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क्या इंसानों को सूर्य से आने वाले प्रकाश की मात्रा में बदलाव करना चाहिए?

सूर्य विकरण को तकनीक के ज़रिए प्रबंधित करना संभव है। लेकिन यहां नैतिक और राजनीतिक चिंताएं हैं।
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हेलियोसेंट्रिक: द नेशनल एकेडमीज़ ऑफ़ साइंस, सोलर एनजीनियरिंग में एक बहुराष्ट्रीय शोध कार्यक्रम की वकालत कर रही है। (फोटो: सोकी/फ्लिकर)

कहावत है कि कठिन समय में कठिन फ़ैसले लेने होते हैं। वैज्ञानिक, नीति निर्माता और राजनेताओं की मौसम परिवर्तन, ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन पर टकटकी लगी हुई है। यहां उल्टी घड़ी चल रही है। अब इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि जिन उपायों को वैज्ञानिक गल्प मानकर खारिज किया जाता रहा है, अब वे मुख्यधारा में आ रहे हैं।

अब "सेंटर स्टेज जियो-एनजीनियरिंग" तस्वीर में आई है, जिसे अब तक वैश्विक तापन के खिलाफ़ लड़ाई में लज्जा के साथ देखा जाता था।

जियोएनजीनियरिंग एक व्यापक शब्दावली है, जिसके करीब़ कुछ दूसरी शब्दावलियां, जैसे "क्लाइमेट एनजीनियरिंग" और "क्लाइमेट चेंज मिटिगेशन (मौसम परिवर्तन शमन) हैं, साथ ही इससे जुड़ी कुछ दूसरी तकनीक भी हैं। इनमें से कुछ, जैसे जंगलीकरण और "ओसियन ऑयरन फर्जीलाइजेशन (समुद्री लौह उर्वरीकरण)", कार्बन डाइऑक्साइड निष्पादन (CDR) के उपायों के तहत आती हैं। यह वह तकनीकें हैं, जो मौसम परिवर्तन की सुई को थोड़ा धीमा करने में सहायक होंगी। 

इनकी तुलना में "सौर विकरण प्रबंधन (SRM- सोलर रेडिएशन मैनेजमेंट)" के तहत आने वाली तकनीकों के ज़्यादा तीव्र गति से काम करने का अनुमान है। इसके चलते इनके बारे में खूब चर्चा भी हो रही है। सोलर एनजीनियरिंग वह विचार है, जिसमें इंसान कृत्रिम तरीके से तय करेगा कि कितनी सौर किरणें और ताप वातावरण में आनी चाहिए। इसमें ज़्यादा ऊंचाई पर मौजूद पक्षोभ बादलों (सिरस क्लाउड- पतली चादरों वाले बादल) को और भी पतला करना शामिल है, जिससे इंफ्रारेड किरणें परावर्तन के बाद सीधे ऊपर की दिशा में चली जाएंगी, इसके अलावा इस तकनीक में निम्न स्तर पर मौजूद समुद्री बादलों को प्रकाशित किया जाने का विचार है, जो बची हुई सौर किरणों को वापस अंतरिक्ष में भेज देंगे।

जिस SRM तकनीक पर सबसे ज़्यादा राजनीतिक सहमति है, वह सल्फर डाईऑक्साइड की तरह के एरोसॉल का वायुमंडल की ऊपरी सतह में फैलाव है, ताकि यह सौर प्रकाश के खिलाफ़ बाधा की तरह काम करे। इन सारी तकनीकों की प्रेरण ज्वालामुखीय उदगार, जैसे 20 साल पहले पिनाटुबो, हैं। इससे बड़ी मात्रा में समतापमंडल में सल्फर डाईऑक्साइड के फैलने में मदद मिलती है। एक बार हवा में फैलने के बाद एरोसॉल सल्फर अम्ल के बादलों के रूप में बदल जाता है और सौर ऊर्जा को परावर्तित कर देता है, जिससे पृथ्वी ठंडी रहती है। 

इस तरह के उपायों को नियंत्रित ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है, यह विचार पिछले कुछ समय से दुनिया में चल रहा है। जैसे- दक्षिणपंथी थिंकटैंक द अमेरिकन एंटरप्राइज़ इंस्टीट्यूट ने 2008 में SRM तकनीक में एक शोध कार्यक्रम भी शुरू किया था। 

