Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्या नागालैंड से AFSPA हटा देना चाहिए?

पिछले साठ सालों से अधिक समय से नागालैंड में अफस्पा लगा है, लेकिन अब तक नागालैंड की अशांति खत्म नहीं हुई है। इसका क्या मतलब है?
nagaland
Image courtesy : The Hindu

नागालैंड में जो हुआ वह नहीं होना चाहिए था। लेकिन नागालैंड जिस अशांति की रणभूमि में जीता चला आया है, वहां पर दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की घटने की संभावना हमेशा बनी रहती है। भारतीय सैन्य बलों की चूक की वजह से कोयले की खदानों के 6 मजदूर मारे गए। यह मजदूर नागालैंड की मोन जिले के तिरु इलाके से आ रहे थे। नागालैंड का यह इलाका म्यानमार की सीमा पर मौजूद है।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद स्थानीय नागरिकों और सैन्य बलों में झड़प हुई और अब तक तकरीबन 14 नागरिकों के मारे जाने की खबर आ रही है। सैन्य बलों का कहना है कि उन्हें भरोसेमंद सूचना मिली थी कि गाड़ी में उग्रवादी है। जबकि गाड़ी में कोयले की खदान के मजदूर थे। सैन्य बलों ने कहा कि गाड़ी को रोकने की भी कोशिश की, लेकिन गाड़ी नहीं रुकी। तब जाकर उन्होंने फायरिंग की। जिसमें निर्दोष मजदूर मारे गए। 

उन्हें अपनी कार्रवाई पर बहुत अधिक खेद और दुख है। जबकि इस के उलट सैन्य बलों की फायरिंग में 8 मजदूरों में से 6 मजदूरों के मरने के बाद घायल हुए। 2 मजदूर जो अस्पताल में भर्ती हैं, उनका कहना है कि सैन्य बलों ने गाड़ी नहीं रोकी। सीधी फायरिंग करनी शुरू कर दी। वहीं के स्थानीय भाजपा नेता ने नागालैंड के स्थानीय अखबारों में बयान दिया है कि जब वह खबर सुनकर दुर्घटना के स्थान पर पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि सेना के लोग मरे हुए मजदूरों को खाकी की वर्दी पहनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसका मतलब क्या है? सेना के लोगों ने उन पर गोलियां भी चलाई। इस झड़प में उनके एक सहयोगी की मौत हो गई।

इन दो तरह की बातों में सच क्या है? इसे जानना दिल्ली या नागालैंड के किसी भी पत्रकार के लिए बहुत मुश्किल काम है। लेकिन प्रशासनिक अधिकारियों के लिए सच जानना उतना ही आसान है, जितना किसी नागरिक के लिए सच जानना मुश्किल है। वह इमानदारी से इसकी छानबीन करें, तो सच उजागर कर सकते हैं हैं। लेकिन दिक्कत यही है कि नागालैंड जैसे अशांत क्षेत्र में ईमानदारी की रोशनी बहुत कम है। इसकी मिसाल इसी घटना से जुड़े बयानों में छिपी हुई है।

एक मिसाल और देखिए कि घायल व्यक्तियों के परिजनों ने पत्रकारों को यह कह कर बातचीत करने से मना कर दिया कि नागालैंड के प्रशासन की तरफ से उन्हें कड़ी हिदायत दी गई है कि वह पत्रकारों से बात ना करें। अब ऐसे में कैसे सच सामने आ सकता है?

इस घटना के बाद नागालैंड के तमाम आदिवासी संगठन और नागालैंड की भाजपा के सरकार के मुख्यमंत्री सब एक सुर में यह बात कहने लगे हैं कि नागालैंड से आर्म्ड फोर्सज स्पेशल पावर्स एक्ट को खत्म किया जाए। स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम इस घटना की इमानदारी से छानबीन करे और सही तथ्य जनता के सामने प्रस्तुत करें।

सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम The Armed Forces (Special Power) Act यानी AFSPA यानी अफस्पा कानून की धारा तीन के तहत केंद्र सरकार या राज्य के गवर्नर को यह शक्ति होती है कि अगर उन्हें राज्य या राज्य के किसी इलाके की स्थिति इतनी चिंताजनक, खतरनाक, असामान्य दिखे कि उसे संभालना मुश्किल हो रहा है या राज्य की रोजाना की कार्यवाहियों की बस की बात ना हो तो अफ्सपा के तहत शक्तियों का इस्तेमाल करने की इजाजत मिल जाती है। अफ्स्पा एक ऐसा कानून है जो सर्च, अरेस्ट और फायर करने के लिए सैन्य बलों को बेलगाम शक्ति देता है।

