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कटाक्ष: ख़तरा यूं ही बढ़ता रहे!

दुआ यही है कि 2023 में ख़तरा यूं ही बढ़ता रहे। अब दूसरों के ख़तरा पैदा करने के भरोसे नहीं हैं, हम इसमें भी आत्मनिर्भर हैं, अपने ख़तरे घर में ही पैदा कर लेंगे।
Besharam Rang

कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं; इस पर शक करने वाले कहां हैं कि मोदी जी के 2022 में देश ताबड़तोड़ तरक्की की पटरी पर दौड़ता रहा है! देखा नहीं, दौड़ते-दौड़ते देश तरक्की के किस स्टेशन पर पहुंच गया है? तरक्की के उस स्टेशन पर, जहां फिल्म की नायिका की बिकनी के रंग पर, नये इंडिया का नया हिंदू लड़ रहा है। और नये इंडिया का नया हिंदू बेफायदा लड़ ही नहीं रहा है, लगातार तरक्की की सीढ़ियां भी चढ़ रहा है। बेशक, बिकनी वगैरह पर अंकल लोगों की भावनाएं तो पहले भी आहत होती रहती थीं। पर तब बेचारे अंकल-आंटी लोग छी:-छी: कर के या जमाने को कोसकर ही रह जाते थे। वह तो भला हो संघी भाइयों का कि उन्होंने ऐसे कितने ही अंकल-आंटियों को आहत हिंदू बना दिया और दिल में आहत करने वालों को ही आहत करने का जोश भर दिया, हाथ में सिर फोड़ने को लट्ठ थमा दिया। अब कोई कर के तो देखे हिंदुओं की भावनाओं को आहत! फिल्म छोड़, बिकनी भी छोड़, अब तो कोई रंग तक में हमारी भावनाओं से जरा सी छेड़-छाड़ नहीं कर सकता।

वैसे सच पूछिए तो आहत भावनाओं का मामला और भी आगे तक जाता है। यह अभी क्लीअर नहीं है कि पठान फिल्म के गाने में नये हिंदू की भावना ठीक-ठीक किस चीज से आहत हुई है--‘‘बेशर्म रंग’’ शब्द से या नायिका की बिकनी के रंग बदल-बदलकर, चंद सैकेंड के लिए केसरिया हो जाने से? दिक्कत ये है कि शब्द ‘‘बेशर्म रंग’’ का केसरिया से कोई कनेक्शन ही नहीं बैठता है और दृश्य में रंग तो रंग, बिकनी तक का, बेशर्म से कोई कनेक्शन नजर नहीं आता है? तब केसरिया रंग का अपमान कैसे? लगता है कि ये आहत भाव वैसी वाली गुम चोट का मामला है--वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था...! फ़साने में ज़िक्र के बिना भी बात नागवार गुजर जाए, उससे नये इंडिया के नये हिंदू का नया धर्म खतरे में आ जाए, मंत्रियों से लेकर सांसद साध्वियों तक का सड़क़ों पर जमावड़ा हो जाए और ऊपर वाले की मर्जी भांपकर सेंसर बोर्ड गाने पर कैंची चलाने के लिए मैदान में उतर जाए;  इससे बढ़कर तरक्की और क्या होगी? पाकिस्तान-वाकिस्तान तो कब के पीछे छूट चुके हैं! अब तो इस विश्व गुरु का तालिबान से ही थोड़ा-बहुत कम्पटीशन हो तो हो। सच पूछिए तो उनसे भी कहां का कम्पटीशन? डेमोक्रेसी की मम्मी होने का दावा करते-करते, यह सब कर दिखाने का हुनर है क्या उनके पास!

