियों को ठहराने के लिए जरूरी इंतज़ाम नहीं थे। क्वारंटीन सेंटर नहीं थे। बहुत से प्रवासी रेड ज़ोन घोषित किये गए क्षेत्रों से लौटकर सीधे अपने गांवों में पहुंच गए थे। गांवों में प्रवासियों से दुर्व्यवहार की रिपोर्ट मिलने लगी थीं।

प्रवासियों की मुश्किलों को लेकर दायर जनहित याचिका पर 20 मई को नैनीताल हाईकोर्ट में सुनवाई हुई। अदालत ने रेड ज़ोन से आने वाले व्यक्तियों को राज्य की सीमा पर ही क्वारंटीन करने के निर्देश दिए। थर्मल टेस्टिंग के साथ ही कोविड जांच करने को कहा और रिपोर्ट नेगेटिव आने पर ही घर भेजने के निर्देश दिए। अदालत के आदेश के बाद राज्य और ज़िलों की सीमाओं पर प्रवासियों की कोविड जांच शुरू हुई।

क्या अमित कोरोना पॉज़िटिव थे?

टिहरी के जाखणीधार ब्लॉक के न्यूंड गांव निवासी अमित सिंह रावत बताते हैं कि 25 मई की शाम वह चेन्नई से ऋषिकेश पहुंचे थे। वह चेन्नई के एक होटल में काम करते थे। अपने राज्य लौटकर उन्हें राहत मिलने की उम्मीद थी लेकिन यहां आते ही परेशानियां बढ़ गई। वह बताते हैं “ऋषिकेश में हमें क्वारंटीन सेंटर में ठहराया गया। कोविड जांच के लिए यहां हमारे सैंपल लिए गए। चार-पांच दिनों के बाद हमें बताया गया कि हमारी रिपोर्ट नेगेटिव आई है। मेरे साथ 23 लोग थे। हम सब अपने-अपने घर जाने का इंतज़ार कर रहे थे। तीन-चार दिन बाद अचानक मुझे और मेरे 6 अन्य साथियों के पास फ़ोन आया कि तुम कोविड पॉज़िटिव हो। वे लोग कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग कर रहे थे। हमने पूछा कि हमारी रिपोर्ट तो नेगेटिव आई थी, वो पॉज़िटिव कैसे हो गई। हमारा दूसरा सैंपल भी नहीं लिया गया। मुझमें कोविड-19 के कोई लक्षण भी नहीं थे।”

“फिर वे आए और कहा कि तुम्हें टिहरी में शिफ्ट करेंगे। हमने वहां जाने से मना कर दिया। बीमार पड़ने पर इलाज के लिए टिहरी से लोग ऋषिकेश-देहरादून आते हैं। हमें संक्रमण है और ऋषिकेश से टिहरी क्यों ले जाया जा रहा है। फिर कुछ पुलिसवाले आए और कहा कि तुम्हें वहां इससे अच्छी सुविधा मिलेगी। तुम्हारा ख्याल रखा जाएगा। हमें जाना ही पड़ा।”

लैब टेस्टिंग और कोविड रिपोर्ट्स पर भी लगातार सवाल उठ रहे थे। ऐसा एक मामला नैनीताल हाईकोर्ट तक भी पहुंचा। जब एक ही लड़की की रिपोर्ट एक लैब में पॉज़िटिव और दूसरे लैब में नेगेटिव आई। नैनीताल हाईकोर्ट में वकील एचएन पाठक इस केस को लड़ रहे हैं।

