सरना : धार्मिक संहिता के मुद्दे पर आदिवासी संगठन संघर्ष के लिए तैयार
कोलकाता: कई आदिवासी (एसटी) संगठन मिलकर, सरना धर्म की मान्यता के मुद्दे को लेकर लंबे समय से लंबित पड़ी अपनी मांग को लेकर 20 सितंबर को नए सिरे से आंदोलन शुरू करने की योजना बना रहे हैं। इन संगठनों की मांग है कि 2021 की जनगणना में इसे एक अलग धार्मिक कोड के रूप में शामिल किया जाए।
आंदोलन के ज़रिए अन्य मुद्दों/शिकायतों को भी उठाया जाएगा, जिनका कानून या प्रशासनिक रूप किए गए प्रावधानों के बावजूद समाधान नहीं निकला है। आंदोलन की आगे की योजना तैयार करने से पहले, एक एसटी सशक्तिकरण संगठन ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पत्र लिखा है, जो कि आदिवासी मूल की एक व्यक्ति हैं, उनसे आग्रह किया कि वे उनकी मांगों को पूरा करने और उनकी शिकायतों के समाधान के लिए अपने कार्यालयों से हस्तक्षेप करें।
एक महत्वपूर्ण बात जो सामने आती है वह यह है कि राष्ट्रपति को संवैधानिक रूप से राज्य के राज्यपालों के ज़रिए से अनुसूचित जनजातियों की सुरक्षा और कल्याण के लिए कदम उठाने का अधिकार है। लेकिन, शक्तियां-जिन्हे शायद ही कभी इस्तेमाल किया गया है।
एक अलग धार्मिक संहिता और सरना श्रेणी की मान्यता की मांग को 11 नवंबर, 2020 को राजनीतिक समर्थन तब मिला था, जब झारखंड विधानसभा ने मांग का समर्थन करते हुए केंद्र से उचित कदम उठाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया था।
हाल के हफ्तों में, मांग को और अधिक राजनीतिक समर्थन मिला, क्योंकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी इसे सही माना है और विधायी समाधान के साथ इस पर कार्रवाई करने का वादा किया है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की मजबूरियां झारखंड में आदिवासियों की सबसे बड़ी संख्या का होना है - 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 10.5 करोड़ की आदिवासी आबादी का 26 प्रतिशत हिस्सा झारखंड में रहता है।
बनर्जी की तरफ से जल्द कार्यवाई का मतलब राजनीतिक रूप से उस आदिवासी आबादी तक पहुंचना है जो पंचायत चुनावों में उसे मदद कर सकती है, जो चुनाव कुछ ही महीनों में होने वाले हैं, और तथ्य यह है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पश्चिम बंगाल के आदिवासियों में पैठ बनाने में सक्षम हो रही है। राष्ट्रपति चुनाव में मुर्मू की काफी अंतर से जीत स्वाभाविक रूप से भाजपा के लिए एक मजबूत अभियान का बिंदु होगी, जिसने उन्हें एक आदिवासी आइकन के रूप में पेश किया था।
आयोजकों के मुताबिक आंदोलन के तहत, पश्चिम बंगाल और ओडिशा के आदिवासी क्षेत्रों में 'रेल रोको' किया जाएगा और 20 सितंबर को भुवनेश्वर और 30 सितंबर को कोलकाता में प्रदर्शन करना भी शामिल हैं।
आदिवासी कुड़मी समाज के मुख्य सलाहकार, अजीत प्रसाद महतो, जो राज्य में कार्यक्रम की अगुवाई कर रहे हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि अतीत के दर्दनाक अनुभव को देखते हुए, इस बार संगठन पहले तीन दिन किसी भी आधिकारिक प्रस्ताव पर विचार नहीं करेगा और बाद में, यदि जरूरत पड़ी तो, संगठन केवल "उपयुक्त प्राधिकारी" के साथ बातचीत करेंगे।
आदिवासी सेंगल अभियान (आदिवासी सशक्तिकरण अभियान) के अध्यक्ष सलखान मुर्मू, जो ओडिशा के मयूरभंज से भाजपा के पूर्व लोकसभा सदस्य हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि इस बार उनका जोर भुवनेश्वर और कोलकाता में बड़े पैमाने की लामबंदी करना है। 2021 में उन्होंने 'रेल रोको' आंदोलन किया था अब उन्हें लगता है कि अब इस तरह के आंदोलन की जरूरत नहीं है। 30 जून, 1855 को अंग्रेजों के खिलाफ संथाल विद्रोह की शुरुआत की सालगिरह को चिह्नित करने के लिए गुरुवार, 30 जून, 2022 को नई दिल्ली के जंतर मंतर पर एक प्रदर्शन किया गया था और सामूहिक प्रार्थना भी की गई थी।