एक साल बाद 2009 में ब्रिटेन की रॉयल सोसायटी ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा कि सीडीआर और एसआरएम तकनीकों का इस्तेमाल मौसम परिवर्तन की चुनौती के समाधान में हो सकता है। लेकिन यह काफ़ी गहन शोध के बाद ही संभव है। लेकिन हाल में जियोएनजीनियरिंग, खासतौर पर एसआरएस के आसपास बातचीत तेज हो गई है।

मार्च, 2021 में "नेशनल एकेडमिक्स ऑफ साइंस, एनजीनियरिंग एंड मेडिसिन (NASEM)" ने एक रिपोर्ट जारी कर सौर जियोएनजीनियरिंग में एक बहुराष्ट्रीय शोध कार्यक्रम की वकालत की। हार्वर्ड के शोधार्थी कैल्सियम कार्बोनेट द्वारा निर्मित एरोसॉल के समतापमंडल में छो़ड़ने के प्रयोग को हरी झंडी मिलने का इंतजार कर रहे हैं, ताकि देखा जा सके कि यह कैसे व्यवहार करता है। 

इस परियोजना का पहला प्रयोग इस साल जून में स्वीडन में होना था, लेकिन स्थानीय समूहों द्वारा विरोध के चलते इसे अगले साल के लिए टाल दिया गया। अप्रैल में रोलिंग स्टोन ने सोलर एनजीनियरिंग पर एक विमर्श चालू किया, जिसमें हार्वर्ड के डेविड कीथ भी शामिल थे, जो जियोएनजीनियरिंग प्रोजेक्ट का नेतृत्व कर रहे हैं। विमर्श के दौरान कीथ ने समताप मंडल में एरोसॉल को छोड़ने की प्रक्रिया को "बेहद आसान" बताया। 

भले ही यह आसान हो। लेकिन बिना प्रतिबद्ध राजनीतिक मंशा के क्या यह एक वैधानिक समाधान बन पाएगा। सबसे ज्वलंत सवाल है कि क्या कभी ऐसी तकनीकें लागू हो पाएंगी?    

व्यवहारिक और नैतिक चिंताएं

बहस के केंद्र में यह बात है कि इन तकनीकों से उपजने वाले, संभावित व्यापक और जटिल नतीज़ों के बारे में फिलहाल हमें जानकारी नहीं है और जैसा अब तक रहा है, इस तरह की कवायद के लिए जरूरी निवेश होने में भी दिक्कत रह सकती है, ऐसे में हमें सोलर एनजीनियरिंग की कवायद के दौरान हमें आंकड़े मिलने में कमी आ सकती है। यूनिवर्सिटी ऑफ मोंटाना में "सेंटर फॉर एथिक्स" के निदेशक डेन स्कॉट कहते हैं, "मौसम परिवर्तन को रोकने के लिए इस तरह की तकनीक के इस्तेमाल के साथ दिक्कत यह है कि इसके लिए जरूरी निवेश उपलब्ध नहीं है।"

ज़्यादातर मॉडल बताते हैं कि सोलर एनजीनियरिंग में निश्चित तौर वायुमंडल ताप बढ़ने, जल उपलब्धता में हो रहे बदलाव और समुद्र का बढ़ता स्तर, जैसी समस्याओं का समाधान करने की संभावना है, लेकिन व्यवहारिक ज़मीनी प्रयोगों, सोरल एनजीनियरिंग के प्रस्तावों की कंप्यूटर गणना से संबंधित सीमित आंकड़े उपलब्ध होने के चलते, यह सोलर एनजीनियरिंग का तरीका, वैचारिक स्तर पर ही आकर रुक जाता है। 

इसे ध्यान में रखते हुए, कई विशेषज्ञ NASEM की तरह सोलर एनजीनियरिंग शोध में बड़े निवेश की वकालत करते हैं। लेकिन अगर यह शोध होता है, तो यही लोग चेतावनी देते हुए कहते हैं कि पूरी प्रक्रिया को पारदर्शी और खुले तौर पर होना चाहिए, जिसमें वैश्विक समुदाय की सभी दिशाओं से भागीदारी होना चाहिए, मतलब विकसित और विकासशील देशों की बराबर भागीदारी होनी चाहिए।  

