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SPECIAL REPORT: बनारस के लोकप्रिय उपन्यासकार कुशवाहा कांत की 70 बरस पुरानी ‘मर्डर मिस्ट्री’ सुलझाने के लिए उठने लगी मांग!

कुशवाहा कांत बनारस के ऐसे उपन्यासकार थे, जिनके बग़ावती तेवर और लेखनी की रुमानियत को आज भी याद किया जाता है। इनकी यादें अब एक जर्जर और तंगहाल इमारत में कैद होकर रह गई हैं।
Kushwaha

उत्तर भारत में साहित्य के अमर शिल्पी और हिन्दी के प्रसिद्ध लेखकों में से एक कुशवाहा कांत के मौत की मिस्ट्री 70 साल बाद भी नहीं सुलझ पाई है। ये बनारस के ऐसे उपन्यासकार थे, जिनके बगावती तेवर और लेखनी की रुमानियत को आज भी याद किया जाता है। इनकी यादें अब एक जर्जर और तंगहाल इमारत में कैद होकर रह गई हैं। यह इमारत आज भी कबीरचौरा के जालपा रोड से गुजरने वाले हर बनारसी से सवाल पूछा करती है कि इस कालजयी रचनाकार का आखिर गुनाह क्या था?

अब तक इस बात का पता नहीं चल पाया है कि उनका कत्ल क्यों किया गया और हत्यारे कौन थे? दशकों गुजर जाने के बावजूद इनके कातिलों का राजफाश क्यों नहीं हो सका? अपराध पर लगाम कसने और अपराधियों को पकड़ने वाली गुप्तचर एजेंसियां क्यों घनचक्कर बनाकर रह गईं?

आजाद भारत के इतिहास में मशहूर उपन्यासकार कुशवाहा कांत की ‘मर्डर मिस्ट्री’ पहली घटना है, जिसमें बनारस पुलिस आज तक पर्याप्त सुबूत नहीं जुटा पाई है। इनके कत्ल की गुत्थी उलझी हुई है। दशकों से पहेली बना एक राज़ आज भी रहस्य की घाटी में दफ़्न है।

कुशवाहा कांत के भतीजे और देश के चर्चित उपन्यासकार रहे सजल कुशवाहा कहते हैं, "कुशवाहा कांत की हत्या अपने दौर की सबसे बड़ी सनसनीखेज घटना थी।

बनारस को याद है कि 29 फरवरी 1952 को रुमानियत के इस सर्जनकर्ता के जीवन में रुमानियत काली निशा बनकर आई। होली का त्योहार करीब था। किसी ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया। कुशवाहा कांत जगतगंज के करीब रामकटोरा स्थित रामकुंड के पास पहुंचे, तभी उनके बदन में ताबड़तोड़ कई चाकू घोंपे गए। रामकुंड खून से लाल हो गया। किसी ने उन्हें पहचाना और खून से लथपथ कुशवाहा कांत को रिक्शे पर लादकर कबीरचौर अस्पताल भेजा।"

"सरकारी अस्पताल के डाक्टर लाख प्रयास के बावजूद उनकी सांसों की डोर नहीं थाम पाए। उनके ऊपर छुरे से अनगिनत वार किया गया थे, जिसकी असह्य पीड़ा के बीच ठीक होली के दिन उनके प्राण पखेरू हो गए। साहित्य के महाध्रुवतारा की मौत की वेदना से हमारा परिवार बिलख रहा था और बनारस शहर होली के हुड़दंग के बीच फाग खेल रहा था। हमने होश संभाला तो कुशवाहा कांत के मौत की मिस्ट्री को सुलझाने के लिए थाना पुलिस के अनगिनत चक्कर लगाए। मगर अफसोस, पुलिस अफसरों ने कालजयी रचनाकार की मौत से पर्दा उठाने की जरूरत ही नहीं समझी। खुफिया एजेंसियों ने जांच-पड़ताल की रस्मअदायगी की, लेकिन कुशवाहा कांत की मर्डर मिस्ट्री की गांठ नहीं नहीं खुल पाई। दशकों पुराना वो सस्पेंस आज भी सस्पेंस हैं।"

