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भारत के 'सर्विलांस स्टेट' का भयावह ढांचा

अब तक भीमा कोरेगांव मामले में जितनी प्रगति हुई है, उससे इस दावे को बल मिलता है कि रोना विल्सन के कंप्यूटर में मालवेयर डाला गया था।
Rona Wilson

10 फरवरी को रोना विल्सन ने भीमा कोरेगांव / ऐल्गार परिषद मामले में अपने खिलाफ़ दायर मुकदमे को रद्द करने की मांग के साथ बॉम्बे हाईकोर्ट में अपील दायर की है। बता दें रोना विल्सन सामाजिक कार्यकर्ताओं के उस पहले समूह में शामिल थे, जिन्हें ऐल्गार परिषद केस में गिरफ़्तार किया गया था। उनके समर्थन में उनके वकील ने एक फॉरेंसिक रिपोर्ट पेश की, जिसमें बताया गया कि विल्सन के खिलाफ़ सबूतों को उनके लैपटॉप में मालवेयर का इस्तेमाल कर डाला गया था।

यह रिपोर्ट मैसाचुसेट्स स्थित प्रतिष्ठित आर्सेनल कम्यूटिंग ने बनाई है। रिपोर्ट के मुताबिक़ विल्सन के कंप्यूटर को जब्त किए जाने से करीब़ दो साल पहले उसमें छेड़खानी की गई थी। विल्सन 'कमेटी फॉर द रिलीज़ ऑफ पॉलिटिकल प्रिज़नर्स' और दलित अधिकार कार्यकर्ता हैं। जिससे पहले हम बात करें कि फॉरेंसिक एनालिस्ट की खोज में क्या निकला, उससे पहले कुछ पृष्ठभूमि बताना जरूरी है।

31 दिसंबर, 2017 को पुणे में ऐल्गार परिषद के बैनर तले कुछ कार्यक्रम हुए थे, जिनमें हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों ने भी हिस्सा लिया था। यहां भाषण दिए गए और कई सांस्कृति कार्यक्रम संपन्न हुए। इनमें से ज़्यादातर में दलितों के उत्पीड़न की बात की गई और विरोध दर्ज करवाया गया। कार्यक्रमों में संघ परिवार की उच्च जाति वर्ग और बहुसंख्यक राजनीतिक विचारधारा की। यह कार्यक्रम आसानी से संपन्न हो गए।

अगले दिन 1 जनवरी, 2018 को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगांव में इकट्ठे हुए, जो पुणे से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित है। यहां वे अंग्रेजों के गठबंधन वाली दलित महार रेजीमेंट की मराठा पेशवा पर जीत के दो सौ साल पूरे होने पर जश्न मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे। लेकिन इस दलित समायोजन में संघ परिवार के गुंडों ने खलबली मचा दी। उस दौरान जो हिंसा हुई, उसके जवाब में प्रदेश भर में हिंसा हुई और दलित समूहों ने पूरे महाराष्ट्र में बंद का आयोजन किया। 

पुणे पुलिस ने शुरुआत में जो जांच शुरू की, उसका केंद्र हिंदुत्ववादी समूह थे। पुलिस द्वारा गठित एक उच्चसमिति भी इस नतीज़े पर पहुंची थी कि हिंदुत्व से संबंधित समूहों ने हिंसा के लिए लोगों को उकसाया था। इसमें मुख्यत: दो लोग- मिलिंद एकबोटे, जो दो कट्टरपंथी समूहों के अध्यक्ष हैं और शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के मुखिया मनोहर भिड़े ऊर्फ संभाजी भि़ड़े को इस उकसावे का सूत्रधार बताया गया। भिड़े राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य भी रह चुके हैं।

आश्चर्यजनक तौर पर यहां पुणे पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया। सुप्रीम कोर्ट ने जब पुलिस को बाध्य किया, तब एकबोटे को गिरफ्तार किया गया। लेकिन तब भी गुरुजी के नाम से ख्यात भिड़े से सवाल-जवाब तक नहीं किए गए। भिड़े को प्रधानमंत्री मोदी का करीबी माना जाता है। प्रधानमंत्री उनका बहुत मान करते हैं।

