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'जेंडर स्टीरियोटाइप' के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट की पहल, सरकार-समाज का नज़रिया बदलेगा?

चीफ़ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा जारी 'हैंडबुक ऑन कॉम्बैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स' का मक़सद लैंगिक संवेदनशीलता सुनिश्चित कर, ऐसे शब्दों पर रोक लगाना है, जिनसे भेदभाव वाले व्यवहार को वैधता मिलती है।
Supreme Court
फ़ोटो साभार: PTI

"हमें यह सुनिश्चित करने की ज़रूरत है कि महिलाओं के लिए सेक्शुअल हैरेसमेंट को लेकर ज़ीरो टॉलरेंस हो। उनकी मौजूदगी में भी उनके लिए गलत भाषा के इस्तेमाल और भद्दे जोक सुनाने जैसी चीज़ें भी खत्म होनी चाहिए।"

ये बातें करीब पांंच महीने पहले चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर एक इवेंट के दौरान कही थी। यहीं पर उन्होंने पहली बार कोर्ट की भाषा, दलीलों और फ़ैसलों में महिलाओं के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले अनुचित शब्दों की शब्दावली जारी करने की घोषणा भी थी। तब उन्होंने उम्मीद जताई थी कि यह डिक्शनरी इस बात पर भी रोशनी डालेगी कि न केवल समाज बल्कि कानूनी पेशे में कामकाज की भाषा में भी महिलाओं के साथ क्यों और कैसे भेदभाव किया जाता है।

अपनी इसी कमिटमेंट को आगे बढ़ाते हुए बीते बुधवार, 16 अगस्त को भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने 'हैंडबुक ऑन कॉम्बैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स' जारी की। इस कदम का मकसद अदालत में सुनवाई के दौरान ऐसे शब्दों के इस्तेमाल पर रोक लगाना है, जो सालों से इस्तेमाल होते आ रहे हैं और ये स्टीरियोटाइप्ड कहलाते हैं। इन टर्मों के इस्तेमाल से भेदभाव वाले व्यवहार को वैधता मिलती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट का मकसद इन टर्मों को बदल कर लैंगिक संवेदनशीलता सुनिश्चित करना है। ऐसे में पितृसत्ता और मनुवादी सोच के ख़िलाफ़ लैंगिक पूर्वागहों को चुनौती देती ये कानूनी हैंडबुक एक बड़े बदलाव की छोटी शुरुआत ज़रूर कही जा सकती है।

क्या है स्टीरियोटाइप?

सबसे पहले बात करते हैं स्टीरियोटाइप की, तो शीर्ष अदालत ने इस हैंडबुक में ये भी बताया है कि स्टीरियोटाइपिंग क्या होती है और लैंगिक असमानता को लाने में ये कैसे अहम भूमिका निभाती है। 'जेंडर' और 'सेक्स' में क्या फर्क होता है और स्टीरियोटाइप और पितृसत्ता का मुकाबला करने में कानून की क्या भूमिका है। इसे बदलते हुए किन शब्दों के इस्तेमाल की ज़रूरत है। इन शब्दों का इस्तेमाल जजों और वकीलों को अदालतों के फ़ैसलों, दलीलों, बहसों के दौरान करना होगा।

सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड इस हैंडबुक में स्टीरियोटाइप की शब्दावली ही नहीं बल्कि स्टीरियोटाइप बनाने वाली मान्यताओं पर भी चर्चा की गई है। जैसे एक स्टीरियोटाइप यह है कि "महिलाएं अति भावुक और तर्कहीन होती हैं और फ़ैसले नहीं ले सकती हैं।" जबकि असलियत ये है कि कोई भी व्यक्ति तर्कसंगत तरीके से सोच सकता है, इसका फैसला उसके लिंग से नहीं होता है।

इसी तरह से एक स्टीरियोटाइपिंग ये है कि "कोई औरत ऐसा कपड़े पहने, जिसे पारंपरिक नहीं माना जाता है, तो वो मर्द के साथ शारीरिक संबंध बनाना चाहती है। ऐसे में अगर कोई मर्द औरत की मर्ज़ी के बगैर उसे छूता है तो इसके लिए औरत ज़िम्मेदार है।" इस स्टीरियोटाइपिंग की हक़ीक़त में लिखा है, "किसी औरत का लिबास ये नहीं बताता है कि वो किसी को शारीरिक संबंध बनाने के लिए इशारा कर रही है। औरतें इतनी सक्षम हैं कि वो इस बात को कह सकें। बिना मर्ज़ी के औरत को छूने वाले मर्द ये नहीं कह सकते कि "ख़ास तरह के कपड़े पहनकर औरत ने ऐसा करने के लिए उकसाया।"

एक और उदाहरण देते हुए कहा गया है कि "ये कहना स्टीरियोटाइपिंग है कि एक पुरुष सेक्स वर्कर का रेप नहीं कर सकता क्योंकि ये संभव नहीं है कि एक पुरुष सेक्स वर्कर का रेप करे।" इसके अलावा इस किताब में ऐसे शब्दों और वाक्यांशों की एक लंबी सूची दी गई जो लैंगिक स्टीरियोटाइप बनाते हैं। साथ ही इनके विकल्प भी सुझाए गए हैं।

