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सन्न अवाम और सुन्न हुक्मरान !

विज्ञापनों और टीवी  चैनलों में भरमार दिख रही और मोदी से लेकर शिवराज तक की घोषणाओं में खूब तेज़ी से बजती सुनाई दे रही राहत की पूड़ियाँ और सरकारी सब्जियां बस्ती-मोहल्लों तक भूखे पेटों तक नहीं पहुँच रहीं।
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फाइल फोटो। साभार : newsbytesapp

जिस सुबह प्रधानमंत्री लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाने के लिए भाषण दे रहे थे उस सुबह मध्यप्रदेश की एक तिहाई से  ज्यादा आबादी भूखी उठी थी। बिना कुछ  खाये पीये सोये थे और दिन में  कुछ खा पाएंगे इसकी उम्मीद के बिना जागे थे।  बच्चों-बूढ़ों की बिलबिलाहट समझी जा सकती है।  विज्ञापनों और टीवी  चैनलों में भरमार दिख रही और मोदी से लेकर शिवराज तक की घोषणाओं में खूब तेज़ी से बजती सुनाई दे रही राहत की पूड़ियाँ और सरकारी सब्जियां बस्ती-मोहल्लों तक भूखे पेटों तक नहीं पहुँच रहीं।  

लॉकडाउन में जन्मी शिवराज सरकार खुद लॉक्ड डाउन हुयी पडी है।  न सरकार नाम की कोई चीज दिखाई  दे रही है, न प्रशासन टाइप की किसी चीज का अस्तिव नज़र आ रहा है।  अकेले भोपाल शहर में दो लाख से अधिक लोग भूखे सो रहे हैं।  सरकारी मदद के इंतज़ार में अपनी बस्तियों में कैद हैं।  दो दो महीने का राशन, राशनकार्ड धारकों तक ही नहीं पहुंचा - कार्ड से वंचित लोगों तक पहुँचने का तो सवाल ही नहीं उठता।  इतना निष्क्रिय भोपाल प्रशासन 3 और 4 दिसंबर 1984  को भी नहीं था जब दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना - जिसे भोपाल गैस काण्ड कहा गया - घटी थी जिसमें एक झटके में ढाई हजार लोग मर गए थे। ऐसा निकम्मापन तो 7 से 9 दिसंबर 1992 को भी नहीं था जब भोपाल के इतिहास में पहली बार हुए दंगों में डेढ़ सैकड़ा मौतें हुयी थीं।  यह अनायास नहीं है।  इस निष्क्रियता का एक अजेंडा है और इस अजेंडे की धुरी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाने के साथ ग़रीबों के प्रति नफ़रत और घृणा की संघी सोच है।  

खुद कुछ कर नहीं रहे मगर जो कर रहे हैं उन्हें रोकने का हुकुम जरूर जारी कर रहे हैं। जनता के संगठनों और  स्वयंसेवी समूहों द्वारा जनता किचिन चलाकर जो मामूली लेकिन जरूरी पूर्ति की जा रही थी पहले उसे रोका गया।  बहाना बनाया गया कि ताजे पके हुए खाने से बीमारी फ़ैल सकती है।  उसके बाद राहत का सरकारी राशन  भाजपा और आरएसएस के नेताओं के हाथ में सौंप दिया गया।  कोरोना लॉकडाउन में घिरे नागरिको को फ़ूड पैकेट्स और राशन बांटने के लिए हाल में दलबदल कर सरकार गिराने वाले विधायकों के घरों और कार्यालयों को केंद्र बना दिया गया  और इन सभी इलाकों के प्रशासनिक अधिकारी जनता द्वारा राहत के लिए फोन किये जाने पर उन्हें इन नेताओं के घर जाने की सलाह तक देने लगे।  जबकि ये भगोड़े अब जनप्रतिनिधि भी नहीं हैं। जाहिर सी बात है कि इतने भीषण संकट के दौरान भी सरकारी मशीनरी और धन का पार्टी और प्रत्याशी विशेष को आगामी उपचुनावों में अनुचित लाभ पहुंचाने के लिए आपराधिक दुरुपयोग करना प्राथमिकता में है क्योंकि अगर ये नहीं जीते तो अल्पमत  और तिकड़म से बनी सरकार चलती बनेगी।   

