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राहुल जहां हिंदुत्व को धर-दबोचने में सफल, लेकिन कांग्रेस सांगठनिक तौर पर अभी भी कमज़ोर

जहाँ एक तरफ विचारधारा चुनावों में सफलता पाने के लिए एक महत्वपूर्ण आधार है, वहीं इसके लिए एक सांगठनिक नींव अपनेआप में अपरिहार्य है।
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कांग्रेस सांसद राहुल गाँधी ने 12 नवंबर को एक बेहद प्रासंगिक मुद्दे को सामने रखा: वह यह कि दो घटनाओं के बीच में एक व्यापक खाई है जिससे कई लोग भ्रमित करते हैं जबकि कुछ अन्य उसे जानबूझकर या अनजाने में मिलाने का काम करते हैं। ये हैं हिंदू धर्म और हिंदुत्व।

वर्धा में चल रहे एक प्रशिक्षण शिविर को वीडियोकांफ्रेंसिंग के जरिये संबोधित करते हुए राहुल ने अलंकारिकतापूर्ण भाषण के साथ शुरुआत की: “हिन्दू धर्म - जैसा कि हम जानते हैं - और हिंदुत्व के बीच  में क्या अंतर है? क्या ये दोनों एक ही चीज हैं? क्या ये दोनों एक ही चीज हो सकते हैं?

उनका जवाब था, निश्चित तौर पर नहीं। इस प्रकार: “क्या हिन्दू धर्म सिख या मुस्लिम को मारने-पीटने के बारे में सिखाता है? क्या हिन्दू धर्म अखलाक़ की हत्या करने के बारे में सिखाता है? हाँ, हिंदुत्व निश्चित रूप से यह है। यह कहाँ पर लिखा है कि निर्दोष व्यक्ति की हत्या करना धर्म है? मुझे तो ऐसा कहीं नहीं दिखा।”

अपने भाषण के दौरान, राहुल ने हिंदुत्व का चरित्र-चित्रण किया, इसे न सिर्फ हिन्दू धर्म के विपरीत बताया बल्कि कांग्रेस की परंपरा के भी विरुद्ध बताया। इस बारे में कुछ संदर्भो को रखने के साथ-साथ एक तर्क को भी स्थापित करने की जरुरत है।

राहुल ने अपनी टिप्पणियों के लिए एक पार्टी प्रशिक्षण सत्र को चुना, जो कि निश्चित ही अनायास नहीं था। अपने संबोधन में, उन्होंने कहा कि एक एक करके अधिक से अधिक लोगों को हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के बीच के फर्क के बारे में जागरूक करने की जरूरत है, ताकि वे इस बात को आगे प्रसारित कर पाने में सक्षम बन सकें। जाहिर है, राहुल की कोशिश पार्टी कार्यकर्ताओं को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और संघ परिवार के खिलाफ एक विचारधारात्मक संघर्ष के लिए जागरूक और तैयार करने की है, जिसमें यह इस अंतर को देख पाना एक महत्वपूर्ण हथियार साबित हो सकता है। हो सकता है कि उनकी यह टिप्पणी एक अन्य कांग्रेसी नेता, सलमान खुर्शीद के द्वारा किये गए मिलते-जुलते अंतर के चलते उत्पन्न हुए विवाद से प्रेरित हो। पिछले हफ्ते जारी उनकी सनराइज ओवर अयोध्या नामक किताब में खुर्शीद लिखते हैं कि हिन्दू धर्म के शास्त्रीय संस्करण को “हिंदुत्व के बलिष्ठ संस्करण” द्वारा परे धकेला जा रहा है, जो कि जिहादी इस्लाम सरीखा है। इस बारे में अंदाजा लगाने की जरूरत नहीं है कि इसका स्वागत किस चीख-पुकार के साथ किया गया होगा।

राहुल ने संभवतः इस मौके को एक सहयोगी का बचाव करने के साथ-साथ पार्टी कार्यकताओं के फायदे लिए ही नहीं बल्कि नागरिकों के लिए भी इस मुद्दे पर विस्तार से अपनी बात कहने के अवसर के तौर पर लिया होगा। समस्या की जड़, उनके मुताबिक हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के बीच के महत्वपूर्ण फर्क में है जो कि एक शोर में दफन हो गई है क्योंकि कांग्रेस की विचारधारा को राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) की नफरत की विचारधारा ने पूरी तरह से ढक दिया है।