बंधन तिग्गा के अनुसार, सरना 'धर्मगुरु' के रूप में पूजे जाने वाले और जिनका आश्रम मुरमा में है, आदिवासी संगठन सरना धार्मिक संहिता के मांग पर अभियान की शुरवात वहीं से करेंगे और नवंबर में अनुसूची V के प्रावधानों को सख्ती से लागू करने की मांग करेंगे।
आदिवासियों द्वारा सरना आंदोलन के स्वीकृत नेता टिग्गा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि 11 नवंबर को नई दिल्ली के जंतर मंतर पर एक बड़ा प्रदर्शन होगा और राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और दिल्ली के मुख्यमंत्री से मुलाक़ात की योजना भी है।
एक स्रोत ने न्यूज़क्लिक को बताया कि सरना धर्म क्या है, उनके मुताबिक 'जल, जंगल और ज़मीन' में विश्वास रखने वाले और प्रकृति की पूजा में विश्वास रखने वाले लोग इस धर्म के अनुयायी हैं। वे पेड़ों और पहाड़ियों की पूजा करते हैं और जंगलों की रक्षा करते हैं।
सेंगेल अभियान के नेता सलखान मुर्मू ने जोर देकर कहा कि आदिवासी न तो हिंदू हैं और न ही ईसाई। उनकी अपनी जीवन शैली, धार्मिक प्रथाएं, रीति-रिवाज और संस्कृति है।
तिग्गा ने ज़ोर देकर कहा कि जन्म, विवाह और मृत्यु से संबंधित उनके संस्कार हिंदुओं के संस्कारों से अलग हैं। उदाहरण के लिए, आदिवासी "जन्म को पृथ्वी पर आगमन मानते हैं और एक विशेष भूमि पूजा करके धन्यवाद देते हैं। शादी के लिए, लड़के पक्ष के अभिभावक बातचीत के लिए लड़की के घर जाते हैं, और न तो दहेज और न ही 'तिलक' की कोई प्रथा है।"
रांची स्थित अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के अध्यक्ष और केंद्रीय सरना समिति (केएसएस) के कार्यकर्ता सत्यनारायण लकड़ा के अनुसार, "हमारा मुख्य काम आदिवासियों के कल्याण के लिए काम करना है जो सदियों से उपेक्षित रहे हैं और उन्हें समझाते हैं कि कैसे वे अपनी खास पहचान बनाए रख सकते हैं।"
गुमला में जनआधार वाले केएसएस कार्यकर्ता हिंदू भगत ने कहा कि संगठन का काम तय है। "निहित स्वार्थों की वजह से हमारी विशिष्ट पहचान और संस्कृति को कमजोर करने के प्रयासों को रोकना होगा, जो नियमित रूप से प्रलोभनों और ब्रेनवाशिंग के जरिए उन्हें अपने पक्ष में करने के अवसर तलाशते रहते हैं"। देश के आदिवासी क्षेत्रों में हिंदुत्व तत्वों और ईसाई मिशनरियों की भूमिका लंबे समय से तनाव और एनीमेटेड बहस का कारण बनी हुई है।
झारखंड की केंद्रीय सरना समिति के अध्यक्ष फुलचंद तिर्की अपने लंबे संघर्ष की सफलता के प्रति काफी आशावावान हैं।
जहां तक धार्मिक संहिता को सरना नाम देने का सवाल है, टोटेमिक कुडुमी/कुरुमी महता समाज के कृपासिंधु महता ने इसे विरोधाभासी बताया है। मयूरभंज जिले के बारीपदा कि बिना पर, महता ने एक सामान्य नामकरण के पक्ष में तर्क दिया जिसे आसानी से याद किया जाता है, संदर्भित किया जाता है और याद किया जाता है, और जो सबके लिए समावेशी हो।
महता ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, "आदर्श रूप से धार्मिक संहिता का नमा 'आदिवासी' होना चाहिए, और इसे देश में पूरी आदिवासी आबादी और यहां तक कि जो लोग कहीं और चले गए और बस गए हैं, उन्हें भी संदर्भित करना चाहिए।" आदिवासियों के कुछ वर्ग अपने धर्म को सारी कहते हैं, सरना नहीं।
सलखान मुर्मू ने 10 अगस्त को राष्ट्रपति को एक पत्र लिखा था जिसमें अनुच्छेद 244 में अनुसूची V के तहत प्रदान किए गए सुरक्षा उपायों और अधिकारिता के कई उदाहरणों को पवित्र इरादों को बताया था। उन्होंने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और असम के कई क्षेत्रों में पीढ़ियों से रहने वाले झारखंड मूल के आदिवासियों के लिए एसटी का दर्जा देने की भी मांग की है।
