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कटाक्ष : डेमोक्रेसी मांगे, विपक्ष-मुक्त संसद!

मानना पड़ेगा कि मोदी जी इसके लिए अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश कर रहे हैं। तभी तो संसद के चलने का टैम घटता जा रहा है और उसकी उत्पादकता का आंकड़ा ऊपर से ऊपर चढ़ता जा रहा है।
Democracy
कार्टून साभार : X/@satishacharya

हम तो पहले ही कह रहे थे कि अपनी डेमोक्रेसी में एक ही प्राब्लम है। मतलब प्राब्लम तो बहुत सारी होंगी, पर सारी प्राब्लमों की जड़ एक ही है -विपक्ष! जी हां, इस यानी चालू डेमोक्रेसी की यही प्राब्लम है कि इसमें विपक्ष है। डेमोक्रेसी में सत्ता पक्ष तो खैर होना ही था उसे तो पब्लिक ने चुना है। पर बहुरूपिया विपक्ष भी है जो भी पब्लिक से चुने जाने का स्वांग भरकर धोखे से घुस आया है जबकि पब्लिक ने तो मोदी जी को चुना है। कमजोर है, कोने में पड़ा है, पिट-पिटकर अधमरा हो रखा है, पर विपक्ष है। बिचारे मोदी जी के राज के दस साल होने को आए तब भी विपक्ष है! आप कहेंगे कि विपक्ष है, वह तो ठीक है, पर सबूत क्या है कि विपक्ष ही सारी प्राब्लमों की जड़ है? सबूत है। हाथ कंगन को आरसी क्या की तरह स्वत: दिखाई देने वाला सबूत है। सबूत है, अभी-अभी खत्म हुए शीतकालीन सत्र में लोकसभा की उत्पादकता का आंकड़ा! सीधे स्पीकर जी के मुंह से निकला आंकड़ा है यानी सौ फीसद ऑफीशियल - इस सत्र में उत्पादकता पूरे 74 फीसद रही है! 14 बैठकों में लोकसभा ने पूरे 61 घंटा 50 मिनट काम किया है। पूरे 18 तो विधेयक ही पास हुए हैं यानी औसतन हरेक बैठक में सवा विधेयक। और इनमें करीब न भूतो न भविष्यत टाइप के तीन अपराध संहिता कानून भी शामिल हैं जो डेढ़-पौने दो सौ साल पहले अंगरेजों ने बनाए थे और अब पहली बार मोदी जी ही बनवा रहे हैं।

क्या समझते हैं, संसद का कुल दो हफ्ते का सत्र, पहले तय समय से भी एक दिन पहले यूं ही खत्म हो गया? विपक्ष-फिवक्ष के किसी हंगामे की वजह से या निलंबित सांसदों का आंकड़़ा जो आखिरी दिन 146 पर पहुंच गया। एक और दिन में डेढ़ सेंचुरी पार कर जाने जैसे किसी डर की वजह से, संसद का सत्र एक दिन पहले खत्म नहीं हो गया। जो एक सौ छियालीस से नहीं डरे, डेढ़ सेंचुरी हो जाने की क्यों परवाह करने लगे। सत्र एक दिन पहले इसलिए खत्म हो गया कि काम एक दिन पहले खत्म हो गया! मोदी जी के राज में तो यह संसद की आदत सी ही बनती जा रही है - तय समय से पहले ही काम खत्म हो जाता है। काम खत्म तो सत्र खत्म। मोदी जी के कुशल नेतृत्व में बाकी हर चीज की तरह, संसद की कार्यकुशलता में भी अभूतपूर्व रफ्तार से बढ़ोतरी हो रही है।

