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सिख इतिहास की जटिलताओं को नज़रअंदाज़ करता प्रधानमंत्री का भाषण 

प्रधानमंत्री द्वारा 400वें प्रकाश पर्व समारोह के मौके पर दिए भाषण में कुछ अंश ऐसे हैं जिनका दूरगामी महत्व है और बतौर शासक  देश के संचालन हेतु उनकी भावी कार्यप्रणाली एवं चिंतन प्रक्रिया के संकेत भी इनमें अंतर्निहित हैं।
Modi
गुरु तेग बहादुर साहिब के 400वें प्रकाश पर्व पर प्रधानमंत्री मोदी

विगत दिनों प्रधानमंत्री जी ने लाल किले से श्री गुरु तेग बहादुर जी के 400वें प्रकाश पर्व समारोह के मौके पर देश को संबोधित किया। उनके भाषण में, 26 दिसंबर को वीर बाल दिवस के रूप में मनाने का निर्णय, करतारपुर साहिब कॉरिडोर का निर्माण, गुरु गोविंद सिंह जी से जुड़े तीर्थ स्थानों पर रेल सुविधाओं का आधुनिकीकरण, ‘स्वदेश दर्शन योजना’ के जरिए पंजाब में सभी प्रमुख स्थानों को जोड़कर एक तीर्थ सर्किट के निर्माण की योजना, अफगान संकट के दौरान गुरु ग्रंथ साहिब के स्वरूपों को भारत लाने और वहां से आने वाले सिखों को नागरिकता संशोधन कानून के तहत नागरिकता मिलने का सविस्तार जिक्र था।

प्रतीकवाद की राजनीति में निपुण प्रधानमंत्री किसान आंदोलन के बाद पंजाब में अपनी और भाजपा की अलोकप्रियता से अवश्य चिंतित होंगे और एक शासक के रूप में अपने अनिवार्य कर्त्तव्यों को सिख समुदाय के प्रति अनुपम सौगातों के रूप में प्रस्तुत करना उनकी विवशता रही होगी। 

बहरहाल उनके भाषण में कुछ अंश ऐसे हैं जिनका दूरगामी महत्व है और बतौर शासक देश के संचालन हेतु उनकी भावी कार्यप्रणाली एवं चिंतन प्रक्रिया के संकेत भी इनमें अंतर्निहित हैं।

उन्होंने कहा, "उस समय देश में मजहबी कट्टरता की आँधी आई थी। धर्म को दर्शन, विज्ञान और आत्मशोध का विषय मानने वाले हमारे हिंदुस्तान के सामने ऐसे लोग थे जिन्होंने धर्म के नाम पर हिंसा और अत्याचार की पराकाष्ठा कर दी थी। उस समय भारत को अपनी पहचान बचाने के लिए एक बड़ी उम्मीद गुरु तेगबहादुर जी के रूप में दिखी थी। औरंगजेब की आततायी सोच के सामने उस समय गुरु तेगबहादुर जी, ‘हिन्द दी चादर’ बनकर, एक चट्टान बनकर खड़े हो गए थे। इतिहास गवाह है, ये वर्तमान समय गवाह है और ये लाल किला भी गवाह है कि औरंगजेब और उसके जैसे अत्याचारियों ने भले ही अनेकों सिरों को धड़ से अलग कर दिया, लेकिन हमारी आस्था को वो हमसे अलग नहीं कर सका।"

मध्यकालीन भारत के इतिहास को इस्लाम और हिन्दू धर्म के संघर्ष के रूप में देखने का विचार श्री सावरकर के इतिहास विषयक लेखन में केंद्रीय स्थान रखता है और उनकी इतिहास दृष्टि बार बार हमें हिंसा, प्रतिशोध और घृणा को अपने दैनिक व्यवहार का सहज अंग बनाने की प्रेरणा देती है।

कट्टर हिंदुत्व की हिमायत करने वाली ताकतें, सिख धर्म को हिन्दू धर्म का अंग सिद्ध करने का प्रयास करती रही हैं। सन 2000 में सरसंघचालक के. सुदर्शन ने कहा था कि सिख धर्म हिन्दू धर्म का एक सम्प्रदाय है और खालसा की स्थापना हिंदुओं को मुग़लों के अत्याचार से बचाने के लिए हुई थी। वर्तमान संघ प्रमुख भी समय समय पर इसी मत का समर्थन करते रहे हैं।

