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धारावाहिकों की शूटिंग के लिए मंजूरी के बावजूद लेखकों की बढ़ी मुसीबत, बोले- काम करना अब ज्यादा मुश्किल

धारावाहिक लेखकों के मुताबिक लॉकडाउन में शूटिंग के दौरान पालन किए जाने वाले नियमों के अंतर्गत कर्मचारियों की संख्या, पात्रों की सीमा, घटनाओं को बदलने के निर्देश, कलाकारों की उम्र, सेट के बाहर टीम के साथ कार्य करने के जोखिम और इन्हीं तरह के विभिन्न कारणों से उन्हें हर समय पटकथा बनाने और उसे बदलने में खासी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।
कोंकण अंचल में एक घर के बाहर शूटिंग से पहले की तैयारी का दृश्य
कोंकण अंचल में एक घर के बाहर शूटिंग से पहले की तैयारी का दृश्य. स्त्रोत्र- सोशल मीडिया

पुणे: कोरोना-काल में केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए लॉकडाउन के बाद टेलीविजन धारावाहिकों की शूटिंग कई महीने तक प्रभावित रही है और इससे मनोरंजन से जुड़े इस क्षेत्र को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा है। लेकिन, अब लॉकडाउन में कुछ शर्तों के साथ धारावाहिक निर्माण के लिए दी गई शूटिंग की अनुमति से एक ब्रेक के बाद फिर से बेरोकटोक धारावाहिकों का निर्माण-कार्य शुरू होने की उम्मीद बंधी है।

वहीं, शूटिंग के दौरान सरकार द्वारा निर्धारित लॉकडाउन के नियमों से विशेषकर धारावाहिक निर्माता और तकनीशियनों को खासी परेशानी तो उठानी ही पड़ रही है, उन्हें लॉकडाउन में दी गई ढिलाई का भी खास लाभ मिलता नहीं दिख रहा है। वजह है लॉकडाउन में शूटिंग के लिए दी गई गाइडलाइन धारावाहिक निर्माण की दृष्टि से अव्यावहारिक बताई जा रही है। इससे खास तौर से धारावाहिक लेखकों को नए सिरे से पटकथा लिखनी पड़ रही है और कई तरह के समझौतों के बावजूद अपनी पटकथा को बार-बार बदलना पड़ रहा है।

इस तरह की परेशानियों के कारण पूरी शूटिंग बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका बढ़ गई है। लिहाजा, यह सारा तनाव लेखकों को झेलना पड़ रहा है और सिलसिलेवार तरीके से धारावाहिक की कहानी प्रदर्शित करने में कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इससे उनका न सिर्फ काम बढ़ रहा है, बल्कि एक कड़ी से दूसरी कड़ी को जोड़ना बहुत चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। इसी तरह, कई धारावाहिक लेखकों का यह मानना है कि शूटिंग के दौरान नियमों का पालन करने की मजबूरी ने पहले की तुलना में उनकी रचनात्मकता को बेहद सीमित कर दिया है।

धारावाहिक लेखकों के मुताबिक लॉकडाउन में शूटिंग के दौरान पालन किए जाने वाले नियमों के अंतर्गत कर्मचारियों की संख्या, पात्रों की सीमा, घटनाओं को बदलने के निर्देश, कलाकारों की उम्र, सेट के बाहर टीम के साथ कार्य करने के जोखिम और इन्हीं तरह के विभिन्न कारणों से उन्हें हर समय पटकथा बनाने और उसे बदलने में खासी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा।

जाहिर है कि उन्हें वैकल्पिक स्थिति में लेखन का कार्य करना पड़ेगा। इससे दृश्य दर दृश्य उनकी रचनात्मकता सीमित होती जाएगी। इसका असर धारावाहिक के निर्देशन पर भी पड़ेगा और हर एक निर्देशक की कल्पनाशीलता दी गई परिस्थितियों पर निर्भर रहेगी। इन बदली हुई परिस्थियों में लेखक को निर्देशक के साथ तालमेल बनाए रखने में पहले से कहीं ज्यादा मश्क्कत आ सकती है। कारण यह है कि कई बार किसी दृश्य को अंतिम रूप देते समय लेखक के लिए निर्देशक की कल्पनाशीलता को अच्छी तरह से साकार करना आसान नहीं रह जाएगा।