समताप मंडल में एरोसॉल के उपयोग पर चेतावनी देते हुए स्कॉट कहते हैं, "बिना गहन शोध के इसका इस्तेमाल बेहद गैर-जिम्मेदार होगा। लेकिन अगर हम इस शोध को गुप्त तरीके से भी करते हैं, तो भी यह बेहद खराब होगा, क्योंकि यह पूरी दुनिया को प्रभावित करेगा।"

यह बातें हमें SRM तकनीकों द्वारा पेश की जाने वाली तमाम सामाजिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय चिंताओं के साथ-साथ नैतिक दुविधाओं के सामने खड़ी कर देती हैं। इस पूरे विमर्श को देखने के लिए एक अच्छा तरीका नैतिक जोख़िम के नज़रिए से देखना हो सकता है, जो कहता है कि हम अपने व्यवहार के नतीज़ों से जितना ज़्यादा सुरक्षित रहेंगे, हमारा व्यवहार उतना ही जोख़िम भरा रहेगा। 

SRM तकनीकों के मामले में देखें तो किसी को भी यह चिंता हो सकती है कि इन तकनीकों के अध्ययन पर ध्यान देने की गंभीर कोशिशें राजनीतिक नेताओं को उम्मीद दे सकती हैं, जो बदले में मौसम परिवर्तन को रोकने लिए चल रहे प्रयासों से अहम संसाधन हटा सकते हैं। खासकर वे प्रयास जिनके ज़रिए 2050 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन हो "कुल शून्य" करने की कवायद चल रही है, जिन्हें IPCC (इंटरगवर्नंमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज) से मान्यता मिली है। 

एक और डर यह है कि एसआरएम तकनीकों का कोई भी ऊचित उपयोग, जीवाश्म ईंधन कंपनियों को पहले की तरह व्यवहार करने के लिए प्रेरित कर सकता है, जिससे तमाम तरह के नतीज़े निकलने की संभावना बन जाती है, जिसमें प्रदूषण से उपजने वाली स्वास्थ्य समस्याएं भी शामिल हैं। 

लॉस एंजिल्स की यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया में "इंस्टीट्यूट ऑफ़ एंवायरमेंट एंड सस्टेनेबिल्टी" में शोधार्थी होली बक कहती हैं, "नैतिक जोख़िम एक केंद्रीय चिंता है, जिसके साथ मौसम परिवर्तन को लेकर कई सारी प्रतिक्रियाएं हैं. यह एक वास्तविक और व्यापक चिंता है. क्योंकि अब तक हमें मौसम कार्रवाई को लेकर वास्तविक प्रतबिद्धता देखने को नहीं मिली है।" 

सोलर एनजीनियरिंग की तकनीकों के इस्तेमाल से कुछ अहम भूराजनीतिक चिंताएं भी जन्म लेती हैं। इंग्लैंड में लंकास्टर एंवायरनमेंट सेंटर में प्रोफ़ेसर और शोधार्थी डंकन मैक्लारेन कहते हैं, "आपको हमेशा ताकत पर सवाल पूछना होगा। दुनिया कैसे चलती है, इस पर बनाई गई पश्चिमी उदारवादी अवधारणा हमेशा समस्याग्रस्त रही है।" दूसरे शब्दों में कहें तो किसके पास प्रशासन की ताकत रहेगी और किसके ऊपर इसके उपयोग की जवाबदेही रहेगी? यह कोई छोटे मुद्दे नहीं हैं।

इसका एक डर यह है कि कुछ एक या दो भ्रष्ट राष्ट्र या कोई अरबपति भी, जिसने खुद को दुनिया का रक्षक घोषित किया है, वह खुद ही अकेले सूर्य को झुकाने की जिम्मेदारी ले सकता है। उन्हें कौन रोकेगा और किसके संरक्षण में यह होगा? यह हमें उन मुद्दों की तरफ खींचते हैं, जो सोलर एनजीनियरिंग की तकनीकों को लागू करने के बाद उभरते हैं।  

तब क्या होगा जब कोई देश या क्षेत्र भयानक सूखे का सामना करता है और जिसके लिए राजनीतिक नेता सोलर एनजीनियरिंग को दोषी ठहराएंगे? इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए क्या राजनीतिक तंत्र काम करेगा? क्या तब कोई देश स्वायत्त ढंग से इस कार्यक्रम से बाहर आ सकेगा?