कट्टर हिंदुत्व समर्थकों की बहुमुखी रणनीति की यह विशेषता है कि सरकार एवं संघ के वरिष्ठ नेता संयत भाषा में अल्पसंख्यक समुदाय को वही संदेश देते हैं, जो सरकार,संघ या भाजपा से असम्बद्ध समूह बहुत उग्रता से धमकी के रूप में उन तक पहुंचाते हैं। इस प्रकरण में भी सिख धर्म को हिन्दू धर्म पर आश्रित बताने के लिए एक आक्रामक अभियान पिछले दो वर्षों से अनेक पोर्टल्स और सोशल मीडिया पर चलाया जा रहा है। किसान आंदोलन के बाद इस अभियान में तेजी आई है। इसमें इस कथित झूठ का पर्दाफाश किया गया है कि सिखों ने हिंदुओं की रक्षा के लिए अस्त्र उठाए थे और यह "खुलासा" किया गया है कि मुग़लों के अत्याचार से त्रस्त सिखों ने जब शस्त्र धारण करने का निर्णय किया तो उन्हें सैन्य प्रशिक्षण देकर पराक्रमी योद्धा बनाने वाले राजपूत राजा ही थे। इसी प्रकार यह भी बताया गया है कि सिख गुरुओं के निकट सहयोगी और संबंधी तो भीतरघात कर मुग़लों से मिल जाते थे किंतु हिन्दू उनके प्राणरक्षक बने रहे।

सिख समुदाय के सामने विकल्प स्पष्ट हैं जैसा कि प्रधानमंत्री और संघ प्रमुख के कथन बहुत सूक्ष्मता से इंगित करते हैं कि सिख, मुसलमानों को अपना पारंपरिक शत्रु मान लें। वे अपनी धर्म परंपरा के एक आख्यान विशेष को जिसके अनुसार गुरु तेगबहादुर को औरंगजेब के आदेश पर कश्मीरी पंडितों की धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन करने के लिए मृत्युदंड दिया गया था, अपने भावी आचरण के लिए मार्गदर्शक बना लें और उन सहस्रों घटनाओं की अनदेखी कर दें जब मुसलमान सिखों के सहायक और रक्षक बने थे। यदि सिख ऐसा करते हैं तो कट्टर हिंदुत्व समर्थक शक्तियां उन्हें हिंदुओं के रक्षक के रूप में महिमामण्डित करेंगी लेकिन सिख धर्म की स्वतंत्र पहचान उनसे छीन ली जाएगी।

किंतु यदि सिख हमारी समावेशी और उदार परम्परा का पालन करने की गलती करते हैं और गुरुग्राम की गुरुद्वारा परिषद की भांति गुरुद्वारा परिसर जुमे की नमाज के लिए उपलब्ध करा देते हैं या अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह की भांति कश्मीरी महिलाओं पर अशोभनीय टिप्पणी करने वाले कट्टर हिंदुत्व समर्थकों को चेतावनी देकर सिख समुदाय से कश्मीरी महिलाओं के सम्मान की रक्षा का आह्वान करते हैं तब कट्टर हिंदुत्व समर्थकों की दूसरी टोली सामने आती है। यह वही टोली है जिसने किसान आंदोलन को पाकिस्तान परस्त और खालिस्तान समर्थक कहने की शरारत की थी और जो सोशल मीडिया पर सिख-मुस्लिम संबंधों के ऐतिहासिक उदाहरणों को इस तरह पेश करती है कि उनसे सिखों की राष्ट्र भक्ति पर संदेह हो।

सिख परंपरा के ही उद्धरण सिख गुरुओं और मुग़ल शासकों के बीच के संबंधों की जटिलता को दर्शाते हैं। गुरु नानक देव की अनेक जनम साखियों में यह उल्लेख मिलता है कि नानक (1469-1539) और बाबर (1483-1530) की मुलाकात हुई थी,शायद उन्हें बंदी भी बनाया गया था किंतु गुरु नानक की आध्यात्मिकता से प्रभावित बाबर ने उन्हें रिहा किया और गुरु नानक ने उसे कड़े शब्दों में आईना भी दिखाया। गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित गुरु नानक के चार सबद ऐसे हैं जिनमें बाबर की विनाशलीला चित्रित की गई है।