और राहुल के हिसाब से कांग्रेस की विचारधारा ठीक-ठीक क्या है? अनिवार्य रूप से, राहुल ने हिंदुत्व की विचारधारा की मजबूत एवं रुढ़िवादी विशिष्टता के बरखिलाफ सार्वभौमिक प्रेम पर आधारित भक्ति संतों की समन्वित एवं विषम धार्मिक परंपरा को खड़ा किया है। राहुल ने अपनी पार्टी की विचारधारा को हजारों वर्षों के भारतीय जीवन के ज्ञान को प्रतिबिंबित करने वाला सागर के तौर पर व्य्ख्यायित किया। ऐसा करते हुए उन्होंने शिव, कबीर, गुरु नानक और फिर गाँधी का हवाला दिया।

राहुल जो कर रहे थे वह राजनीतिक शब्दावली में कहें तो यह एक बेहद चतुराई भरी कोशिश थी। धर्मनिरपेक्षता और ‘हिन्दू धर्म’ की एक बहस में उलझने के बजाय, जो कि अपनेआप में एक महत्वपूर्ण बातचीत है, लेकिन इस घड़ी पर इसका कोई खास राजनीतिक वजन नहीं है। असल में राहुल संघ परिवार के हिन्दू धर्म पर एकाधिकार के दावे को रद्द कर रहे थे। 

प्रभावी तौर पर वे कह रहे थे कि परिवार में भाजपा और उसके सहयात्री साथियों ने हिन्दू धर्म को गलत तरीके से व्याख्यित किया है - उनके द्वारा हिन्दू धर्म और भारतीय परंपरा के मिलावटी और नकली संस्करण का घूम-घूम कर प्रचार किया जा रहा है। उनका प्रश्न था, “क्या हिंदुत्व की विचारधारा और जो गुरु नानक ने कहा या कबीर ने कहा या अशोक ने कहा, में कोई साम्यता है?”

इस चक्करदार मार्ग से राहुल इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यद्यपि कांग्रेस की विचारधारा जीवित और सही सलामत बनी हुई है लेकिन इसे आरएसएस की नफरत की विचारधारा ने पूरी तरह से ढक रखा है। आंशिक रूप से इसकी वजह “मीडिया पर पूर्ण कब्जा, भारतीय राष्ट्र पर पूर्ण कब्जा जमा लेने के कारण ही नहीं बल्कि इसलिए भी आच्छादित है क्योंकि हमने अपनी विचारधारा को अपने ही लोगों के बीच में आक्रामक तरीके से प्रचारित-प्रसारित नहीं किया है।”

राहुल अपने तर्क के इस हिस्से में कुछ कमजोर नजर आते हैं। चलिए मान लिया कि मीडिया पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया गया है। लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या मीडिया पर कब्जा एक सदी या उससे अधिक समय से चली आ रही वैचारिक परंपरा के हाशिये पर चले जाने के लिए एक महत्वपूर्ण कारक साबित हो सकता है, जो कि राहुल के हिसाब से सदियों पुरानी वैचारिक और धार्मिक परंपराओं पर आधारित है?

या क्या यह सत्य है कि भाजपा/संघ परिवार ने देश को “पूरी तरह से कब्जे” में ले रखा है? निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। यह सच है कि हिंदुत्व ने पिछले तीन दशकों में काफी हद तक कर्षण हासिल करने में सफलता प्राप्त की है, और निश्चित रूप से यह सच है कि आज भारत में भाजपा एक प्रमुख राजनीतिक ताकत बन चुकी है। लेकिन सच्चाई सिर्फ इतनी ही है।

राहुल ने पार्टी कार्यकर्ताओं से जो कहा, हमें उससे आगे जाना होगा, साथ ही साथ इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि वो जो कह रहे हैं वह भी गलत नहीं है। जब वे यह कहते हैं तो सटीक निशाना लगा रहे होते हैं कि ‘हमारे पास केंद्रीय तरीका यह है कि हमें अपनी विचारधारा का प्रचार करने के लिए लोगों को प्रशिक्षित करना है, अपने लोगों को बातचीत में शामिल करना है, उन्हें यह बताना है कि कांग्रेसी होने के क्या मायने हैं और यह किसी आरएसएस का व्यक्ति होने से अलग कैसे है।”

