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बड़े ख़तरों से घिरे छोटे किसान  
दसवीं कृषि जनगणना के अनुसार देश में छोटे और सीमांत किसानों की संख्या 2010-11 की तुलना में 2015-16 में थोड़ी और बढ़ गई है। 2010-11 की तुलना में लघु और सीमांत जोत (दो हेक्टेयर से नीचे) 1.2 प्रतिशत की वृद्धि के साथ अब कुल भूमि जोत का 86.21% है। ये छोटे किसान ही आज सबसे बड़े खतरों के बीच फंसे हैं।
राकेश सिंह
24 Feb 2020
किसान
Image courtesy: Twitter

दसवीं कृषि जनगणना के अनुसार देश में छोटे और सीमांत किसानों की संख्या 2010-11 की तुलना में 2015-16 में थोड़ी और बढ़ गई है। 2010-11 की तुलना में लघु और सीमांत जोत (दो हेक्टेयर से नीचे) 1.2 प्रतिशत की वृद्धि के साथ अब कुल भूमि जोत का 86.21% है। ये छोटे और सीमांत किसान ही आज सबसे बड़े खतरों के बीच फंसे हैं। इन किसानों की आजीविका ज्यादा निवेश, ज्यादा श्रम और मूल्यों के उतार-चढ़ावों से सबसे अधिक खतरों से घिरी हुई है। ये खासतौर से उल्लेखनीय है कि सभी किसानों में केवल 9% ही बड़े भू-स्वामी के दायरे में आते हैं।

विशेष रूप से शहरी इलाकों के करीब रहने वाले कई किसानों ने सब्जियों, फलों, डेयरी, पोल्ट्री और दालों जैसे उच्च मूल्य वाले उत्पादों में विविधता लाकर अपनी आय में सुधार किया है। लेकिन अब मूल्य अस्थिरता के कारण वे भी संकट से घिरे हैं। हाल के वर्षों में तीन आम सब्जियों-प्याज,आलू और टमाटर की कीमतों में उत्पादन के आधार पर बेहिसाब  उतार-चढ़ाव हुए हैं।

वित्त मंत्री ने 2020 के बजट भाषण में गर्व के साथ बताया कि देश में सब्जी और फलों का उत्पादन 311 मीलियन मीट्रिक टन तक पहुंच गया है। इसने अब खाद्यान्न के उत्पादन को पीछे छोड़ दिया है। जबकि देश में भंडार गृहों, शीत गृहों और माल ढुलाई वैन की अनुमानित क्षमता केवल 162 मीलियन मीट्रिक टन ही है। भंडारण और परिवहन के लिए सुविधाओं की कमी और निर्यात के लिए सक्षम नहीं होने के कारण इन किसानों की आय जोखिमों से भर गई है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च 2016 में 2022 तक किसानो की आय को दोगुना करने का लक्ष्य घोषित किया था। इसके बावजूद केंद्र और राज्य सरकारों ने किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में तुच्छ घोषणाओं के अलावा शायद ही कोई बड़ा कदम उठाया है। कृषि संकट के संकेत हर जगह हैं। इसके कारण विविध और जटिल हैं। लेकिन भारत की सरकार कृषि संकट के समाधानों पर असंवेदनशील बनी हुई हैं।

भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण 2016 में बताया गया कि 17 राज्यों या कह सकते हैं कि भारत के आधे हिस्से में किसान परिवारों की औसत वार्षिक आय 20,000 रुपये है। इस तरह देखा जाये तो ये केवल 1,700 रुपये प्रति माह है। जरा खुद सोचिए कि एक किसान परिवार ऐसी हालत में कैसे जीवन बिता रहा होगा? अगर इसे दोगुना कर भी दिया गया तो भी किसानों के हालात शायद ही बदल सके।

हरित क्रांति के तौर-तरीकों से करोड़ों छोटे किसान पीछे रह गए। इनमें ज्यादातर पिछड़े इलाकों में दो से चार एकड़ के किसान हैं। वे बुनियादी सुविधाओं, प्रौद्योगिकी, कर्ज और बाजारों तक बहुत पहुंच से वंचित हैं। उनकी खेती की लागत ज्यादा और आय कम है। वे कुछ दूसरे अन्य कामों से अपना निर्वाह कर पाते हैं। 2018 के इकोनॉमिक सर्वे के हिसाब से कुल फसली क्षेत्र का 50 प्रतिशत गैर-सिंचित हैं। सिंचित क्षेत्रों की तुलना में गैर-सिंचित खेत में ज्यादा या कम बारिश के कारण फसल और राजस्व का नुकसान लगभग दोगुना हो जाता है।

हरित क्रांति तकनीक अब कम आर्थिक लाभ देने वाली और बढ़ते पर्यावरण विनाश एक बड़ा कारण बन गई है। इससे गेहूं और चावल के उत्पादन में भले ही भारी वृद्धि हुई है, लेकिन आज कई क्षेत्रों में ये फसलें उर्वरक और भूजल सिंचाई के भारी उपयोग पर निर्भर हैं। इससे मिट्टी की गुणवत्ता खराब हो गई है और भूजल के स्तर में भारी गिरावट आई है। सबसे बड़ी विडंबना ये है कि सरकारी खरीद और समर्थन मूल्य की नीतियां अब भी किसानों को दूसरी  फसलों की ओर जाने से रोकती हैं।

