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RBI कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे: अर्थव्यवस्था से टूटता उपभोक्ताओं का भरोसा

आरबीआई ने जब कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे में लोगों से यह पूछा कि भारत की अर्थव्यवस्था का हाल पहले से बेहतर है या पहले से खराब? तो खराब बताने वालों की संख्या, बेहतर बताने वालों से 57% अधिक निकली। 
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चुनावी दंगल की नूरा कुश्ती नेताओं की पार्टी बदलने से लेकर नफरती हिंदुत्व की बयानबाजी और जातिगत समीकरण के बीच सिमटी हुई है। इस बहसबाजी में कहीं से वे सवाल केंद्र में नहीं हैं जो आम लोगों को सरकारी कामकाज से दूर कर रहे हैं। आम लोगों का भारत की अर्थव्यवस्था पर भरोसा टूट रहा है।

अर्थव्यवस्था की बंजर होती जमीन पर भारत के लोग जूझ रहे हैं लेकिन यह तड़पन राजनीति का मुद्दा नहीं बन पा रही है। 2016 से लेकर 2020 के बीच भारत में काम करने वाली आबादी के बीच काम की तलाश और काम में लगी आबादी की हिस्सेदारी 46% से घटकर 40% पर पहुंच गई है। यही हाल उन पांच राज्यों का भी है जहां पर चुनाव होने जा रहे हैं। वहां भी पिछले 5 साल में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट बढ़ने की बजाय घटा है। जबकि भारत के मुकाबले खड़े दुनिया के दूसरे देश मैं लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 60 से 70 फ़ीसदी के आसपास है।

रोजगार के बाद मजदूरी की हालत यह है कि वह महंगाई के रेस से पीछे रह जाती है। महंगाई ज्यादा बढ़ती है। इसके साथ मजदूरी या तो बढ़ती नहीं है या तो बढ़ती है तो इतनी बढ़ती है कि महंगाई को मात नहीं दे पाती। ग्रामीण विकास मंत्रालय का कहना है कि दिसंबर महीने में मनरेगा के तहत जितना काम मांगा गया वह पिछले 4 महीनों में सबसे अधिक काम था। मनरेगा का यह रुझान इस बात की तरफ इशारा है कि अर्थव्यवस्था लोगों को काम नहीं दिला पा रही है। लोग भागकर मनरेगा की शरण में जा रहे हैं। 

इस तरह के तमाम आंकड़े हैं जो भारत की अर्थव्यवस्था की बदहाली को बताते हैं। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक के पूरे राजकाज के लचर होने की वजह से सबसे बड़ी मार भारत की तकरीबन 98 फ़ीसदी जनता पर रोजाना किसी न किसी तरह से जरूर पड़ती है। जिसकी महीने की आमदनी 50 हजार से कम है।

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे के आंकड़े आए हैं। आरबीआई कुछ महीनों के अंतराल पर देश के 13 बड़े शहरों में रह रहे परिवारों से अर्थव्यवस्था के हाल पर उनकी राय पूछता है। उनकी राय के आधार पर कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे के आंकड़े जारी करता है। इस बार जारी हुए कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे के आंकड़े यही बात दोहरा रहे हैं कि कि उपभोक्ताओं का यानी हमारा और आपका अर्थव्यवस्था पर भरोसा टूटता जा रहा है।

कंज्यूमर कॉन्फिडेंस सर्वे का कहना है कि कोरोना की हर लहर के बाद उपभोक्ताओं का भारतीय अर्थव्यवस्था में भरोसा टूटता चला गया। जब करोना की पहली लहर आई थी तो उपभोक्ता भारत की अर्थव्यवस्था पर रोजगार और कीमतों को ध्यान में रखकर अपनी राय जाहिर करते थे। लेकिन कोरोना की तीसरी लहर के बाद रोजगार और कीमतों के अलावा परिवार में होने वाली कमाई भी अर्थव्यवस्था के प्रति अपनी राय जाहिर करने में भूमिका निभाने लगी है। 

आरबीआई ने अपने सर्वे में जब लोगों से यह पूछा कि भारत की अर्थव्यवस्था का हाल पहले से बेहतर है या पहले से खराब तो खराब बताने वालों की संख्या, बेहतर बताने वालों से 57% अधिक थी। तकनीकी भाषा में कहा जाए तो इस सवाल का नेट रिस्पांस नेगेटिव 57% था।