सिख परंपरा हमें यह भी बताती है कि हुमायूं ईरान की ओर पलायन करते समय खडूर में गुरु अंगद(1504-1552) की प्रतीक्षा करता है और उनसे आशीष प्राप्त कर ही आगे बढ़ता है। अकबर(1542-1605) को मोटे तौर पर सिख गुरुओं के प्रति सहिष्णु और उदार माना जा सकता है और उसके जीवन काल में गुरु अमर दास(1479-1574), गुरु रामदास (1534-1581) तथा गुरु अर्जुन (1563-1606) को सम्मान मिला।

किंतु जहाँगीर (1569-1627) अनुदार स्वभाव का था। जहाँगीर द्वारा गुरु अर्जुन को दिया गया मृत्युदंड सिख इतिहास के सर्वाधिक चर्चित एवं विवादित प्रसंगों में रहा है। मुग़ल कालीन भारत के विशेषज्ञ इतिहासकार रिचर्ड एच डेविस का मानना है कि सिख समुदाय के एक शक्तिशाली सामाजिक समूह में तबदील होने के बाद सिख गुरु राजनीतिक मामलों में अधिक सक्रिय भूमिका निभाने लगे थे। गुरु अर्जुन को मुग़ल सत्ता संघर्ष में पराजित खेमे का साथ देने की सजा मिली। 

बेनी प्रसाद के अनुसार उदार और कोमल हृदय वाले गुरु अर्जुन ने जहाँगीर के ज्येष्ठ पुत्र विद्रोही खुसरो को आशीष देने की गलती की जिसका लाभ गुरु अर्जुन के शत्रुओं ने उठाया। उन्होंने इसे धार्मिक रंग भी दिया और राजद्रोह के रूप में भी चित्रित किया तथा जहाँगीर को अंततः बरगलाने में कामयाबी हासिल की यद्यपि वह प्रारम्भ में गुरु अर्जुन के साथ नरमी से पेश आने का मन बना रहा था।

किंतु जहाँगीरनामा की पर्ण संख्या 27बी-28ए में फ़ारसी भाषा में अंकित विवरण का व्हीलर एम थैकस्टन द्वारा किया गया अनुवाद एक अलग तस्वीर प्रस्तुत करता है- "ब्यास नदी के किनारों पर गोइंदवाल में अर्जुन नाम का एक हिन्दू हुआ करता था। आध्यात्मिक गुरु का स्वांग रचते हुए उसने अपने अनेक अनुयायी बना लिए थे। अनेक सीधे साधे हिन्दू और इनसे भी अधिक अज्ञानी और मूर्ख मुसलमान संत होने के उसके दावों से प्रभावित होकर उसके शिष्य बन गए थे। वे उसे गुरु का संबोधन दिया करते थे। अनेक मूर्ख लोग(दरवेश की वेशभूषा धारी उपासक) उसकी शरण में थे और उस पर असंदिग्ध आस्था रखते थे। 

पिछली तीन चार पीढ़ियों से इनका (गुरु अर्जुन एवं उनके पूर्वजों का) यह कार्यकलाप चल रहा था। एक लंबे अरसे से मैं यह सोच रहा था कि या तो यह गोरखधंधा बंद हो या इस व्यक्ति को इस्लाम की छत्रछाया में लाया जाए। अंततः जब खुसरो वहां से गुजर रहा था तब इस तुच्छ छोटे व्यक्ति ने उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करनी चाही। जब खुसरो उसके घर पर रुका तो यह व्यक्ति बाहर आया और उसने खुसरो से भेंट की। इसने खुसरो को इधर उधर से उठाए गए कुछ प्रारंभिक आध्यात्मिक उपदेश दिए और खुसरो के मस्तक पर चंदन से एक निशान बनाया जिसे हिन्दू भाग्यशाली मानते हैं। जब इस बात की जानकारी मुझे मिली तो मैं समझ गया कि वह कितना बड़ा धोखेबाज है और मैंने आदेश दिया कि उसे मेरे पास लाया जाए। मैंने उसके और उसके बच्चों के आवासों को मुर्तज़ा खान(लाहौर के गवर्नर) के अधिकार में दे दिया। और मैंने आदेश दिया कि उसकी संपत्ति एवं सामान को जब्त कर लिया जाए तथा उसे मृत्युदंड दिया जाए।" 

