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महंगाई की मार सरकारी नीतियों के कोड़े से निकलती है

भारत सरकार अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन की उसी उक्ति पर चल रही है कि महंगाई एक ऐसा टैक्स है जिसे सरकार बिना किसी कानून के जरिए लगाती है।
महंगाई की मार सरकारी नीतियों के कोड़े से निकलती है

अर्थव्यवस्था का सामान्य सिद्धांत कहता है कि जब लोगों के हाथ में पैसा अधिक और उत्पादन कम होता है तब महंगाई बढ़ती है। आसान भाषा में समझा जाए तो यह कि जब एक अनार के सौ बीमार हों यानी एक सामान को खरीदने के लिए 100 लोगों के हाथ में ठीक-ठाक पैसा होता है तो दुकानदार कीमत बढ़ा देता है। यह अर्थव्यवस्था का सामान्य सिद्धांत है। इससे एक हद तक फायदा भी होता है तो अर्थव्यवस्था के जानकार यह भी कहते हैं कि थोड़ी बहुत महंगाई अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी होती है। इससे उत्पादन करने वाले कारोबारियों को अधिक कीमत मिलने की वजह से प्रोत्साहन मिलता है।

इसलिए आरबीआई ने सारा गुणा भाग लगाकर यह तय किया है कि भारत में महंगाई की दर 6 फ़ीसदी से अधिक नहीं जानी चाहिए। लेकिन जो हुआ है वह अर्थव्यवस्था के सामान्य सिद्धांत से बिल्कुल उलट है। इतना उलट कि अर्थव्यवस्था का सारा गणित फेल हो गया है। 

महंगाई तब भी छप्पर फाड़ कर बढ़ रही है जब माइनस 7.3 फ़ीसदी की दर से पिछले 40 सालों में पहली बार भारत की अर्थव्यवस्था उल्टे पांव चल रही है। आर्थिक गतिविधियों में तकरीबन 10 फ़ीसदी के आसपास का निवेश घटा है। आजादी के बाद से लेकर अब तक निवेश को लेकर इतनी बुरी स्थिति कभी नहीं हुई। मई 2021 में भारत में बेरोजगारी की दर 11.9 फ़ीसदी के आसपास हो गई। इतनी बड़ी बेरोजगारों की फौज भारत में आजादी के बाद से लेकर अब तक कभी नहीं देखी। आंकड़ों में देखा जाए तो तकरीबन 5 से 8 करोड़ लोग मौजूदा समय में बिना काम के जिंदगी जी रहे हैं।

यानी लोगों के हाथ में पैसा नहीं है। लोगों के पास रोजगार नहीं है। लोग पहले से अधिक गरीब हो रहे हैं। उत्पादन के सभी साधन रुके हुए हैं। पहले से मौजूद माल को खरीदने वाले बाजार में खरीददार नहीं है। लेकिन खाने-पीने की सारी चीजें महंगी हो गई हैं।

दाल अंडा फल तेल मसाला आलू प्याज टमाटर दूध सब महंगा हो चुका है। यानी आम आदमी की खाने पीने की सारी चीजें तकरीबन महंगी हो गई हैं।

तकनीकी भाषा में कहें तो सरकारी आंकड़ों के मुताबिक रिटेल महंगाई 6 महीने के सबसे ऊपरी स्तर पर पहुंच गई है। कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (CPI) आधारित रिटेल महंगाई दर मई में रिटेल महंगाई 6.3% रही। यह अप्रैल में 4.23% पर थी। कॉमर्स एंड इंडस्ट्री मिनिस्ट्री के मुताबिक थोक महंगाई दर मई में 12.94% पर पहुंच गई है। यह मई 2020 में -3.37% रही थी।

अब आप पूछेंगे आखिरकार यह अजूबा कैसे घट रहा है? ऐसी स्थिति में महंगाई कैसे बढ़ रही है? इसके पीछे बहुत से कारण होते हैं। लेकिन एक कारण जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता जिस पर अर्थव्यवस्था के सभी जानकारों से लेकर पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम तक सबकी सहमति है, उस कारण का नाम है, पेट्रोल-डीजल यानी ईंधन की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी होना।

पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ती हैं तो लोगों की बहस का हिस्सा महज पेट्रोल और डीजल की महंगाई ही होती है। लोग अर्थव्यवस्था की चक्रीय गति को नहीं भांप पाते हैं। नहीं समझ पाते हैं कि जब वह अपनी मोटरसाइकिल के लिए 100 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल का भुगतान कर रहे होते हैं तो इसका असर उन सभी सामानों और सेवाओं पर पड़ता है, जिन सामानों और सेवाओं से पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस जुड़े हुए हैं। यही हो रहा है। आंकड़े यही बताते हैं। इंधन के क्षेत्र में महंगाई दर 37.6 फ़ीसदी के आसपास है।

ट्रांसपोर्टेशन और कम्युनिकेशन के क्षेत्र में महंगाई दर 12 फ़ीसदी से भी अधिक बढ़ी है। इसका मिलाजुला असर यह पड़ा है कि विनिर्माण क्षेत्र में महंगाई दर 11 फ़ीसदी के आसपास बढ़ी है।

बस के किराया से लेकर दूध फल सब्जी सब पर इसका असर पड़ा है। परिवहन का खर्च बढ़ने की वजह से हर तरह के उद्योग धंधे के उत्पादन लागत में बढ़ोतरी हुई है। यानी यह समय डिमांड पुल इन्फ्लेशन का नहीं है। जिसके बारे में अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना होता है कि इससे अर्थव्यवस्था के फायदेमंद होती है। बल्कि यह समय कॉस्ट पुल इन्फ्लेशन का है। जो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अधिक खराब होता है।

