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संस्कृत और भाषा का लोकतंत्र

संस्कृत बचाने का दावा हिंदुत्व की छाया तले भाषाओं को नियंत्रित करने के साज़िशी प्रयास से अधिक और कुछ नहीं है.
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भाषा सिर्फ़ लोगों को जोड़ने का माध्यम नहीं है बल्कि इसका क्षेत्रीय पहचान से भी गहरा रिश्ता होता है जिससे अक्सर समाज के राजनीतिक विभाजन की झलक मिलती है.
  
जनमत को अपने पक्ष में करने के प्रयासों की कोशिशों के बीच मौजूदा सरकार ने संस्कृत की तरफ़ झुकाव दिखाया है लेकिन इस भाषा का विवाद असल में निचली जातियों के शोषण पर आधारित है. ख़ूबसूरत और मनमोहक वर्णमाला के बावजूद हम पूर्वाग्रह से ग्रसित पैमानों, सामाजिक अपमान और निचली जातियों के शैक्षणिक शोषण की अवहेलना नहीं कर सकते हैं. यहां तक कि संस्कृत अध्यापक, प्रोफ़ेसर और मंदिरों में पंडित (विद्वान) को तैनात करने की प्रक्रिया में भी ये पूर्वाग्रह सक्रिय रहते हैं.

बुनियादी रूप से एक भाषा अभिव्यक्ति और कल्पना की स्वतंत्रता को विकसित करती है जिससे अलग-अलग विचारों को धरातल मिलता है. संस्कृत को पेचीदा बनाने में इस भाषा की ख़ूबसरत और समृद्ध जागीर की कोई भूमिका नहीं है वरन ये एक जाति विशेष के भेदभावपूर्ण रवैये का नतीजा है.

अकादमिक दुनिया के लोग और इतिहासकार संस्कृत के मूल को अन्य पुरातन इंडो-यूरोपियन भाषाओं की प्राचीन जड़ों से जोड़कर देखते हैं. समृद्ध शब्दकोश और मनमोहक लय के अलावा इसके पास विज्ञान आधारित व्याकरणीय बुनावट भी है जो कि फ़ारसी की ढांचागत बुनावट से मेल खाती है. प्रारंभिक ग्रीक, लैटिन, फ़ारसी के साथ ही अंग्रेज़ी, स्पैनिश, फ्रेंच और जर्मन जैसी आधुनिक भाषाओं पर भी संस्कृत की छाप है.

आज हम हिंदी, अंग्रेज़ी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी रोज़ाना की दर पर अनेक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. मिसाल के तौर पर अंग्रेज़ी शब्द जैसे – ‘मदर’, ‘फ़ादर’, ‘ब्रदर’, ‘पाथ’, ‘योगा’, ‘मंत्रा’ सीधे तौर पर ‘मातृ’, ‘पितृ’, ‘भ्रात’, ‘पथ’, ‘योग’ और ‘मंत्र’ से लिए गए हैं जो कि हिंदी शब्दकोश से भी मेल खाते है. तो फिर इस ‘दैविय’ संस्कृत के विघटन के लिए ज़िम्मेदार कौन है?

31 अगस्त, 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता से संस्कृत में ट्वीट करके अंतर्राष्ट्रीय संस्कृत दिवस का जश्न मनाने की गुज़ारिश की. लेकिन क्या संस्कृत हिंदुत्व को चिन्हित करती है? क्या मोदी सचमुच भाषा के लोकतंत्र में विश्वास करते हैं?  

क्या संस्कृत को बढ़ावा देने के प्रचलित तरीक़े सचमुच समानता और न्याय के आदर्शों का सम्मान करते हैं? या ये सिर्फ़ भ्रम पैदा करके मतदान व्यवहार को प्रभावित करने का एक विभाजनकारी शिगूफ़ा है?

मातृभाषाओं की कड़ी में अपनी जगह महफ़ूज़ रखने के बावजूद संस्कृत रोज़मर्रा की ज़िदगी में क़रीब क़रीब अप्रासंगिक है.

उर्दू के जाने माने लेखक और रिसर्चर गोपी चंद नारंग के मुताबिक़, जो भाषाएं अन्य प्रचलित भाषाओं के असर को दरकिनार कर देती हैं और वक़्त के साथ बदलने से इंकार कर देती हैं, वो ख़त्म हो जाती हैं. संक्षेप में अन्य भाषाओं के लिए कट्टर रवैय्या और एक जाति विशेष द्वारा प्रभुत्व क़ायम करने की पूर्वाग्रह भरी लालसा एक धीमा ज़हर साबित हो सकती है. इसके विपरीत एक विकसित समझ अभिव्यक्ति की ताक़त और प्रभाव को कई गुना बढ़ा देती है! तो किसने संस्कृत को मारा?……उन्होंने जो लफ़्ज़ों की सियासत करते हैं!

इसके साथ ही हिंदी की तथाकथित पवित्रता को लेकर मौजूदा भेदभावपूर्ण ट्रेंड्स पर ध्यान देना भी अहम है जो कि संस्कृत घुली भाषा की पैरवी करते हैं और उर्दू, पंजाबी और बंगाली शब्दों के साथ ही दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रभावों को बेदख़ल कर देते हैं. इसी के चलते हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका कृष्णा सोबती से उनके साहित्यिक कैरियर के शुरूआती चरण में राजकमल प्रकाशन ने पंजाबी शब्दों को हटाने को कहा था लेकिन उन्होंने मना कर दिया था.