जैसा इस उद्धरण से स्पष्ट है कि जहाँगीर एक लंबे समय से सिख धर्म के प्रति घृणा और विद्वेष की भावना रखता था और खुसरो की गुरु अर्जुनदेव से निकटता उसकी घृणा को चरम बिंदु तक ले गयी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जहाँगीर गुरु अर्जुन को हिन्दू का संबोधन देता है। वह सिख धर्म को अलग दर्जा देने को तैयार नहीं है - बिलकुल आज के आरएसएस विचारकों की भांति।

पशुरा सिंह ने अपने शोधपत्र "रीकॉन्सिडरिंग द सैक्रिफाइस ऑफ गुरु अर्जुन" में यह उल्लेख किया है कि जहाँगीर धर्म गुरुओं के प्रति बहुत आदर नहीं रखता था और उसका रवैया इनके प्रति अपमानजनक था। शेख निज़ाम थानेसरी नामक धर्म गुरु भी खुसरो से मिलते हैं और उसकी हौसलाअफजाई करते हैं किंतु जहाँगीर उन्हें राह खर्च देकर मक्का की यात्रा पर तीर्थाटन के लिए जाने का आदेश देता है। 

एक और अफगान धर्म गुरु शेख इब्राहिम के बढ़ते प्रभाव को देखकर जहाँगीर उन्हें चुनार के किले में तब तक बंधक रखने का आदेश देता है जब तक उनका असर खत्म न हो जाए। पशुरा सिंह यह रेखांकित करते हैं कि गुरु अर्जुन को मंगोल कानून यासा सियास्त के तहत यातनापूर्ण मौत की सजा देना और मुस्लिम धर्म गुरुओं को शरिया कानून के मुताबिक दंड देना जहाँगीर के अलग अलग धर्मावलंबियों के प्रति दोहरे रवैये को दर्शाता है।

बहरहाल गुरु अर्जुन के काल के अनेक ऐतिहासिक वृत्तांतों में इस बात का जिक्र मिलता है कि हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) की नींव गुरु अर्जुन देव के अनुरोध पर सूफी फ़क़ीर मियां मीर ने डाली थी।

गुरु अर्जुन की शहादत सिख समुदाय में बड़े बदलावों का सूत्रपात करती है और उनका स्थान लेने वाले गुरु हरगोबिंद सिखों के सैन्यकरण का प्रारंभ करते हैं। जहाँगीर गुरु हरगोबिंद को कैद कर लेता है और बाद में उन्हें रिहाई भी मिलती है। एक समय ऐसा आता है जब गुरु हरगोबिंद(1595-1644) और जहाँगीर के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो जाते हैं और वे जहाँगीर के साथ कश्मीर और राजपूताना में सैन्य अभियानों में हिस्सा लेते हैं और नालागढ़ के ताराचंद को पराजित करते हैं जो लंबे समय से जहाँगीर के लिए सरदर्द बना हुआ था।

किंतु सिखों की बढ़ती सैन्य शक्ति मुग़लों को खटकती है, आपसी संबंधों में तनाव आता है और हम गुरु हरगोबिंद को रोहिल्ला की लड़ाई में गवर्नर अब्दुल खान की फौजों से लड़ते एवं जीतते देखते हैं। शाहजहाँ(1592-1666) का शासन 1627 से प्रारंभ होता है, कुछ उसकी असहिष्णुता और कुछ सिखों की बढ़ती सैन्य शक्ति की अपरिहार्य परिणति- गुरु हरगोबिंद शाहजहाँ की फौजों से अमृतसर और करतारपुर में संघर्ष करते हैं और अमृतसर की लड़ाई(1634) में विजयी भी होते हैं।

शाहजहाँ का बड़ा सुपुत्र दारा शिकोह अगले सिख गुरु हर राय(1630-1661) का प्रशंसक था। दारा शिकोह उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगजेब से पराजित हुआ और औरंगजेब के लंबे शासन काल (1658-1707) की शुरुआत हुई। गुरु हर राय पर दारा शिकोह को समर्थन देने का आरोप लगा। औरंगजेब द्वारा दिल्ली बुलाए जाने पर वे खुद नहीं गए बल्कि उन्होंने अपने  पुत्र राम राय को भेजा। राम राय गुरु नानक की साखी की जानबूझकर गलत प्रस्तुति कर औरंगजेब को प्रसन्न करने में कामयाब हुए और इसके लिए उन्हें पिता की कड़ी फटकार का सामना करना पड़ा। गुरु हर राय के उत्तराधिकारी गुरु हरकिशन(1656-1664) पर भी औरंगजेब की नजर थी और उन्हें भी उसने दिल्ली बुलाया जहां चेचक से उनकी मृत्यु हो गई।

इसके बाद गुरु तेगबहादुर(1621-1675) का प्रकरण आता है। गुरु तेगबहादुर को दिए गए मृत्युदंड के कारण विशुद्ध रूप से धार्मिक नहीं थे बिलकुल उसी तरह जैसा हमने पहले देखा कि किस तरह गुरु अर्जुन को दी गई मौत की सजा के लिए सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक कारणों को उत्तरदायी नहीं माना जा सकता।

सिखों की राजनीतिक और सैन्य शक्ति बढ़ रही थी। मुग़ल साम्राज्य की छोटी छोटी रियासतों के लिए सिख गुरु राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की भांति थे। बादशाह औरंगजेब तक भी यह खबरें पहुँच रही थीं।

गुरु तेगबहादुर की गुरु के रूप नियुक्ति से आहत गुरु पद के लिए स्वयं को योग्य समझने वाले राम राय द्वारा निरंतर उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचे गए। औरंगजेब को गुरु तेगबहादुर के विरुद्ध भड़काने में राम राय की साजिशों और दुष्प्रचार की अहम भूमिका थी।

गुरु तेगबहादुर की नेतृत्व क्षमता, साहस और सैन्य शक्ति के कारण वे सारे लोग जो किसी भी कारण से तत्कालीन शासन से असंतुष्ट थे उनसे जुड़ रहे थे। इस घटनाक्रम को  गुरु तेगबहादुर के प्रतिद्वंद्वियों ने अतिरंजित रूप से गुरु तेगबहादुर के सुनियोजित षड्यंत्र के रूप में औरंगजेब के समक्ष चित्रित किया।

हमें यह भी भूलना नहीं चाहिए कि चांदनी चौक में गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद चांदनी चौक जेल कोतवाली के जेलर अब्दुल्ला ख्वाजा ने मुग़लों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था और वे गुरु तेगबहादुर को दिए गए मृत्युदंड का समाचार लेकर आनंदपुर साहिब पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे।

गुरु गोबिंद सिंह(1666-1708) और औरंगजेब के मध्य आजीवन संघर्ष चला। गुरु गोबिंद सिंह ने फ़ारसी भाषा में एक कवित्त औरंगजेब को भेजा जिसमें उसकी कठोर निंदा भी थी और उसे कड़ी चेतावनी भी दी गई थी। औरंगजेब ने उन्हें आपसी बातचीत के जरिए कोई हल निकालने के लिए अपने पास बुलाया किंतु दोनों की मुलाकात हो पाती इससे पहले ही औरंगजेब की मृत्यु हो गई। अगले बादशाह बहादुर शाह प्रथम का रवैया गुरु गोबिंद सिंह के प्रति नरम और दोस्ताना था और आपसी रिश्तों में सुधार की उम्मीद जगी भी थी किंतु गुरु गोबिंद सिंह की असामयिक मृत्यु हो गई और साथ ही गुरु परम्परा का अंत भी।

जसविंदर कौर बिंद्रा जैसे लेखकों के अनुसार बहादुर शाह ने गुरु गोबिंद सिंह के मित्र और फारसी भाषा के कवि नंदलाल के जरिए गुरु से मदद की याचना की थी। गुरु गोबिंद सिंह उसकी सहायता के लिए तैयार हो गए। बहादुर शाह ने उनसे यह वादा किया था कि  सत्ता पर काबिज होते ही वह उनके साथ हुए जुल्मों का न्याय करेगा। गुरु गोबिंद सिंह ने भाई धर्म सिंह के अगुवाई में 200-250 योद्धा सिखों की एक टुकड़ी बहादुर शाह की सहायता के लिए भेजी। बहादुर शाह युद्ध में विजयी होकर सत्तासीन हुआ। इसके बाद उसके आमंत्रण पर गुरु गोविंद सिंह माता साहिब कौर के साथ आगरा भी गए एवं उन्होंने बहादुर शाह का आतिथ्य स्वीकार किया।

