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अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं पर एक नज़र-IV

तालिबान को लेकर चीन की तरफ़ से जो टिप्पणियां सामने आ रही हैं, उससे तो यही लगता है कि तालिबान और चीन एक दूसरे के साथ बेहद सहज हैं। ज़ाहिर है, बीजिंग पाकिस्तान के साथ और भी घनिष्ठ सहयोग और समन्वय चाहता है।
अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं पर एक नज़र-IV
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: Pxfuel

काबुल में 'एक्स' फ़ैक्टर 

चीनी टिप्पणियां अफ़ग़ानिस्तान में लोकतांत्रिक बदलाव की पश्चिमी मांगों को मज़बूती के साथ खारिज करती हैं। चीनी स्टेट काउंसलर और विदेश मंत्री वांग यी और उनके अमेरिकी समकक्ष एंटनी ब्लिंकन  के बीच मंगलवार को हुई एक बातचीत (ब्लिंकन की पहल पर) में यह बात और भी साफ़ तौर पर सामने आ गयी।

वांग ने ब्लिंकन को बताया कि 'हक़ीक़त ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि यांत्रिक तौर पर किसी आयातित विदेशी मॉडल की नक़ल करके उस मॉडल को पूरी तरह से अलग इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रीय परिस्थितियों वाले देश में इस्तेमाल के लिहाज़ से आसानी से फिट नहीं किया जा सकता है और आख़िराकार,  इससे उस देश को खुद के स्थापित किये जाने की संभावना भी नहीं होती है।'

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हीं हो सकती' और समस्याओं को हल करने के लिए शक्ति और सैन्य साधनों का इस्तेमाल से और ज़्यादा समस्यायें पैदा होंगी, और 'इस लिहाज़ से मिला सबक़ गंभीर रूप से सोचने-विचारने लायक़ हैं।' वांग ने इस बात को रेखांकित किया कि अफ़ग़ानिस्तान का खुला और सबको साथ लेकर चलने वाला राजनीतिक व्यवस्था' इसकी अपनी राष्ट्रीय स्थितियों के मुताबिक़' ही होनी चाहिए। 

चीन के ख़िलाफ़ ख़ास तौर पर ताइवान को लेकर बाइडेन प्रशासन के भड़काऊ क़दमों का असर सामने आ रहा है। ग्लोबल टाइम्स ने मंगलवार को अपने एक संपादकीय में कड़ी टिप्पणी करते हुए लिखा कि मौजूदा हालात में अफ़ग़ान स्थिति के सिलसिले में वाशिंगटन के साथ कोई सहयोग मुमकिन नहीं है :

“चीन की दिलचस्पी अफ़ग़ानिस्तान में व्यवस्था बहाल करने और इस युद्धग्रस्त देश के पुनर्निर्माण को बढ़ावा देने में बनी रहेगी, लेकिन अमेरिका को उस रणनीतिक दुविधा से बाहर निकालने में मदद किये जाने को लेकर चीन की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है, जो पूरी तरह से वाशिंगटन से जुड़ी हो। जब अमेरिका दुर्भावनापूर्ण तरीक़े से चीन के ख़िलाफ़ रणनीतिक दबाव और नियंत्रण की नीति अपना रहा है, तो चीन को ऐसी किसी बात की ज़रूरत नहीं है कि वह बुराई के बदले अच्छाई देकर अमेरिका के पक्ष में खड़ा हो जाये। यह मुमकिन नहीं है।” 

गुरुवार को तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद ने औपचारिक रूप से एक ट्वीट में अफ़ग़ानिस्तान इस्लामी अमीरात के निर्माण की घोषणा कर दी, उस ट्वीट में कहा गया था, "अंग्रेज़ों से देश की आज़ादी की 102 वीं वर्षगांठ के मौक़े पर अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामी अमीरात की घोषणा।” 

इस बीच तालिबान के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने साफ़ तौर पर कहा, "लोकतांत्रिक व्यवस्था तो बिल्कुल नहीं होगी क्योंकि हमारे देश में इसका कोई आधार ही नहीं है। हम इस बात पर चर्चा नहीं करेंगे कि अफ़ग़ानिस्तान में हमें किस प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था लागू करनी चाहिए, क्योंकि यह स्पष्ट है। यहां शरिया क़ानून है और यही सही है।"  

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इसके अलावा, चीनी रिपोर्टों में तालिबान से अपनी आतंकवाद विरोधी साख को साबित करने के लिए 'आतंकवाद के ख़िलाफ़ अपनी मज़बूत लड़ाई' में अफ़ग़ानिस्तान के समर्थन की आवाज़ को बुलंद करने के लिए भी कहा गया, ताकि यह 'आतंकवाद का जमावड़ा वाला देश' न बन जाये। यह एक अहम बदलाव है। 