मास्क, सेनेटाइज़र के सहारे कोरोना से लड़ी जंग।

क्वारंटीन सेंटर पर मुश्किल हालात

अमित बताते हैं कि उस क्वारंटीन सेंटर की याद भी उन्हें परेशान करती है। “एक कमरे में दो लोगों को रखा गया था। हम भूखे बैठे रहते थे और नाश्ता बहुत देर से आता था। नाश्ते में हमें सूखी ब्रेड खाने को देते थे। जूट के बोरे से वे हमारे जूठे बर्तन बिलकुल गंदी फर्श पर घसीटते हुए ले जाते थे। शौचालयों की हालत तो बहुत ही ज्यादा खराब थी। सभी लोग एक ही शौचालय का इस्तेमाल करते थे। हमने इस सब पर गुस्सा दिखाया। वीडियो बनाकर लोगों को भेजे। हमारा बुखार वहां कभी नहीं नापा गया। हमारा कोई इलाज नहीं किया गया। हमारा कोई टेस्ट भी नहीं हुआ कि हमारी रिपोर्ट क्या कहती है। हम दस दिन टिहरी के उस क्वारंटीन सेंटर में रहे। फिर पीपीई किट पहने कुछ लोग आए और हमसे हमारी तबीयत पूछी। हम नहीं जानते कि वे डॉक्टर थे या अन्य कर्मचारी। हमसे कहा गया कि अब तुम ठीक हो, घर जा सकते हो।”

अमित कहते हैं कि उनके साथ लौटे कई लोगों को तो गांव पहुंचने और वहां कुछ दिन रहने के बाद क्वारंटीन सेंटर ले जाया गया था।

क्वांरटीन सेंटरों की बदहाली, प्रवासियों की मुश्किलों, झगड़ों को लेकर राज्यभर से सूचनाएं आ रही थीं। 25 मई को नैनीताल के बेतालघाट तहसील में तल्ली सेठी प्राथमिक विद्यालय के क्वारंटीन सेंटर में छह साल की बच्ची की सांप काटने से मौत हो गई। गांव लौटे प्रवासियों को कहीं गौशालाओं में ठहराया गया तो कहीं जंगल किनारे टेंट लगाकर रोका गया।

गांव लौटे प्रवासियों के साथ दुर्व्यवहार और क्वारंटीन सेंटर की अव्यवस्था के बारे में बताते शिक्षक धनपाल सिंह रावत

पौड़ी के नैनीडांडा ब्लॉक के चैड़ चैनपुर गांव के जनता इंटर कॉलेज में प्राइमरी शिक्षक धनपाल सिंह रावत बताते हैं “मई में जब प्रवासी लौटे तो गांवों में हालात बुरी तरह बिगड़ गए थे। कोरोना के डर से लोग घर लौटे अपने ही रिश्तेदारों से कतरा रहे थे। कोई अगर क्वारंटीन सेंटर में ठहरे अपने रिश्तेदार की मदद करना चाह रहा था तो उसके पड़ोसी उस पर पाबंदी लगा रहे थे। बाद में यही स्थिति उसके पड़ोसी की हो जा रही थी।”

धनपाल बताते हैं “लॉकडाउन के दौरान लौटे प्रवासियों को सरकार ने स्कूलों में ठहराने के लिए तो कह दिया लेकिन व्यवस्था नहीं की गई। शुरुआत में ग्राम प्रधान ने अपने स्तर से व्यवस्था की। लेकिन बजट न होने के चलते ग्राम प्रधान भी क्या करते। लोगों को लग रहा था कि ग्राम प्रधान को व्यवस्था के लिए पैसे मिले हैं। जबकि वास्तविकता इससे उलट थी। यहां के बीडीओ ने क्वारंटीन सेंटर के लोगों को समझाया कि बजट नहीं मिला है तब जाकर लोग शांत हुए।”

स्वास्थ्य विभाग, पंचायत राज विभाग, शिक्षा विभाग, आशा कार्यकर्ता सभी क्वारंटीन सेंटर पर कोविड से जुड़ी व्यवस्थाओं को संभालने में जुटे थे। 

कोरोना के समय आशा कार्यकर्ता भी कम पड़ गईं, ऋषिकेश की आशा कार्यकर्ता ललितेश की तस्वीर

सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की कमी

पौड़ी के रिखणीखाल ब्लॉक में राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय में तैनात डॉक्टर दीवान सिंह नेगी बताते हैं कि कोरोना को लेकर हमारे सामने कई मोर्चों पर चुनौतियां थीं। “हमारे पास मानव संसाधन की सख्त कमी थी। इतने लोग नहीं थे कि लोगों को कोरोना से जुड़ी सावधानियों के बारे में जागरुक कर सकें। डॉक्टर की कमी तो थी ही, स्वास्थ्य कर्मी, पैरा मेडिकल स्टाफ और आशा कार्यकर्ता भी कम पड़ गए थे। हमारे पास कोविड से जुड़े कार्यों के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए वाहन नहीं थे।”

