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राजस्थान विस चुनाव: वो सीटें जिन पर आख़िरी मिनट तक तय होते हैं नतीजे!

राजस्थान विधानसभा चुनाव में एक महीने से भी कम का वक़्त है। इन कम दिनों में भाजपा और कांग्रेस उन सीटों को साधने में लगी हैं जहां जीत का अंतर बहुत कम रहता है या फिर पार्टी बहुत वक़्त से जीती नहीं है।
Rajasthan Assembly Elections
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

पिछले तीन दशकों से हर पांच साल पर मुखिया बदल देने वाला राजस्थान इस बार भी अपने फैसले के लिए तैयार बैठा है, इंतज़ार बस वोटिंग का है, जिसके लिए अब एक महीने भी नहीं बचे हैं।

मुखिया बदल लेने वाला जनता का फैसला यूं ही बरकरार रहे, इसके लिए भाजपा साम-दाम-दंड-भेद के इस्तेमाल में लगी है। वहीं ख़ुद की सत्ता को बरकरार रखने और अपने कामों को गिनाकर रिवाज बदलने के लिए कांग्रेस भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही।

अब जनता के फैसले पर किसका नाम लिखा है, ये तो वक्त बताएगा, मग़र प्रदेश की 40 सीटें ऐसी भी हैं, जिन्होंने दोनों पार्टियों की हार्टबीट बहुत ज़्यादा बढ़ा रखी है क्योंकि साल 2018 के विधानसभा चुनाव में इन सीटों पर जीत-हार का अंतर तीन फीसदी से भी कम था।

आपको बता दें कि पिछले विधानसभा चुनाव में 40 में से 32 सीटें ऐसी रहीं जिन पर कांग्रेस और भाजपा के बीच कड़ा मुकाबला रहा। इन मुकाबलों में भाजपा ने 17 और कांग्रेस ने 15 सीटें महज़ कुछ वोटों के अंतर से जीतीं। बाकी की आठ सीटों पर 4 निर्दलीय, 2 बसपा, एक-एक सीट भारतीय ट्राइबल पार्टी यानी बीटीपी और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी यानी आरएलपी के उम्मीदवार ने मामूली वोटों से जीती थी।

हालांकि 2018 के रिज़ल्ट के एक साल बाद बसपा के सभी विधायक कांग्रेस में शामिल हो गये। इन 40 सीटों में 16 जगहों के कैंडिडेट ने महज़ 2 से 3 फीसदी वोटों के अंतर से जीत दर्ज की। 11 ऐसे थे जिनका अंतर महज़ 1 से 2 फीसदी वोटों का रहा। वहीं 13 सीटें ऐसी रहीं जहां हार-जीत का अंतर महज़ 1 फीसद वोट का रहा। 12 विधानसभा सीटों पर जीत का अंतर नोटा को मिले वोटों से भी कम रहा।

भीलवाड़ा ज़िले में आने वाले आंसीद विधानसभा क्षेत्र की बात करें तो यहां भाजपा लगातार पिछले 6 बार से चुनाव जीत रही है। सिर्फ 2003 का चुनाव ही ऐसा था जब यहां से निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। इस आसींद सीट पर 2018 के चुनाव में भाजपा प्रत्याशी जब्बार सिंह सांखला केवल 154 वोटों यानी 0.08 प्रतिशत अंतर से जीत पाए थे। कहने का अर्थ ये है कि ये वो सीट है जो दोनों पार्टियों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है और किसी भी चुनाव में यहां नतीजे घोषित हो जाने तक उम्मीदवारों की सांसें अटकी रहती हैं।

इसी तरह गंगानगर ज़िले में एक विधानसभा क्षेत्र पीलीबंगा है, जिसे 2018 में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित किया गया था। इस सीट पर भाजपा के धर्मेंद्र कुमार ने कांग्रेस के विनोद कुमार को सिर्फ 278 वोटों यानी 0.12 प्रतिशत वोटों से हराया था।

मारवाड़ जंक्शन नाम का विधानसभा क्षेत्र, जो प्रदेश के पाली ज़िले में है। यहां 2018 में ठीक चुनाव से पहले कांग्रेस का साथ छोड़कर निर्दलीय लड़ने वाले खुशवीर सिंह चुनाव जीते थे। यहां जीत का अंतर सिर्फ 245 वोट यानी 0.15 प्रतिशत था। आप समझ सकते हैं कि इस सीट पर कितनी टफ फाइट होगी।

अब एक उदाहरण भाजपा के कद्दावर नेता राजेंद्र राठौर का लेते हैं। वो राजस्थान विधानसभा के नेता प्रतिपक्ष भी हैं। 2018 के चुनाव में वो चुरू सीट पर हारते-हारते बचे। उन्हें कांग्रेस के रफीक मंडेलिया ने कड़ी टक्कर दी। राठौर की जीत का अंतर महज़ 1.1 प्रतिशत था।

विधानसभा की ये 40 सीटें भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए महत्पूर्ण हैं, क्योंकि इनके नतीजों से सरकार बनने और विपक्ष में बैठने का रास्ता तय होता है। 2008 में नाथद्वारा सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी सीपी जोशी केवल एक वोट से चुनाव में हार गए थे। यानी इन 40 सीटों पर एक फीसदी वोटों का भी इधर से उधन होना घातक हो सकता है।

कुछ ऐसी सीटें जहां लंबे वक्त से भाजपा या कांग्रेस जीत रही है

उदयपुर विधानसभा में 25 साल से कांग्रेस का खाता नहीं खुला, 51 साल में 11 चुनावों में से कांग्रेस सिर्फ 1985 और 1998 में जीती।

उधर फतेहपुर में 1993 के चुनाव में आखिरी बार भंवरलाल ने जीत हासिल की, उसके बाद भाजपा कभी नहीं जीत पाई।

बस्सी विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस 1985 में अंतिम बार जीती थी, फिर 38 साल में कभी नहीं जीत पाई। पिछले 3 चुनाव लगातार निर्दलीयों ने जीते हैं।

एक सीट है कोटपूतली विधानसभा, यहां 1998 के चुनाव में भाजपा के रघुवीर सिंह जीते थे, उसके बाद भाजपा की वापसी नहीं हो पाई।

सांगानेर विधानसभा में 1998 के चुनाव में कांग्रेस से आखिरी बार इंदिरा मायाराम जीती थीं, उसके बाद कांग्रेस यहां कभी नहीं जीत पाई।

रतनगढ़ में 1998 में कांग्रेस के जयदेव प्रसाद इंदौरिया अंतिम बार जीते, उसके बाद कांग्रेस वापसी नहीं कर पाई।

ऐसे ही सिवाना में 1998 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के गोपाराम मेघवाल यहां से जीते थे, उसके बाद से कांग्रेस का खाता नहीं खुला।

यहां से ये कहना ग़लत नहीं होगा कि ये वो सीटे हैं, जहां उम्मीदवारों की जीत-हार पार्टी की हार-जीत बन सकती है, ऐसे में इन सीटों पर मेहनत करना और जीत हासिल करना भाजपा या कांग्रेस के लिए बहुत ज़रूरी हो जाता है।

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