इस तरह, बुधवार को पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी के साथ टेलीफ़ोन पर हुई एक बातचीत में वांग ने चीन-पाकिस्तान सहयोग को लेकर चार सुझाव दिये,ये सुझाव थे:  

1. अफ़ग़ान पक्षों को 'अफ़ग़ान राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुकूल' व्यापक आधार वाली और समावेशी राजनीतिक संरचना स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करना; 

2. आतंकवाद के ख़िलाफ़ 'मज़बूत लड़ाई' में अफ़ग़ानिस्तान का समर्थन; 

3. चीनी और पाकिस्तानी कर्मियों और प्रतिष्ठानों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए तालिबान के साथ संवाद; और, 

4. अफ़ग़ानिस्तान को व्यवस्थित तरीक़े से शामिल करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना, और ख़ास तौर पर पड़ोसी देशों की अनूठी भूमिका को विकसित करना, ताकि अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति को धीरे-धीरे भली संगति में लाया जा सके और उस दौरान विभिन्न प्रणालियां एक दूसरे की पूरक हों और आम सहमति का विस्तार किया जा सके। '

'भली संगति' का मतलब शायद क्षेत्रीय पहलों की उन जटिल श्रृंखलाओं से होगा, जो ख़ुद को मज़बूत करती हैं; 'विभिन्न प्रणालियों' में सीपीईसी और एससीओ जैसे क्षेत्रीय ढांचे शामिल हो सकते हैं। 

सबसे अहम बात कि वांग ने क़ुरैशी के साथ पिछले महीने पाकिस्तान में दसू आतंकवादी हमले (जिसमें नौ चीनी इंजीनियर मारे गए थे) पर बातचीत की। स्टेट काउंसिल की वेबसाइट पर छपी सिन्हुआ रिपोर्ट में कहा गया है, ‘वांग ने जांच को लेकर पाकिस्तान की ओर से की जा रही अहम पहल की सराहना की और उम्मीद जतायी कि पाकिस्तान अपराधियों को गिरफ़्तार करने की हर मुमकिन कोशिश करेगा और उन्हें कानून के अनुसार दंडित करेगा, ताकि दोनों देशों के लोगों को जवाब दिया जा सके और साथ ही चीन-पाकिस्तान की दोस्ती को कमज़ोर करने की कोशिश करने वाली ताक़तों को मज़बूती के साथ रोका जा सके।’ 

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वांग ने साफ़ तौर पर क़ुरैशी की ओर से 12 अगस्त को अफ़ग़ानिस्तान और भारत का ज़िक़्र करते हुए लगाये गये आरोपों की ओर इशारा किया। अब तक तालिबान ने अफ़ग़ान खुफिया एजेंसियों के रिकॉर्ड जब्त कर लिए होंगे। निश्चित रूप से यही बात इस क्षेत्रीय राजनीति का एक 'X' फ़क्टर बन जाता है। 

विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने बुधवार को कहा, “यह एक पारंपरिक अंतर्राष्ट्रीय चलन है कि सरकार की मान्यता उसके गठन के बाद ही दी जाती है। अफ़ग़ान मुद्दे पर चीन की स्थिति स्पष्ट और सुसंगत है। हम उम्मीद करते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान एक ऐसी खुली, समावेशी और व्यापक रूप से प्रतिनिधिक सरकार बना सकता है, जो उनके लोगों और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की व्यापक रूप से साझा आकांक्षाओं को प्रतिध्वनित करे।”

मंगलवार को चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग ने ज़ोर देकर कहा कि तालिबान आज पुराने ज़माने का तालिबान नहीं रह गया है। हुआ ने कहा,

“मैंने देखा कि कुछ लोग कह रहे हैं कि अफ़ग़ान तालिबान पर भरोसा नहीं करना चाहिए। मैं कहना चाहती हूं कि कुछ भी स्थायी नहीं होता। समस्याओं को समझते और उनका समाधान करते समय हमें एक समग्र, परस्पर और विकासात्मक द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। हमें अतीत और वर्तमान दोनों को देखना चाहिए। हमें न सिर्फ़ उनकी बातों को सुनना चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि वे क्या करते हैं। अगर हम समय के साथ तालमेल नहीं बिठाते, बल्कि निश्चित मानसिकता पर ही टिके रहते हैं और हालात के घटनाक्रम को नज़रअंदाज़ करते हैं, तो हम कभी भी उस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पायेंगे, जो वास्तविकता के अनुरूप है।” 

तालिबान को लेकर चीन की तरफ़ से जो टिप्पणियां आ रही हैं,उससे तो यही लगता है कि तालिबान और चीन एक दूसरे के साथ बेहद सहज हैं। ज़ाहिर है,बीजिंग पाकिस्तान के साथ और भी घनिष्ठ सहयोग और समन्वय चाहता है। चीन कभी भी काबुल की नयी सरकार को मान्यता दे सकता है।

एमके भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वह उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत थे। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Reflections on Events in Afghanistan — IV

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