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कटाक्ष: कचरा तो हटाने दो यारो!

बापू के चश्मे को स्वच्छ भारत का ब्रांड एंबेसडर बनाने के बावजूद, ऐन 30 जनवरी के स्वच्छता दिवस पर, इंदौर नगर निगम का स्वच्छता मिशन फेल हो गया...।
बापू के चश्मे को स्वच्छ भारत का ब्रांड एंबेसडर बनाने के बावजूद, ऐन 30 जनवरी के स्वच्छता दिवस पर, इंदौर नगर निगम का स्वच्छता मिशन फेल हो गया...।
फ़ोटो साभार :  khabar.ndtv

बापू कहलाते रहें राष्ट्रपिता, पर पहले वाली बात नहीं रही। वैसे सच तो यह है कि बहुत से लोगों को तो इसमें भी शक है कि पहले भी उनमें उतनी बात थी, जितनी बताते हैं। कहने वाले तो कहते हैं कि वह तो महात्मा गोडसे ने शहीद का दर्जा दिलाकर, गांधी जी को हमेशा के लिए राष्ट्रपिता के पद पर ही फ्रीज कर दिया, वरना पब्लिक की मांग पर उनका रिटायरमेंट दूर नहीं था। खैर! पहले क्या था क्या नहीं था, इसमें हम क्यों अटकें हमें तो बस इतना पता है कि बापू के नाम में अब कुछ करने-कराने वाली बात नहीं रही।

दसियों साल हम बलिदान दिवस मनाते रहे, पर क्या किसी पर कुछ असर पड़ा, एक बेचारे गोडसे के फांसी चढऩे के सिवा। उल्टे मुकद्दमे के बाद सावरकर जी, सावरकर से वीर सावरकर हो गए!

खैर, मोदी जी ने सोचा था कि बलिदान दिवस से न सही, स्वच्छता दिवस से तो राष्ट्रपिता, राष्ट्र के कुछ न कुछ काम आ ही सकते हैं। पर वहां भी रिजल्ट के नाम पर शाकाहारी अंडा है। बापू के चश्मे को स्वच्छ भारत का ब्रांड एंबेसडर बनाने के बावजूद, ऐन 30 जनवरी के स्वच्छता दिवस पर, इंदौर नगर निगम का स्वच्छता मिशन फेल हो गया। बेचारों का देश के सबसे स्वच्छ शहर को जरा और स्वच्छ करने के लिए, दर्जन-सवा दर्जन बेघर बूढ़े-बुढिय़ों का कचरा, शहर की बाउंड्री से बाहर फिंकवाना उल्टा पड़ गया।

बेचारे स्वच्छतासेवकों के दुर्भाग्य से, जहां उन्होंने यह कचरा गिराया, वहां एक गांव की बाउंड्री शुरू हो गयी। बस गांव वाले जिद पकड़ गए कि अपना कचरा अपने यहां ही रखो। तुम्हारी स्वच्छता के लिए हम अपने यहां अस्वच्छता बढ़ाने नहीं देंगे, कचरा नहीं डालने देंगे। जिंदा कचरा तो वापस लाना ही पड़ा, वीडियो वायरल होने के बाद, स्वच्छता अभियान चलाने वालों की नौकरी पर भी बन आयी। दुनिया भर में भद्द पिटी सो अलग। ऊपर से भगवाइयों को अब यह कहना पड़ रहा है कि सबसे स्वच्छ इंदौर के माथे पर जिंदा कचरे का काला टीका हमें तो खुद पसंद है। यही टीका हमारे शहर की स्वच्छता को बुरी नजर से बचाएगा। वर्ना आवारा गायों के लिए जगह-जगह गोशालाएं खुलवाने वाले शिवराज बाबू, इनके लिए बेघरशाला नहीं खुलवा देते! स्वच्छता की स्वच्छता और बेघर सेवा की बेघर सेवा।