मिसाल के तौर पर, 'पवित्र महिला' की जगह सिर्फ 'महिला', 'अच्छी पत्नी' और 'आज्ञाकारी पत्नी' की जगह सिर्फ 'पत्नी', 'वेश्या' की जगह 'यौन कर्मी', 'हाउसवाइफ' की जगह 'होममेकर', 'भड़काऊ कपड़ों' की जगह सिर्फ 'कपड़ों', 'सेक्स चेंज' की जगह 'सेक्स रिअसाइनमेंट या जेंडर ट्रांजिशन' जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए कहा गया है। साथ ही 'अविवाहित मां' की जगह सिर्फ 'मां', 'ढीले चरित्र वाली महिला' की जगह सिर्फ 'महिला', 'हार्मोनल' की जगह किसी विशिष्ट भाव को चिन्हित करने वाले शब्दों, यौन हिंसा के मामलों में 'पीड़ित' या 'सर्वाइवर' में से जो भी शब्द संबंधित व्यक्ति चुने उस शब्द आदि का इस्तेमाल करने के लिए कहा गया है।

प्रस्तावना में क़ानून की व्याख्या और समाज की धारणा का ज़िक्र

इस किताब की प्रस्तावना में सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ ने लिखा है, "शब्द वो ज़रिया हैं, जिसके सहारे क़ानून के मूल्यों का संचार किया जाता है। ये शब्द ही होते हैं जो क़ानून निर्माता या न्यायाधीश के इरादे देश तक पहुंचाते हैं। एक न्यायाधीश जिस भाषा का इस्तेमाल करता है वो न सिर्फ़ क़ानून की व्याख्या को दिखाता है बल्कि समाज को लेकर उनकी धारणा को भी बयां करता है।"

हैंडबुक के लॉन्च के वक़्त सीजेआई चंद्रचूड़ ने ये भी कहा कि "इसका मकसद किसी फ़ैसले पर संदेह करना या आलोचना करना नहीं है बल्कि स्टीरियोटाइपिंग, ख़ासकर औरतों को लेकर इस्तेमाल होने वाले शब्दों को लेकर जागरूकता फैलाना है। लीगल कम्युनिटी और जजों के सहयोग के लिए इसे बनाया गया है ताकि क़ानून के विषयों में महिलाओं को लेकर स्टीरियोटाइप को ख़त्म किया जा सके। ये हैंडबुक जजों और वकीलों के लिए है।"

ध्यान रहे कि न्यायिक प्रक्रिया में अक्सर पीड़िता को बार-बार मानसिक अवसाद से गुज़रते देखा गया है। जज, वकीलों की भाषा पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के चलते वे कई बार विक्टिम शेमिंग के मामले भी सुर्खियां बनते हैं। वो एक महिला को एक अच्छी पत्नी, अच्छी मां के स्टीरियोटाइप के आधार पर जज करना शरू कर देते हैं। साथ ही पितृसत्ता के तय मानकों में महिला का 'कैरेक्टर एसेसिनेशन' तक किया जाता है। जैसे लड़कियों का मार्डन या छोटे कपड़े पहनना, लड़कों के साथ हंसी मज़ाक करना, रात को देर रात पार्टी करना या किसी से भी आसानी से घुल-मिल जाने को एक सकारात्मक साइन के तौर पर अदालत में पेश किया जाता है।

एक सेक्स वर्कर को वर्कर की बजाय अपमानजनक निगाहों से देखना, उनके मुद्दों को तवज्जो न देना। पत्नी को गुड और बैड वाइफ की डैफिनेशन में तौलना, मां को उसके लाइफस्टाइल से जज करना जैसे तमाम उदाहरण है। इस हैंडबुक में जो शब्द इस्तेमाल किए गए हैं वे व्यक्ति विशेष की गरिमा के अनुरूप हैं और केस के दौरान बार-बार इन शब्दों का संबोधन महिलाओं की परिस्थितियों को समझने में मदद करेगा। जैसे प्रॉस्टिट्यूट को सेक्स वर्कर कहा जाएगा तब एक वर्कर से संबंधित मुद्दे जैसे आय, स्वास्थ्य आदि पर भी बात की जाएगी। इसी तरह प्रोवोकेटिव क्लोथिंग/ड्रेस को सिर्फ़ ड्रेस से बदला गया है, सिर्फ़ प्रोवोकेटिव शब्द हटने भर से ये सोच लोगों में जाएगी कि महिलाएं कैसे भी कपड़े पहनें वह किसी को उनके साथ क्राइम करने की मंज़ूरी नहीं दे रही हैं।

गौरतलब है कि भाषा और शब्द हमारे समाज और जीवन का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। इससे हमारे भीतर एक समझ और नज़रिये का विकास होता है इसलिए कानून से लेकर निजी ज़िंदगी में भाषा का गरिमापूर्ण होना और लैंगिक रूप से संवेदनशील होना बहुत ज़रूरी है। ऐसा न होने पर जेंडर आधारित मौखिक हिंसा और गैरबराबरी की खाई बढ़ने लगती है। महिलाओं के लिए गलत व्यवहार, सेक्सिस्ट भाषा और भद्दे चुटकुलों के लिए ज़ीरो टॉलरेंस सुनिश्चित करने की शुरुआत देश की सबसे बड़ी अदालत ने कर दी है, अब बारी समाज और सरकार की है, इसे आगे बढ़कर अपनाने और क्रियांवयन में लाने की। तभी लैंगिक रूढ़िवादिता की खाई को जल्द से जल्द पाटा जा सकता है।

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