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स्कैंडिनेवियाई देशों के पूंजीवाद का असली सच

स्कैंडिनेवियाई पूंजीवाद के संबंध में अनेक भ्रांतियां हैं। जैसे एक ये ही कि स्कैंडिनेवियाई देशों ने अपने कोई उपनिवेश बनाए बिना ही, अपने यहां तंदुरुस्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं का विकास किया है, लेकिन इस धारणा के पीछे की सच्चाई बिल्कुल अलग है।
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Photo Credit- Fee Stories

स्कैंडिनेवियाई देश और साम्राज्यवाद

स्केंडिनेवियाई पूंजीवाद के संबंध में अनेक भ्रांतियां हैं। एक बहुत ही आम-फहम भ्रांति तो यह धारणा ही है कि स्केंडिनेवियाई देशों ने कभी भी अपने कोई उपनिवेश बनाए बिना ही, अपने यहां तंदुरुस्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं का विकास किया है, उनका उदाहरण स्पष्ट रूप से इस मान्यता का खंडन करता है कि पूंजीवाद के विकास के लिए, अनिवार्य रूप से साम्राज्यवाद की जरूरत पड़ती है। यह दलील वैसे तो मैं दशकों से सुनता आ रहा हूं, लेकिन यह दलील खुद ही एक भ्रांति पर टिकी हुई है और यह भ्रांति सिर्फ स्कैंडिनेविया के संबंध में नहीं है बल्कि सबसे बढ़कर खुद साम्राज्यवाद के ही संबंध में है।

निजी उपनिवेश जरूरी नहीं हैं, साम्राज्यवादी लाभ पाने के लिए

बेशक, स्कैंडिनेवियाई सोशल डेमोक्रेसी ने, अपने यहां के पूंजीवाद से जो रियायतें झपट ली हैं, उनकी तारीफ में काफी कुछ कहा जा सकता है, हालांकि नव उदारवाद के वर्तमान युग में इनमें से अनेक रियायतें भी खतरे में पड़ गई हैं। बहरहाल, यह कहना पूरी तरह से पूंजीवाद की ही गलत समझदारी का मामला होगा कि स्केंडिनेविया किसी गैर-साम्राज्यवादी पूंजीवाद का उदाहरण है। चाहे स्कैंडिनेवियाई देशों के खुद अपने कोई उपनिवेश नहीं रहे हों, पर चाहे दूसरे विश्व युद्ध से पहले का दौर हो या उसके बाद का, वे अन्य शक्तियों के साम्राज्यवाद की पिट्टू सवारी करते रहे हैं। आइए, साम्राज्यवाद के अंतर्गत बनायी गयी व्यवस्था पर हम थोड़ा विस्तार से नजर डाल लें।

हर सफल पूंजीवादी देश के पास, अपना ही साम्राज्य हो यह कोई जरूरी नहीं है। एक वृहत्तर सामराजी व्यवस्था के दायरे में पूंजीवादी विकास होता है और विभिन्न विकसित पूंजीवादी देश इस व्यवस्था से लाभ हासिल करते हैं, भले ही उनके पास अपने कोई साम्राज्य हो या नहीं हो। मिसाल के तौर पर उस जमाने में जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सितारा बुलंदी पर था, ब्रिटिश बाजारों के दरवाजे महाद्वीपीय यूरोप के मालों के लिए खुले हुए थे। इन बाद वाले देशों को अकेले-अकेले अपने तक सीमित बाजारों की खोज करने की जरूरत नहीं थी क्योंकि वे बेरोक-टोक ब्रिटिश बाजार में जाकर अपने माल बेच सकते थे। और ऐसा किया जा सकता था क्योंकि ब्रिटेन के महाद्वीपीय यूरोप के इन देशों की तुलना में ‘पहले शुरू करने’ का अर्थ यह भी था कि उसकी श्रम उत्पादकता, नये औद्योगीकरण कर रहे देशों के मुकाबले घटकर थी और इसलिए (कमोबेश समान मुद्रा मजदूरी के साथ) उसकी इकाई उत्पादन की लागत, कहीं ज्यादा बैठती थी। इसी प्रकार, ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा उपनिवेशों तथा अर्ध-उपनिवेशों से खसोटे जा रहे प्राथमिक मालों तक भी महाद्वीपीय यूरोप तथा अन्य नये-नये विकसित होते पूंजीवादी देशों को पहुंच हासिल हो सकती थी और इस तरह की आपूर्तियां हासिल करने के लिए भी, उन्हें सिर्फ अपने तक ही सीमित व्यवस्थाएं सुनिश्चित करने की जरूरत नहीं थी।

नेतृत्वकारी सामराजी ताकतें और लाभों का बंटवारा

वास्तव में सभी नेतृत्वकारी सामराजी देश हरेक वक्त पर ठीक यही भूमिका अदा कर रहे होते हैं। यह उनकी नेतृत्वकारी भूमिका एक आवश्यक घटक ही होता है, जो प्रतिद्वंद्वी देशों में पूंजीवाद के फैलने की इजाजत देता है और इसलिए, नये औद्योगीकरण कर्ताओं की ओर से उनके नेतृत्व के लिए कोई गंभीर चुनौती नहीं पैदा होने देता है। ये ‘नेतृत्वकारी’ देश वास्तव में, अपने ही औद्योगिक पूंजीवाद के विकास में लगी प्रतिद्वंद्वी शक्तियों के मालों को खपाते हैं और इस तरह ठीक साम्राज्यवादी व्यवस्था के चलते ही, अवहनीय चालू खाता घाटों में फंसने से बचते हैं। ब्रिटेन ने, उपनिवेशों पर जिस लूट या ‘‘ड्रेन’’ को थोपा था, उसके जरिए उसने इस तरह के अवहनीय घाटों से खुद को बचाया था। इस लूट का परिमाण न सिर्फ इस घाटे की भरपाई करने के लिए काफी था बल्कि इसके बल पर वह ठीक उन्हीं देशों के लिए उल्लेखनीय पूँजी निर्यात भी कर पा रहा था, जिनके साथ उसका ऐसा व्यापार घाटा चल रहा था, यानी यूरोपीय बसावट के समशीतोष्ण क्षेत्र।

ब्रिटेन के बाद, पूंजीवादी दुनिया के नेता का ताज संभालने वाले अमेरिका के पास, उस प्रकार के उपनिवेश थे ही नहीं जैसे ब्रिटेन के पास रहे थे। फिर भी,अमेरिका ने डॉलर छाप-छाप कर अपना चालू खाता घाटा संभाले रखा था क्योंकि ब्रेटन वुड्स व्यवस्था के अंतर्गत डॉलर को ‘सोने के समकक्ष’ घोषित कर दिया था, जिसे 35 डॉलर प्रति आउंस के हिसाब से सोने से बदला जा सकता था। आगे चलकर, ब्रेटन वुड्स व्यवस्था तथा डॉलर-सोने के विनिमय की व्यवस्था के बैठ जाने के बाद भी, सारी दुनिया के संपत्ति धारी डालर को तथ्यत: सोने के समान मानते आए हैं और अपनी संपदा को डॉलर के रूप में जमा करने के लिए बेहिचक तैयार रहे हैं।

संक्षेप में यह कि समूची पूंजीवादी दुनिया को ही नेतृत्वकारी पूंजीवादी देश द्वारा पिट्टू सवारी का मौका दिया जाता है। बेशक, कुछ विकसित पूंजीवादी देशों को इतना मौका भी बहुत हाथ बांधने वाला लग सकता है और वे अपने ही साम्राज्य खड़े करने की कोशिश कर सकते हैं। लेकिन, जो देश ऐसा नहीं करते हैं, मिसाल के तौर पर स्कैंडिनेवियाई देश, उनके संबंध में यह नहीं माना जा सकता है कि उन्होंने साम्राज्यवाद का कोई सहारा लिए बिना ही अपने पूंजीवाद का निर्माण किया है। उन्हें नेतृत्वकारी पूंजीवादी ताकत के साम्राज्यवाद के लाभ हासिल थे।