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प्रतीकात्मक तस्वीर: मुंबई में एक मराठी धारावाहिक की शूटिंग का दृश्य. स्त्रोत्र- सोशल मीडिया

मराठी में एक लोकप्रिय मनोरंजन चैनल पर 'अग्गं बाई ससुबाई' धारावाहिक की पटकथा लिखने वाली किरण कुलकर्णी मौजूदा संकट को बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट करती हुई कहती हैं, "ऐसे नियमों के बंधन में लिखना बहुत कठिन हो गया है। यह ऐसा है कि आपको रावण को खड़ा होते भी दिखाना है, पर आपसे यह भी कहा जा रहा है कि रावण के दस मुंह नहीं दिखने चाहिए। ऐसी ही कई छोटी लेकिन जटिल बातें हैं जो सिर्फ पर्दे पर लिखने वाला लेखक ही समझ सकता है।"

इसी तरह, एक अन्य मनोरंजन चैनल पर प्रसारित मराठी धारावाहिक 'सह कुटुंब, सहपरिवार' लिखने वाली पल्लवी करकेरा बताती हैं, "जिन वरिष्ठ अभिनेता या अभिनेत्रियों को धारावाहिक में दिखाया जाता रहा है उन्हें उनकी अधिक उम्र के कारण शूटिंग से बाहर रखना पड़ेगा। इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें उनकी भूमिका से भी निकालना होगा।"

जाहिर है कि धारावाहिकों में दर्शक जो पात्र देखेंगे उनमें युवा तो होंगे, लेकिन परिवार के बुजुर्ग सदस्य नदारद रहेंगे। इसी तरह, शूटिंग के दौरान यदि कोई कलाकार बीमार पड़ जाता है तो लॉकडाउन के नियमों से लेकर धारावाहिक की अगली कड़ियों की कहानी और अन्य पात्रों की भूमिकाओं आदि सभी पर पुनर्विचार करना होगा और कई बार तो कई दृश्यों को नए सिरे से शूट करने पड़ सकते हैं।

इस बारे में कुछ धारावाहिकों के निर्देशक भी लेखकों की मुसीबत समझते हुए अपने अनुभव साझा कर रहे हैं। इन निर्देशकों का मानना है कि धारावाहिक फिल्म से अलग होता है। इसमें सिलसिलेवार तरीके से हर दिन एक निश्चय समय पर एक कहानी दिखानी पड़ती है, जिसका संबंध अगली कड़ियों से होता है। ऐसे में तुरंत उसमें बदलाव करना संभव नहीं है और न ही उस बदलाव को तर्कसंगत ठहराया जा सकता है। इसलिए, लॉकडाउन की शर्तों के हिसाब से धारावाहिक का निर्माण फिल्म से भी जटिल प्रक्रिया हो सकता है। फिर धारावाहिक लेखक को एक समय-सीमा में एक साथ कई कड़ियां लिखनी पड़ती हैं।

इस बारे में एक मनोरंजन चैनल पर प्रसारित धारावाहिक 'सुख म्हणजे नक्की काय असतं' के निर्देशक चंद्रकांत कणसे सेट पर अपने अनुभव साझा करते हुए बताते हैं, "धारावाहिक में कहानी का मतलब है कि यदि कोई त्यौहार है तो उस त्यौहार को ध्यान में रखते हुए कड़ी की कहानी लिखी जाए। जैसे आने वाले दिनों में दशहरा या दिवाली है तो धारावाहिक की कहानी में इस बात को ध्यान रखा जाएगा। इसी तरह, यदि सर्दी का मौसम है तो धारावाहिक की कहानी में गर्मी या बरसात से जुड़े दृश्यों से बचा जाता है। कहने का मतलब धारावाहिकों में आमतौर पर वास्तविक समय को ध्यान में रखा जाता है। इसलिए, कोरोना के माहौल में लेखकों से मांग की जाती है कि वे कोरोना के माहौल को भी दर्शाने वाली स्क्रिप्ट लिखें। इसके लिए कई दृश्यों में अक्सर कलाकारों को मास्क लगाकर शूटिंग कराई जाती है। पर, इसमें एक समस्या यह है कि कोरोना के माहौल को किस स्तर और किस कीमत पर दिखाया जा सकता है। कई मामलों में कलाकार के चेहरे पर एक मुखौटा होता है। पर, यहां किसी घटना में यदि पात्र के हाव-भाव भी दिखाना जरुरी हो तो एक पेंच फंस जाता है कि मास्क में पात्र की ओर से चेहरे की प्रतिक्रिया को कैसे दिखाएं!"