जल्द ही पुणे पुलिस ने जांच में एक नया आयाम खोल दिया। अब पुलिस हिंदुत्व समूहों के बजाए 'अर्बन नक्सल' पर केंद्रित हो गई, जो कथित तौर पर कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) से जुड़े हुए थे। आरोप लगाया गया कि यही लोग हिंसा में शामिल थे। कहा गया कि यह लोग प्रधानमंत्री मोदी की हत्या करने की मंशा रखते थे। 

अब तक इस मामले में 16 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं। जिन लोगों को हिरासत में लिया गया, वे सभी सामाजिक कार्यकर्ता थे, जो दलितों से लेकर वंचित समूहों के लिए काम करते थे। सामाजिक कार्यकर्ता होने के अलावा हिरासत में लिए गए लोगों में से कुछ वकील, कुछ अकादमिक जगत से जुड़े लोग और सांस्कृतिक कार्यों से जुड़े लोग थे। इनमें से झारखंड के फादर स्टेन स्वामी अपनी उम्र के नौवें दशक में चल रहे हैं। जिन लोगों को शुरुआत में निशाना बनाया गया, उनमें विल्सन शामिल थे। विल्सन के अलावा महेश राउत, सुरेंद्र गाडलिंग, शोमा सेन और सुधीर धवाले को 6 जून, 2018 को गिरफ्तार किया गया था।

दूसरे दौर में पुणे पुलिस ने देशव्यापी भयावह छापेमारी की, जिनमें करीब़ 80 साल के लेखक-कवि वरवर राव, वकील सुधा भारद्वाज और अरुण फरेरा, अकादमिक जगत से जुड़े वर्नान गोंजाल्वेज़ और गौतम नवलखा को निशाना बनाया गया। बाकी लोगों की गिरफ़्तारी व्यक्तिगत आधार पर की गई।

इस पृष्ठभूमि को बताने की वज़ह है। इससे विल्सन के दावों को वज़न मिलता है। यहां मुख्य बात यह है कि हिंदुत्व के हमलावर दस्ते, जिन्होंने भीमा कोरेगांव में हिंसा फैलाई, उन्हें आसानी से छोड़ दिया गया (यह उस वक़्त की बात है, अब हालांकि इनसे जुड़े मामलों को फिर से खोला जा रहा है)। फिर जिन लोगों की मूर्खतापूर्ण ढंग से 'अर्बन नक्सल' कहकर निंदा की जा रही थी, उन्हें योजनागत तरीके से उस कार्यक्रम से जोड़कर फंसाया गया, जिससे उनका कुछ लेना-देना ही नहीं था।

यहां आर्सेनल कंस्लटिंग बताती है कि उन्होंने इस बात के फॉरेंसिक सबूत पाए हैं कि किसी ने वरवर राव का मेल अकाउंट उपयोग कर विल्सन को कई सारे ई-मेल भेजे। जब विल्सन ने एक खास दस्तावेज को खोला, तो उसके ज़रिए विल्सन के कंप्यूटर में एक मालवेयर छुपा दिया गया। इससे विल्सन के कंप्यूटर का नियंत्रण हैकर को मिल गया और उसने विल्सन को फंसाने वाले दस्तावेज़ कंप्यूटर में इस तरीके से छुपा दिए, जिनका पता विल्सन को न चल पाए। यह लगभग दो साल पहले हुआ था। जब पुलिस ने विल्सन का कंप्यूटर जब़्त किया, तो इन दस्तावेज़ों को पुलिस ने सबूत के तौर पर जब़्त कर लिया।

पूरे मामले की जांच NIA के पास है। एजेंसी का दावा है कि रीजनल फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी, पुणे ने इन दस्तावेज़ों के सही होने को प्रमाणित किया था। मौजूदा सत्ता ने जिस तरह से ज़्यादातर संस्थानों का व्यवहारिक तरीके से दमन किया है, उसे देखते हुए लैब द्वारा यह प्रमाणीकरण संदिग्ध नज़र आता है। खैर, अब हम यहां इस मामले में स्वतंत्र पुष्टि जैसी अहम चीज पर नज़र डालते हैं।

