सत्यजित रे : सिनेमा के ग्रेट मास्टर
सत्यजित रे देश के ऐसे फ़िल्मकार हैं, पहली ही फ़िल्म से जिन्हें एक दुनियावी शिनाख़्त और बेशुमार शोहरत मिली। उस वक़्त आलम यह था कि उनकी गिनती दुनिया के नामवर फ़िल्मकारों अकिरा कुरोसावा, जान रेनुआं, फेलिनी, सेरेजेइ ऐंजेस्तेइन, इंगमार बर्गमैन, ह्यूस्टन वगैरह के साथ होने लगी थी। दुनिया भर में धूम मचाने वाली उनकी वह फ़िल्म थी, ‘पथेर पांचाली’। साल 1956 में ‘कांस फ़िल्म समारोह’ में इसे ‘बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट’ यानी सर्वश्रेष्ठ मानवीय फ़िल्म का अवार्ड मिला। यह सिलसिला रुका नहीं, रे की ‘अपु ट्रिलॉजी’ यानी ‘पथेर पांचाली’, ‘अपराजितो’ और ‘अपूर संसार’ दुनिया की सर्वकालिक महान फ़िल्मों में गिनी जाती हैं। इन फ़िल्मों ने पश्चिमी फ़िल्म समारोहों में दर्जनों बड़े अवार्ड अपने नाम किए। अपने चार दशक से भी लंबे फ़िल्म कॅरियर में सत्यजित रे ने तीन दर्जन फ़िल्में बनाईं, जिनमें वृत्तचित्र और लघु फ़िल्में भी शामिल हैं। सभी बेमिसाल। सत्यजित रे और उनकी फ़िल्मों की लोकप्रियता की यदि वजह जानें, तो उनके सिनेमा की स्थानीयता में भी वैश्विकता के दीदार होते थे। अपनी फ़िल्मों में वे कम शब्दों में बात करते हैं। अलबत्ता दृश्यों और बिम्बों में बड़ी-बड़ी बातें कह जाते हैं। एक कविता सा रचाव है, इन फ़िल्मों में। दर्शक इन फ़िल्मों को देखकर कभी कुछ सोचते हैं, तो कभी मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। यह फ़िल्में उन पर एक जादू सा करती हैं। सत्यजित रे ने जब फ़िल्मी दुनिया में अपना आग़ाज़ भी नहीं किया था, तब उन्होंने अपने एक दोस्त से कहा था, ‘‘देखना, मैं एक दिन एक अज़ीम फ़िल्म बनाऊँगा।’’ ज़ाहिर है कि उनकी इस बात को दोस्त ने मज़ाक़ समझकर हवा में उड़ा दिया। पर रे संजीदा थे। कुछ ही बरसों में उन्होंने अपने आप को सच्चा साबित किया।
सत्यजित रे की प्रतिभा का उनके समकालीन फ़िल्मकार भी लोहा मानते थे। जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा तो जैसे रे की फ़िल्मों पर पूरी तरह से फ़िदा थे। रे की फ़िल्मों के बारे में उनकी राय थी, ‘‘मानव प्रजाति के लिए एक शांत लेकिन बहुत गहरा प्रेम, समझ और अवलोकन उनकी फ़िल्मों की चारित्रिक विशेषता रही है। जिसने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है। मुझे लगता है कि वो मूवी इंडस्ट्री के विराट व्यक्तित्व हैं। उनकी फ़िल्में न देखे होना वैसा ही है, जैसे बिना चांद और सूरज को देखे इस दुनिया में जीना है।’’ सत्यजित रे की यह अज़्मत है। ‘द गॉडफ़ादर’ सीरीज फ़िल्मों के डायरेक्टर फ्रांसिस फोर्ड कोपोला भी सत्यजित रे के मुरीद थे। हो सकता है कि मौजूदा पीढ़ी को उनका यह कथन अतिश्योक्तिपूर्ण लगे, ‘‘हम भारतीय सिनेमा को रे की फ़िल्मों के ज़रिए ही जानते हैं।’’ सत्यजित रे के नाम कई रिकॉर्ड हैं। वे अकेले भारतीय हैं, जिन्हें ‘ऑस्कर लाइफ टाइम अचीवमेंट’ का पुरस्कार दिया गया था। इसमें सबसे ज़्यादा तअज्जुब की बात यह है कि उनकी कोई फ़िल्म कभी किसी ऑस्कर में नॉमिनेट नहीं हुई। सत्यजित रे फ़िल्मी दुनिया में वाक़ई एक लीजेंड थे। जिन्होंने अपने जीते जी कई बड़े मुकाम हासिल किए।