संस्कृत संघर्ष के ताज़ा दाग़

गुज़रे वक्त में अनेक ऐसे हादसे हुए हैं जब दलितों ने केवल संस्कृत ग्रंथ पढ़ने के कारण अपमानजनक हिंसा और जातिवादी टिप्पणियों का सामना किया है. यहां तक की आज़ादी के बाद भी जब अस्पृश्यता को संविधान द्वारा अवैध क़रार दिया गया तो भी लोगों ने अनेक ऐसी घटनाओं का सामना किया है और ये सिलसिला अब तक जारी है.

नवंबर, 2019 में वाराणसी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत डिपार्टमेंट में फ़िरोज़ ख़ान नामक मुसलमान प्रोफ़ेसर के तैनात होने पर बड़ा विवाद खड़ा हुआ था. आख़िर में उन्हें अपने पद से इस्तीफ़ा देकर फैकल्टी बदलनी पड़ी. इसी तरह, सितंबर 2022 में उत्तर प्रदेश के बाराबंकी के एक सरकारी स्कूल में एक दलित संस्कृत टीचर भी स्टाफ़ द्वारा प्रताड़ित किया गया था. एक स्टॉफ़ मेंबर ने भाषा के चुनाव पर उसे अपमानित करने लिए उसकी चोटी (सिर के ऊपर बाल का एक हिस्सा जिसे ब्राम्हण होने का प्रतीक माना जाता है) काट ली थी.  

द हिंदू के मुताबिक़ भारत में क़रीब 14,000 लोग ऐसे हैं जिन्होंने संस्कृत के सत्व को अपनी क्षेत्रीय ज़बान में महफ़ूज़ रखा है. इनमें से अधिकतर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, तेलांगाना और उत्तराखंड के स्थानीय लोग हैं. भारत जैसे विविध भाषाओं और संस्कृतियों वाले देश में किसी भाषा विशेष पर प्रभुत्व हास्यास्पद है. जो संस्कृत को एक पवित्र ज़बान के तौर पर देखते हैं उन्हें शिक्षा के लोकतांत्रिक आधिकार में विश्वास के साथ इस भाषा पर हमलों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी चाहिए.

वैदिक काल के घाव

मनुस्मृति, एक महत्वपूर्ण ग्रंथ या कहें कि एक प्रभावशाली जातिवादी हिंदू ग्रंथ ने समाज के लोगों को 4 हिस्सों में बांटकर, उनकी सीमाएं, भूमिका और योगदान तय करके समाज में वर्ग के खांचे खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई है. हमारे पास कर्ण और एकलव्य की कहानी है जिन्हें तालीम की ख्वाहिश से लबरेज़ होने के बावजूद माफ़िक़ तालीम हासिल करने में बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था. कुछ वैदिक ग्रंथ शास्त्रों के ऊपर ब्राम्हणों के एकाधिकार का मत रखते हैं. यही वजह है कि एक शुद्र  (ST/SC) को पवित्र ग्रंथों को स्पर्श भर कर देने पर ईशनिंदक मान लिया जाता था जिसके बाद वो अमानवीय और हिंसक सज़ा का हक़दार हो जाता था.

अब भी संस्कृत भाषा के शैक्षणिक संस्थानों, स्कूलों और विश्वविद्यालयों सब पर उच्च जाति के हिंदुओं का राज होता है और ये प्रभुत्व ही संस्कृत की भाषाई उन्नति में मुख्य बाधा है. इस प्राचीन भाषा के प्रमोटर के तौर पर क्या सरकार के पास इसका कोई हल है?

भाषाई अधिकारों में दख़ल की कोशिश

भारतीय संविधान में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं जो 8वीं अनुसूची के तहत सुरक्षित हैं हालांकि सरकार ने संस्कृत और हिंदी को लेकर साफ़ पक्षपात दिखाया है. जिस कारण ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ के स्लोगन को पसंद नहीं किया जाता है और ख़ासकर कन्नड़, बंगाली और उर्दू भाषी इसके ख़िलाफ़ रहे हैं. दक्षिण के राज्य हिंदी के प्रभुत्व के ख़िलाफ़ लगातार बोलते रहे हैं.

शास्त्रों के ये रक्षक सिर्फ़ संस्कृत के विकास को ही नहीं रोकते हैं बल्कि देश की बहुलता और सांस्कृतिक सद्भाव को भी नुक़सान पहुंचाते हैं.

संभावनाएं

नागरिकों और नेटीज़न्स दोनों के लिए ट्विटर ट्रेंड्स की सियासत को समझना ज़रूरी है. ये ट्रेंड्स भले ही चमकदार दिखते हों लेकिन ये अतीत के दाग़ों को नहीं धो सकते हैं. हम VIIIवीं अनुसूची की सभी भाषाओं के लिए एक न्यायपूर्ण और समान रवैय्या चाहते हैं. हमें विविधता चाहिए एकरूपता नहीं! सिर्फ़ ऐसे ही अभिव्यक्ति और समानता की आज़ादी तय की जा सकती है.

साभार : सबरंग 

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