साधारण शब्दों में समझा जाए तो यह कि अर्थव्यवस्था मंदी से गुजर रही है। लोगों की अच्छी कमाई नहीं हो रही है। लोगों की क्रय शक्ति कमजोर हुई है। लोगों के बीच मांग नहीं है। लेकिन फिर भी महंगाई बढ़ रही है। यह महंगाई सामानों और सेवाओं की लागत बढ़ने की वजह से बढ़ रही है। इसलिए इसे कॉस्ट पुल इन्फ्लेशन कहा जाता है।

इस महंगाई पर अर्थव्यवस्था के सिद्धांतकारों का मानना है कि यह महंगाई सामान और सेवाओं के लागत बढ़ने की वजह से होती है। इस लागत के बढ़ने का मतलब यह नहीं होता की उत्पादन में लगे मजदूरों को अच्छी मजदूरी मिल रही है। लागत इसलिए बढ़ी है क्योंकि दूसरी वजह लागत बढ़ने के लिए जिम्मेदार होते हैं। जैसे सरकार का पेट्रोल और डीजल पर टैक्स बढ़ा देना। जिनकी भूमिका अधिकतर उद्योग धंधे में परिवहन की वजह से हमेशा रहती है।

इस महंगाई से अमीर मालिक और अधिक अमीर होते चले जाते हैं। और गरीब उपभोक्ता और अधिक गरीब। इस पूरी प्रक्रिया के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार सरकार की नीतियां होती हैं।

बीते एक साल में महंगाई के कारण आय और खर्च की क्षमता घटने से बरस में देश की 97 फीसदी आबादी ‘गरीब’ हो गई है (सीएमआईई)। गरीबी का मतलब पूरी तरह से बर्बाद हो जाना नहीं होता है बल्कि गरीबी रिलेटिव टर्म यानी तुलनात्मक तौर पर मापी जाती है। कहने का मतलब यह है कि भारत में तकरीबन 97 फ़ीसदी लोगों की आय पहले से कम हुई है। जो आय के जिस स्तर पर है, उसकी गरीबी उतनी ही मारक है। 

मंदी, बेरोजगारी और मांग की घनघोर कमी के बावजूद भारत सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर लगातार टैक्स बढ़ाया है। टैक्स की इस बढ़ोतरी की वजह से ही पेट्रोल 100 रुपये प्रति लीटर की दर तक पहुंच गया। इस पर कोई कमी नहीं की गई। पेट्रोल को भी वस्तु एवं सेवा कर के अंदर लाने की बात वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम में की गई है। लेकिन पेट्रोल पर लगने वाले उत्पाद शुल्क के जरिए जितनी राशि भारत सरकार को मिल रही है, भारत सरकार उसे ऐसे ही छोड़ दे, ऐसा सोचना पचता नहीं है

यानी भारत सरकार अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन की उसी उक्ति पर चल रही है कि महंगाई एक ऐसा टैक्स है जिसे सरकार बिना किसी कानून के जरिए लगाती है।

भारत सरकार इस सिद्धांत को नियम की तरह अपना रही है। टैक्स लगा रही है, पेट्रोल डीजल और ईंधन की कीमत बढ़ रही हैं। इनकी कीमत बढ़ने से उद्योग धंधों की लागत बढ़ रही है। लागत बढ़ने की वजह से कीमत बढ़ रही हैं। और कीमत के बढ़ने का मतलब है कि आम लोगों के लिए महंगाई की मार बढ़ रही है। इसलिए लागत वाली महंगाई, महंगाई के कुनबे में सबसे बुरी महंगाई के तौर पर जानी जाती है।

जब लागत बढ़ रही है तो जाहिर है कि वस्तुओं और सामानों की कीमतें भी बढ़ेंगी। जब कीमतें बढ़ेंगी तो जाहिर है जीएसटी के अंदर इनसे ज्यादा कर भी वसूला जाएगा। इस तरह से ऐसी महंगाई से सरकार के पास पैसा पहुंचता है और जनता पर बोझ बढ़ता है।

ऐसे हालात में जब उत्पादन और सेवाओं के लागत बढ़ने की वजह से महंगाई बढ़ती है तो इससे अर्थव्यवस्था में एक तरह का कुचक्र पैदा होता है। सरकार तो टैक्स बढ़ाती है लेकिन टैक्स का भुगतान आम लोगों को करना पड़ता है। बीच में मौजूद कंपनियां इस पर कुछ भी नहीं कहती हैं। कीमतों के आम लोगों के जरिए भरपाई होने के चलते उद्योग धंधे और कंपनियों को बढ़ी हुई कीमतों का नुकसान कम झेलना पड़ता है। बल्कि इसी समय मुनाफाखोरी भी बढ़ती है। कंपनियों की भी कमाई बढ़ती है। 

यानी वही स्थिति हमेशा बन रहती है जो महंगाई के कुचक्र के लिए जिम्मेदार है। आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार,बैंक का बढ़ता एनपीए, शेयर बाजार में बनता बबल इन सबसे बाजार में पैसे की मौजूदगी तो खूब रहती है। लेकिन इसके पीछे उत्पादन जैसा कोई कारण नहीं होता। लोगों को रोजगार नहीं मिलता। वेतन और मजदूरी में इजाफा नहीं होता। यानी महंगाई हमेशा बनी रहती है।

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