जाहिर है कि इस प्रकार कि हालत में यदि लेखक और निर्देशक परस्पर एक-दूसरे के नजरिए और कार्य से संतुष्ट न हों तो उनके बीच का तालमेल बिगड़ सकता है और इसका असर निर्माण की प्रक्रिया पर पड़ सकता है।

इसके अलावा, कुछ निर्देशकों का यह भी कहना है कि शूटिंग के दौरान कर्मचारियों की संख्या सीमित रखने से मेहनत अधिक करनी पड़ती है। वहीं, कर्मचारियों की संख्या सीमित रखने के कारण हर बार शूटिंग का कार्य अपेक्षा से कम होता है। इससे निर्माण के दौरान लागत बढ़ने की गुंजाइश रहती है। दूसरी तरफ, एक निर्देशक के सामने कोरोना की स्थितियों का ध्यान रखकर दर्शकों के लिए कुछ नया देने का दबाव भी है। इस तरह के दबाव से निर्देशक के साथ-साथ लेखक को भी होकर गुजरना पड़ता है।

धारावाहिक लेखक अभिजीत गुरु एक साथ तीन से चार धारावाहिकों को लिखते हैं। वे बताते हैं कि लॉकडाउन के दौरान उन्होंने कुछ धारावाहिकों की अगली कड़ियां लिख दी थीं। उन्हें लगा कि जब फिर से शूटिंग होगी तो उनका निर्माण कार्य आसान हो जाएगा। लेकिन, लॉकडाउन में शूटिंग के दौरान सरकार के नियमों को जानने के बाद उन्हें निराशा हुई। अब उन्हें बच्चों, बुजुर्गों और कई दृश्यों को लॉकडाउन की शर्तों के मुताबिक बदलना पड़ेगा। वे कहते हैं कि सरकार की गाइडलाइन के मुताबिक विभिन्न स्थानों पर शूट करना अब संभव नहीं है, लिहाजा पहले की तरह शूटिंग नहीं हो सकती है और इससे उनके द्वारा लिखे कई दृश्य भी बदलने पड़ेंगे।

अभिजीत गुरु कहते हैं, "ज्यादातर एपिसोड तब शूट किए जाते हैं जब कोई कलाकार कोरोना का मरीज नहीं होता है। लेकिन, शूटिंग के दौरान यदि कोई कलाकार कोरोना पॉजिटिव पाया गया तो पूरा कथानक बदलना पड़ सकता है, क्योंकि किसी घटना को उस कलाकार के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है। ऐसे में यह लेखक की जिम्मेदारी है कि यदि कोई कलाकार कोरोना पॉजिटिव हुआ तो वह अगले चौदह दिनों के लिए उपलब्ध नहीं हो सकता, इसलिए उसकी गैर-हाजिरी में धारावाहिक को आगे कैसे बढ़ाया जाए और दर्शकों को इस बारे में कहीं अजीब भी न लगे, क्योंकि उसे इस बारे में न कुछ पता है और इन सब बातों का उसके लिए न ही कुछ मतलब ही है।"

इसी तरह, 'डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर' जैसे कई धारावाहिक गहन शोध पर आधारित होते हैं। धारावाहिक की हर कड़ी से पहले व्यापक चर्चा के बाद ही लोकप्रिय व्यक्तित्व पर कहानी लिखनी होती है। लेकिन, कई लेखक बताते हैं कि लॉकडाउन के कारण लंबे समय से टीम के भीतर और बाहर अच्छी तरह से चर्चा नहीं हो पा रही है। इस संबंध में होने वाली ऑनलाइन चर्चा नाकाफी है।

वहीं, लेखक व निर्देशक चिन्मय मांडलेकर कहते हैं कि कुछ निर्माता पहले लिखी जा चुकी धारावाहिकों की पटकथाओं के कुछ हिस्से बदलने के लिए कह रहे हैं, जबकि कुछ निर्माता मूल कथा को ही लेने से मना कर रहे हैं। आखिर यह समय ही ऐसा है कि इस समय लेखक सहित सभी समझौते के लिए मजबूर हो रहे हैं।

शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं

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