इसे भी पढ़े : नागा विवाद और शांति समझौता : ग़ुलाम भारत से लेकर आज़ाद भारत तक

सैन्य बल बिना वारंट के छानबीन कर सकते हैं और किसी को गिरफ्तार कर सकते हैं। जब तक केंद्र सरकार की अनुमति ना मिले तब तक किसी भी सैन्य बल पर किसी तरह की कानूनी कार्रवाई की शुरुआत नहीं की जा सकती है।

जैसा कि यह स्पष्ट है कि केंद्र सरकार को असीमित शक्तियां मिली हैं। सैद्धांतिक तौर पर यह होना चाहिए कि राज्य सरकार की सलाह पर केंद्र सरकार का फैसला ले कि आफस्पा लगना चाहिए या हटना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं होता केंद्र सरकार के आदेश पर अफस्पा लगती है और केंद्र सरकार के आदेश से हटती है। अब तक नागालैंड की तरफ से राज्य की अगुवाई कर रही कई सरकारों ने अफस्पा हटाने की सलाह दी है लेकिन केंद्र सरकार ने इसे अब तक स्वीकार नहीं किया है। कई सारी ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिन के विरोध में कई बार मानव अधिकार संस्थाओं से लेकर नागरिक समाज ने नागालैंड से अफस्पा हटाने की मांग की है।

पूर्वोत्तर मामलों की जानकार नंदिता हक्सर न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहती हैं कि साल 1958 से नागालैंड में अफस्पा लगा हुआ है। बहुत अधिक शक्तियों के साथ मिलिट्री वहां पर दशकों से मौजूद है। इसलिए यह बात तो पचने लायक नहीं है कि इंटेलिजेंस असफलता की वजह से इतनी बड़ी दुर्घटना हो गई। भारत सरकार कहती है कि बिना अफस्पा के नागालैंड जैसे अशांत क्षेत्र को नहीं संभाला जा सकता है। अफस्पा के सहारे ही वहां का प्रशासन हो सकता है। जबकि जमीनी हकीकत बिल्कुल इससे उलट कहानी दर्शाती है। साल 1958 में नागा उग्रवाद से जुड़ा केवल एक संगठन वहां काम कर रहा था। आज की तारीख में तकरीबन 11 संगठन नागा उग्रवाद की अगुवाई करने वाले हो गए हैं। इंटेलिजेंस को लगता है कि इन संगठनों को बांटकर और आपस में लड़ाकर वह नागालैंड के मसले को संभाल लेगी। लेकिन नागालैंड में जो हो रहा है, वह यह है कि मामला पहले से जटिल होता जा रहा है। हिंसा की वारदातें बढ़ती जा रही हैं। नागालैंड की परेशानी एक पॉलिटिकल परेशानी है। इसका हल पॉलिटिकल ही हो सकता है। मिलिट्री से इसका हल नहीं निकल सकता।

नंदिता हक्सर आगे बताती हैं कि आजादी के बाद से लेकर अब तक नागालैंड के साथ ढेर सारी शांति वार्ताएं हो चुकी हैं। लेकिन इन शांति वार्ताओं का ज्यादा मकसद उग्रवाद को कम करने से जुड़ा है। अगर इनका ध्यान नागालैंड की परेशानी को पॉलिटिकल तरीके से हल करने से जुड़ा होगा तभी जाकर सफलता की राह बन सकती है।

पूर्वोत्तर मामलों के जानकार कौशिक डेका इंडिया टुडे से बातचीत में कहते हैं कि नागालैंड की परेशानी का हल मिलिट्री नहीं है। यह बात कि नागालैंड के लोग शांति चाहते हैं, दिल्ली तक नहीं पहुंच पाती। सारी बातचीत दिल्ली की तरफ से प्रतिनिधित्व करने वाले कुछ लोगों और उग्रवादी संगठनों के बीच होती है। लोगों का इसमें कहीं अता-पता नहीं होता। उनकी बात निकलकर सामने नहीं आती। सबसे सरल और महत्वपूर्ण बात यह है कि केंद्र की तरफ से होने वाली बात चीत में आम जनता के हक की बातें सबसे ऊपर होनी चाहिए। लोगों को केंद्र से हटाकर अफस्पा और सैन्य बलों के सहारे नागालैंड को संभालने की रणनीति की वजह से नागालैंड में आतंकवाद के छोटे-छोटे उद्योग बन चुके हैं। यह सब चाहते हैं कि नागालैंड में शांति बहाली ना हो। इसकी अस्थिरता बनी रहे। इनका काम होता रहे। दिल्ली सहित शेष भारत के लोगों को यह समझना पड़ेगा कि मिलिट्री के दम पर नागालैंड को नहीं संभाला जा सकता। परिस्थितियां जटिल है। इसका समाधान राजनीति के रास्ते से ही जाता है।