यह जानना आश्चर्यजनक है कि गुरु गोबिंद सिंह ने मुग़लों के साथ जितने युद्ध लड़े शायद उतने ही या उससे कुछ अधिक हिन्दू राजाओं से लड़े। जातिवाद के विरोध में खड़े गुरु गोबिंद सिंह के सिख धर्म के साथ कथित नीची जातियों का बड़े पैमाने पर जुड़ना और  सिख धर्म के माध्यम से ब्राह्मणवादी वर्चस्व से छुटकारा पाने की आशा रखना  हिन्दू पहाड़ी राजाओं के लिए असहनीय था। कहलूर के राजा भीमचंद (शासनकाल-1665-1692) ने भंगाणी में गुरु गोबिंद सिंह से 1688 में युद्ध किया। भीम सिंह के उत्तराधिकारी अजमेर चंद ने अन्य हिन्दू राजाओं और औरंगजेब की सहायता लेकर गुरु गोबिंद सिंह पर तीन बार 1700,1703,1705 में आक्रमण किया।

यह जानना और भी रोचक है कि भंगाणी की इस लड़ाई में पीर बुद्धू शाह ने गुरु गोविंद सिंह की ओर से युद्ध किया था और उन्हें विजय दिलाई थी। इस लड़ाई में पीर बुद्धू शाह ने अपने  दो पुत्रों अशरफ शाह और मोहम्मद शाह तथा भ्राता भूरे शाह सहित अपने 500 अनुयायियों को खोया था। बाद में 1704 में सढौरा के दरोगा उस्मान खां ने पीर बुद्धू शाह की सम्पूर्ण संपत्ति को आग के हवाले कर दिया तथा उन्हें छतबीड़ के जंगलों में ले जाकर उनके जिस्म के टुकड़े टुकड़े कर दिए।

यहां अनायास ही यह स्मरण हो आता है कि 1704 में वजीर खान की सेना से चमकौर में हुए युद्ध के बाद पलायन कर रहे गुरु गोबिंद सिंह को नबी खान और गनी खान नामक दो मुस्लिम भाइयों ने माछीवाड़ा में मुग़लों की घेरेबंदी से बचाने में अहम भूमिका निभाई थी।

यह विस्तृत विवेचन इसलिए किया गया है कि आम पाठक यह समझ सकें कि संदर्भों से कटा हुआ सरलीकृत इतिहास कितना भ्रामक और उत्तेजक हो सकता है, विशेषकर तब जब उसमें धार्मिक भावनाओं का तड़का लगा हुआ हो। जिस इतिहास को लेकर हम मरने मारने पर उतारू हैं वह या तो शासकों( मुग़ल, राजपूत, सिख आदि आदि) के दरबारी विद्वानों द्वारा लिखे गए चाटुकारिता प्रधान और अतिरंजनापूर्ण  वृत्तांतों के रूप में है या धर्म परंपरा में वर्णित कथाओं एवं आख्यानों के रूप में है जिनमें आस्था और भावना को प्रधानता दी गई है और जिनमें कल्पना का अपरिहार्य मिश्रण है। कुछ यात्रा वृत्तांत भी हैं जो तत्कालीन परिस्थितियों का वैसा ही चित्रण करते हैं जैसा कोई दूर देश से आया अनभिज्ञ पथिक कर सकता है।

बाद में औपनिवेशिक शासन प्रारंभ होता है और अंग्रेज एवं अन्य यूरोपीय इतिहासकार भारत की परिस्थितियों के विषय में लिखते हैं। इन्हें भी केवल इसलिए तटस्थ नहीं माना जा सकता कि ये इतिहास लेखन की कदरन वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित पद्धति का आश्रय लेते हैं। इनका मूल उद्देश्य यह रहा है कि वे अपने औपनिवेशिक शासन को न्यायोचित सिद्ध करें और ऐसा शासित देश को पिछड़ा और असभ्य सिद्ध कर ही संभव हो सकता है। फिर इन विद्वानों के सामने भाषा और संस्कृति संबंधी दिक्कतें तो थीं हीं।