बनारस के चर्चित उपन्यासकार सजल कुशवाहा

ख़तरनाक साज़िश के शिकार हो गए कांत

 उपन्यासकार सजल दावा करते हैं, "साहित्यक विद्वेष के चलते कुशवाहा कांत का कत्ल किया गया, क्योंकि अपने दौर में बनारस के रचनाकारों में वह सर्वाधिक लोकप्रिय थे। बनारस की चौक कोतवाली की फाइलों में कुशवाहा कांत के मौत के ढेर सारे राज दफन हैं। पुलिस चाहे तो नई विकसित तकनीक के साथ पुराने राज को खोल सकती है, लेकिन रहस्य की गांठ खोलने की कुव्वत भला किसमें है? उम्मीद की जा सकती है तो सिर्फ सीबीआई से, जिसने देश में ऐसी अनगिनत मर्डर मिस्ट्री की अनसुलझी पहेलियों को सुलझाया है। अपराध किसने किया, यह राज जानने की दिलचस्पी हर उस पाठक में है जो कुशवाहा कांत की कालजयी रचनाओं के फैन हुआ करते थे।"

सजल कुशवाहा बताते हैं, "बनारस के साहित्य जगत में भारतेन्दु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद और रामचंद्र शुक्ल के बाद अगर किसी रचनाकार ने सर्वाधिक लोकप्रियता अर्जित की तो वो कुशवाहा कांत थे। उनके क्रांतिकारी और जासूसी उपन्यासों में भी गजब की रुमानियत थी। साल 1940 से 1950 के बीच उत्तर भारत में कुशवाहा कांत के उपन्यासों ने धूम मचा रखी थी। इनके उपन्यासों को पढ़ने के लिए युवा पीढ़ी में जो बेसब्री और तड़प दिखती थी, उसी के दम पर वो रुमानी साहित्य के ब्रांड एंबेस्डर बन गए थे। फकत पच्चीस साल की उम्र में वह हिंदी उपन्यासों के ऐसे सितारे बन गए थे जिनकी किताबें खरीदने के लिए चिनगारी प्रकाशन के सामने लगने वाली भीड़ को पुलिस नियंत्रित किया करती थी। उनके उपन्यास अपने दौर के बेस्टसेलर हुआ करते थे। स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी पात्रों पर बुने गए इनके चर्चित उपन्यास 'लाल रेखा'  को पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में गैर-हिन्दी भाषियों ने हिन्दी सीखी थी। 'लालरेखा'  की लोकप्रियता आज तक अक्षुण्ण है।"

कुशवाहा कांत की जिंदगी से रहस्य का पर्दा उठाते हुए सजल बताते हैं, " कुशवाहा कांत कुछ सालों के लिए एयरफोर्स में भर्ती हुए, लेकिन अंग्रेजों हुक्मरानों की गुलामी उन्हें रास नहीं आई। देशप्रेम की रोशनाई वो फौज से लेकर लौटे तो उन्होंने देशभक्ति पर आधारित पहला चर्चित उपन्यास लिखा-लालरेखा। अंग्रेजी हुकूमत ने उनके इस उपन्यास की बिक्री रोकवा दी। हालांकि आजादी के बाद उनकी यही कृति बेस्ट सेलर बनी। जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद कुशवाहा कांत अपनी रचनाओं से आजादी के जांबाजों में जोश भरते और लोगों को जागृत करते रहे।"