और कोई यह नहीं समझे कि नये इंडिया के नये हिंदू की भावनाएं, शाहरुख खान की फिल्म या उसमें भी दीपिका के गाने के बेशर्म रंग से ही आहत हुई हैं और दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए इस युद्ध में विजयश्री पाकर निकली हैं। वीर योद्धा है अपना नया हिंदू, उसकी भावनाएं अब आहत होती ही रहती हैं, ताकि युद्ध के लिए उसकी भुजाएं फड़कती रहें और तलवारें चमकती रहें। मोदी जी के राज के आठ साल में तो उसकी भावनाओं की आहत होने की इतनी प्रैक्टिस हो गयी है कि अब उसकी भावनाएं किसी के कुछ करने की भी मोहताज नहीं रह गयी हैं। कार्टूनों वगैरह की तो बात ही क्या करना, ये भावनाएं तो कभी किसी स्टेंड अप कॉमेडियन के अनकिए मजाक से ही आहत हो जाती हैं, तो कभी किसी वक्ता के अनबोले शब्दों से या किसी लेखक की अनलिखी किताब या रिपोर्टर की अनलिखी रिपोर्ट से। और तो और, सामाजिक कार्यकर्ताओं के सामाजिक कार्य से भी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के मोदी जी का विरोध करने से भी। 2022 के आखिर तक आते-आते तो, नये-हिंदू की आहत भावनाएं इस कदर आत्मनिर्भर हो गयी हैं कि बहुत बार खुद ही खुद को आहत कर, खुद ही आहत होने का प्रचार कर के, खुद ही तलवार चला लेती हैं। बाद में खुद ही दूसरों पर अपने को बदनाम करने का इल्जाम भी लगा देती हैं। और जब अजन्मे दुश्मनों से आघातों से लड़ने का ये आलम है, तो जो परायों की मौजूदगी से ही लगने वाले आघातों का तो कहना ही क्या? आघात के खतरे खोद-खोदकर निकाल रहे हैं, इतिहास से लेकर, अब मथुरा, काशी की मस्जिदों तक। इससे ज्यादा तरक्की क्या होगी? तरक्की के लिए सिर्फ आगे बढ़ना ही जरूरी थोड़े ही है। पीछे जाएंगे तो क्या तरक्की नहीं होगी!

थैंक यू मोदी जी कि 2022 में देश, तरक्की की इस पटरी पर सिर्फ दौड़ता ही नहीं रहा है, इतनी तेजी से दौड़ता रहा है कि, जहां-तहां तो 2023 से पहले ही 2023 में घुस गया है। देश 2022 में सिर्फ तेजी से दौड़ता ही नहीं रहा है, 2021 से बहुत तेजी से दौड़ता रहा है और 2023 के लिए पहले से ही उसने वो स्पीड पकड़ ली है कि पूछिए ही मत। बस ये समझ लीजिए कि नया साल तो चुटकियों में ही निकल जाएगा, मुफ्त राशन के थैलों पर मोदी की तस्वीर देखते-देखते और हर विधानसभा चुनाव में उसी तस्वीर पर वोट डालते। हमें तो अभी से 2024 दिखाई दे रहा है, मोदी जी की पच्चीस साल में एक बार वाली ताजपोशी के साथ। सुना है कि निम्मो ताई ने अगली बार, 25 साल का बजट पेश करने की तैयारी भी कर डाली है।

25 साल में समूचे आर्यावर्त के सम्राट को विश्व सम्राट बनने से कोई नहीं रोक सकता है; बस खतरा यूं ही बढ़ता रहे और नया हिंदू यूं ही लड़ता रहे। खतरे की सप्लाई कम हुई नहीं कि नये हिंदू की तरक्की की ये लड़ाई कम हुई नहीं। और नये हिंदू की लड़ाई कम हुई नहीं कि महंगाई, बेरोजगारी वगैरह के बढ़ने से लेकर, डेमोक्रेसी के जमीन में गढऩे तक, न जाने किस-किस की चोट का दर्द बढ़ा नहीं। फिर क्या नया हिंदू लड़ेगा बल्कि नया हिंदू ही रहेगा; पुराना हिंदू नहीं बन जाएगा, जो गरीबी-भुखमरी के गाने गाएगा। तब अडाणी जो दुनिया का तीसरा सबसे रईस कौन और कैसे बनाएगा? मोदी जी का 2024 में लौटना ही जो खतरे में पड़ जाएगा। सो दुआ यही है कि 2023 में खतरा यूं ही बढ़ता रहे। अब दूसरों के खतरा पैदा करने के भरोसे नहीं हैं, हम इसमें भी आत्मनिर्भर हैं, अपने खतरे घर में ही पैदा कर लेंगे। बस खतरा बढ़ता रहे, नया हिंदू यूं ही लड़ता रहे और अमृतकाल में मोदी जी का सिक्का यूं ही चलता रहे। वर्ना हमारे दो वाली तरक्की का जाने क्या हो!  

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

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