2 मई, 1921 को कोलकाता में जन्मे सत्यजित रे आला तालीम उन्होंने कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से हासिल की। रबीन्द्रनाथ टैगोर उन कुछ लोगों में शामिल थे, जिन्होंने सत्यजित रे की ज़िंदगी पर काफ़ी असर डाला। वे शांतिनिकेतन के विश्वभारती विश्वविद्यालय में पढ़ने भी गए, जिसकी स्थापना टैगोर ने ही की थी। यहां उन्होंने फाइन आर्ट्स की पढ़ाई पूरी की, जो उनके बाद के कामों में झलकती है। रे ने चित्रकला का अध्ययन ज़रूर गंभीरता से किया, लेकिन उनकी शुरू से ही चाह एक प्रोफ़ेशनल आर्टिस्ट बनने की थी। चित्रकार बनने का कभी उनके दिल में ख़याल नहीं आया। और जैसे ही मौका मिला, वे उस राह पर चल दिए। शांतिनिकेतन में नन्दलाल बोस, राम किंकर बैज और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय सरीखी हस्तियां सत्यजित रे के कलागुरु थे। रे को बचपन से ही चित्रांकन, रेखाकंन और फ़िल्में देखने का बड़ा शौक था। इस शौक के ही सबब वे पोट्रेट बनाते थे। उन्होंने 1947 में ‘कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी’ भी बना ली। सोसायटी के बैनर पर वे और कुछ उनके जैसे फ़िल्मी दीवाने वर्ल्ड सिनेमा और बंगाली फ़िल्मों पर आलोचनात्मक चर्चा करते थे। सिनेमा के बाबत उन्होंने खूब पढ़ा। जान फोर्ड, विलियम वायलर और फ्रेंक काप्रा जैसे फ़िल्मकारों के बारे में पढ़ा, उनके काम को अच्छी तरह से जाना-समझा। सत्यजित रे की फ़िल्मी तालीम का आधार चौथे और पांचवे दशक की फ्रेंच और अमरीकी फ़िल्में थीं। सत्यजित रे ने अपने करियर की शुरुआत एक विज्ञापन एजेंसी में ग्राफिक डिजाइनर, विजुलाइजर के तौर पर की। ब्रिटिश विज्ञापन कंपनी डीजे कीमर में वे विज्ञापन तैयार करते थे। विज्ञापन के लिए उन्हें इलस्ट्रेशन्स बनाने होते थे। बहरहाल अपनी इस नौकरी के सिलसिले में उन्हें एक बार इंग्लैंड जाने का मौका मिला। जहां उन्होंने दुनिया की बेहतरीन फ़िल्में देखीं। अमर्त्य सेन ने अपनी मक़बूल किताब ‘द आर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन’ में लिखा है,‘‘ख़ास तौर पर इटली के मशहूर निर्देशक विटोरिया डीसिका की फ़िल्म ‘बाइसिकिल थीव्स’ का उन पर सबसे ज़्यादा असर हुआ।’’ न्यू-रियलिस्टिक यानी नव-यथार्थवादी सिनेमा की यह शुरुआत थी, जिससे सत्यजित रे काफ़ी मुतअस्सिर हुए। जिसकी बानगी कमोबेश उनकी सभी फ़िल्मों में दिखाई देती है। गोया कि यथार्थवादी सिनेमा से उन्होंने कभी नाता नहीं तोड़ा।
बहरहाल, विश्व सिनेमा से रू-ब-रू होने के बाद सत्यजित रे ने बड़े ही जोश से अपनी पहली फ़िल्म पर काम करना शुरू किया। उस वक़्त वे एडवर्टाइजिंग एजेंसी में ही थे। उन्होंने नौकरी छोड़ी नहीं थी। अलबत्ता इस काम से वे ऊबने लगे थे और कुछ नया, पहले से बेहतर करना चाहते थे। बंगाल के विख्यात लेखक विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय की कालजयी रचना ‘पथेर पांचाली’ पर सत्यजित रे ने फ़िल्म बनाने का मंसूबा बनाया। उनके इस ख़्वाब की ताबीर होने में हालांकि, बहुत परेशानियां पेश आईं। ख़ास तौर पर इस फ़िल्म के लिए पैसा जुटाना, रे के लिए कोई आसान काम नहीं था। सत्यजित रे ने अपने सपने को साकार करने के लिए पत्नी विजया रे के गहने तक बेच डाले। बावजूद इसके पैसों की ज़रूरत बनी रही। रे की इन मुसीबतों को देखकर, उनकी मां सुप्रभा देवी उन्हें बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. विधानचंद्र रे के पास ले गईं। जो सत्यजित रे के पिता सुकुमार रे से अच्छी तरह वाकिफ़ थे। मुख्यमंत्री वीसी रे ने इस फिल्म के लिए सरकार से फाइनेंस करेा, तब जाकर ये मुक़म्मल हो सकी।