सजल के मुताबिक, "कुशवाहा कांत के उपन्यास पर अपने दौर की चर्चित फिल्म ‘परदेशी’ बनी। इस फिल्म के निर्माता थे कुंदन कुमार और अदाकारा मुमताज थीं। बेहतरीन कहानी और विश्वजीत व सुजीत कुमार के उम्दा अभिनय ने इस फिल्म को बाक्स आफिस पर हिट कराया। लेखन और कल्पनाशीलता बचपन से ही इनके व्यक्तित्व में शामिल थी। कुशवाहा कांत जब नवीं कक्षा में पढ़ रहे थे, तभी उन्होंने ‘खून का प्यासा’ नामक जासूसी उपन्यास लिखकर समूचे उत्तर भारत में तहलका मचा दिया था। उनकी पापुलर्टी भुनाने के लिए उनके नाम से कई नकली उपन्यास भी छापे गए। ये उपन्यास थे आहट, काजल, कलंक, कटे पंख और उपासना। छद्म लेखक वो जादू नहीं दिखा सके जो सिर्फ कुशवाहा कांत दिखाया करते थे।"

चिनगारी प्रकाशन के छापाखाने में सजल कुशवाहा

गर्दिश में है उपन्यासकार का कुनबा

कुशवाहा कांत के भतीजे 74 वर्षीय सजल कुशवाहा के ज्येष्ठ पुत्र गौरव कुशवाहा आज भी बनारस के जालपा रोड पर चिनगारी प्रेस चलाया करते हैं, जिसकी नींव उनके दादा जयंत कुशवाहा ने रखी थी। इसी प्रेस में चिनगारी प्रकाशन चलता था और भारत पाकेट बुक्स भी। यहां कुशवाहा कांत और उनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा के उपन्यास छपा करते थे। किसी जमाने में सबसे चर्चित, मगर अब बेहद गुमनाम सी इमारत के दो कमरों में आज भी चिनगारी प्रेस का छापाखाना है। किताबें छापने के लिए पहले इनके पास चार आफसेट मशीनें थी, लेकिन महामारी के दौर में उपन्यासकार सजल कुशवाहा को अपनी दो मशीनें बेचनी पड़ीं, क्योंकि परिवार का पेट भरने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था।

बेहद तंगहाली के बावजूद उपन्यासकार सजल कुशवाहा ने किसी के सामने अपना दुखड़ा नहीं रोया। अलबत्ता अपने छापाखाने की वो दो मशीनें बेच दी, जिनपर उनके 22 उपन्यास-तीसरा किनारा, खामोश नजर, प्यार मुस्कुरा उठा, लौटते कदम, फिर सुबह होगी, मेरे देवता, रेत का महल, मझधार का प्यार, नया सबेरा, प्यार का सागर, बेवफा, आखिरी रास्ता, बदले की आग, गुमराह, दुश्मन, पांच साल बाद, आखिरी चीख, जिन्दा-मुर्दा, दिमाग की हत्या, बेरिया की तलाश, कत्ल दर कत्ल और मरी हुई औरत छापे गए थे। चिनगारी प्रकाशन के पास फिलहाल सिर्फ दो मशीनें बची हैं।

चिनगारी प्रकाशन की आफसेट मशीनें जिन कमरों में लगी हैं, वो जीर्ण हाल में हैं। टाट में पैबंद की तरह दरकते पिलरों पर सीमेंट-बालू पोतकर इमारत को जिंदा करने की कोशिश की गई है। छापाखाने के अगले हिस्से में एक छोटा सा कमरा है, जिसमें एक चौकी और कुछ पुराने सोफे हैं। बस इसी में सिमट सी गई है उपन्यासकार सजल कुशवाहा की जिंदगी। चिनगारी प्रकाशन का काम अब सजल के पुत्र गौरव कुमार देखते हैं। वह कहते हैं, "हमारे खानदान ने जातीय विद्वेष का दंश बहुत झेला है। जमाने ने हमारे खानदान को इनका ज्यादा दर्द दिया कि पिता ने हमारा और हमारे भाई विकास चंद्र के नाम के आगे से ‘कुशवाहा’ सरनेम हमेशा के लिए हटा दिया।"