लेकिन राहुल यहाँ पर कुछ बेहद अहम चीज को भूल रहे हैं। आइये 16 अक्टूबर को हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक को एक बार फिर से याद करें, जब पार्टी के सांगठनिक चुनावों के लिए रोडमैप को तैयार किया जा रहा था। राहुल ने अपने भाषण में कहा था, जिसे उनके सहयोगियों ने बेहद जानदार बताया था, कि संगठनात्मक मुद्दे और व्यक्तिगत पद भरत के भविष्य के लिए चलाए जाने वाले वृहत्तर वैचारिक युद्ध के आगे अप्रासंगिक हैं। उनका कहना था कि भारत असाधारण चुनौतियों का सामना कर रहा है, और उनसे जूझने के लिए वैचारिक शुद्धता की दरकार है।

इस दृष्टिकोण के साथ दो समस्याएं हैं। पहली यह कि “वैचारिक शुद्धता” का विचार व्यावहारिक चुनावी राजनीति के फलक को देखते हुए बेहद समस्याग्रस्त है। कांग्रेस ने अपने समूचे इतिहास में कभी भी इस तरह के काल्पनिक उद्देश्य को हासिल करने का प्रयास नहीं किया है। एक परिभाषित विचारधारा के लिए, जिससे किसी को बहुत अधिक विचलन न करना पड़े, इतना भर पर्याप्त है।

दूसरा है, यह विचार कि व्यवहारिक राजनीति में सांगठनिक मुद्दे किसी महत्व के नहीं नहीं रह जाते, जो कि पूरी तरह से असंगत है। किसी को राहुल को बताना चाहिए कि किसी पार्टी के राजनीतिक अभियान के लिए जहाँ विचारधारा एक महत्वपूर्ण आधार होता है (जिसे असल में, एक चुनावी प्रकिया के जरिये सत्ता में आना है), उसके लिए एक यथोचित संगठनात्मक आधार नितांत आवश्यक है।

असल में यह संगठन की उपेक्षा की वजह से है, जिसके चलते तार्किक रूप से जन-संपर्क कार्यक्रमों और लोगों को संगठित कर पाने में अक्षमता नजर आती है, जिसने कांग्रेस को वर्तमान में शक्तिहीनता की स्थिति में ला दिया है। इसके विपरीत, भाजपा इसलिए फल-फूल रही है क्योंकि इसके द्वारा सांगठनिक मुद्दों की बारीकियों में भाग लेने में काफी समय और उर्जा खर्च की जाती है।

भाजपा ने जिस स्तर तक देश पर कब्जा जमा लिया है, उसकी वजह यह है, क्योंकि यह जब सुविधाजनक हो उस हिसाब से हिंदुत्व की विचारधारा से विचलित नहीं होती है। भाजपा के लिए हिंदुत्व एक राजनीतिक परियोजना है, जिसे उसके द्वारा संस्थानों पर कब्जा या कमजोर करके संवैधानिक ढांचे को अस्थिर करके, जिसपर लोकतंत्र टिका हुआ है को धता बताकर पूर्ण करने की उम्मीद करता है। और यह अपने संगठन को लगातार मजबूत कर और आरएसएस के विशाल नेटवर्क का इस्तेमाल करके ऐसा करने की उम्मीद रखता है।

एक अर्थ में, राहुल के पास साधन और साध्य का क्रम गलत है। कांग्रेस को व्यवस्था में लोकतंत्र की मूलभूत सिद्धांतों को फिर से अंकित कर संस्थानों एवं संवैधानिक ढांचे को बचाने के लिए सत्ता पर कब्जा करना होगा। इसके लिए प्रेरणा उसे चाहे भक्ति संतों से मिले या विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक मिसालों से लेनी हो, यह उसके अपनी पसंद का विषय है।

लेकिन एक बिंदु पर हमें स्पष्ट रहना चाहिए: कि एक वैचारिक स्थिति को परिभाषित करने और उसके बचाव का काम निश्चित ही महत्वपूर्ण है, खासकर देश के इतिहास के इस मोड़ पर, लेकिन इस बारे में सिर्फ सिर्फ हल्ला मचाने से चुनाव जीतने में मदद नहीं मिलने जा रही है। इसके लिए एक निर्णायक नेतृत्व और स्पष्ट प्रसारण चैनलों वाला के मजबूत संगठन का होना नितांत आवश्यक है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधार्थी हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं

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