अर्थव्यवस्था के प्रति अपनी राय जाहिर करने में तकरीबन 73% लोगों ने रोजगार को केंद्र में रखा। जबकि महामारी से पहले के दौर में अर्थव्यवस्था के प्रति अपनी राय बनाने में तकरीबन 59% लोगों ने रोजगार केंद्र में रखा था। यानी रोजगार को लेकर के अर्थव्यवस्था के प्रति लोग पहले के मुकाबले ज्यादा चिंतित हैं। रोजगार के बाद कीमतों का नंबर आता है। महामारी से पहले तकरीबन 48% उपभोक्ताओं ने अर्थव्यवस्था के प्रति अपनी राय बनाने में कीमतों को केंद्र में रखा था। अब यह संख्या बढ़कर के 71% पर पहुंच गई है। यानी तकरीबन 71% लोग कीमतों को लेकर के चिंता जता रहे हैं। कमाई के लिहाज से तकरीबन 39 फ़ीसदी लोग महामारी से पहले चिंतित थे। अब यह संख्या बढ़कर के तकरीबन 60% के पास पहुंच गई है। तकरीबन 60 फ़ीसदी लोग कमाई को लेकर के अर्थव्यवस्था के प्रति चिंता जाहिर कर रहे हैं।

यह सर्वे कहता है कि किसी ना किसी रोजगार से जुड़े लोगों के बीच महामारी से पहले जितने लोग अर्थव्यवस्था की हालत को ठीक बता रहे थे उससे तकरीबन 42% कम लोग अर्थव्यवस्था की हालत को ठीक बता रहे हैं। यानी रोजगार करने वाले लोगों के बीच अर्थव्यवस्था की हालत नेगेटिव 42% है। इसी तरह से जो लोग अपना काम धंधा करते हैं या किसी ना किसी बिजनेस से जुड़े हुए हैं, उनके बीच जितने लोग कोरोना से पहले अर्थव्यवस्था को लेकर के बेहतरी की आशंका जता रहे थे, वैसे लोगों में तकरीबन 44% कम लोग यह मान रहे हैं कि अर्थव्यवस्था बेहतर हुई है। बेरोजगारों के बीच जितने लोग अर्थव्यवस्था को कोरोना से पहले बेहतर मान रहे थे उनमें भी 43% की कमी आई है।

यह सभी आंकड़े इस तरफ इशारा करते हैं कि उपभोक्ताओं के मन में भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति भरोसा पहले से टूटा हुआ है। पहले से ज्यादा लोग भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी जिंदगी के लिए ठीक-ठाक हालत में नहीं देख रहे हैं। यह आंकड़ा कोई 10 और 15% का नहीं है, बल्कि 57% तक जाता है। यानी अब भी अर्थव्यवस्था को पहले के हालात बराबर 57% लोग नहीं मान रहे हैं। जब स्थिति पहले के बराबर होगी तब पहले से बेहतर के बारे में सोचने की संभावना बनती है।

उपभोक्ताओं का भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति इतना कमजोर विश्वास भारत के पूरे राजकाज पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। यह बताता है कि भारत कि देश की बहुत बड़ी आबादी अर्थव्यवस्था में अपनी खुशहाली नहीं देख पा रही। अर्थव्यवस्था में अपने लिए मदद की भावना ना देख पाने का मतलब यह भी है कि बहुत बड़ी आबादी सरकार को इस तरह से नहीं देख रही जैसे सरकार उसकी जिंदगी में कोई कारगर भूमिका निभाती हो?

भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति उपभोक्ताओं के मंतव्य से जुड़े इन सभी आंकड़ों के साथ ऑक्सफैम की जारी की गई रिपोर्ट को जोड़ कर देखिए। भारत के सबसे अमीर मात्र 10 लोगों की कुल संपत्ति इतनी है जिससे पूरे देश की प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा का कुल खर्चा 25 वर्षों तक पूरा किया जा सकता है। 84% आबादी की आय कम हुई है। सबसे अमीर 10% लोगों के पास देश की 45% दौलत है। वहीं, देश की 50% गरीब आबादी के पास महज 6% दौलत है। यानी अगर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिफ़ाफ़े को अंदर से खोल कर ना देखा जाए तो अमीरों की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था चमकती हुई दिखेगी। लेकिन आर्थिक असमानता के आंकड़े भी यह बताते हैं कि क्यों उपभोक्ताओं को भारत की अर्थव्यवस्था पर भरोसा नहीं है। क्यों भारत की अर्थव्यवस्था में उपभोक्ताओं के भरोसे को मजबूत बनाने के लिए वैसे कदम उठाने की जरूरत है जो अब से पहले कभी नहीं उठाए गए हैं।

नहीं तो स्थिति ऐसी हो गई है कि अर्थव्यवस्था में लोगों को लग रहा है कि सरकार की सारी संस्थाएं मिलकर उनके ऊपर आर्थिक हिंसा कर रही है। उनके लिए ऐसा कुछ भी नहीं कर रही हैं जिससे उनका भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा पनपे।

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