गौरव कुमार बताते हैं, "हमारे पिता सजल कुशवाहा बुरी तरह टूट गए हैं। उन्होंने अपने उपन्यासों को बोरियों में भरकर गोदाम में रखवा दिया है। हमारी बुआ पूनम सिंह कुशवाहा को छोड़कर कोई ऐसा नहीं है, जो अब कलम उठाने की हिम्मत जुटा सके। पूनम बुआ सिर्फ इसलिए किताबें लिख पा रही हैं, क्योंकि फूफा एके सिंह ने उन्हें बहुत प्रोत्साहन दिया। वह केंद्रीय पुलिस बल में डीजीपी थे और अब रिटायर हो चुके हैं। पूनम सिंह कुशवाहा की तीन चर्चित पुस्तकें हैं, जिनमें एक उपन्यास और दो कहानी संग्रह-अनुतप्त, प्रत्यागमन और तृपिता हैं। हंस प्रकाशन ने इनकी पुस्तकों को छापा है। चंदौली जिले के भटरौल गांव में पूनम सिंह कुशवाहा की ससुराल है और उनका रिश्ते की डोर आज भी गांव से बंधी हुई है।"

गुजरे जमाने में कुशवाहा कांत के कुनबे ने भले ही लाखों-करोड़ों पाठकों के दिलों पर राज किया हो, लेकिन अब वो गुमनाम के अंधेरे में खो गए हैं। जाने-माने उपन्यासकार सजल कुशवाहा भी अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गए हैं। वह कहते हैं, "मुश्किलें हमेशा हमारा पीछा करती रही हैं। हमारे उपन्यास “लौटते कदम” पर सीरियल बनने का एग्रीमेंट हुआ, लेकिन दुर्योग से निर्माता की मौत हो गई। मुंबई के और भी कई निर्माता आए। सभी ने हमारे उपन्यासों पर फिल्में बनाने की पेशकश की। मुंबई बुलाया। कुछ ने टिकट भी भेजे, लेकिन बनारस का मोह नहीं छोड़ सका। परिवार के जिन लोगों ने बनारस और मिर्जापुर छोड़ा, सबने खूब दौलत कमाई। हमारे छोटे भाई अचल कुशवाहा परिवार के साथ अमेरिका के न्यूजर्सी में रहते हैं। हमारी दो अन्य बहनें शशि कुशवाहा और रेखा मौर्य भी अमेरिका में बस गई हैं। भतीजे आलोक कुशवाहा मिर्जापुर रह गए। पैतृक आवास महुवरिया में उनकी खाद-बीज की दुकान है।"

मिर्जापुर के पत्रकार बलवंत कुशवाहा कहते हैं, "नगर पालिका परिषद ने सालों बाद कुशवाहा कांत को पहचान दी है। नवनिर्मित प्रेक्षागृह को उनका नाम दिया गया है। कुशवाहा कांत की यादों को संजोने के लिए कुछ साल पहले बिहार के एक गांव में स्वजातीय युवकों ने एक गेट बनवाया, लेकिन जातीय विद्वेष के चलते सवर्णों ने उसे जमींदोज कर दिया।"