डॉक्टर नेगी बताते हैं कि उनका कार्यक्षेत्र करीब 30 वर्ग किलोमीटर में फैला है और जिसमें करीब 6 हज़ार तक आबादी मौजूद है। “लॉकडाउन के समय उनके क्षेत्र में 6 हज़ार प्रवासी भी लौट आए। शुरू के एक-डेढ़ महीने तक हमारे पास एक ही थर्मल स्क्रीनर था। फेसमास्क, पीपीई किट जैसे जरूरी उपकरण नहीं थे। अपने स्तर पर जो इंतज़ाम हो सकते थे, वो हमने किए।”

कोरोना की मुश्किल को देखते हुए डॉ. नेगी कहते हैं कि आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) कार्यकर्ताओं को जांच से लेकर सर्वेक्षण तक कई ज़िम्मेदारियां दी गईं हैं। लेकिन आशा शिक्षित नहीं हैं। कई जगह वे चौथी या पांचवी पास हैं। सार्वजनिक स्वास्थ कार्यकर्ता को विज्ञान की मूलभूत जानकारी होनी चाहिए। कोरोना के समय हमें प्रशिक्षित आशा कार्यकर्ताओं की जरूरत थी।

कोरोना के समय आशा कार्यकर्ताओं की मुश्किलें भी कई गुना बढ़ गईं। पर्वतीय क्षेत्रों में आबादी कम होती है। घर-गांव पहाड़ों में दूर-दूर स्थित होते हैं। एक आशा कार्यकर्ता पर दो-तीन ग्रामसभाओं तक की ज़िम्मेदारी होती है (एक ग्राम पंचायत में 5,6,7 ग्रामसभाएं भी हैं)। पहाड़ी चढ़ाई और ढलान को नापती आशा को न तो सेनेटाइज़र मिल रहे थे, न फेस मास्क। वे अपने रिस्क पर अपनी ड्यूटी निभा रही थीं। कई आशा वर्कर कोरोना संक्रमित भी हुईं।

पहाड़ के अस्पतालों को पीपीपी मोड में संचालित करने की मांग करते नरेश खंतवाल

डॉक्टर की वजह से नहीं, अपनी सूझबूझ से हम बचे

पौड़ी के लैंसडोन ब्लॉक के सिसल्डी गांव के नरेश खंतवाल कहते हैं कि कोरोना के दौरान लोगों ने सूझबूझ दिखाई। संक्रमण बढ़ता देख व्यापारियों ने खुद ही दुकानें बंद करने का फ़ैसला किया। इस वजह से भी हम बीमारी से बचे। पर्वतीय क्षेत्रों के खस्ताहाल अस्पतालों पर वह कहते हैं कि इन सभी को पीपीपी मोड पर चलाने के लिए दे देना चाहिए। सिसल्डी गांव में किसी को छोटी-मोटी बीमारी भी होती है तो वो 17 किलोमीटर दूर लैंसडोन के सरकारी अस्पताल जाएगा। वहां प्राथमिक उपचार के बाद उसको 50 किलोमीटर दूर कोटद्वार रेफ़र कर दिया जाएगा। बीमारी अगर गंभीर है तो कोटद्वार से ऋषिकेश या देहरादून रेफ़र कर देंगे।

क्या कहते हैं आंकड़े

देहरादून स्थित सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्यूनिटीज़ फाउंडेशन ने कोरोना से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण किया। उत्तराखंड में पहला कोविड-19 पॉज़ीटिव केस 15 मार्च 2020 को आया था।

स्रोत- उत्तराखंड स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी आंकड़े

उत्तराखंड में आबादी के लिहाज से चार मैदानी ज़िले देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और उधमसिंह नगर आते हैं। इन चारों ज़िलों की बड़ी आबादी मैदानी हिस्सों में ही रहती है। आबादी के लिहाज़ से मैदानी जिलों में कोविड संक्रमण के मामले भी अधिक आए। 15 मार्च से 31 दिसंबर तक चारों मैदानी ज़िलों में 63,079 केस आए। जो कि इस दौरान कुल केस का 69 प्रतिशत थे।