फिर इस बात की भी थोड़ी बहुत संभावना बनती है कि वैश्विक तत्व जानबूझकर सोलर एनजीनियरिंग का इस्तेमाल अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के खिलाफ़ करेंगे। पर्यावरणीय नैतिकता और मौसम नीति पर काम करने वाले डेविड मोरो कहते हैं, "मुझे हमेशा इस बात का अंदेशा रहा है कि एसआरएम का इस्तेमाल प्रभावी तौर पर हथियार के रूप में हो सकता है।" मोरो कहते हैं कि यह अपवाद समुद्री बादल को प्रकाशवान करने वाली तकनीक है, क्योंकि उसका इस्तेमाल वैश्विक के बजाए, क्षेत्रीय तौर पर किया जा सकता है। 

लेकिन दूसरी तरफ, मोरो, वैश्विक वित्तीय तंत्र, इलेक्ट्रिक ग्रिड और जीपीएस सेटेलाइट ट्रेकिंग सिस्टम की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहते हैं कि प्रशासन और  सोलर एनजीनियरिंग को लागू करने के लिए संभावित ढांचे का नमूना भी दुनिया में मौजूद है। वह कहते हैं, "सभी तुलनाओं की अपनी सीमा होती है। ऊपर मैंने जिन चीजों का उल्लेख किया, उनकी एक अहम सीमा यह है कि इन तंत्रों में व्यक्तिगत स्तर पर या संबंधित देश अपने हिसाब से बाहर निकल सकते हैं, हालांकि इसके लिए एक कीमत चुकानी होती है, लेकिन वे ऐसा कर सकते हैं। लेकिन सोलर एनजीनियरिंग के संबंध में ऐसा नहीं हो सकता।  

एसआरएम तकनीक को आगे बढ़ाने वालों के सामने सबसे बड़ी बाधा जनता के मत की होगी। पोल में पता चला है कि अमेरिकी जनता, मौसम परिवर्तन के समाधान के तौर पर जियोएनजीनियरिंग के उपयोग को लेकर असमंजस में है। पश्चिमी संस्कृति में इस ऊहापोह की स्थिति पर हैरानी नहीं होनी चाहिए, आखिर वहीं तो मानव निर्मित आपदा की चेतावनी आइकेरस की ग्रीक कहानी के रूप में दी गई है, जहां आइकेरस ने सूर्य के ज़्यादा पास जाने की कोशिश की थी और अपने पंख गंवा बैठा था। हाल में एक टीवी सीरीज़ "स्नोपियर्सर" आई थी, जिसमें जलजले के बाद की दुनिया दिखाई गई थी, यह जलजला इंसान द्वारा सूर्य को बाधित करने के चलते आया था। 

न्यू ब्रून्सविक में रटगेर्स यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान विभाग के जाने माने प्रोफ़ेसर एलन रोबोक के मुताबिक, जनता द्वारा चुप्पी का संयम रखने से, सोलर एनजीनियरिंग के ज़रिए बढ़ते तापमान के प्रभावों को बदलने संबंधी कार्रवाई संभव हो सकती है।  

वह कहते हैं, "अगर आप भीड़ में किसी से कहें कि हम आपकी बेटी के स्कूल के ऊपर से एक हवाई जहाज उड़ाने वाले हैं या हम वातावरण में सल्फ्यूरिक अम्ल का छिड़काव करने वाले हैं और इससे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या का खात्मा होने वाला है, तो वे लोग जवाब में कह सकते हैं कि 'आप पागलपन से जुड़ी चीजें सोच रहे हैं? खैर, मुझे अब पहले की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग से ज़्यादा डरना चाहिए।' तो कुलमिलाकर ऐसा बोलना आपके ही खिलाफ़ जा सकता है।"

डेनियल रॉस एंजिल्स में रहने वाले पत्रकार हैं, जिनका काम ट्रुथआउट, द गार्डियन, फेयरवार्निंग, न्यूज़वीक, यस मैगजीन, सैलॉन, आल्टरनेट, वाइस और दूसरे प्रकाशनों में प्रकाशित हो चुका है। उन्हें आप ट्विटर पर @1danross फॉलो कर सकते हैं।

इस लेख को "अर्थ | फ़ूड | लाइफ" ने प्रकाशित किया था, जो इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट का एक प्रोजेक्ट है। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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