33 साल की उम्र में लिखे 35 उपन्यास

चर्चित उपन्यासकार कुशवाहा कांत  50 से लेकर 80 के दशक तक हिन्दी साहित्य के सबसे ज़्यादा बिकने वाले लेखक रहे। हिन्दी साहित्यकारों के बीच वह भले ही उपेक्षित और अछूत बने रहे, मगर उस दौर की युवा पीढ़ी के लिए कुशवाहा कांत एक आदर्श लेखक का नाम हुआ करता था। दरअसल वह विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। तभी तो उन्होंने लालरेखा के अलावा पपिहरा, परदेशी, पराया, पारस, जंजीर, मदभरे नयना, पराजिता, विद्रोही सुभाष, लाल किले की ओर जैसे कालजयी उपन्यास लिखे। इसके अलावा पराया, जंजीर, उड़ते-उड़ते, नागिन, जवानी के दिन, हमारी गलियां, उसके साजन, गोल निशान, काला भूत, रक्त मंदिर, खून का प्यासा, दानव देश, कैसे कहूं, नीलम, अकेला, पागल, बसेरा, आहुति, कुमकुम, मंजिल, निर्मोही, जलन, चूड़ियां, भंवरा, इशारा, लवंग और अपना-पराया जैसे 35 चर्चित उपन्यासों की रचना की। इनके उपन्यासों में जहां श्रृंगार रस का अनूठा समन्वय है, वहीं क्रांतिकारी लेखनी और जासूसी कृतियों का कोई जवाब ही नहीं है। वो कई विधाओं में पारंगत थे। इनकी कृतियों को आज भी जो पढ़ लेता है, वो उसमें खो जाता है। उनका अंतिम उपन्यास है ‘जंजीर’। इनके निधन के बाद ‘जंजीर’ को इनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा ने पूरा किया। नीलम उपन्यास का दूसरा भाग सरोज नाम से कुशवाहा कांत की पत्नी गीता रानी कुशवाहा ने लिखा।

आजादी के बाद बनारस हिंदी साहित्य प्रकाशन का बड़ा केंद्र बनने लगा था। इसी दौर में कुशवाहा कांत के उपन्यासों की धूम मची थी। इन्होंने तीन पत्रिकाओं का संपादन भी किया जो चिनगारी, नागिन और बिजली नाम से थीं। शुरू में कुशवाहा कांत की कृतियां 'कुँवर कान्ता प्रसाद' के नाम से प्रकाशित होती थीं। बाद में उन्होंने अपना नाम कुशवाहा कांत रख लिया। युवा अवस्था में वो रजत पट के किसी अभिनेता के माफिक खूबसूरत थे। इसलिए भी उनके चाहने वालों फेहरिश्त बहुत लंबी थी।  कांत फरेबी नहीं, सीधे-सच्चे और नेक दिलन इनसान थे। लिखना-पढ़ना उनका जुनून था। लगातार बढ़ती ख्याति के चलते इनके तमाम दोस्त जलनखोर बन गए। तीक्ष्ण बुद्धि के कुशवाहा कांत लोकप्रियता के उच्च शिखर पर चल रहे थे कि अचनाक सब कुछ बिखर गया। हिंदी जगत का ये धूमकेतु महज 33 साल की उम्र में हिन्दी जगत का यह महान लेखक देश के लाखों पाठकों को उदास कर गया।

कुशवाहा कांत की मौत के बाद भी करीब तीन दशक तक इनके उपन्यासों की धूम रही। उनकी लोकप्रियता का हर कोई दीवाना था। इनके उपन्यासों का जादू है ही कुछ ऐसा। ऐसा जादू जो खामोशी से पाठकों के दिल में उतरता है और पहले पन्ने से लेकर आखिर तक पढ़ने का भाव जगा देता है। युवा अवस्था में ही वो वाराणसी के लोकप्रिय सख्शियत में शुमार हो गए थे। बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, " बनारस के साहित्यकार जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद और रामचन्द्र शुक्ल के बाद साहित्यिक मशाल को इस चिर युवा साहित्यकार ने जलाया। उनकी सरल और सशक्त लेखनी ने हिन्दी उपन्यास जगत में हलचल मचा दी थी। हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषा पर उनका एक समान दखल था। सिर्फ करीब आठ सालों में कुशवाहा कांत ने कहानी, नाटक और व्यंग्य शैली में कई उपन्यासों, दर्जनों नाटकों और कविताओं की पुस्तकें लिखीं, जो इनके विराट व्यक्तित्व का सूचक है। सामाजिक और तिलस्मी उपन्यास लिखकर साहित्य जगत में अपनी नई पहचान बनाई।" 