बाजारों की होड़ के बावजूद यहां दर्ज करने वाली दो बातें और हैं। पहली तो यह कि उदीयमान प्रतिद्वंद्वी पूंजीवादी ताकतों को नेतृत्वकारी पूंजीवादी देश के बाजारों तक मुक्त पहुंच का लाभ हासिल होता है, जबकि खुद ये देश अपने बाजारों में आयातों के खिलाफ तटकर लगा रहे होते हैं और इसमें नेतृत्वकारी पूंजीवादी देश के मालों के खिलाफ तटकर भी शामिल हैं। इस तरह, पहले विश्व युद्ध से पहले के दौर में जर्मनी तथा अमेरिका ने अपने राष्ट्रीय बाजारों को, अपनी ही पूंजी के लिए आरक्षित करने के लिए कदम उठाए थे, जबकि वे खुद ब्रिटिश बाजारों में अतिक्रमण कर रहे थे। इस असंतुलन ने ही, ब्रिटेन के शुरुआत से आगे होने के बावजूद, उनके लिए औद्योगीकरण करना संभव बनाया था। यही बात, महाद्वीपीय यूरोप के देशों के बारे में भी सच है। दूसरे, इन प्रतिद्वंद्वी शक्तियों को ब्रिटिश बाजार तक ही पहुंच हासिल नहीं थी बल्कि कम से कम 1920 तथा 1930 के दशकों तक तो, ब्रिटिश उपनिवेशों के बाजारों तक भी पहुंच हासिल थी।

बहरहाल, दो विश्व युद्धों के बीच के दौर में ‘सामराजी वरीयता’ की व्यवस्था शुरू की गयी थी, जो अलग-अलग तटकरों की व्यवस्था लागू करती थी। इसमें ब्रिटिश साम्राज्य में उत्पादित मालों के मुकाबले, उससे बाहर उत्पादित मालों पर कहीं ज्यादा तटकर लगाया गया था। यह व्यवस्था, पहले वाली व्यवस्था से अलग जाने को दिखाती थी। यह व्यवस्था वास्तव में ब्रिटेश के एशियाई उपनिवेशों के बाजारों पर कब्जा करने की जापान की जबर्दस्त मुहिम की काट करने के लिए ही खड़ी की गयी थी। लेकिन, इस ‘साम्राज्य के लिए वरीयता’ की व्यवस्था का तथा आगे चलकर ‘साम्राज्य का खरीदो’ अभियान का मुख्य निशाना हालांकि जापान था, फिर भी इस तरह के भिन्नीकृत तटकर का अर्थ होता था, सामराजी व्यवस्था में एक आम बदलाव आना। और यह साम्राज्यवाद की उस आपसी प्रतिद्वंद्विता कारण भी था और लक्षण भी, जिस प्रतिद्वंद्विता को महामंदी ने भड़का दिया था। लेकिन, उक्त बदलाव से पहले के पूरे दौर में यानी जापानी आर्थिक विस्तारवाद  के प्रथम विश्व युद्ध से पहले की व्यवस्था को उलट-पुलट कर देने से पहले तक, ब्रिटिश औपनिवेशिक बाजार सिर्फ ब्रिटेन के मालों के लिए ही नहीं बल्कि उसकी प्रतिद्वंद्वी पूंजीवादी शक्तियों के मालों के लिए भी खुले हुए थे। बहरहाल, जापानी विस्तारवाद की इन कोशिशों को ब्रिटेन ने जब उक्त बचाव कार्रवाइयों के जरिए विफल किया तो, जापानी पूंजीवाद ने जापानी सैन्य विस्तारवाद में अपना रूपांतरण कर लिया।

साम्राज्यवाद के सहारे ही बढ़ा है स्कैंडिनेवियाई पूंजीवाद

इस तरह, स्कैंडिनेवियाई देशों के अपने उपनिवेश बनाए बिना ही स्कैंडिनेवियाई पूंजीवाद का विकास होना, पूंजीवाद के विकास के लिए साम्राज्यवाद के जरूरी होने का खंडन नहीं करता है। यह तो बस साम्राज्यवादी व्यवस्था की जटिलता को रेखांकित करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सामराजी व्यवस्था की हिफाजत करने में स्कैंडिनेवियाई देशों की भी उतनी ही दिलचस्पी है, जितनी दिलचस्पी अन्य प्रमुख पूंजीवादी देशों की है। ऐसा सिर्फ राजनीतिक कारणों से ही नहीं है, जैसे कि सामराजी ‘सुरक्षा’ व्यवस्था का बैठना, किसी भी विकसित पूंजीवादी देश विशेष में पूंजीवाद के बचे रहने को, उसके राजनीतिक घेराव को बढ़ावा देने के जरिए, उतना ही ज्यादा मुश्किल बना देता है। यह एक आर्थिक अनिवार्यता भी है क्योंकि इसी तरह यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि ऐसे अनेकानेक उष्णकटिबंधीय तथा समशीतोष्ण कटिबंधीय मालों की, जो विकसित पूंजीवादी देशों में पैदा नहीं किए जा सकते हैं, उपलब्धता बनी रहे। सामराजी व्यवस्था के कमजोर होने से, इन आपूर्तियों में खलल पड़ सकता है।