वैसे भी राष्ट्रपितागीरी के चक्कर में, बापू के नाम का जिसका जैसे जी चाहता है, वैसे इस्तेमाल कर रहा है। सरकार रोके-टोके तो इनसे जिरह करवा लो कि बापू तो राष्ट्र की धरोहर हैं, सिर्फ सरकार के थोड़े ही हैं। वर्ना बताइए, किसानों का बापू से क्या काम? माना कि बापू चम्पारण गए थे, पर ये किसान तो अच्छे-खासे बने-बनाए कानून मिटवाने की जिद कर के दिल्ली के बार्डर पर दो महीने से ज्यादा से बैठे हैं? कहां चम्पारण और कहां दिल्ली। फिर भी इन्हें तो बापू पर दावा करना है। सरकार माने न माने, उनके हिसाब से तो उनकी जिद, जिद नहीं सत्याग्रह है। माना कि बापू भी कम जिद्दी नहीं थे और जिद पकडक़र बैठ जाते थे तो अपनी जिद पूरी कराने के लिए खाना-पीना तक छोड़ देते थे, मगर इन किसानों की जिद में वो वाली बात कहां!

बापू ने एकाध कानून छोड़ो, पूरा ब्रिटिश राज हटवाने की जिद ठानी और हटवाकर ही माने, पर उनकी जिद शुद्घ रूप से सकारात्मक थी, किसी के खिलाफ नहीं। यहां तक कि अंगरेजों के खिलाफ भी नहीं। लेकिन, इनकी जिद मोदी जी के खिलाफ हो न हो, अंबानी जी, अडानी जी के खिलाफ तो है ही। ऐसी अनैतिक जिद में, कहां सत्य और कहां बापू वाला सत्याग्रह। पर पट्ठे बापू के बलिदान दिवस पर उपवास पर बैठ गए, ताकि मोदी जी के राजघाट जाने की खबर दब जाए। बाकी तो खैर क्या होना-हवाना था, पर दिल्ली के बार्डरों की सफाई का काम रुक गया। करनी थी जमीन पर सफाई, पर सरकार को इंटरनेट बंद कर के सिर्फ सोशल मीडिया पर सफाई कर के काम चलाना पड़ा। लेकिन, जमीन पर किसानों का कचरा तो पहले से भी बढ़ ही गया। बापू का नाम और स्वच्छताविरोधी काम!

खैर! अपने मोदी जी भी बापू के सिर्फ तीस जनवरी और दो अक्टूबर वाले भगत नहीं हैं। अगर किसान बापू से जिद सीख सकते हैं, तो मोदी जी क्यों नहीं सीख सकते? उनका तो सीधे गुजराती कनेक्शन है। खून में बिजनस वाला कनेक्शन भी। मोदी जी ने भी जिद ठान ली है; ये कानून तो वापस नहीं होंगे। हां! बातचीत कोई चाहे जितनी भी करा लो। बारहवें दौर की बात भी सिर्फ एक फोन कॉल की दूरी पर है। बस नंबर किसानों को ही लगाना होगा। आखिर, राजहठ के आगे किसानहठ की कैसे चल जाएगी।

फिर भी, मोदी जी वार्ता-वार्ता खेलने से हर वक्त तैयार हैं! आखिरकार, बापू के भक्त हैं। मन की बात हो या चुनाव की बात हो या फिर समझौते की वार्ता ही क्यों न हो, आखिरी आदमी से वह हमेशा ही बतियाते हैं। सुनने का टैम नहीं मिलता है नहीं सही, कुछ भी कर के अपनी सुनाने का टैम जरूर निकलवाते हैं। उन्होंने कब किया किसानों को अपने मन की बात सुनाने से इंकार?

खैर! राष्ट्रपिता के नाम पर कम से कम स्वच्छता तो लाने दो यारो! कॉरपोरेट के हाईवे से, देहाती कचरा तो हटाने दो यारो!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

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