यह इतिहास की विचित्रता है कि पक्षपात, भावना, अतिरंजना, कल्पना आदि जिन दोषों को इतिहास लेखन के लिए घातक माना जाता है बिना उनका आश्रय लिए इतिहास लिखा भी नहीं जा सकता। 

मध्यकालीन भारत के इस इतिहास में हाड़ मांस के बने हुए बादशाह और राजे महाराजे हैं जिनकी अतिसामान्य कमजोरियों और अनेक बार गर्हित प्रवृत्तियों का शिकार बनने के लिए आम जन अभिशप्त हैं। क्रोध, घृणा, हिंसा, बैर, छल, कपट, वासना, व्यभिचार, प्रतिशोध, सत्ता लोलुपता आदि से संचालित यह राज पुरुष सौभाग्यशाली रहे हैं कि अब तक हम इन पर चर्चा कर रहे हैं। 

यदि धर्म को मध्य काल की निर्णायक शक्ति नहीं भी मानें तब भी इसके प्रभाव को कम कर आंकना भूल होगी। किंतु धर्म बहुत कम बार शांति और प्रेम की स्थापना करता दिखता है। यह निकृष्ट कारणों(सत्ता विस्तार की भूख, उत्तराधिकार विषयक झगड़े आदि आदि) से हुए विवादों और युद्धों को उदात्तता का एक भ्रामक आवरण पहनाने में सहायक अवश्य रहा है। यह हिंसा रोकने का नहीं इसे महिमामण्डित करने का जरिया जरूर बना है।

सिख धर्म अपने पूर्ववर्ती अनेक धर्मों की भांति एक विद्रोही तेवर लिए ताज़ा हवा के झोंके की भांति आता है। स्थापित धर्म इस्लाम एवं हिन्दू धर्म- जिनकी जकड़न को यह तोड़ना चाहता है, अपने वर्चस्व पर इसके अतिक्रमण से नाखुश हैं। किंतु जैसा हर धर्म के साथ होता है(और यह दोष नहीं शायद धर्म की अनिवार्य परिणति है) कि सिख धर्म धीरे धीरे संस्थागत धर्म का रूप ले लेता है। हम देखते हैं कि गुरु पद के महत्व को देखकर अनेक निकट संबंधियों की महत्वाकांक्षा जाग्रत होती है और उत्तराधिकार को लेकर विवाद उत्पन्न होते हैं। यह असंतुष्ट परिजन षड्यंत्र रचते हैं और मुग़ल शासकों से जा मिलते हैं। 

इधर सिख समुदाय का सैन्यकरण होता है और एक विशाल वीर और जुझारू समाज तैयार होता है। मुग़ल और हिंदू शासकों से असंतुष्ट लोग इसके तले लामबंद होना चाहते हैं।कभी मुग़ल शासक इनकी वीरता से भयभीत होकर इनका दमन करने की कोशिश करते हैं तो कभी इनकी वीरता का उपयोग अपने शत्रुओं को कुचलने के लिए करने हेतु इनसे रणनीतिक मैत्री कर लेते हैं। यही रणनीति हिन्दू शासक भी अपनाते हैं। जब गुरु के पद में धार्मिक-आध्यात्मिक शक्तियों के अतिरिक्त राजनीतिक और सैन्य शक्तियां भी अंतर्निहित हो जाती हैं तब स्वाभाविक रूप से इन्हें सत्ता संघर्ष और युद्ध का हिस्सा बनना पड़ता है। सत्ता संघर्ष और युद्ध का अपना व्याकरण है और दुर्भाग्य से इसमें आध्यात्मिकता के लिए कोई स्थान नहीं है।

यूरोपीय मध्यकाल में सत्ता संघर्ष, उत्तराधिकार और धर्म युद्धों की कॉकटेल देखने को मिली थी। यहां भी मामला थोड़े बहुत हेरफेर के साथ वैसा ही है।

(लेखक स्वतंत्र विचारक और टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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