जबकि 9 पर्वतीय ज़िले पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, रुद्रप्रयाग, चंपावत और बागेश्वर हैं। यहां 15 मार्च से 31 दिसंबर के बीच 27,841 कोविड पॉज़िटिव केस सामने आए। कुल कोविड केस का 31 प्रतिशत।

स्वास्थ्य सुविधाओं में लचर पर्वतीय क्षेत्रों में कोविड संक्रमण को संभालना बड़ी चुनौती थी। ये दिलचस्प था कि अगस्त तक मैदानी जिलों की तुलना में 9 पर्वतीय जिलों में संक्रमण दर 22% थी। सितंबर में ये 23% हुई। अक्टूबर में 27%, नवंबर में 30% और दिसंबर में 31% हो गई। इन चार महीनों में पहाड़ के गांवों तक कोविड तेज़ रफ़्तार से बढ़ा।

कम टेस्ट, कम कोविड पॉज़िटिव का फॉर्मूला

पिछले साल मार्च से शुरू हुआ कोविड-19 वायरस पहाड़ी राज्य में तेज़ी से फैल रहा था। लेकिन मुश्किल ये थी कि उत्तराखंड में टेस्ट की संख्या अन्य राज्यों की तुलना में बेहद कम थी। हिमालयी राज्यों में ही उत्तराखंड की स्थिति नाज़ुक रही। मेघालय ही एक मात्र राज्य था जो कोविड टेस्ट के मामले में उत्तराखंड से भी पीछे था।

वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तराखंड की आबादी कुल एक करोड़ है। जो कि अब 1.14 करोड़ तक होने का अनुमान है। एसडीसी की रिपोर्ट के मुताबिक 7 जुलाई तक राज्य में 10 लाख की आबादी पर मात्र 732 टेस्ट किये गए। जबकि इसी दरमियान 1.22 करोड़ आबादी वाले जम्मू-कश्मीर में प्रति दस लाख की आबादी पर 3388 टेस्ट किये गए। इसके बाद मणिपुर 2140 टेस्ट/10 लाख आबादी, त्रिपुरा 2006 टेस्ट/10 लाख आबादी, अरुणाचल प्रदेश 2005, सिक्किम 1930, मिजोरम 1369, हिमाचल प्रदेश 1321, नागालैंड 1060, उत्तराखंड 732 और मेघालया में 708 टेस्ट प्रति दस लाख आबादी पर किये गये।

सितंबर में कोरोना संक्रमण (11 प्रतिशत से अधिक संक्रमण दर) राज्य में चरम पर था। इस महीने के पहले हफ्ते में पूरे राज्य में 25 हज़ार से अधिक और देहरादून में पांच हज़ार से अधिक कोरोना पॉज़िटिव मरीज सामने आ चुके थे। अस्पतालों में आईसीयू, वेंटिलेटर तो दूर बेड कम पड़ गए। कोरोना पॉज़िटिव मरीज अस्पतालों से लौटाए जा रहे थे। ऐसे मामलों की जांच के आदेश दिए गए।

नीला स्वेटर पहने और हाथ में छड़ी लिए विजय जुयाल को कोरोना पॉजिटिव रिपोर्ट के 4 दिन बाद तक नहीं मिला इलाज

दिसंबर-2020 में तुंगनाथ से देहरादून लौटे 70 वर्ष से अधिक उम्र के विजय जुयाल की तबीयत बिगड़ी और रिपोर्ट कोविड पॉज़िटिव आई। वह बताते हैं “ये बताने के बावजूद कि मैं कोरोना पॉज़िटिव हूं, मेरी तबियत बिगड़ रही है, मुझे कोविड किट की जरूरत है, कोई सुनने को तैयार नहीं था। मैंने दून अस्पताल में संपर्क किया। मेरे जानकार मित्र ने कई जगह फ़ोन किये। जब दून अस्पताल के अधिकारियों को फ़ोन किया। उसके बाद मुझे कोविड किट दी गई। इस सब में चार दिन निकल गए। फिर मैंने अपने आप आयुर्वेदिक दवाइयां खाईं।”