आर्सेनल के खुलासे के बाद द वाशिंगटन पोस्ट ने तीन विशेषज्ञों से इन खुलासों के बारे में पूछा। उन सभी ने कहा कि "यह खुलासे सही नजर" आ रहे हैं। 16 फरवरी को एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी के जेदिदिआह क्रैंडाल ने एक ऑनलाइन न्यूज़ कांफ्रेंस को बताया, "रिपोर्ट इस नतीज़े पर पहुंचती है कि मालवेयर का इस्तेमाल कर फंसाने वाले दस्तावेज़ को कंप्यूटर में डाला गया और इसमें कोई शक की बात या व्याख्या के लिए जगह भी नहीं है।" क्रैंडाल का कंप्यूटर सिस्टम और साइबर सिक्योरिटी, सर्विलांस और इंटरनेट आज़ादी को ख़तरा पैदा करने वाली चीजों का विश्लेषण करने का इतिहास रहा है।

रिपोर्टों के मुताबिक़ फादर स्टेन स्वामी ने भी NIA के अधिकारियों को पूछताछ में बताया है कि कुछ दस्तावेज़ों को अनैतिक तरीके से उनके कंप्यूटर में कम से कम तीन बार डाला गया है। NIA के अधिकारियों ने उन्हें जो भी दस्तावेज़ बताए, उन्होंने उनमें से किसी की भी जानकारी से इंकार किया है।

लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं था। एमनेस्टी इंटरनेशनल और टोरंटो यूनिवर्सिटी की वॉचडॉग, सिटीजन लैब ने एक खुलासे में बताया था कि 2019 में अनगिनत भारतीय नागरिकों पर स्पाइवेयर ऑपरेशन चलाए गए थे, इन भारतीयों में 9 मानवाधिकार कार्यकर्ता भी शामिल थे। इन 9 लोगों में 8 कार्यकर्ता हिरासत में रखे गए 16 सामाजिक कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए अभियान भी चला रहे हैं। साथ में यह भी पता चला था कि उसी साल इज़रायली सॉफ्टवेयर पेगासस के ज़रिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर निगरानी रखी गई थी, इसके लिए वॉट्सऐप के ज़रिए उनके मोबाइल फोन को हैक किया गया था।

कानूनी मुक़दमे के जवाब में पेगासस को बनाने वाले NSO समूह ने कहा था कि स्पाइवेयर को केवल सरकारों को ही बेचा जाता है। इस गैरकानूनी सर्विलांस के बारे में सवाल उठाए जाने पर सूचना एवम प्रसारण मंत्री रविशंकर प्रसाद बस इतना ही कह पाए थे कि "मेरी जानकारी के हिसाब से किसी भी तरह का अनाधिकृत अवरोधन नहीं किया गया।"

इस बेहद गोलमोल जवाब से कुछ अंदाजे लगाए जा सकते हैं। पहला इस बात की संभावना बनती है कि मौजूदा सरकार अपनी विचारधारा से असहमत और अपने हितों के लिए मुफ़ीद न मानने वाले लोगों की गैरकानूनी निगरानी रखवाती है। दूसरा, भीमा कोरेगांव/ऐल्गार परिषद मामले के दो लक्ष्य हो सकते हैं: 2018 में दंगे करवाने वाली हिंदुत्व बिग्रेड को बचाना और इस मौके का फायदा उठाकर खुद से असहमत लोगों को प्रताड़ित करना।

यह दोनों ही नतीज़े मौजूदा सत्ता की बुनियादी विशेषताओं और लक्ष्यों के साथ मेल खाते हैं: मतलब यह अंसवैधानिक है और इसका लक्ष्य भारत में एक पार्टी की तानाशाह सत्ता स्थापित करना है और यह सत्ता ज़हरीली, एकरूपी और बहुसंख्यक विचारधारा पर आधारित हिंदुत्व से संचालित होगी।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधार्थी हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Sinister Designs of India’s Surveillance State

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