हाल ही में स्वीडन तथा फिनलैंड के नाटो की सदस्यता के लिए अर्जी देने के  फैसले से बहुत से लोग हैरान हो गए। इसमें यह खबर भी शामिल थी कि ये देश, नाटो की अपनी सदस्यता पर तुर्की की आपत्तियों को दूर करने के लिए, उसके साथ समझौता करने के लिए भी तैयार हो गए हैं। इस समझौते के अनुसार ये दोनों देश अपने यहां उन कुर्द राजनीतिक शरणार्थियों को हासिल संरक्षण हटा लेंगे, जिन्हें तुर्क सरकार दंडित करना चाहती है। बेशक, युक्रेन के साथ रूस का युद्ध ही, इन देशों द्वारा नाटो में शामिल होने की इच्छा जताए जाने की तात्कालिक पृष्ठभूमि बनाता है। फिर भी, इन देशों का रुख बदलना एक कहीं गहरी चीज को दिखाता है और यह है, पूंजीवादी दुनिया में आ रहा 

पूंजीवादी दुनिया में आता बुनियादी बदलाव

साम्राज्यवाद द्वारा अपने बदले हुए रुख की सफाई देने के लिए जो दलील दी गयी है, उसमें ‘रूसी विस्तारवाद’ द्वारा पेश किए जा रहे खतरे पर ही सारा जोर है। लेकिन, यह दलील जांच में खरी नहीं उतरती है। अगर बहस के लिए हम यह मान भी लें कि रूस ‘विस्तारवादी’ बनकर दिखाने पर ही बजिद है, तब भी उसका ‘विस्तारवाद’ अब तक तो उन इलाकों तक ही सीमित माना जा रहा था, जो कभी सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करते थे। बेशक, न तो स्वीडन उस श्रेणी में आता है और न फिनलेंड। इतना ही नहीं, जब शीत युद्घ अपने चरम पर था और जब यूरोपीय शक्तियां सोवियत खतरे का नाम लेकर गला फाड़-फाडक़र चिल्लाती रही थीं तथा यूरोपीय जनता पर रोज-रोज सोवियत-विरोधवाद की बमबारी की जाती थी, ये देश तब भी नाटो के प्रति उदासीन ही बने रहे थे। तब उनके अब अचानक नाटो की सदस्यता के लिए अर्जी लगाने की क्या वजह हो सकती है, जबकि सचाई यह है कि सोवियत संघ खत्म हो चुका है और जब साम्राज्यवादी वर्चस्व के लिए विचारधारात्मक चुनौती कमजोर हो गयी है।

इस सवाल का जवाब इस तथ्य में निहित है कि नवउदारवाद जिस दीर्घकालीन संकट में फंस गया है, उसके असर से पश्चिमी साम्राज्यवाद अंदर से बैठ रहा है। एक लंबे संकट से ग्रस्त होना, उसके अपने वर्चस्व को आजमाने में मददगार नहीं है। दुनिया आज एक बदलाव के मुहाने पर खड़ी नजर आती है और पश्चिमी ताकतें अति-आक्रामक रुख अपनाकर, इस बदलाव को रोकने की बदहवास कोशिशें कर रही हैं। पश्चिमी वर्चस्व के पराभव तथा चीन व रूस के वैकल्पिक सत्ता केंद्रों के रूप में उभरने से आने वाले, इसी संभावित आसन्न खतरे का डर है जो पश्चिमी ताकतों को इतना एकजुट कर रहा है, जितनी एकजुट वे इससे पहले कभी नहीं हुई थीं और इसमें स्कैंडिनेवियाई देश तक शामिल हैं। इसलिए, स्कैंडिनेवियाई देशों के रुख में बदलाव, रूस की अति-आक्रामकता को नहीं दिखाता है बल्कि यह तो पश्चिमी ताकतों की ही अति-आक्रामकता को दिखाता है। और पश्चिमी ताकतों की यह अति-आक्रामकता ऐसे हालात में देखने को मिल रही है, जहां उनके एक दीर्घ आर्थिक संकट में फंसे होने के चलते, उनके वर्चस्व के लिए खतरा पैदा हो गया है।

अंग्रेजी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें: Some Misconceptions About ‘Non-Imperialist’ Scandinavian Capitalism

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