हर कोई था इनका दीवाना 

बचपन से ही लेखन में रुचि होने के कारण कुशवाहा कांत का मन किसी कारोबार में नहीं रमा। उनके तीन बेटे दो पुत्रियां थीं। इसके बावजूद इनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा उन्हें घर-गृहस्ती से दूर रखते थे। परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी जयंत ही उठाया करते थे। वो खुद भी अपने दौर के नामी-गिरामी उपन्यासकार थे। कुशवाहा कांत के उपन्यासों का गहराई से अध्ययन करने वाले बनारस के पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "एक तरफ कांत के उपन्यास धूम मचा रहे थे तो दूसरी तरफ जयंत के। जयंत ने क्रांतिदूत, बारूद, कफन, जनाजा, इंतकाम, कालापानी, चिनगारी, देशभक्त, दरिंदे, फांसी, ललकार, जालिम, सरहद, आग, बगावत, शहीद, ज्वालामुखी, खून और सोना, आहुति, गद्दार, कैदी, साजिश, कुर्बानी, हथकड़ियां, प्रतिशोध, फफोले, शायद तुम वही हो, खामोशी, प्यासे रिश्ते, इंतजार, अमानत, ऊंचे लोग और नासूर जैसे 42 चर्चित उपन्यास लिखे और साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान बनाई।"

"जिस समय बनारसियों के दिल और दिमाग पर देवकी नंदन खत्री के तिलस्मी उपन्यासों का खुमार छाया हुआ था, उसी दौर में त्रिलोचन शास्त्री और बेचन शर्मा ‘उग्र’ सरीखे चर्चित साहित्यकार भी हुआ करते थे। पिछड़ी जाति की कोइरी उप-जाति से ताल्लुकात रखने की वजह से बनारस ज्यादातर सवर्ण लेखकों के मन में उन्हें लेकर जातीय विद्वेष था। बनारस के नागरी प्रचारणी की साहित्यक गोष्ठियों में सवर्ण साहित्यकारों ने कई मर्तबा कांत को कोसा और उनकी खिल्ली भी उड़ाई। इन्हें किसी चर्चित साहित्यकार का सानिध्य भले ही नहीं मिला, लेकिन वो हमेशा अपने दिल की अनुभूतियों से लिखते-पढ़ते और प्रसिद्धि हासिल करते रहे। समूचे उत्तर भारत में वह अपनी कलम के जादू से तहलका मचालते रहे। वह अपने जमाने के बेस्ट सेलेबल रचनाकार थे और लालरेखा, विद्रोही सुभाष, लाल किला जैसी कालजयी रचनाएं लिखकर अमर हो गए।"

पत्रकार राजीव कहते हैं, "कुशवाहा कांत की मौत के बाद उनके घोर आलोचक ही नहीं, निंदक भी शर्मसार होकर पश्चाताप करने लगे। उस समय पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ के हृदय में भी कुशवाहा कांत के प्रति वात्सल्य उमड़ आया। वही उग्र जो कुशवाहा कांत के धुर विरोधी हुआ करते थे। बनारसियों को याद है कि कुशवाहा कांत के कई साथी उनसे दूर हटकर उनके कट्टर विरोधियों के खेमें में शामिल हो चुके थे। कलम के दम पर कोई भी उनका मुकाबला नहीं कर पा रहा था। कोई लांछन लगा रहा था तो कोई साजिश रच रहा था। अंततः साजिश के तहत उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। इस उपन्यासकार की मौत क्यों हुई? इसकी मिस्ट्री आज तक हल नहीं हुई।"