अधिक और कम फसल उत्पादन के चक्र के कारण अचानक मूल्य के बार-बार उतार-चढ़ाव ने कृषि क्षेत्र के संकट को गहरा कर दिया है। किसानों की कर्ज तक पहुंच बढ़ाने, मौसम और अन्य जोखिमों के खिलाफ फसल बीमा या  एक राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक बाज़ार (eNAM) और छोटे किसानों के लिए मामूली 500 रुपये महीने का प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसी पहलों का प्रभाव सीमित है। भारत में किसानों को उचित आय केवल फसलों के सही दाम उपलब्ध कराकर ही दिलाई जा सकती है।

भारत की कृषि के सामने आसन्न जलवायु परिवर्तन भी एक बड़ा संकट है। 2030 तक भारत की कृषि पर मौसम की बदलाव का असर साफ हो जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने के साथ ही गेहूं की उपज में गिरावट आने की आशंका है। मौसम के बदलाव से इन किसानों की फसलें खासकर सब्जियां और फल सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। 2019 के मानसून ने किसानों पर औसत से ज्यादा बारिश के कुछ दुष्प्रभाव को स्पष्ट कर दिया है। इससे महाराष्ट्र में गन्ना उत्पादन प्रभावित हुआ है। दूसरी तरफ धान और गेहूं की बंपर पैदावार का अनुमान सरकार ने घोषित किया है।

प्याज की फसल के खराब होने से उपभोक्ताओं को उसकी कीमत का अंदाजा हुआ और आलू भी लगातार ऊंची कीमत पर बिक रहा है। इसके अलावा जब प्याज की कीमत आसमान छू रही थी तो पोल्ट्री प्रोडक्ट्स जैसे चिकन के दामों में गिरावट देखी गई। अभी चीन में कोरोनावायरस के फैलने के बाद पूरे देश में मांसाहार के प्रति सतर्कता बढ़ी है। इससे चिकन के दामों पर असर पड़ा है। ऐसे में अपनी आय को बढ़ाने के लिए उच्च मूल्य वाले उत्पादों की तरफ बढ़ रहे किसानों के सामने भी संकट गहरा चुका है। इनकी लागत में कोई कमी नहीं आई है और दाम किसी न किसी कारण से गिरे हैं।

अगर महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित रखना है तो भूमि और पानी के उपयोग की दक्षता में सुधार करने के लिए नीतियां जरूरी हैं। भारत को प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के हिसाब से नई कृषि नीतियों के बारे में सोचना होगा। भूमि और जल दुर्लभ संसाधन हैं। देश के सभी जल उपयोग का 80% हिस्सा कृषि में होता है और ये जल संरक्षण के लिए सबसे बड़ा खतरा है।  

भारतीय कृषि अब उत्पादकता की कमी नहीं बल्कि बाजार की विकृतियों, बुनियादी ढांचे की कमी, नीतिगत विफलताओं, जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव, गरीबी और पोषण में गिरावट जैसी चुनौतियों से जूझ रही है। आज का संकट 1960 के दशक से अलग है। तब मुख्य चुनौती खाद्य उत्पादन को बढ़ाना थी। तब गेहूं और चावल के कम उत्पादन का मतलब भारत के सभी लोगों को पूरा भोजन देने में विफलता था। आज संकट खेती की आय का बिल्कुल नहीं बढ़ना और स्थिर हो जाना है। अब सूखा के बजाय बाजार में सही दाम नहीं मिलना, कृषि की आर्थिक व्यवहार्यता के लिए ज्यादा बड़ा खतरा पैदा कर रहा है।

भारत के 80 प्रतिशत गरीब ग्रामीण क्षेत्रों में हैं और उनमें से अधिकांश खेती में लगे हुए हैं। इसलिए गरीबी में कमी के लिए भी किसानों की आय को बढ़ाना सबसे जरूरी है। भारत को एक बार फिर कृषि को अपने राष्ट्रीय एजेंडे में सबसे ऊपर रखने और नए दृष्टिकोण को अपनाकर नीतियों को सही दिशा में केंद्रित करने की जरूरत है। जैसा कि 50 साल पहले हरित क्रांति के रूप में किया गया था।

भारत का कृषि क्षेत्र सीधे तौर पर आधी आबादी की आजीविका, सभी भारतीयों की पोषण संबंधी जरूरतों और देश की दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा से जुड़ा है। 50 साल पहले भारत सरकार ने कृषि में सुधारों के लिए मौलिक और दूरगामी उपायों से भूख और अकाल के संकट का जवाब दिया था। आज चुनौतियां अलग हैं। लेकिन ये नए सुधारों के लिए एक बड़ा अवसर भी है। सरकार अगर करना चाहे को वह देश की कृषि में एक स्थायी और दूरगामी बदलाव ला सकती है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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