आप कहेेंगे कि तब तो चालू डेमोक्रेसी अच्छी चल रही है, विपक्ष के होने से प्राब्लम क्या है? यह प्राब्लम है - छोटी सोच! छोटे-छोटे लक्ष्य लेकर चलना! मामूली प्रदर्शन में संतुष्ट हो जाना! लोकसभा की 74 फीसद उत्पादकता से पहले वाले संतुष्ट हो जाते होंगे। पहले वाले तो 74 फीसद से भी कम उत्पादकता से भी संतुष्ट हो जाते होंगे। पर मोदी जी सौ फीसद से कम पर संतुष्ट होने वाले नहीं हैं। फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि लोकसभा में 74 फीसद उत्पादकता भी कोई बिना कुछ किए-धरे नहीं मिल गयी है। इसके लिए भी सरकार को बहुत भारी प्रयास करने पड़े हैं। और सबसे बढक़र, विपक्षी इंडिया ब्लाक के कुल 139 सांसदों में से 99 को तो लोकसभा से ही निलंबित करना पड़ा है। बाकी विपक्ष को भी उनकी हमदर्दी में विरोध वगैरह जताने में ही जुटने के लिए मजबूर करना पड़ा है। तब कहीं जाकर खामखां के बहस-मुबाहिसे के बिना संसद में फटाफट, विधेयक पर विधेयक पास करना संभव हुआ है। हम सरकारी विपक्ष की नहीं कहते, पर सरकार विरोधी विपक्ष के सांसद संसद में रहते तो सैकड़ों सालों में एक बार बनने वाले कानून क्या यूं चुटकियों में पारित होते? हर्गिज नहीं। ये विपक्षी तो कानून की एक-एक धारा पर, विधेयक के एक-एक वाक्य पर, छोटे से छोटे बदलाव पर, बहस खड़ी करते और खामखां में संसद का इतना कीमती वक्त बर्बाद करते। विधेयक चाहे 18 के 18 पास भी हो जाते, आखिरकार मोदी जी का भारी बहुमत तो कहीं नहीं जाने वाला था पर लोकसभा की उत्पादकता 74 फीसद की तो बात ही क्या करना, 60 फीसद पार कर के फर्स्ट डिवीजन में पहुंच ही जाती, यह भी कहना मुश्किल था।

अब जरा सोचिए, सरकार विरोधी विपक्ष के दो-तिहाई से जरा से ज्यादा सदस्यों को सस्पेंड करने से ही लोकसभा की उत्पादकता 74 फीसद पर पहुंच गयी। सरकार विरोधी विपक्ष को सौ का सौ फीसद सस्पेंड कर दें तो? जाहिर है कि संसद की उत्पादकता सौ फीसद के आंकड़े को अगर छू नहीं भी पाएगी तब भी उससे ज्यादा दूर भी नहीं रह जाएगी। सारा काम-काज इतने स्मूथली चलेगा कि अभी तो उसकी कल्पना तक कर पाना मुश्किल है। सारे विधेयक फटा-फट पास होंगे, न कोई विरोध, न कोई बहस। और सरकार से कोई सवाल-ववाल भी नहीं पूछेगा। इस टाइप के बवाल का तो खैर सवाल ही नहीं उठता है, जैसा बवाल इस बार संसद की सुरक्षा में सेंध लगने जैसी मामूली बात पर विपक्ष वालों ने खड़ा कर दिया। बताइए, और कुछ नहीं मिला तो इसी की जिद पकड़ कर बैठ गए कि गृहमंत्री जवाब दें। गृहमंत्री ने संसद में बोलने से मना कर दिया और टीवी चैनल के प्रोग्राम में बोलकर दिखाया कि बोल सकते हैं, मगर संसद में नहीं बोलना है; तो भाई लोग जोर-जबर्दस्ती पर उतर आए। यानी बंदे को इतनी भी आजादी नहीं कि जी चाहे तो बोले, जी चाहे तो नहीं बोले। आखिर, पब्लिक ने मोदी जी को अपने ऊपर राज करने के लिए चुना है या विपक्ष की मांगों का गुलाम बनकर नाचने के लिए चुना है।

साफ है - डेमोक्रेसी मांगे, विपक्ष-मुक्त संसद। मानना पड़ेगा कि मोदी जी इसके लिए अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश कर रहे हैं। तभी तो संसद के चलने का टैम घटता जा रहा है और उसकी उत्पादकता का आंकड़ा ऊपर से ऊपर चढ़ता जा रहा है। चुने जाने के बाद भी विपक्ष वालों का आंकड़ा घटता जा रहा है। निलंबित होने वालों का रिकार्ड ऊपर से ऊपर ही चढ़ता जा रहा है। यहां तक सब सही जा रहा है, बस एक प्राब्लम है। बाकी दुनिया को कोई कैसे समझाए कि डेमोक्रेसी मांगे, विपक्ष मुक्त संसद! दुनिया तो अब भी यही मानती है कि विपक्ष है, तो डेमोक्रेसी है। उल्टे लोग मोदी जी को ही ताने मारने लगे हैं - देखो-देखो डेमोक्रेसी की मम्मी का कमाल, सरकार ही सरकार रही, विपक्ष दिया संसद से हंकाल! खैर! विपक्ष वाली डेमोक्रेसी और उसकी मम्मी भी, पश्चिम वालों को ही मुबारक। उनकी तरह हमारी डेमोक्रेसी किसी विपक्ष की मोहताज नहीं है। हमारे पास असल में डेमोक्रेसी की ददिया सास है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

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