इन 22 विधानसभा क्षेत्रों सहित बाकी प्रदेश भर में भूख को हिन्दू और मुसलमान बना दिया गया। इसके बाद भी कोई कसर न रह जाए इसके लिए संघी गिरोह चुन चुन कर उन राहत केंद्रों को निशाना बनाने लगे जहां बिना किसी धार्मिक भेदभाव के गरीबों को आटा, दाल, चावल, तेल बांटे जा रहे थे।  डराने और धमकाने वाले ये खाये पीये अघाये संघी जब अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति  चलाये जा रहे राहत वितरण केंद्र, एक राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त पार्टी के मुख्यालय - बीटीआर भवन - को घेरने और  धमकाने तक आ पहुंचे तो बाकी जगहों की क्या स्थिति होगी इसे समझा जा सकता है।  

इतना भर ही नहीं किया गया।  इस तरह की जनपहलों से दी जा रही  वालंटरी राहत को रोकने के लिए कुछ ख़ास इलाकों के चारों तरफ पुलिस के साथ सिविल ड्रेस में आरएसएस से जुड़े लोग भी खड़े कर दिए गए जो  उन बस्तियों में कैद  नागरिकों तक किसी भी तरह की राहत पहुँचने वालों पर लाठियां भांज रहे हैं।  इन बस्तियों में कौन रहते हैं, ये किनको भूखा रखना चाहते हैं इसका अनुमान लगाने के लिए किसी ख़ास विशेषज्ञता की आवश्यकता नहीं है।  

यह राजधानी और महानगरों की हालत है तो देश  की सबसे बड़ी आदिवासी आबादी वाले मध्यप्रदेश में जनजातियों की दशा क्या होगी।  पिछले पखवाडे भर से दूर मैकल पहाड़ी की घाटी से आ रहे फोन का सन्देश एक ही है ; सरकार कुछ बांटने नहीं आ रही और पुलिस सड़क तक जाने नहीं दे रही।  

इस बीच कोरोना का संक्रमण भी नहीं रोका जा सका।  खुद स्वास्थ्य सचिव अपने विदेश से लौटे बेटे की जानकारी छुपा कर अपने महकमे के बाकी लोगों को संक्रमित करती बताई जाती रहीं।  पीपीई और किट्स बाद की बात है अभी जांच का काम भी सही तरीके से शुरू नहीं हुआ है।  कोरोना से कितनी मौतें होंगी इसका अनुमान एक बार लगाया भी जा सकता है मगर इस कोरोना के चलते फैलने वाली भुखमरी से कितने मारे जाएंगे यह सोच कर ही सिहरन होने लगती है।  सामने दिख रही इस महामारी की न दिल्ली को परवाह है न भोपाल को।  उन्हें अपने साम्प्रदायिक अजेंडे को आगे बढ़ाने और अपनी नाकामियों को हिन्दू मुस्लिम के कुहासे में छुपाने की  तिकड़मों से फुरसत नहीं है। 

अभी मध्यप्रदेश ने न दिल्ली का महापलायन देखा है न ही सूरत और मुम्बई जैसा क्षुब्ध आक्रोश - मगर सब्र की एक सीमा होती है।  भोपाल और ग्वालियर की महिलाओं ने एक प्रदर्शन करके इस सीमा के टूटने के संकेत दे दिए हैं। हुक्मरानों को पता होना चाहिए कि एक माँ खुद भूखी रह सकती है मगर अपने बच्चों को भूख से बिलखता नहीं देख सकती - उसकी भूख के लिए वह कुछ भी कर सकती है ; कुछ भी मतलब कुछ भी । 

ऐसा कुछ भी होने की  नौबत आये इससे पहले बिना कैबिनेट के मुख्यमंत्री को कुछ करना चाहिए  - गाल बजाने की बजाय सचमुच का कुछ। मगर ऐसा कुछ करने की बजाय फिलहाल वे मंत्रिमंडल के नामो की काट-छांट में व्यस्त हैं।   

(बादल सरोज वरिष्ठ लेखक और पत्रकार हैं। आप किसान और मज़दूर संगठन से भी जुड़े हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)  

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