वहीं, दिसंबर अंत में कोविड पॉज़िटिव आए देहरादून के जीतेंद्र अंथवाल बताते हैं कि ये मौत के मुंह से लौट कर आने जैसा था। तबीयत अधिक बिगड़ने पर उन्हें आईसीयू में रखा गया था। दून अस्पताल में मिली सुविधाओं पर उन्होंने संतोष जताया। वह कहते हैं कि सीनियर डॉक्टर वार्ड में कम आते थे। लेकिन नर्सिंग स्टाफ और जूनियर डॉक्टर लगातार काम पर लगे हुए थे।

राहत लेकर आया नया वर्ष

नए वर्ष से राज्य में कोविड पॉज़िटिव केस की संख्या में गिरावट आनी शुरू हो गई। 2 जनवरी तक राज्य में 18,05,057 टेस्ट किए जा चुके थे। राज्य में कुल पॉज़िटिव केस 91,544 दर्ज किये जा चुके थे। इसमें से 84,461 लोग स्वस्थ हुए। 1,522 मौतें हुईं। सितंबर-2020 के दूसरे हफ्ते में राज्य में संक्रमण दर सबसे अधिक 11.51 प्रतिशत थी जो 27 दिसंबर से 2 जनवरी के हफ़्ते में घटकर 2.48 प्रतिशत पर आ गई।

इस वर्ष जनवरी में राज्य में 5,209 केस और फ़रवरी में 863 केस सामने आए। जनवरी में 1.46 प्रतिशत संक्रमण दर फरवरी में घटकर 0.32 प्रतिशत पर आ गई। 15 मार्च से 28 फरवरी तक राज्य में कुल 96,992 कोविड केस और कुल 1,692 मौतें हुईं।

स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा मज़बूत करने की ज़रूरत

वर्ष 2020-21 के बजट  में उत्तराखंड सरकार ने स्वास्थ्य पर 5.4 प्रतिशत का प्रावधान किया था। जो कि इससे पहले के वित्त वर्ष की तुलना में मात्र 0.2 प्रतिशत अधिक था। स्वास्थ्य सुविधाएं जुटाना उत्तराखंड की महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक है।

सोशल डेवलपमेंट ऑफ कम्यूनिटीज़ फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल कहते हैं “स्वास्थ्य सुविधाएं पर हम बहुत कम बजट खर्च करते हैं। इसका असर आम लोगों पर पड़ता है। राज्य के मैदानी ज़िलों की तुलना में 9 पर्वतीय जिलों में सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुविधाएं बेहद कमजोर हैं। पर्वतीय क्षेत्रों के अस्पताल रेफरेल सेंटर की तरह काम करते हैं। लोगों को समय पर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं।

कोरोना संक्रमण के शुरुआती दौर में उत्तराखंड ही नहीं पूरे देश में स्वास्थ्य का बुनियादी ढांचा बेहद कमज़ोर था। हमारे पास वेंटिलेटर, आईसीयू सेंटर की सख्त कमी थी। पीपीई किट्स तक पर्याप्त नहीं थे। कोरोना का ये समय बताता है कि हमें स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे को मज़बूत बनाना होगा।”

डॉक्टर्स की नियुक्ति

मेडिकल कॉलेज में डॉक्टर्स और फैकेल्टी का चयन करने वाली संस्था उत्तराखंड मेडिकल सर्विसेज़ सलेक्शन बोर्ड के चेयरमैन डीएस रावत बताते हैं उत्तराखंड में डॉक्टर्स के 2700 पद हैं। लेकिन ऐसी स्थिति अब तक नहीं रही कि सभी पदों पर डॉक्टर तैनात हों। वह बताते हैं कि इस समय 763 पदों पर डॉक्टरों की भर्ती की प्रक्रिया चल रही है। जो 15 मार्च तक पूरी होने की उम्मीद है। डॉ. रावत के मुताबिक कई बार डॉक्टर नियुक्ति पाने के बाद पोस्ट ग्रेजुएशन करने के लिए छुट्टी लेकर चले जाते हैं। तो उसकी भरपायी बॉन्डेड डॉक्टर्स से की जाती है। बॉन्डेड डॉक्टर वे हैं जिन्होंने उत्तराखंड के सरकारी मेडिकल कॉलेज से रियायती दरों पर पढ़ाई की हो और बदले में पर्वतीय क्षेत्र में सेवाएं देने का करार किया हो।