तीन साल के लंबे इंतज़ार और कड़ी मशक्कत के बाद 1955 में ‘पथेर पांचाली’ रिलीज हुई। फिल्म रिलीज होते ही इसकी मक़बूलियत आहिस्ता-आहिस्ता दुनिया भर में पहुंची। दर्शकों ने सत्यजित रे के इस पहले ही काम को दिल से सराहा। फे़स्टिवल में ‘पथेर पांचाली’ को पहले अनदेखा कर दिया गया था। इस पर किसी ने कोई नोटिस नहीं लिया। इसके पीछे भी एक अलग वजह थी। दरअसल, ‘पथेर पांचाली’ का शो, अकीरा कुरोसावा की फ़िल्म के बाद हुआ था। उनकी फ़िल्म देखने के बाद ज्यूरी के कई मेंबर जापान एंबेसी द्वारा आयोजित डिनर में चले गए। जिसके चलते उन्होंने ‘पथेर पांचाली’ को देखा ही नहीं। लेकिन फ़िल्म के शो के दौरान एक शख़्स मौजूद था और यह शख़्स ऑंद्रे बाजॉं था, जो जाने-माने फ़िल्म क्रिटिक थे। जिनकी टिप्पणियों को उस वक़्त बड़े-बड़े फ़िल्मकार भी गंभीरता से लेते थे। दूसरे दिन अख़बारों में ऑंद्रे बाजॉं की यह टिप्पणी छपी, जिसमें उन्होंने ‘पथेर पांचाली’ की तारीफ़ करते हुए, जूरी के गैर ज़िम्मेवाराना रवैये पर सवाल उठाए। उन्होंने लिखा, ऐसा कर जूरी ने फ़िल्म के साथ नाइंसाफ़ी की है। बहरहाल बाजॉं की टिप्पणी का यह असर हुआ कि ‘पथेर पांचाली’ का फ़िल्मोत्सव में दोबारा शो हुआ। जूरी ने न सिर्फ़ इस फ़िल्म को देखा, बल्कि अपनी ग़ल्ती को तस्लीम करते हुए ‘पथेर पांचाली’ को अवार्ड से भी नवाज़ा। कांस फ़िल्म फेस्टिवल में सम्मानित होने के बाद दीगर पश्चिमी फिल्म समारोहों में भी फ़िल्म ने धूम मचाई। एक छोटे से गाँव में सुविधाओं के अभाव और ग़रीबी के बीच एक परिवार के छोटे-छोटे सुखों और दुःखों की यह कहानी इतनी सार्वभौमिक और सार्वकालिक है कि इसने बांग्लाभाषी होते हुए भी दुनिया भर के दर्शकों को प्रभावित किया। सिनेमा की दुनिया में सत्यजित रे की सीधी-सादी क़िस्सागोई ने तहलका मचा दिया।
‘पथेर पांचाली’ में ऐसा क्या था ?, जो सत्यजित रे को पसंद आया और उन्होंने इस पर फ़िल्म बनाने का फै़सला किया। ‘रे द मास्टर्स’, सत्यजित रे पर बनी एक शानदार डाक्युमेंट्री है। जिसे फ़िल्मकार श्याम बेनेगल ने बड़ी शिद्दत से बनाया है। इस डाक्युमेंट्री में ‘पथेर पांचाली’ के बारे में रे की कैफ़ियत है, ‘‘मैं इस किताब से भलीभांति परिचित था। क्योंकि, एक विशेष संस्करण के लिए मैंने इसका रेखांकन तैयार किया था। रेखांकन बनाने के लिए पढ़ते वक्त मुझे लगा कि शुरुआत के लिए यह विषय अच्छा है। उसमें मुझे चाक्षुष और भावनात्मकता के लिहाज़ से कई विशिष्टताएं दिखी थीं, जो फ़िल्मी जादू रचने में सहायक होती हैं।’’ सत्यजित रे की सोच सही दिशा में थी। फ़िल्म का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोला। आज भले ही ‘पथेर पांचाली’ फ़िल्मी इतिहास में एक सुनहरा पन्ना है, लेकिन यह जानकर लोगों को तअज्जुब होगा कि सत्यजित रे ने जब ‘पथेर पांचाली’ को फ़िल्माना शुरू किया, तब उनके पास इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट जैसा कुछ भी नहीं था। सिर्फ़ कुछ नोट्स थे। यही नहीं इस फ़िल्म के संवाद भी सीधे किताब से लिए गए थे। रे उस वक़्त तक संवाद लेखक के तौर पर पारंगत नहीं हुए थे। ‘पथेर पांचाली’ के ज़्यादातर कलाकारों ने इस फ़िल्म में काम करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। ना-नुकूर के बाद ही उन्होंने इस फ़िल्म में अदाकारी की थी। वहीं ‘पथेर पांचाली’ के कला निर्देशक बंशी चंद्रगुप्त ने इस फ़िल्म से पहले कला निर्देशक के तौर पर कोई काम नहीं किया था। सिनेमैटोग्राफर सुब्रतो मित्र, जिनकी गिनती बाद में देश के बेहतरीन सिनेमैटोग्राफर में हुई, उन्होंने भी इस फ़िल्म से पहले कभी मूवी कैमरा हैंडिल नहीं किया था। वह स्टिल फ़ोटोग्राफ़र थे और मूवी कैमरे को लेकर बेहद नर्वस थे। सत्यजित रे के साथ बाद में इन दोनों की ऐसी ट्यूनिंग बनी कि बंशी चंद्रगुप्त ने 23 फ़िल्मों में उनके संग काम किया, तो सुब्रत मित्र भी उनके साथ आखि़र तक जुड़े रहे। यह जानकर आपको हैरानी होगी कि फ़िल्म ‘पथेर पांचाली’ को 11 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार और भारत में कुल 32 सम्मान मिले। बीबीसी की बेहतरीन एक सौ फ़िल्मों की फ़ेहरिस्त में ‘पथेर पांचाली’ भी शामिल है। बावजूद इसके सत्यजित रे ‘पथेर पांचाली’ को अपनी सर्वक्षेष्ठ फ़िल्म नहीं मानते थे। क्योंकि उनकी निग़ाह में ‘पथेर पांचाली’ में काफ़ी कमियां हैं। जबकि उनके मुताबिक ‘‘एक सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पूरी तरह परफेक्ट होनी चाहिए-हर दृष्टि से, हर एंगल से और ‘पथेर पांचाली’ में वह परफेक्शन नहीं है।’’(सत्यजित रे से संजीव चट्टोपाध्याय का संवाद, पत्रिका-‘समकालीन सृजन’, अंक-17) रे की नज़र में ‘चारुलता’ उनकी बेस्ट फ़िल्म थी।
इस फ़िल्म की कामयाबी के बाद सत्यजित रे ने विभूतिभूषण बंद्योपाध्याय के दो उपन्यासों ‘पथेर पांचाली’ और ‘अपराजितो’ पर ही अपू ट्रिलॉजी बनाई। ‘पथेर पाँचाली’, ‘अपराजितो’ और ‘अपूर संसार’ तो सत्यजित रे की सबसे फेमस ट्रिलॉजी है ही, कोलकाता त्रयी के तहत भी उन्होंने ‘प्रतिद्वंद्वी’, ‘सीमाबद्ध’ और ‘जनअरण्य’ जैसी कलात्मक और विचारसंपन्न फ़िल्में बनाईं। जिसमें कलकत्ता महानगर का तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिवेश पूरी शिद्दत के साथ आया है। वहीं रबीन्द्रनाथ टैगोर की तीन कहानियों-‘पोस्ट मास्टर’, ‘समाप्ति’ एवं ‘मनिहारा’ पर ‘तीन कन्या’ के तहत उन्होंने तीन छोटी-छोटी फ़िल्में बनाईं। फ़िल्म ‘घरे-बाइरे’ भी टैगोर के उपन्यास पर आधारित है। सत्यजित रे ने शरलॉक होम्स से प्रेरित होकर जासूस फेलू दा का किरदार रचा और उसको केंद्र में रखकर दो फ़िल्में ‘शोनार केल्ला’ और ‘जय बाबा फेलूनाथ’ बनाईं। लीक से हटकर बनाईं, उनकी इन दोनों फ़िल्मों को भी कामयाबी मिली और दर्शकों ने इन्हें खूब सराहा। सत्यजित रे ने अपनी फ़िल्मों के लिए ज़्यादातर कथानक बांग्ला साहित्य से लिये। रबीन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘नष्टनीड़’ पर ‘चारुलता’, सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यासों पर ‘सीमाबद्ध’ और ‘जनअरण्य’, तो प्रेमेंद्र मित्र की कहानी पर ‘कापुरुष’, ताराशंकर बंद्योपाध्याय-‘जलसाघर’ जैसी फ़िल्में सत्यजित रे ने बनाईं। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद यह कहा था, ‘‘मेरी दिलचस्पी अतीत के वैभव के चाक्षुष पहलू में पुनर्रचना करने में रही है।’’(‘गीतिपरक, और विडंबनामय भी’, सत्यजित रे से श्याम बेनेगल की बातचीत, पत्रिका ‘पटकथा’, नवम्बर-दिसम्बर-1986)