कुशवाहा कांत की अमर कृतियों की चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, " एक तरफ गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ जनमानस था तो दूसरी ओर हाड़ कपकपाने वाली शीतलहर का प्रकोप। इसी घटाटोप के बीच 9 दिसंबर 1918 को महुवरिया (मीरजापुर) में बाबू केदारनाथ के पुत्र के रूप में कुशवाहा कांत ने जन्म लिया। वह बड़े हुए तो इनके बड़े भाई जयंत कुशवाहा ने मिर्जापुर से बनारस आकर कबीरचौरा के जालपा रोड पर अपना प्रेस खोल लिया। नाम था-चिनगारी प्रकाशन। कबीरचौरा के इसी प्रेस में उनकी कालजयी कृतियां छपा करती थीं। कांत की मुंबई के फिल्मी सितारों से घनिष्ठता थी। कुछ ने इनका साथ दिया तो कइयों ने धोखा। बार-बार चोट खाने और आहत होने के बावजूद वह कभी नहीं हारे। मठाधीश साहित्यकार जब भी उन पर हमले करते, तब कांत पहले से अधिक मनोयोग से लेखन में जुट जाते थे।"

नए पथ के प्रणेता थे कुशवाहा

मिर्जापुर के वरिष्ठ पत्रकार भोलानाथ कुशवाहा कहते हैं, "कांत ने अपने उपन्यासों में सामाजिक कुरीतियों पर भी जमकर प्रहार किया है। नक्सल संकट को उन्होंने सात दशक पहले ही भांप लिया था। वो हिन्दी भाषी प्रदेशों के अमर साहित्यकार थे। दरअसल, कुशवाहा कांत के उपन्यासों में रुमानीयत कूट-कूटकर भरी होती थी। उसी रुमानियत को पढ़ने के लिए उस दौर की युवा पीढ़ी दीवाना हुआ करती थी। 25 साल की उम्र से उपन्यास और नाटक लेखन की दुनिया में पूर्ण मनोयोग से पदार्पण कर चुके थे कुशवाहा कांत जी। वो किसी पहचान के मोहताज नहीं थे। अपनी लेखनी के दम पर प्रतिनिधि लेखक का दर्जा खुद ही हासिल कर लिया। रुमानियत, जासूसी और राष्ट्रीयता के त्रिकोण के अन्त:क्षेत्र में इनकी लेखनी खूब दौड़ती थी। जो इनको पढ़ता, इनका होकर रह जाता। पाठकों की बेकरारी और उनकी प्रसिद्धि देखकर दूसरे समकालीन लेखक इनके पीछे पड़ गए थे। उनके खिलाफ तमाम झूठे आरोप गढ़े गए और दुष्प्रचार किया गया। यहां तक कहा गया कि कुशवाहा कांत अपने उपन्यासों में ‘सेक्स’ परोसता है। इनकी प्रसिद्धि के चलते बनारस के कई जलनखोर रचनाकारों ने उनके खिलाफ मुहिम चलाई और घृणा पैदा करने की कोशिश की। कुशवाहा कांत जब तक जिंदा रहे, अपनी कलम का जादू बिखेरते रहे।"

भोलानाथ कहते हैं, "कुशवाहा कांत का उपन्यास 'लाल रेखा' हिन्दी के लोकप्रिय उपन्यासों में मील का पत्थर है जिसने बड़े पैमाने पर हिन्दी के पाठक बनाए। 1950 में लिखे इस उपन्यास में उस समय हिन्दी उपन्यास की जितनी धाराएँ थीं, सभी को एक साथ इसमें समाहित किया गया है। रोमांस, रहस्य, राष्ट्रवाद और सामाजिक मूल्यों से ओत-प्रोत कथानक एक मानक की तरह है। लाल रेखा अपने विषय के लिए ही नहीं, बल्कि काव्यात्मक भाषा के लिए भी जाना जाता है। यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना 75 साल पहले था। लालरेखा के प्रेम को राष्ट्र के नाम कुर्बान करने वाले कुशवाहा समाज के इस सितारे को बनारस आज तक नहीं भूल पाया है। इस लेखक को नए पथ के प्रणेता के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। साथ ही याद की जाएगी उनकी अनसुलझी मर्डर मिस्ट्री। कुशवाहा-मौर्य समाज समय-समय पर उपन्यास सम्राट के कत्ल की मिस्ट्री सुलझाने के लिए आवाज उठाता रहा है, लेकिन वो अनुगूंज सत्ता के गलियारों में पहुंचती ही नहीं है।"

 उपन्यास पढ़ने के लिए सीखी हिन्दी

कुशवाहा कांत के सहकर्मी एवं मित्र ज्वाला प्रसाद केशर अपने संस्मरण में लिखते हैं, "कांत की लोकप्रियता को गुलशन नंदा के समकक्ष देखा जा सकता है। उनकी कालजयी रचनाओं का जादू आज भी फिजा में छाया हुआ है। कुशवाहा कांत का जासूसी उपन्यासों में जिस तरह का थ्रिल था, उससे बड़ा थ्रिल उनकी जिंदगी बनी। इनके आगे जब ढेरों साहित्याकर ढेर हो गए तो उन्हें मौत के घाट उतराने के लिए गुंडों की मदद ली गई।" वरिष्ठ पत्रकार के.विक्रम राव कहते हैं, "कुशवाहा कांत को हिन्दी साहित्य में उनका छीना गया स्थान मिलना चाहिए। हिन्दी विश्वभाषा है और वह दकियानूसीपन की जंजीरों में जकड़ी नहीं रह सकती। कांत अपने दौर के डिमांडिंग रचनाकार थे। वह मुंबई बैठ गए होते तो शायद इनकी गिनती दुनिया के बड़े उपन्यासकारों में होती।"

पेशे से इंजीनियर एसडी ओझा अपने एक ब्लाग में लिखते हैं, "मैंने कुशवाहा कांत का उपन्यास “खून का प्यासा” 8वीं कक्षा में कोर्स की किताबों में छुपाकर पढ़ा था। उस दौर में उनकी लोकप्रियता अभूतपूर्व थी। मरणोपरांत भी वह उस दौर के गुलशन नंदा, प्यारेलाल आवारा, प्रेम बाजपेयी सरीखे साहित्यकारों को तगड़ी टक्कर दे रहे थे। वह जो भी उपन्यास लिखते, आउट आफ स्टाक हो जाया करता था। इनकी लालरेखा पढ़ने के लिए बहुतों ने हिन्दी सीखी थी। वह पहले भारतीय लेखक थे जिनकी किताबें पाकेट बुक्स के आकार में छपतीं थी। बाद में इब्ने सफी समेत सभा उपन्यासकारों की किताबें भी उसी आकार में छपने लगीं।"

एक्टिविस्ट डॉ. लेनिन कहते हैं, "कुशवाहा कांत के पाठकों की तादाद इतनी बड़ी थी कि देश के दिग्गज साहित्यिकारों को भी इनसे रश्क़ होता था। देशभक्ति और रुमानी साहित्य में कांत एक बड़ा ब्राण्ड बनकर उभरे थे। इसी वजह से तमाम लेखक और प्रकाशक उनसे जलते थे। कांत सिर्फ उत्कृष्ट उपन्यासकार ही नहीं, चिंतक भी थे। उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिये जाति व्यवस्था और आडंबर पर लगातार हमले किए। यह सब मठाधीशों को नागवार गुजरा। सामंतवादी लेखकों ने योजनाबद्ध ढंग से गुंडों की मदद से उनकी हत्या करा दी। बाद में पुलिस के साथ मिलकर उनकी हत्या पर रहस्यमय का परदा डलवा दिया। प्रगतिशील लोगों को आवाज उठानी चाहिए कि कुशवाहा कांत मौत के रहस्य को खोला जाए। संभव हो तो उनकी मर्डर मिस्ट्री को सुलझाने के लिए सीबीआई को नए सिरे से जांच सौंपी जाए।"

(बनारस स्थित लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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