संवैधानिक प्रावधानों के धीमे कार्यान्वयन के मामले में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष राघव चंद्रा (आईएएस: 1982: एमपी) द्वारा 6 अगस्त, 2022 को द इकोनॉमिक टाइम्स में लिखा एक लेख का अंश, इसका स्पष्ट उदाहरण पेश करता है।
चंद्रा लिखते हैं, "... ऐसे कई मैक्रो या बड़े क्षेत्र हैं जहां राष्ट्रपति की व्यक्तिगत समीक्षा बहुत से अनुसूचित जनजातियों के जीवन में बदलाव लाने में मदद कर सकती है। उदाहरण के लिए, भले ही ‘पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (पेसा)’ को अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए ग्राम सभा की पारंपरिक संस्था के माध्यम से स्व-शासन को 1996 में अधिनियमित किया गया था, लेकिन राज्यों में इसे लागू करने में ढील बरती गई है या टुकड़ों में लागू किया गया है। ‘पेसा’ में मौजूद मजबूत प्रावधानों के बावजूद, राज्य अभी तक आदिवासी ग्राम सभाओं को समान रूप से सशक्त नहीं बना पाए हैं, उदाहरण के लिए, लघु वनोपज ... और लघु खनिजों के संग्रहण/निष्कर्षण और उनके विपणन और बिक्री से प्राप्त राशि का इस्तेमाल करने के अधिकार से संबंधित विभिन्न निर्णय लेना अभी भी दूर की कोडी है। दूसरा, वन अधिकार अधिनियम 2006 (FRA) को लागू करना, जो मजबूती से वनों से अनुसूचित जनजातियों की एतिहासिक बेदखली को पूर्ववत करने का प्रयास करता है, इसकी न तो उदारतापूर्वक व्याख्या गई है और न ही इसे मजबूती से लागू किया गया है।"
हालांकि एफआरए ग्राम सभा की सिफारिशों को स्वीकार करना अनिवार्य बनाता है, चंद्रा बताते हैं कि, वन अधिकार समितियों की अधिकांश बैठकें ग्राम पंचायत स्तर पर हुई हैं, जहां विशिष्ट आदिवासी अधिकारों के बारे में जागरूकता और संवेदनशीलता अपेक्षाकृत कम है।
रिकॉर्ड के लिए: 4 अप्रैल, 2013 को झारखंड के तत्कालीन राज्यपाल शेखर दत्त और अनुसूची V क्षेत्रों के अन्य राज्यपालों को संबोधित करते हुए एकपत्र में, तत्कालीन केंद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री और पंचायती राज मंत्री, वी किशोर चंद्र देव ने लिखा था, "कि अदालतों ने कहा है कि राज्यपालों के पास संसद के बनाए क़ानून पर अनुसूचित क्षेत्र में नियम बनाने की पूरी शक्तियां हैं। और अनुसूची V के तहत राज्यपाल की शक्ति के बारे में बताते हुए, अटॉर्नी जनरल ने यह भी कहा था कि अनुसूची V के तहत काम करने और शक्तियों के प्रयोग में, राज्यपाल, राज्य के मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के लिए बाध्य नहीं है। जैसा कि देखा जा सकता है, मूल रूप से संविधान की अनुसूची V के साथ पढे जाने वाले अनुच्छेद 244 के प्रावधानों के संदर्भ में, राज्यपालों के पास मोटे तौर पर निम्नलिखित शक्तियां हैं: (1) विधायी (2) कार्यपालिका। [देव का पत्र सलखान मुर्मू द्वारा 10 अगस्त को राष्ट्रपति को भेजे गए पत्र के साथ संगलन था]।
इस बीच, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 14 सितंबर को हिमाचल, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में जनजातियों के 15 समूहों को एसटी श्रेणी में शामिल करने के लिए संविधान संशोधन को मंजूरी दे दी है, जिससे अनुच्छेद 342 के तहत अधिसूचित होने वाली जनजातियों की कुल संख्या जब संशोधन पारित होगा तो बढ़कर 705 से 720 हो जाएगी।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।
Tribal Outfits Gearing up to Restart Stir on Sarna Religious Code Issue
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