समस्या ये थी कि बॉन्डेड डॉक्टर पढ़ाई पूरी होने के बाद पर्वतीय क्षेत्रों में सेवाएं देने को तैयार नहीं होते थे। डॉ. डीएस रावत का कहना है कि अब इस ट्रेंड में बदलाव आ रहा है। अगर ये डॉक्टर पहाड़ी अस्पतालों में ड्यूटी नहीं करेंगे तो अपनी पूरी फीस का भुगतान करना होगा।

डॉक्टर्स की भर्ती के लिए बने चयन बोर्ड से मिले आंकड़ों के मुताबिक चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग में वर्ष 2017 के अगस्त महीने में दो बार में 53 डेन्टिस्ट पद पर भर्तियां हुई। पहली बार 53 डेन्टिस्ट और दूसरी बार 150 पद की तुलना में 119 डेंटिस्ट की भर्ती हुई। इसी वर्ष दिसंबर में चिकित्सा शिक्षा विभाग में 4 आकस्मिक चिकित्साधिकारी की भर्ती हुई। यानी 2017 में कुल 176 डॉक्टरों की भर्तियां हुईं।

मार्च-2018 में 712 चिकित्सा अधिकारी पदों के सापेक्ष 478 भर्तियां की गईं। अप्रैल-2018 में श्रम विभाग के राज्य कर्मचारी बीमा योजना-ईएसआई कार्यक्रम में 38 एलोपैथिक चिकित्सा अधिकारियों की भर्ती की गई। इस तरह वर्ष 2018 में राज्य को कुल 516 डॉक्टर मिले।

फरवरी-2019 में चिकित्सा शिक्षा विभाग में 138 असिस्टेंट प्रोफेसर पदों की तुलना में 92 भर्तियां हुईं। वहीं मई-2019 में चिकित्सा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग में 21 फार्मासिस्ट की भर्तियां हुईं। यानी वर्ष 2019 में डॉक्टर्स की भर्तियां नहीं हुईं। राज्य को असिस्टेंट प्रोफेसर और फार्मासिस्ट मिले।

30 मार्च-2020 को राज्य में चिकित्सा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग में 314 चिकित्सा अधिकारी पद के सापेक्ष 201 भर्तियां की गईं। एक अप्रैल-2020 को इसी विभाग में 562 पदों के सापेक्ष 276 भर्तियां हुईं। 12 नवंबर 2020 को चिकित्सा शिक्षा विभाग में 46 प्रोफेसर पदों के सापेक्ष 21 भर्तियां हुईं। 61 एसोसिएट प्रोफेसर पद की तुलना में 38 भर्तियां की गईं लेकिन ये मामला हाईकोर्ट में चला गया।

ये आंकड़े कहते हैं कि 2020 में राज्य को 477 डॉक्टर मिले।

उत्तराखंड में डॉक्टरों के 2700 पद हैं। वर्ष-2017 में 176 डॉक्टर, वर्ष 2018 में 516 डॉक्टर,

वर्ष 2019 में कोई नई भर्ती नहीं और वर्ष 2020 में 477 डॉक्टरों की भर्ती हुई है।

ये आंकड़े भर्ती किए गए डॉक्टर्स के हैं। इनमें से कितने डॉक्टरों ने ज्वाइन किया। कितने पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए छुट्टी पर चले गए। पर्वतीय क्षेत्रों को कितने डॉक्टर मिले। उत्तराखंड सरकार को ये आंकड़े स्वास्थ्य विभाग की वेबसाइट पर जारी करने चाहिए।

सभी फोटो, सौजन्य : वर्षा सिंह

(देहरादून से स्वतंत्र पत्रकार वर्षा सिंह)

(This research/reporting was supported by a grant from the Thakur Family Foundation. Thakur Family Foundation has not exercised any editorial control over the contents of this reportage.)

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