सत्यजित रे की शुरुआती फ़िल्मों में बांग्ला संस्कृति और वहां का रहन-सहन, हाशिये से नीचे के समाज के सुख-दुःख एवं उनकी चिंताएं प्रमुखता से आई हैं। अपनी फ़िल्मों में वे उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ते। उदार जीवन मूल्यों को बचा लेने की जिद उनमें दिखाई देती है। सत्यजित रे में एक गहरा इतिहासबोध था। फ़िल्मों में वे प्रमाणिक सामाजिक चित्रण करते थे। आगे चलकर उनकी फ़िल्मों में आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक समस्याएं केन्द्र में रहीं। बेरोजगारी और उससे पैदा हुआ असंतोष, गरीबी, नक्सल समस्या, इमरजेंसी आदि तमाम संवेदनशील मुद्दों पर सत्यजित रे ने ‘प्रतिद्वंद्वी’, ‘जनअरण्य’, ‘सीमाबद्ध’, ‘गणशत्रु’ जैसी फ़िल्में बनाईं। वहीं ‘देवी’, ‘महापुरुष’ और ‘सद्गति’ फ़िल्मों में वे अंध आस्था, अंधविश्वास, धार्मिक कुरीतियों और जाति व्यवस्था के खि़लाफ़ तल्ख़ टिप्पणियां करते हैं। सत्यजित रे अपनी इन तमाम फ़िल्मों में क्रोध को विडम्बना में बदल देते थे। फ़िल्म में व्याप्त यह आंतरिक गुस्सा प्रतिरोध में बदल जाता है। उनकी फ़िल्में लाउड नहीं हैं, लेकिन उनमें एक प्रतिरोध है। फ़िल्म ‘आगंतुक’ में सत्यजित रे बदलते मानवीय संबंधों की मर्मस्पर्शी कहानी कहते हैं। बंगाल के 1943 के भयावह अकाल पर सत्यजित रे ने ‘अशनीशंकेत’, तो फ़िल्म ‘तीन कन्या’, ‘देवी’, ‘घरे-बाइरे’, ‘चारुलता’, ‘कापुरुष’ और ‘महानगर’ में वे महिलाओं के सवालों को बड़े ही संवेदनशीलता से उठाते हैं। ‘महानगर’, स्त्री मुक्ति की कथा है। ‘देवी’ में जहां धार्मिक अंधविश्वास को निशाना बनाया है, तो वहीं रूढ़िवादिता और सुधारवाद की भी जद्दोजहद दिखलाई गई है। फिल्म ‘गणशत्रु’, हेनरिक इब्सन के नाटक ‘एन एनिमी ऑफ द पीपुल’ पर आधारित है। ‘गुपी गायन बाघा बायन’ एक फंतासी है, जिसे बच्चों के साथ-साथ बड़ों ने भी पसंद किया। इस फ़िल्म के प्रदर्शन के बारह साल बाद गूपी और बाघा के ही किरदारों को लेकर रे ने ‘हीरक राजार देशे’ बनाई। ‘गुपी गायन बाघा बायन’ के बरक्स इस फ़िल्म में एक सशक्त संदेश है। रे ने फ़िल्म में तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का बेजोड़ रूपक खींचा है। उत्पल दत्त, जिन्होंने फ़िल्म में राजा का किरदार निभाया था, उनका ‘हीरक राजार देशे’ के बारे में कहना था,‘‘यह फ़िल्म एक राजनैतिक व्यंग्य है, जो इमरजेंसी की याद दिलाती है।’’
साल 1958 में रिलीज हुई ‘जलसाघर’ भी सत्यजित रे की एक क्लासिक फ़िल्म है। जिसकी चर्चा उतनी नहीं होती, जितनी कि होनी चाहिए। इस फ़िल्म में उन्होंने सामंती अभिजात वर्ग के पराभाव और उनकी मनोदशा को बड़े ही बारीकी से दर्शाया है। सामंतशाही के ढह जाने के बाद भी यह वर्ग उसी नशे में चूर रहता है। यही नहीं सरमायेदारी की आहट भी फ़िल्म में दिखाई देती है। सत्यजित रे ने इस फ़िल्म में शास्त्रीय संगीत और नृत्य का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। फ़िल्म का संगीत जहां उस्ताद विलायत खां और उनके भाई इमरत खां ने तैयार किया था, तो वहीं उस्ताद बिस्मिल्ला खां, कथक नृत्यांगना रौशन कुमारी और मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर ने भी इसमें छोटे-छोटे रोल किए थे। ‘जलसाघर’ फ्रांस में ख़ूब पसंद की गई। फ़िल्म क्रिटिक डेरेक माल्कॅम ने ‘जलसाघर’ को ‘पथेर पांचाली’ और ‘चारुलता’ जैसी रे की क्लासिक फ़िल्मों से भी ज़्यादा बेहतर माना