आसाम राइफल के एक अधिकारी ने मीडिया से बात करते हुए बताया कि साल 1958 में उग्रवादी संगठन यूनिफॉर्म पहन कर अपनी कार्रवाई को अंजाम देते थे। अभी स्थिति इतनी जटिल हो गई है कि छोटे-छोटे ग्रुप खड़े हो चुके हैं। लोगों से वसूली करते हैं और अपना धंधा चलाते हैं। इनकी पहचान करना बहुत मुश्किल है। उनके पास बंदूके होती हैं। लेकिन कोई ऐसी पहचान नहीं होती कि उन्हें दूर से ही पहचान लिया जाए।

कानूनी मामलों के जानकार गौतम भाटिया हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि अफस्पा कानून का मॉडल अंग्रेजों के जमाने का मॉडल है। भारत छोड़ो आंदोलन के समय अंग्रेजों ने भारतीयों के विरोध और विद्रोह को रोकने के लिए इस कानून को लागू किया था। यही आधार अफस्पा कानून की जननी है। यह कानून संवैधानिक लोकतंत्र के दो कामों को धुंधला कर देता है। एक संवैधानिक लोकतंत्र में अंतर्निहित है कि देश के भीतर अपने नागरिकों पर पुलिस प्रशासन का इस्तेमाल होगा और देश से बाहर के विरोध पर सैन्य बलों का इस्तेमाल होगा। इसलिए जहां भी अशांत क्षेत्र घोषित कर अफस्पा का इस्तेमाल होता है, वह संवैधानिक लोकतंत्र की भावना के खिलाफ जाता है। नागालैंड में पिछले 60 सालों से अधिक समय से अफस्पा कानून लागू है लेकिन अब भी उग्रवाद का सफाया नहीं हुआ है। अलगाव ज्यादा बढ़ा है।

कई विशेषज्ञों की रिपोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश के अध्यक्ष में गठित कमेटी की रिपोर्ट का अध्ययन  अफस्पा की वकालत नहीं करता है। सुप्रीम कोर्ट के भूतपूर्व न्यायाधीश अध्यक्षता में गठित रिपोर्ट तो यह कहती है कि अफस्पा कानून का इस्तेमाल करते हुए जब सैन्य बल हिंसा पर उतरते हैं तो हिंसा का चक्र शुरू हो जाता है। वह हिंसा जल्दी से रुकने का नाम ही नहीं लेती है। ( उदहारण के तौर पर इसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना में 6 कोयला खदान के मजदूरों के जान के बाद बाकी लोगों की जान इसके बाद पैदा हुई हिंसा की वजह से गई)

बुनियादी बात यह है कि पूर्वोत्तर का इलाका और शेष भारत के बीच केवल 22 किलोमीटर एक पट्टी पुल का काम करती है। पूर्वोत्तर के इलाके को शेष भारत से ज्यादा गहरे लगाव की जरूरत है। लागव की गहरी भावना पूर्वोत्तर के इलाके के लिए रामबाण उपाय है। अफस्पा जैसे कानून जो शेष भारत में अशांति को संभालने के लिए इस्तेमाल नहीं किए जाते उनका इस्तेमाल पूर्वोत्तर के इलाके में होता है। यह बताता है कि हम पूर्वोत्तर के साथ अलगाव बरते रहे हैं। हम उस इलाके को वैसे नहीं देख रहे जैसे हम शेष भारत को देखते हैं। वहां की परेशानियां निश्चित तौर पर नृजातीय और कई तरह की विविधताओं की वजह से अलग है। लेकिन उनका इलाज अफस्पा जैसे कानून के सहारे नहीं हो सकता।अधिकतर विशेषज्ञ एक अमूर्त सी बात कहते है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और मानवाधिकार के बीच संतुलन बनाने के लिए अफस्पा जैसे कानूनों की जरूरत है। लेकिन इस रूपक के सहारे बात करने पर यह नहीं पता चलता कि हम किसका पक्ष ले? अफस्पा की वजह से मानविधकार का घनघोर उल्लंघन दबी रही जाती है।

नंदिता हकसर तो इससे भी बढ़कर बड़ी बात कहती हैं कि केवल AFSPA हटा देने से नागालैंड की अंतहीन परेशानी का अंत नहीं हो जाएगा। हमारे देश में AFSPA के अलावा भी नागरिक अधिकारों का हनन करने के लिए ढेर सारे कानून मौजूद हैं। वह AFSPA का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो उनके पास TADA है, POTA है, UAPA है। इन कठोर कानूनों से भी राज्य को असीमित शक्तियां मिलती हैं। सबसे दुखद बात यह है कि हिंदुस्तान से लेकर पूरी दुनिया में मानव अधिकार की रक्षा करने के लिए राजनीतिक बातचीत पर ज्यादा जोर देने की बजाए मिलिट्री का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया गया है। यही सबसे बड़ी परेशानी है। मानव अधिकार की रक्षा बंदूक के दम पर नहीं की जा सकते है।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest