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10 साल पुराने 'अंतरिम' आदेश से हो रहा सूचना आयोग का प्रबंधन, RTI एक्ट ख़तरे में

सूचना के अधिकार को ख़तरा सिर्फ़ सरकार से नहीं, बल्कि ख़ुद केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) के भीतर से भी है।
सूचना के अधिकार

सुप्रीम कोर्ट के एक दस साल पुराने आदेश जिससे केंद्रीय सूचना आयोग की प्रक्रियाओं का प्रबंधन होता है, उस आदेश पर टिप्पणी करते हुए लेखक हर वक़्त में कानून के राज को बनाए रखने की अहमियत बता रहे हैं। भले ही आपकी मंशा कितनी भी अच्छी हो, पर कानून द्वारा दी गई ताकतों के परे जाना एक ख़तरनाक रपटीला मोड़ है।

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पूर्व सूचना आयु्क्तों समेत कुछ कार्यकर्ताओं और विद्वानों ने सरकार द्वारा सूचना के अधिकार (RTI) को कमजोर करने पर चिंता जताई है। हालांकि सूचना के अधिकार को खतरा सिर्फ़ सरकार से नहीं, बल्कि केंद्रीय सूचना आयोग (CIC) के भीतर से भी है। 

''सूचना का अधिकार कानून, 2005'' के अंतर्गत CIC को एक अपीलीय संस्था के तौर पर सीधे जानकारी देने का अधिकार मिला है। आयोग उन अधिकारियों के खिलाफ़ सीधे कार्रवाई कर सकता है, जो जानबूझकर सूचना को छिपाते हैं। इस तरह एक अहम लोकतांत्रिक अधिकार के सुचारू क्रियानव्यन में CIC एक अहम भूमिका अदा करता है।

दिल्ली हाईकोर्ट ने 2009 में केंद्रीय सूचना आयोग के क्रियान्वयन को अवैधानिक घोषित कर दिया था। लेकिन इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया। यह अपने आपमें बेहद अजीब है कि एक ऐसा संस्थान जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए इतना अहम है, वह दस साल पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए एक अस्थायी रोक के आदेश पर चल रहा है और इस ऑर्डर पर तबसे कोई अंतिम सुनवाई नहीं हुई है। 

दस साल एक लंबा वक़्त होता है।

DDA(दिल्ली विकास प्राधिकरण) और CIC का विवाद

केंद्रीय सूचना आयुक्त द्वारा दिल्ली विकास प्राधिकरण के वाइस चेयरमैन को समन भेजे जाने के बाद दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश आया था। CIC ने यह आदेश RTI कानून के तहत दिया था, जिसके अंतर्गत CIC किसी सार्वजनिक अधिकारी को पेश होने के लिए कह सकता है। समन जारी होने के बावजूद जब संबंधित IAS अधिकारी CIC के सामने हाज़िर नहीं हुआ, तो CIC ने DDA के मामलों में जांच के आदेश दे दिए।

DDA ने इस आदेश को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने DDA का पक्ष सही माना और अपने परीक्षण में कहा कि आयोग, RTI कानून के मुताबिक़ काम नहीं कर रहा है।

अपने आदेश में टिप्पणी कते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि केंद्रीय सूचना आयोग पीठ-व्यवस्था (बेंच सिस्टम) का पालन कर रहा है, जहां आयोग का हर सदस्य अलग-अलग बैठता और फ़ैसला देता है। यह वैसा ही है, जैसा हाईकोर्ट में होता है। लेकिन RTI कानून, सूचना आयोग के सदस्यों को एक साथ बैठकर मामले पर फ़ैसला देने के लिए बाध्य करता है।

CIC ने इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की और हाईकोर्ट के आदेश पर एक अंतिरम रोक ले ली। इसके बाद हुई सुनवाईयों में सरकार ने कहा कि वे नियमों में फेरबदल कर रहे हैं, ताकि RTI कानून से इसका एका हो सके। इस हिसाब से जरूरी बदलाव करने के लिए सरकार को 8 हफ़्ते का वक़्त दिया गया।

लेकिन यह कई साल पहले की बात है। तबसे न तो कानून में कोई संशोधन हुए और न ही यह मामला सुनवाई के लिए आया।

पारदर्शिता और नियमित्ता हो रही हैं प्रभावित

कोर्ट के आदेश का केंद्रीय सूचना आयोग में पारदर्शिता और नियमित्ता पर सीधा असर पड़ा। जैसे सुप्रीम कोर्ट पर अकसर आरोप लगते रहे हैं, केंद्रीय सूचना आयोग में भी मनमुताबिक़़ पीठ से संबंधित आरोप लगाए गए। सूचना आयुक्तों का रोस्टर प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री से संबंधित आदेश के बाद बदल दिया गया। उस आदेश में दिल्ली विश्वविद्यालय को प्रधानमंत्री मोदी की डिग्री से संबंधित जानकारियों को सार्वजनिक करने को कहा गया था।

अगर दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दी गई व्याख्या को मान लिया जाए, तो इस तरह के विवाद के लिए कोई जगह ही नहीं बचेगी। बल्कि इससे और ज़्यादा पारदर्शिता आएगी और आयोग के भीतर एक लोकतांत्रिक ढांचा खड़ा होगा। सभी सूचना आयुक्त अपना मत रख सकेंगे और एक-दूसरे से बिना डर के असहमतियां भी जता सकेंगे।

यह स्थिति वैसी ही होगी, जैसी RTI कानून में अपेक्षा की गई है, जिसमें एक ऐसे संगठन की आकांक्षा है, जो हर क्षेत्र के विशेषज्ञों का लाभ ले सके। कानून की धारा 12 कहती है, ''आयुक्तों को सार्वजनिक क्षेत्र का एक अहम व्यक्ति होना चाहिए, जिसके पास बड़े स्तर पर कानून, विज्ञान, तकनीक, समाज सेवा, प्रबंधन, पत्रकारिता, मास मीडिया या प्रशासन और शासन का ज्ञान और अनुभव हो।'' बल्कि जब हर क्षेत्र से जुड़े बौद्धिक लोग सामूहिक तौर पर किसी सूचना के सार्वजनिक किए जाने के बारे में फैसला करेंगे, तो फ़ैसले में बेहतर गुणवत्ता आएगी।

इस तरह की सामूहिक बैठक से सूचना आयोग में विरोधाभासी और विवादित आदेशों की समस्या भी हल हो जाएगी। इस तरह एक सूचना आयुक्त किसी जानकारी को सार्वजनिक करने का आदेश दे सकेगा, वहीं दूसरा उसे खारिज़ कर सकेगा। सूचना आयोग की सामूहिक बैठक से किसी मामले में फ़ैसला कानून के मूल्यों पर आधारित होगा, ना कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि किसकी टेबल पर कौन सी फाइल पहुंचती है।

लोकतांत्रिक ताने-बाने की पवित्रता दांव पर 

एक अंतरिम आदेश पर दशक भर से जारी आयोग का प्रबंधन और उसके बाद सुनवाईयों का न होना, हमारे देश की हालत और यहां जारी 'कानून के राज' की पतली हालत को बयां करता है। कानून के राज की बुनियाद इस बात में है कि सभी संस्थानों कानून का पालन करें और अपने अधिकारों के पार जाकर किसी भी तरह का काम न करें। यह तब और भी अहम हो जाता है, जब मामला एक ऐसे संस्थान से जुड़ा हो, जो लोकतांत्रिक ताने-बाने को बरकरार रखने के लिए ज़िम्मेदार है।

कानून द्वारा दिए गए न्यायक्षेत्र के परे जाकर काम करने की प्रवृत्ति सीधे लोकतंत्र को ही खतरा पैदा करती है, यह मायने नहीं रखता कि संबंधित अधिकारी की मंशा कितनी अच्छी थी। अगर संस्थान द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया में कोई भटकाव आता है, तो उसकी वैधता के लिए विधायिका का आधार मिलना जरूरी है।

लेकिन 'कानून के राज' वाले नज़रिए से भी स्थिति में पेचीदगी बन सकती है। बिलकुल वैसे, जैसे अभी बनी हुई है। दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश एक वजनदार तर्क पर आधारित था, इसकी व्याख्या विस्तार से की गई थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने एक लाइन में अंतरिम रोक का आदेश दे दिया। तबसे आयोग का क्रियान्वयन कानून की ताकत से नहीं, न ही तार्किक पूर्व उदाहरणों से चल रहा है। बल्कि इसका प्रबंधन एक अंतरिम आदेश से हो रहा है, जो एक दशक पहले दिया गया था।

अगर आयोग या सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि RTI का सही से पालन करने के लिए पीठ-व्यवस्था ही सही है, तो भी कानून के राज की बुनियाद के लिए इसका तर्क जानना ज़रूरी है। यह तभी होगा, जब सुप्रीम कोर्ट इस पर कोई अंतिम आदेश देगा।

निपुण अरोरा दिल्ली में प्रैक्टिस करने वाली वकील हैं। अन्नया मेहन दिल्ली हाईकोर्ट में रिसर्चर हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस आलेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Right to Information Act Under Threat as Ten-Year Old ‘Interim’ Order Holds CIC Together

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