है। ‘जलसाघर’ को जितनी बार भी देखो, इसके नये-नये अर्थ खुलते हैं। यही एक उत्कृष्ट फ़िल्म की पहचान होती है। बाद में कमोबेश इसी थीम पर सत्यजित रे ने ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनाई। सामंतवाद का पतन और साम्राज्यवाद का उत्थान इस फ़िल्म का केन्द्रीय विचार है। फ़िल्म हर तरह से विश्वसनीय एवं प्रमाणिक लगे इसके लिए सत्यजित रे ने काफ़ी शोध किया। नवाब वाजिद अली शाह और अवध संस्कृति के अध्ययन के लिए उन्होंने लंदन म्यूजियम, राष्ट्रीय संग्रालय में जाकर संदर्भ सामग्री का गहन अध्ययन किया। यही वजह है कि फ़िल्म के हर फ्रेम में उनकी मेहनत और रिसर्च दिखलाई देती है। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के रिलीज होने पर भले ही भारतीय फ़िल्म समीक्षकों ने इसकी आलोचना की लेकिन पाश्चात्य समीक्षकों ने दिल खोलकर तारीफ़ की। टॉम मिलने ने फ़िल्म की ख़ासियत बतलाते हुए लिखा, ‘‘इसका सर्वाधिक आकर्षक पक्ष वह दृष्टि है, जो द्वंद्वात्मक भावनाओं में क्रमशः घटित होती राजनीति और प्रगति को साथ-साथ देखती है।’’
‘शतरंज के खिलाड़ी’ में सर रिचर्ड एटनबरो का जनरल जेम्स ऑरटम का किरदार था। सत्यजित रे और इस फ़िल्म में अदाकारी के अपने तज़रबात पर उन्होंने बड़ी ही दिलचस्प टिप्पणी की थी, जिसे जानना बेहद ज़रूरी है, ‘‘मानिकदा के बारे में जो अद्वितीय बात है, वो ये कि वे फ़िल्ममेकिंग के इतने सारे काम ख़़ुद करते थे जो हमेशा अलग-अलग लोग करते हैं। वो स्क्रीनप्ले लिखते हैं। वो ही म्यूज़िक कंपोज़ करते हैं। वो फ़िल्म को डायरेक्ट करते हैं। वो कैमरा ऑपरेट करते हैं। सेट में लाइटिंग कैसी होगी ?, इसमें करीब आधी भूमिका उनकी होती है। वो अपनी फ़िल्म ख़ुद एडिट करते हैं। करीब-करीब वैसे ही जैसे चैपलिन करते थे। अपनी फ़िल्मों में डिटेलिंग को लेकर उनकी दीवानगी इतनी ज़्यादा है कि स्क्रीन पर आपको अंत में जो भी नज़र आता है उसमें नब्बे फ़ीसद उन्हीं का डाला हुआ होता है।’’ रे की फ़िल्मों की एक बड़ी ख़ासियत डिटेलिंग है। उनकी डिटेलिंग इतनी जबरदस्त होती है कि दर्शक और फ़िल्म समीक्षक दोनों ही सत्यजित रे की निर्देशकीय क्षमता के कायल हो जाते हैं। सूक्ष्म, अति सूक्ष्म ब्यौरों को भी वे बड़ी ही संज़ीदगी से अपनी फ़िल्मों में दर्ज़ करते थे। विवरणों के माध्यम से वे पात्रों के आपसी संबंधों और भावनात्मक पहलुओं को उजागर करते थे। इस बारे में उनका कहना था, ‘‘मैं भी विवरणों के उपयोग का शौकीन हूं। लेकिन यह रुचि सिर्फ़ साहित्य से ही नहीं, बल्कि उन फ़िल्मों से भी आयीं जिन्हें मैं सराहता था। जैसे रेनुआ की फ़िल्में और बहुत-सी फ़िल्में जिनमें विवरणों को बखूबी से इस्तेमाल हुआ है।’’(‘गीतिपरक, और विडंबनामय भी’, सत्यजित रे से श्याम बेनेगल की बातचीत, पत्रिका ‘पटकथा’, नवम्बर-दिसम्बर-1986)
सत्यजित रे एक हरफ़नमौला कलाकार थे। जिन्हें फ़िल्म के हर डिपार्टमेंट में महारत हासिल थी। डायरेक्शन के साथ साथ फ़िल्म की पटकथा, संपादन और फ़िल्म के पोस्टरों से लेकर एक्टरों की ड्रेस तक की डिजायन वे खु़द करते थे। यहां तक के अपने करियर की आख़िरी फ़िल्मों में उन्होंने ही संगीत दिया था। यही नहीं मर्चेंट आइवरी की फ़िल्म ‘शेक्सपीयर वाला’ और बंगाली फ़िल्म ‘बाक्स बदल’ में भी सत्यजित रे का ही म्यूजिक है। यह बतलाना भी लाज़िमी होगा कि रबीन्द्रनाथ टैगोर के निधन के बाद सत्यजित रे ने उन पर एक बेहतरीन डॉक्युमेंट्री ‘रबीन्द्रनाथ’ भी बनाई थी। जिसमें उन्होंने गुरुदेव टैगोर की ज़िंदगी के अहम वाक़यात को फिल्माया है। इस डॉक्युमेंट्री की पटकथा, नरेशन और निर्देशन सत्यजित रे का ही है। पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह फ़िल्म इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसे दो बार देखा था। ‘रबीन्द्रनाथ’ डॉक्युमेंट्री के अलावा सत्यजित रे ने कुछ दीगर अहम हस्तियों चित्रकार विनोद बिहारी मुखोपाध्याय, सुकुमार रे और भरत नाट्यम की नृत्यांगना बालसरस्वती पर भी वृतचित्र बनाए। उन्होंने कुछ कहानियां लिखीं। सत्यजित रे के बारे में एक बात और जान लेना ज़रूरी होगा कि फ़िल्मों में आने से पहले उन्होंने पब्लिशिंग हाउस ‘सिग्नेट प्रेस’ के लिए किताबों के कई कवर डिजाइन किए थे। पं.जवाहर लाल नेहरू की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ से लेकर जिम कॉर्बेट पर केन्द्रित मशहूर किताब ‘मैन ईटर्स ऑफ कुमांऊ’ के बंगाली संस्करण का कवर डिजाइन उन्होंने ही तैयार किया था। सत्यजित रे ने अनेक मशहूर लोगों के रेखाचित्र भी बनाए थे। उनके द्वारा निर्मित पोर्ट्रेटों की संख्या सौ से भी ज़्यादा है। सीमित रेखाओं में बने ये पोर्ट्रेट्स, सत्यजित रे की हुनरमंदी को दिखलाते हैं।
सत्यजित रे की शख़्सियत बड़ी दिलफ़रेब थी। उनकी लंबाई तक़रीबन 6 फुट 5 इंच थी। पाइप पीने का निराला अंदाज़ और धीर-गंभीर मिज़ाज। पहली ही मुलाकात में लोग उनसे मुतअस्सिर हो जाते थे। उन्हें पियानो बजाने का भी शौक था। फ़िल्म बनाते समय वे हर वक़्त टीम वर्क में यक़ीन रखते थे। हर काम को वे सलीके से करते। परफेक्शन उनकी आदत में शुमार था। सत्यजित रे और उनकी फ़िल्मों पर तमाम भाषाओं में खूब किताबें लिखी गई हैं। ब्रिटिश लेखक एंड्रयू रॉबिनसन की किताब ‘सत्यजित रेः द इनर आई’ और मैरी सीटन ‘पोट्रेट ऑफ़ ए डायरेक्टर : सत्यजित रे’ सत्यजित रे की जीवनी हैं। सत्यजित रे की फ़िल्मों की सबसे बड़ी ताकत उनकी एक सार्वभौमिक अपील है। यही वजह है कि उनकी फ़िल्मों को भारत से कहीं ज्यादा तारीफ़ और मार्केट यूरोपीय देशों और अमरीका में मिला। सत्यजित रे की फ़िल्मों के जानिब दुनिया भर के दर्शकों की दीवानगी है। खुद सत्यजित रे, अमेरिकी डायरेक्टर जाँ रेनुआ और विटोरयो डि सिका के काम के दीवाने थे। रे पहली बार जाँ रेनुआ के संपर्क में साल 1950 में आए, जब वह कोलकाता में अपनी फिल्म ‘द रिवर’ बना रहे थे। फ़िल्म की शूटिंग के दौरान सत्यजित रे, जां रेनुआ के साथ रहे और उनसे फ़िल्म बनाने की छोटी-छोटी चीजों को सीखा। वहीं विटोरयो डि सिका की ‘बाइसिकल थीव्ज़’ देखने के बाद ही उन्होंने फ़िल्मकार बनने का फ़ैसला किया था।
सत्यजित रे मानवीय संवेदनाओं के चितेरे फ़िल्मकार थे। जिन्होंने सेल्युलाइड पर अपनी फ़िल्मों से कई बार करिश्मा किया। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था ‘‘एक फ़िल्मकार के तौर पर मेरा मुख्य काम ऐसी कहानी की तलाश करना है, जिसमें मानव-व्यवहार और उसके बीच के रिश्तों के सच्ची पड़ताल हो। यह पड़ताल बनी-बनाई ढ़र्रे वाली न हो, न ही नकली स्टीरियोटाइप ! बल्कि उस पड़ताल में मानवीय संवेदना हों, जो तकनीकी संसाधनों के साथ उस कहानी को चाक्षुष यानी देखने लायक बनाती हो।’’ (द न्यू सिनेमा एंड आई, सिनेमा विजंस, जुलाई 1980) सत्यजित रे ने हमेशा कलात्मक और यथार्थवादी शैली की ही फ़िल्में बनाईं। व्यावसायिक फ़िल्मों में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। व्यावसायिक फ़िल्मों के बारे में उनका ख़याल था, ‘‘व्यावसायिक फ़िल्मों की कोई जड़ नहीं होती। वे झूठी होती हैं, एकदम ढाली गयीं, किसी गढ़े हुए संसार में लिप्त।’’ (‘गीतिपरक, और विडंबनामय भी’, सत्यजित रे से श्याम बेनेगल की बातचीत, पत्रिका ‘पटकथा’, नवम्बर-दिसम्बर-1986) सत्यजित रे के लिए फ़िल्में मनोरंजन या कमाई का ज़रिया भर नहीं थीं। फ़िल्में उनकी ज़िंदगी का एक मिशन थीं। जिनसे वे अपने समाज से जुड़ना चाहते थे। उनमें कुछ नये विचारों का संचार करना चाहते थे। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा है, ‘‘रचनात्मक कर्म के अलावा फ़िल्म बनाना उत्तेजक है। क्योंकि, यह मुझे मेरे देश तथा जनता के समीप लाता है।’’ यही नहीं वे इस बात की भी हिमायत करते थे, ‘‘भारतीय फ़िल्मकार को जीवन, यथार्थ की ओर मुड़ना होगा। उनका आदर्श देसी का होना चाहिए।’’ सत्यजित रे वे फ़िल्मकार हैं, जिन्होंने बांग्ला सिनेमा को रोमांस, मेलोड्रामा और पारिवारिक फ़िल्मों से इतर एक उत्कृष्ट सृजनशील कला के स्तर पर प्रतिष्ठित किया। बांग्ला या यूं कहिए भारतीय सिनेमा को विश्वस्तरीय पहचान दी।
सत्यजित रे, एक जीनियस फ़िल्मकार थे। फ़िल्मों में बेशुमार कामयाबी के बाद भी सत्यजित रे हमेशा अपनी जड़ों से जुड़े रहे। उन्हें न तो बॉलीवुड ने लुभाया और न ही उनकी चाहत कभी हॉलीवुड जाने की हुई। जबकि सत्यजित रे को हॉलीवुड की कई फ़िल्मों के ऑफ़र मिले थे। वे कलकत्ता में ही ख़ुश थे। उन्हें वहीं दिली सुकून मिलता था। एक इंटरव्यू में उन्होंने खु़द यह बात कबूली थी, ‘‘मैं जब विदेश में होता हूं, बहुत रचनात्मक महसूस नहीं करता हूं। मुझे इसके लिए कलकत्ता में अपनी कुर्सी ही चाहिए।’’ फ़िल्मी दुनिया में सत्यजित रे के अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ा गया। भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया, तो वहीं सत्यजित रे की फ़िल्मों को 32 नेशनल अवार्ड मिले। जिनमें 6 बार उन्हें बेस्ट डायरेक्टर के नेशनल अवार्ड से नवाज़ा गया था। फ्रांस का ‘लीजन ऑफ ऑनर अवार्ड’, ‘रेमन मैग्सेसे अवार्ड’, ‘स्टार ऑफ़ यूगोस्लाविया’ उन्हें मिले दीगर अहम अवार्ड हैं। ऑस्कर अवार्ड, दुनिया के हर फ़िल्मकार का सपना होता है। सत्यजित रे तक ये एमिनेंट अवार्ड ख़ुद चलकर पहुंचा। जिस साल उन्हें यह अवार्ड देने का ऐलान हुआ, वे उस वक़्त बेहद बीमार थे और कलकत्ता के एक हॉस्पिटल में इलाज के लिए भर्ती थे। लिहाज़ा एकेडमी अवार्ड्स के मेंबर कलकत्ता आए, उन्हें ‘लाइफ टाइम अचीवमेंट ऑस्कर अवार्ड’ दिया और एक वीडियो मैसेज लेकर वापिस गए। इस वीडियो मैसेज को ऑस्कर सेरेमनी में चलाया गया, जिसे पूरी दुनिया ने देखा। सत्यजित रे की इस थैंक्स स्पीच के बाद हॉलीवुड की नामी-गिरामी हस्तियां उनके सम्मान में खड़ी हो गईं और उन्होंने देर तक तालियां बजाकर, रे का अभिवादन किया। दुनिया की नज़र में सत्यजित रे के काम का यह ज़ोरदार मर्तबा और स्वीकार्यता थी। सिनेमा के वे वाक़ई ग्रेट मास्टर थे। 23 अप्रैल, 1992 को सत्यजित रे ने इस दुनिया से विदाई ली।
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